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भगवती के उपांग
, और उसके बाद उ नका जो उन्ना
३ निरतिग्रह धिकारी बने उस लिई सूचना कर दी जाय। धन सम्पत्ति का अधिक संग्रह न करना सांहकारी जिन्न जाखम में डागी व्याज
नितिग्रह है। अतिग्रह भी एक उपपाप है क्यों कि उतना ही अधिक होगा । इसलिये कोशिश यह
इसमे दुनिया में गरीबी फेलती है और धन के पाले होना चाहिये कि न तो कानूनी आई में साहु
बहत से पाप और अनर्थ हुआ करते हैं । कारी डब जाय, न अपनी इच्छा ना दुहाई देकर
प्रश्न - किसी आदमी ने कानून और समाजके कोई मनमाना ब्याज ले सके । हां, साहुकारी
नियमों के भीतर रहकर धन कमाया हो और वह
किसी को न देना चाहे न खर्च करना चाहे वह का अधिकांश कार्य सरकारी बैंकों के हाथ में
उसे अपने पास ही रखना चाहे ते। इसमें क्या हो, यह अच्छा है।
दोप है जिससे आप अतिग्रह को उपपाप कहते हैं । खर, सामाजिक व्यवस्था सी भी हो अधिक
उत्तर - मनुष्य जन्मसे नंगा आता है और ब्याज न लेना चाहिये । अधिक ज लेना
ना खाली जाता है । जीवन-निर्वाह के लिये दुनिया
की दौलत का हिस्सा उसे मिलता है। किसी दुर्जन का त्याग करके मन्म्य का दर्जन को अधिक हिस्सा लेने का हक नहीं है, जो ही करना चाहिये। किसी तरह धन कमानेसे लेता है वह एक तरह से चोरी करता है। अगर जीवन की सफरता नहीं होती, धन इस तरह किसी के पास अधिक हिस्ता दिखाई देता है कमाना चाहिये जिससे हमारा भी लाभ हो और और उसका यह मालिक कहता है तो दुनिया भी लाभ हो । मुट्ठीनर आट तो मनष्; उसके दो कारण होना चहिये । एक तो यह जिन्दा रह सकता है और इसके लिए दर्शन कि समाज सेवा के लिये वह चीज आवश्यक हो, की ज़रूरत नहीं है, तब क्यों मनुष्ा दुरर्जन करे।
र जैसे एक विद्वान के पास हजार रूपये की पुस्तके दुरर्जन में हम दुनरों को पीसते हैं और दृमः ।।
हैं इतनी पुस्तमें या इतने मूल्य की अन्य चीजें
बहुतों के पास न होगी फिर भी यह संग्रः आंतहमें पीसते हैं। दूसरे पचास आदमियों को पीसने से
संग्रह नहीं है क्योंकि वह धनी कहलाने के लिये हमें उतना सुख नहीं मिलसकता जितना दुःख
है । दूसरा कारण यह हो सकता है कि मेरी सेवा अपने को थोड़े रूपमें पिसवा डालनेसे। इसलिए हम अधिक कीमती हो और उसका बदला आया हा हमरो की रक्षा करें, दूसरे हमारी रक्षा करें, सब इसलिये धन रुक रहा हो । कुछ समय तक चैन से रहें ऐसी ही नीति होना चाहिये । दुरर्जन यह रुकावट क्षम्य हो सकती है । इन दो कारणों से आर्थिक जगत में जो हाय हाय मचती है के सिवाय अगर मनुष्य धन संग्रह करता है तो उससे दुनियामें वैभव के बढ़नेपर भी कंगालियत अन्याय करता है। तुमने अगर सेवा अधिक की
और अशान्ति दिखाई देती है। अगर दुरर्जन है तो इसके बदले में अधिक सेवा लेलो पर न हो तो इतने वैभव में जगत इतना अच्छा हो दूसरों की खुराक दबाकर बैठ जाने का तुम्हें कोई कि कंगाली दिखाई भी न दे।
अधिकार नहीं है । एक कुटुम्ब में बहुत स भाई