Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
( शान्तिसुधासिन्धु )
ही अशुद्ध माना जाता है । परन्तु वह अशुद्ध मुवर्ण अग्निके मयोगसे अत्यन्त शुद्ध हो जाता है । इसी प्रकार यह आत्मा कर्मोके सम्बन्धम अनादिकालसे अशुद्ध हो रहा है । कोका सम्बन्ध अनादिकालने लगा हुआ है इसलिए अनादिकालसे ही यह जीव अशुद्ध हो रहा है । जब यह जीव ध्यानरूप अग्निके द्वारा ममस्त कर्मोको नष्ट कर देता है और पर सम्बन्धसे सर्वथा भिन्न हो जाता है, तब यह जीव अत्यन्त शुद्ध हो जाता है। इस संसारमें यह जीव जो अनेक प्रकारके दुःख भोग रहा है बह कर्मोके उदयसे ही भोग रहा है । यदि इस जीवके साथ कर्म न रहें तो यह जीव अपने स्वाभाविक स्वरूपमें हो जाता है और फिर शुद्ध चैतन्यस्वरूप अनन्तसुखमय हो जाता है। इसलिए प्रत्येक चतुर पुरुषको अपना प्रमाद छोडकर अपने आत्माके अनन्त सुखमय कल्याणमें लग जाना चाहिए।
प्रश्न वपुःसंगोत्कथं जीवोऽशुद्धो 'भ्रमति भूतले ?
अर्थ- हे प्रभो ! अब कृपाकर यह बतलाइये कि शरीरके बंधनसे यह जीव किस प्रकार से अशुद्ध हो जाता है और क्यों इस मंसारमें परिभ्रमण करता है ? उत्तर -संसर्गतो हमलोमसस्त्र,
शुद्धः पदार्थोपि भवेदशुद्धः। वस्त्रानपानं च विपनादिरत्यंनिद्यश्च विवर्जनीयः ॥ ६१॥ जोबोपि तत्संगवशात्प्रमूढो, भूत्वा भवाब्धौ भ्रमतीह भीमे । त्याज्यश्च बुद्ध्वेति वपुःप्रसंगः, स्वराज्यतोश्च विचारशीलैः ॥ ६२ ॥
अर्थ-देखो, इस शरीरको मलिनताके संबंधमे अन्न पान वस्त्र चन्दन आदि जितने शुद्ध पदार्थ हैं वे सब अत्यंन अशुद्ध अत्यंन निंदनीय और त्याग करने योग्य हो जाते हैं । इसी प्रकार ये संसारी जीव भी इस शरीरके सम्बन्धसे अत्यंत अशानी होकर इस भयानक संसाररूपी
निट