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NIVERSITY
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ALLAHABA
आचारकांड- दूसरा अध्याय
( भगवती की साधना )
साधना और आराधना
किसी वस्तु को सिद्ध करने का प्रयत्न साधना है । भगवती अहिंसा की साधना का मतलब है कि हम अपना जीवन ऐसा बनावें जिससे हम पर भगवती की कृपा हो और जगत् में सुख वृद्धि हो । दूसरे शब्दों में यो कहना चाहिये कि अपना जीवन विश्वकल्याण के लिये उपयोगी बनाना भगवती की साधना है । हम स्वयं सदाचारी बनें जगत् को सदाचारी बनाने का प्रयत्न करें दुराचार का प्रसार न होने दें उसे हटाने का प्रयत्न करें यह सब भगवती अहिंसा की साधना है ।
भगवती के गीत गाना उसकी मूर्ति बनाना उसे प्रणाम करना आदि भगवती की साधना नहीं है वह तो सिर्फ आराधना या पूजा है । आराधना साधना की तरफ प्रेरणा करती है परन्तु जितने अंश में साधना की तरफ प्रेरणा है उतने ही अंश में आराधना की सार्थकता है। आराधना व्यवहार का विषय है और साधना आचार का इसलिये यहां माधना का ही वर्णन किया जाता है ।
ईश्वर और शैतान
भगवती अहिंसा की साधना का वर्णन करने के पहिले कुछ भेद प्रभेदों का समझ लेना जरूरी है क्योंकि उसकी साधना का रूप तभी अच्छी तरह समझा जा सकेगा ।
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आध्यामिक विश्व दो भागों में विभक्त है एक सत् अर्थात् ईश्वर दूसरा असत् अर्थात् पाप या शैतान । ईश्वर के दोरूप हैं भगवान सत्य और भगवती अहिंसा । पाप या शैतान के दो रूप हैं पापी मिध्यात्व और पापिनी हिंसा । दृष्टिकांड में भगवान सत्य का वर्णन विस्तार से हुआ है। उसके विरुद्ध जो विचार या श्रद्धा आदि है वही पापी मिध्यात्व है । भगवती अहिंसा और पापिनी हिंसा का वर्णन इस आचार कांड में किया जा रहा है 1
यह कहा जा चुका है के लिये उपयोगी समस्त ब्राह्म अभ्यन्तर । कायिक मानसिक) आचार के समुदाय को भगवती अहिंसा कहते हैं इसका मतलब यह हुआ कि विश्वकल्याण के विरोधी समस्त बाह्य आभ्यन्तर आचार को पापिनी हिंसा कहते है ।