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सत्यामृत
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मांसभक्षण करते हुए भी किपी में अकषायता उपांगो में किया गया है उसके अनुसार अ विवेक लोककल्याण आदि के दूसरे रूप इतने हों करना चाहिये। कि उसका जीवन विकास मांसभक्षण न करनेवाले
८र्भािर बहुत से मनुष्यों से भी महान हो ।
अतिसंग्रह न करनेवाला नितिग्रही . यही कारण है कि राम कृष्ण महावीर बुद्ध कहलाता है । निरतिग्रह और अतिग्रह का ईसा मुहम्मद आदि महात्माओं की तुलना सिर्फ चन पहिले किया गया है । मनुष्य को । खानपान सम्बन्धी नियमों से ही नहीं की जा निर्वाह के लिये कुछ न कुछ इन्तजाम करन सकती । उनके देशकाल पर विचार करते हुए पड़ता है उसके लिये छः सूचनाएँ निरतिर उनके स्वार्थत्य ग लोककल्याण आदि का प्रकरण में बतलाई गई हैं उनके अनुसार । विचार करना पड़ेगा तब उनकी महत्ता ठीक रखने के सिवाय और तरह से सम्पत्ति संग्र टीक समझी जा सकेगी। ..
करना चाहिये। ____ आज जो यहां बारह श्रेणियां बनाई जाती
९दिव्याहारी हैं वह एक विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम की तरह अतिभोग न करनेवाला दिव्याहारी क एक विश्वचारित्रालय का आचार-क्रम है। आज है। अतिभोग का स्वरूप निरतिभोग के : के और खासकर यहां के मनुष्यों को इस विश्व में किया गया है। चारित्रालय से इस आचारक्रम के अनुसार पदवी
१० साधु लेना चाहिये । पर इसी माप से ऐतिहासिक महा- जो व्यक्ति अपनी जीवन और अपनी र पुरुषों को न मापना चाहिये ।
लोककल्याण के लिय अर्पित कर देता है, असली संयम स्त्रपरकल्याण की दृष्टि से लिये या अपनी संतान के लिये धनसंग्रह अपने जीवन को अधिक से अधिक पवित्र और लिये अपनी सेवाओ का मूल्य नहीं लेत उपयोगी बनाना है इसके लिये अनेक तरह के साधु है । बाह्याचारों का पालन होता है । व्यवहार में हमें पहले की नौ श्रेणियों का पालन कर उनका खयाल रखना पड़ता है पर व्यापक दृष्टि उसका जीवन सदाचारमय पवित्र तो होन से विचार करते समय हमें बाह्याचारों के आवरण है साथ ही विशे - रूपमें स्वापर कल्याणकारी के भीतर घुसकर असली संयम देखना है। पड़ेगा । बाह्याचारों से हमें सिर्फ व्यवहारोपयोगी प्रश्न-क्या साधु की परिभाषा इतनं प्रमाणपत्र मिल सकता है । सद्भोग आदि के विषय काफी है। क्या यह बताना जरूरी नहीं है कि में इसी दृष्टि से विचार करना चाहिये। कैसे कपड़े पहिने, गृहस्थ रहे या संन्यासी ७ सदाजीवक
चले या सवारी पर, भोजन बगैरह पकाये य जो छः प्रकार का दुर्जन नहीं करता, पकाये, रुपया पैसा रक्खे या न रक्खे, सा ईमानदारी से आजीविका करता है वह सदाजी- लिये इन सब मर्यादाओं का होना क्या । वक है । सदर्जन दुरर्जन का विवेचन भगवती के नहीं है।