Book Title: Satyamrut Achar Kand
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत मूल्य १ || ) [ मानव-धर्म-शास्त्र ] [ आचार-काण्ड ] GITY LIBRA ALLA प्रणेता दरबारीलाल सत्यभक्त संस्थापक सत्यसमाज Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो वर्ष हुए जब सत्यामृत का दृष्टिकाण्ड प्रकाशित हुआ था। तभी यह सूचना दे दी गई थी कि यमन के दो काण्ड और आचार काण्ड दूसरा व्यवहार काण्ड । हर्ष है कि आज भी हम आचार काण्ड को प्रकाश में ला रहे हैं। हमें आशा है कुछ समय बाद हम दुनिया को दे सकेंगे । सत्यामुतसम्मका मूल ग्रंथ है। कोई संकुचित सम्प्रदाय या मे नहीं है, न यह कोई राजनैतिक पार्टी है । यह तो ऐसा संगठन है जो धर्म समाज और राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में करतब विश्वप्रेम व मानव-धर्म के पवित्र सिद्धातों पर दुनिया का नब निर्माण करना चाहता है। तभी तो सत्यसमाज का यह महान ग्रंथ है। सत्य समाज के सदस्यों के ही नहीं प्रत्येक मानव के लिए, चाहे वह किसी भी धर्म संप्रदाय जाति या राष्ट्र से सम्बंध क्यों न रखता हो, यह ग्रंथ बहुत काम की चीज़ है, इसमें मानय समाज की अनेक जटिल समस्याओं को इतनी अच्छी तरह सुलझाया है कि साधारण शिक्षित व्यक्ति भी पढ़ने पर और साधारण समझदार अशिक्षित व्यक्ति भी सुनने पर उन को समझ सकता है । इसमें न कहीं शब्दजाल हैं, न कहीं भूल भुलैय्या है, न पुनरुक्ति के चक्कर है, यहाँ तो सीधे साधे स्पष्ट शब्दों मे बात कही गई है जो हृदय में पेटती चली जाती है । મૈં / साधारणतः आजकल क्रियाकाण्ड को आचार माना जाता है। यह बहुत बड़ी ग़लत फ़हमी है । आचार जीवन ही बहिरंग और अंतरंग शुद्ध है जो मनुष्य को और जगत को सुखी बनाती है। दुनिया के सुख में अपना सुख और दुनिया के दुख में अपना दुख मानकर दुनिया की भलाई के लिये कोशिश करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है । इसी दृष्टि को लेकर पूज्य सत्यभक्तजी ने इस महान ग्रंथ में आचार की गुत्थियाँ सुलझाई हैं तथा आचार की श्रेणियाँ आदि बताकर हर व्यक्ति को यह सुविधा दी है कि वह उन्हें पढ़कर अपनी शक्ति योग्यता और परिस्थिति के अनुकूल मार्ग चुनले और उसपर चलकर अपने को और जगत को सुखी बनाए । यह ग्रंथ कोरे पांडित्य का परिणाम नहीं है। यह तो अनुभवों और विचारों का निचोड़ है । एक महात्मा ही ऐसा अनुपम धर्मग्रंथ दुनिया को भेंट कर सकता है। यूँ तो सत्य इस ग्रंथ का प्रमाण है ही, पर पूज्य सत्यभक्तजी का महान् जीवन भी इस की प्रानाशिकता के लिये पेश किया जा सकता है । हम आशा करते हैं कि जिन व्यक्तियों के हाथों में यह ग्रन्थ-रन जायगा इसे पढेंगे, इस का मनन करेंगे, और इससे लाभ उठाकर अपने जीवन को उत्कर्ष की और ले जायेंगे । रघुवीर शरण दिवाकर 9 बी. ए., एल-एल. संपादक 'नई दुनिया' सत्याश्रम. वर्धा. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्यामृत (आचार कांड) विपय सुची पहिला अध्याय -भगवनी अहिंसा-पृ. २१२ से २२९ वर के दो पहछ । चाका लिंग ! अहिंसा की निषेधपरता । प्रवृत्ति निवृत्ति और उसकी आठ सूचना । प्रवृत्ति की ज़रूरत । परम स्वार्थी आदि सात उदार पद । त्रिविध प्रवृत्ति । प्रवृति के दस भेट , निर्णय निकष : भगवती का मातृन्त्र । दुसरा अध्याय -भगवती की मा ना-पृ. २३० से २८५ तक साधना और आराधनः । ईश्वर और शतान । व्यवहार पंचक । साधना के अंग । मनोवृति के वामद । नेजाया, धारा लहरी.कि कालिना । अकषायता का रूप । प्रेम और मोह । माप विनिमय अमाप विनिमय । कन्याणी देवी की कथा । प्रेमी पिता । मोहिनी माता । हिमोजा की कथा। निगममानना और उनके कगार विविध दृष्टान्त । अक्रोध निछलता । जीवन साधना और उसकी उदाण कराय। लोकमभको कामपा कुछ सूचनाएं। तीसरा अध्याय -भगवती के अंग-पृ. २८६ से ३४९ तक हिमा के भेद । संयम उपसंयम के भेद । प्राणघात । प्राणघात के तीन भेद । प्राण के चार भेद । प्रागधात के तेरह भेद । प्राणरक्षण व्रत | सात तरह का भघात । ईमान या अचौर्यव्रत, प्राणघातकी तेरह भेदों में इसका विवेचन । धनचौर, नाम चोर, उपकार चोर, उपयोग चोर । चोरी क टेगों मे-छन, नज़र, ठग, उद्घाटक, बलाद, घातक छः तरह के चोर।छन्न चोर के विविध भेद । सल्यबन । अभिधा लक्षण व्यजना । वाक्यों के नवभेद । पांच भाषा द्वार-शब्द स्वर चय अकृमि कृना अतथ्य के बाहभदा तथ्य के छः भेद । कथानकों के दस भेद । बौथा अध्याय -भगवती के उपांग-पृ. ३५० से ३८३ चार उपग । सद्भोग । तीन मुख्य दुर्भोग-व्यभिचार, मांसभक्षण, मद्यपान, । व्यभिचार की चार श्रेणियाँ । सदर्जन । दुरर्जन के छः भेद पाप जीविका, छलजीविका, जुवा, लाटरी का विचार, सहा, भिक्षा अधिक व्या निरनिमह निरतिभोग। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवाँ अध्याय - विशेष साधना तप – ३८४ मे ३९८ तप के ज्ञान चर्या आदि पाँचभेद । ज्ञान चर्या के आठ भेद । प्रायश्चित्तद्रुमरा तप और उसके आलोचन आदि चार भेद । प्रायश्चित्त और दंड का अन्तर । मया और तय | विनय तीसरा तप । विनय और शिष्टाचार भयको भेद प्रभेद । नत्र तरह के विनय पात्र | सात तरह का विजय परिचर्या चौथा तप । परिग्रह पांचवा तप | / छठ्ठा अध्याय - कल्याणपथ - ३९९ से ४३० बारह श्रेणियाँ। तीन आवश्यक तीन वन्दन । तीन अर्पण | धर्म समभाव, जातिसमभाव और सुधारकता की दम दस सूचनाएँ | दस अभ्यास धर्म । दान और त्याग । दान के चार प्रयोजनं । दान में विचारणीय विषय पात्र आदि का विवेक । पात्र के पांच भेद । ध्येय की दृष्टिसे दान के नव भेद | व्रती । सोगी । दानव । निर्भर । दिव्याहारी । साधु । तपस्वी । योगी चौदह स्थान । ज्ञानके दस स्थान । संयमस्थान और ज्ञानस्थानों का समन्वय । उपसंहार | Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400ameternetreeeeeeeeg PLN समर्पण ANABAD भगवती अहिंसा के चरणोंमें अनुज्ञायाचन भगवनि ! जगको तेरी कथा सुनाऊं। जलता है संसार आग में उस पर दो आँसू टपक्राऊं ॥ जगको तेरी कथा सुनाऊं ॥१॥ अगणित रूप अनंत चाति है । पारम्परिक विरोध नरित हैं । सकल-विरोध-समन्वय-कारिणि, तेरा व्यापक रूप बताऊं । जगको तेरी कथा सुनाऊं ॥२॥ छोटासा यह चित्र बनाया। है तेरी धुंधलीसी छाया । पार कहां पाऊँ तेरा में सागर-जल गागर में लाऊं । जगको तेरी। कथा सुनाऊं ॥३॥ viewIVARAB तर दास दरबारीलाल सत्यमन Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत [मा नव-धर्म-शास्त्र] आचार कांड पहिला अध्याय ( भगवती अहिंमा ) सत्य अचार्य ब्रह्म अपरिग्रह सब नेरी मुसकान । जिसने पाया तुझे न उममें रहा मोह अभिमान ॥ दया प्रेम शम शौच त्याग सब है तेरे ही अंग । तब तक क्रिया न धर्म न जब तक चढ़ता तेरा रंग ।। इश्वर के दो पहल कल्पना लड़ाया करता है, सो यह बुरा नहीं है दृष्टिकांड में भगवान सत्य के रूपमें जिस इस विषय में जिससे हृदय को तृप्ति मिले वही चिद्रह्म का उल्लेख हुआ है उसके दो अंश अच्छा । फिर भी यह अच्छा होगा कि हम ऊँची एक को हम विचार कह सकते हैं स उची समान रचना का सहारा लेकर ईश्वर के दूसरे को आचार । यहाँ विचार का अर्थ सब रूप की कल्पना करें जिससे हमारा सामाजिक अनुभव तर्क आदि हैं और आचार का अर्थ समस्त आदर्श ऊँचा हो। यम नियम और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली अन्तः ईश्वर का लिंग शुद्धि बहिःशुद्धि है जो जगकल्याण के लिये अधिकांश लोग ईश्वर को पुरुषरूप मानते हैं उपयोगी है । उस व्यापक विचार का नाम भगवान क्योंकि वे समाज में पुरुष को ही अधिकारी या सत्य है और व्यापक आचार का नाम भगवती मनिकाप में देखते हैं शक्तिशादी भी वही माना अहिंसा है । इस प्रकार एक ही ईश्वर दो भागे जाता है । ईश्वर की पुरुषरूप में कल्पना उस . में विभक्त होकर दो रूपों में देखा गया है । इस- जमाने की याद दिलाती है जब मनुष्य पशुबल लिये सत्य अहिंसा के रूपमें परमेश्वर की उपासना में ही श्रेष्ठता समझता था उसी के भग्नावशेष आज करना दो ईश्वर मानना नहीं है किन्तु एक ही भी दिख रहे हैं। ईश्वर के दो पहलुओं के दर्शन करना है। रमिकों ने ईश्वर को पुरुषरूप में मानकर __ आज भी ईश्वर अज्ञेय है अपनी बुद्धि संस्कृति भी उसके दाम्पत्य का चित्रण किया है पर उसमें समाजरचना के अनुसार मनुष्य उसके विषय में पतिरूप ही असली ईश्वर है नी--ए तो Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत पनिगम का दाम ही चित्रित किया गया है । विष्णु सत्य और भगवती अहिंसा के रूप में साकार गरपाई तो उसकी पत्नी लक्ष्मी उसकी और ज्ञेयरूप में माना जाता है और इससे हमें दमी है जो उसकी पगचंपी कर रही है । और न्याय और प्रेम दोनों की छत्रछाया मिलती है। अश्विर की दोनयाँ टमी और सरस्वती-मानी अहिंसा की निधपरता से बना है तब बद कल्पना दाम्पत्य के भी र आज : ईश्वर को पुरुष-रूप में प्रश्न-अहिंसा शब्द निषेध-परक है । उससे म मनन का आनन्द पा सकता हिंमा न करने की बात मालूम होती है परन्तु है, पाप में बना रह सकता है, निर्दोष जीवन कुछ करने की बात नहीं मालूम होती । इसलिये व्यतीन कर सकता है पर पुरुषरूप ईश्वर को अहिंमा को भगवती कहना कहाँ तक ठीक होगा? कल्पना का समाज पा अधा प्रभाव नहीं पड़ता उत्तर-शब्द का रूप विधिपरक हो या समाज में लैगिक अन्याय को पीठबल मिलने निषेध-परक, अगर उसका अर्थ व्यापक हो तो कोई हानि नहीं है । अहिंसाका अर्थ खूब व्यापक बहुत से लोगोंने ईश्वर को नारीरूप में है. उसमे समस्त दुराचार की निवृत्ति और समस्त चित्रित किया है उनका विचार यह रहा है कि सदाचार में प्रवृत्ति आ जाती है। निषेध-वाचक पिता की अपेक्षा मातः महान् है क्योंकि सृष्टि- अव्यय का प्रयोग दो तरहका होता है पर्युदास और रचना में माता की शक्ति अधिक लगती है, ईश्वर प्रसज्य । पर्यदास में एक चीज का निषेध करके सर्जक है और दयालु है सर्जकता और दया- दसरे की विधि की जाती है। जैसे असत्य का टुता पिता की अपेक्षा माता में अधिक होती है अर्थ है झूठ, न कि केवल सत्य का अभाव | इमटिये ईश्वर पिता नहीं है माता है। इसीलिये , प्रसज्य पक्ष में सिर्फ निषेध समझा जाता है, इस शाक्त सम्प्रदाय में ईश्वर जगदम्बा शक्ति आदि शब्दों से कहा जाता है और उसकी मूत्ति नारी- जाता है जैसे मेरे पास धन नहीं है । यहाँ धन का प्रयोग वाक्य में क्रियापद के साथ किया । मपिणी बनाई जाती है । पुरुष-रूप ईश्वर की का निषेध है किसी चीज की विधि नहीं है । अपेक्षा नारीहप ईश्वर की कल्पना अधिक माहक अहिंसा शब्द में जो निषेध वाचक 'अ' है वह और कुछ न्यायोचित है र है यह भी अधूरी। कवल पुरुष से या केवल नारी में सर्जन नहीं __ पर्युदाम है इससे सिर्फ हिंसा का अभाव ही नहीं होता दोन का होना और दोनों का सहयोग मालूम होता किन्तु दुराचारों के निषेध के साथ जरूरी है। फिर एक बात यह भी है कि प्रेम, दया, भक्ति और न्यायपरायणता आदि समस्त मि दयाल या क्षमाशील नहीं है वह न्यायाधीश सद्गृनया की विधि भी मालूम होती है। के समान नि:पक्ष और कटार भी है इसलिये वह प्रश्न-ईश्वर के विचार अंश के लिये जैसे मामा के साथ पिता भी है। श्वर के पिना-करक विधिपरक शब्द 'सत्य' है उसी प्रकार की सत्य और मामा-अप के हमा कहत है। आचार अंश के लिये विधिपरक प्रेम आदि शब्द प्रकार निगकार और अजेय श्वर भगवान कन: Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती अहिंसा उत्तर--विचार के विधान में विधि की मुख्यता है और अचार के विधान में निषेध की। निर्विचार या ज्ञानशून्य स्थिति का विधान अज्ञानरूप या जड़रूप का उत्तेजक होने से अनुचित है परक्रिया हीन अवस्था का विधान अनुचित नहीं है । आचार के दो अंश हैं अशुभ निवृत्ति और शुभ में प्रवृति, अगर अशुभ स निवृत्ति का उपदेश दिया जाय और शुभ में प्रवृत्ति पर जोर न दिया जाय तो भी हम उसे सदाचारी या आचारवान् बना सकेंगे या बन सकेंगे। आचार के विषय में यह सम्भव है पर विचार के विषय में यह सम्भव नहीं है वहां सत्य को पाने की मुख्यता है । सत्य को पाये बिना असत्य या मिध्यात्व से निवृति नहीं हो सकती जबकि शुभ में प्रवृति किये बिना भी अशुभ से निवृत्ति हो सकती है । ( आचार या चारित्र के लिये दूसरा शब्द है संयम । यम् धातु का अर्थ है उपरम रुकना या रोकना, इसलिये संयम शब्द का अर्थ हुआ अच्छी तरह अपने को रोकना अर्थात् मन वचन शरीर की प्रवृत्ति अशुभ में न करना । इस प्रकार यह संयम शब्द भी विधि की अपेक्षा निषेध की मुख्यता लिये है । यही कारण है कि ईश्वर का आचार- अंश निषेध-प्रधान अहिंसा शब्द से कहा गया । । [ २१४ या भक्त है या है । तलब यह कि प्रेम आदि शब्द सदाचार के पूरे क्षेत्र को नहीं घेरते जबकि अहिंसा शब्द घेरता है । दया प्रेम आदि तो अहिंसा हैं ही साथ ही दया और द्वेष से रहित निःपक्षता भी अहिंसा है। यही अहिंसा की व्यापकता है । प्रेम आदि शब्द अपूर्ण तथा भ्रमजनक हैं । प्रेम भक्ति वात्सल्य आदि का प्रयोग सब जगह नहीं किया जा सकता । एक सच्चा न्यायाधीश, जो अपराधी के साथ द्वेषी भी नहीं होता न प्रेम करता है किन्तु निःपक्ष न्याय करता है, इसीलिये सदाचारी ईमानदार कहा जायगा कि वह अहिंसक या संयमी है न कि इसलिये कि वह प्रेमी है प्रवृत्ति - निवृति प्रश्न- अचर का रूप ऐसा होना चाहिये वन्द अध्याय में बताये हुए विश्ववाण के अनुरूप हो, अगर आचार अहिंसक होने से निषेव प्रधान मान लिया जायगा तो प्रवृत्ति को कोई स्थान ही न रह जायगा और प्रवृत्ति के बिना विश्वका कैसे होगा । उत्तर-प्रवृत्ति मन और तन की प्रवृत्ति सदैव कुछ न कुछ होती रहती है, प्रवृत्ति के रुकने का इतना डर नहीं है जितना दुष्प्रवृत्ति होने का है इसलिये आचार के मार्ग में दुष्प्रवृत्तियों को रोकने की अधिक ज़रूरत है। हिंसा को रोको फिर प्रेम दया भक्ति वात्सल्य आदि आपसे आप आ जायेंगे। अगर मनुष्य किसी भी तरह की हिंसा अर्थात् मारना पीटना, गाली देना, ठगना, झूठ बोलना, चोरी करना, अनुचित भोग भोगना, अधिक धन संग्रह करना, मुफ्त का माल उड़ाना आदि न करे तो उसकी प्रवृत्ति विश्वकल्याण के लिये उपयोगी होगी, उससे दुःख न आ पायगा, आया हुआ दुःख दूर होगा, सुख प्राम होगा । अहिंसा निवृत्तिप्रधान और निवृत्ति का पूरा समन्वय है । परन्तु प्रवृत्ति स्वाभाविक है इसलिये उसे अंकुश में रखने के लिये उचित निवृत्ति पर जोर दिया जाता है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत - - प्रश्न-अगर निवृत्ति पर जोर दिया जायगा अपेक्षा कुछ न बोलना अच्छा, दस बार दान अब कर्मयोगी का स्थान सब से नीचे हो जायगा। देकर एक बार चोरी करने की अपेक्षा चोरी और प्यान योग, उसमें भी संन्यास-योग, मुख्य हो दान दोनों से दूर रहना अच्छा । यही निवृत्ति पक्ष "रा परन्तु जगत्कल्याण की दृष्टि से तो कर्म- की प्रधानता है । इसीलिये भगवती अहिंसा का योगही श्रेष्ट है। नाम निषेधपरक है। यह अधिक आवश्यक भी उनर भ्यानयोग हो या कर्मयोग सब योगों है और व्यापक भी है। से नियत्ति ममान पाई जाती है इसलिये इस प्रकार संयम में निवृत्ति-प्रधानता होने निवृत्ति की दृष्टि में ले सभी योग समान रहे। पर भी अनावश्यक निवृत्ति और आवश्यक प्रवृत्ति बल्कि कर्मयोग की निवृत्ति अनेक परीक्षाओं में के अभाव को स्थान नहीं है । निवृत्ति प्रवृत्ति के निकलते रहने के कारण अधिक प्रामाणिक होती विषय में स्वहित और परहित का विचार अवश्य हमारा मन कितना निर्विकार है ! इसका पता होना चाहिये। संन्यास योगी को इतना नहीं लग सकता जितना कर्मयोगी को। संन्यास के मार्ग पर चलनेवाले ___इस विषयमें निम्न लिखित सूचनाएँ उपयोगी हैं। के दिल में कर्मयोग के पधिक से अधिक विकार १- निवृत्ति अशुभ से होना चाहिये । कभी होने पर भी कम दिखाई दे या न दे यह हो उचित या निर्दोष कार्य से भी निवृत्ति लेना पड़े सकता है इसलिये कर्मयोगी की निर्विकारता या तो उसका उद्देश निवृत्ति का प्रदर्शन न होना अशुभ निवृत्ति अन्य योगियों से अधिक प्रामाणिक चाहिये परन्तु अपना या दूसरों का लाभ होना : है । बराबर होने में तो आपत्ति ही क्या है ? इस चाहिये । जैसे किसी आदमी ने नियम लिया कि प्रकार निवृत्ति की दृष्टि से चारों योग समान होने में दिनमें दूसरे बार अन्न न खाऊँगा तो इस निवृत्ति पर भी शुभ या शुद्ध प्रवृत्ति की दृष्टि से कर्म- में उसे देखना चाहिये कि ( क ) इसमें स्वास्थ्य योग ही श्रेष्ठ है। को लाभ पहुँचता है या नहीं [ख] बचे हुए समय का प्रवृत्ति और निवृत्ति आचाररूपी सिक सदुपयोग होता है या नहीं गा खर्च में कमी दो पहलू है । एक के भी अभाव में सिक्का बेकाम " होती है या नहीं [घ] उस बचत का सदुपपोग हा जायगा । इस प्रकार प्रवृति और निवृत्ति की होता है या नहीं, अगर इनमें से एक भी लाभ न भमान आवश्यकता होने पर भी निषध -परक हो तो वह निवृत्ति न करना चाहिये। हिमा शब्द से जो मदाचार कहा गया इसका २ निवृत्ति ऐसी न होना चाहिये जिससे कारण सिर्फ यही है कि सदाचार की प्राप्ति के अपने उत्तरदायित्व को मनुष्य पूरा न कर सके लिय विधि की अपेक्षा निषेध (अशुभ निवारी) के या उसे छोड़ बैठे । एक आदमी ने शादी की . किये उद्योग आंधक करना है। दूसरी बात यह और आजीवन ब्रह्मचर्य ले लिया या घर छोड़कर है कि शुभ प्रवृत्ति की कमी जितनी क्षम्य है मंन्यासी हो गया, ऋण लिया और उसे चुकाये बिना अनिवृत्तिका कमी उतनी अन्य नहीं है। या कान का प्रबन्ध किये बिना संन्यासी हो दम बार मञ्च बोल कर एक बार झूट बोलने की गया तो ऐमी निवृत्ति अनुचित है । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती अहिंसा ३- आलसी जीवन बिताने के लिये निवृत्ति न लेना चाहिये । संन्यासी होने से कमानः खाना न पड़ेगा कुछ काम का बोझ अपने ऊपर न रहेगा इसलिये निवृत्त होना पाप है । ४ - पूजा सन्मान आदि के लिये निवृत्ति न लेना चाहिये । प्रत्येक मनुष्य को अपनी योग्यता और उस के द्वारा की जानेवाली सेवा, सेवा के लिये किया गया त्याग इन के अनुसार ही पूजा सन्मान की आशा करना चाहिये । निवृत्ति आदि का दंभ दिखाकर पूजा सन्मान की लूट करना एक प्रकार की डकैती है। ५- अपने जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये कुछ न कुछ प्रवृत्ति अवश्य करना चाहिये । कपड़ा पहनना परन्तु ची कातना या और किसी तरह से सूत निकालने को पाप समझना, रोटी खाना पर रोटी पकाने को पाप समझना अनुचित है। हाँ, यह हो सकता है कि मनुष्य सुविधा की दृष्टि से कोई एक उपयोगी काम चुनले और उस के बदले में कोई दूसरा काम कराले पर कुछ न कुछ प्रवृत्ति आवश्यक है । रोग वृद्धावस्था आदि के कारण न कर सके यह दूसरी बात है । ६- प्रवृति ऐसी करना चाहिये जिससे या तो अपनी किसी ज़रूरत की पूर्ति हो अथवा दूसरे की ज़रूरत की पूर्ति हो । दूसरों का ऐसा काम करना, जिससे उन्हें कुछ लाभ नहीं है, और इस प्रकार प्रवृत्ति का खाना भरना ठीक नहीं । निरर्थक प्रवृत्तियों से बचना चाहिये। यह बात दूसरी है कि किसी भले कार्य में असफल होकर भी बार बार प्रयत्न किया जाय । [ २१६ अधिक अच्छे वि-कल्याण के कार्य में लगाना चाहिये । ७- मन वचन काय की जितनी प्रवृत्ति प्रयत्न या अप्रयत्न से होती हो उसे अधिक से ८-- दूसरों का उपकार हो या अपने जीवन का बोझ उनपर न पड़े इस के लिये अधिक से अधिक प्रवृत्ति करके भी जहाँ तक बन सके प्रति कम करना चाहिये । इन सूचनाओं से पता कर के दो पहलू हैं प्रवृत्ति और निवृत्ति, जो दोनों पहलुओं का अधिक से अधिक उचित समन् कर सकते हैं वे ही आदर्श सदाचारी है । इस दृष्टि से जीवों की चार श्रेणियाँ बनतीं हैं । १- अशुभ- निवृत्त-शुभ-प्रवृत्त, २ उप-निवृत्त, ३ उभय- प्रवृत्त, ४ शुभ- निवृत्त अशुभ प्रभु । इनमें पहिली श्रेणी आदर्श है दुसरी उत्तम है, तीसरी मध्यम है चौथी जघन्य है। तीसरी श्रेणी से दूसरी श्रेणी उराम है इससे निवृत्ति की प्रधानता उचित प्रवृत्ति की आवश्यकता भी मालूम होती मालूम होती है पर वह आदर्श नहीं है इसलिये | इसलिये आचार प्रतिनिवृत्ति का समन्वय होना चाहिये। हां, मनुष्य को प्रवृत्ति की अपेक्षा निवृत्तिका कार्य अधिक करना है। और पहिले करना है इसलिये निवृत्ति पर जोर दिया गया और अहिंसा सरीखा निषेध परक शब्द आचार के लिये रक्खा गया। प्रवृत्ति की ज़रूरत प्रश्न- प्रवृत्ति कितनी भी शुभ हो उस के साथ अशुभ का अंश मिला ही रहेगा। दान देना शुभ है परन्तु उस का दूसरा प वृद्धि अशुभ है, देनेवाले में वाले में दीनता पैदा होना है इस प्रकार हर एक प्रवृत्ति की काली बाजू रहती ही है। अभिमान और लेने Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ ] अपने देश की भने जाओ तो दूसरे देश की प्रवृत्ति का त्याग ही श्रेष्ठ है। तब उनय-निवृत्त को दूसरा नहीं परि नम्बर देना चाहिये । सन्यामृत उपर दो पहलू हर एक चीन के होते हैं जैसे अयु 'त्त के दो पहलू हैं बने निवृत्ति के भी । निवृत्ति मे या तो हमें तुरंत ही आत्महत्या करना पड़ेगी अथवा दूसरों के ऊपर अपना बोझ डालना पड़ेगा इसलिये अपने जीवन को भारत बनाना पड़ेगा | इसके अतिरिक्त निवृत्ति से जीवन आलसी या जड़ बन जायगा साथ ही उसमे लापर्वाही और अहंकार आजायेगा इसलिये एकान्त निवृत्ति ठीक नहीं । प्रवृत्ति हो या निवृत्ति सब के दो पहलू हैं इसलिये दोनों के विषय में विवेक से काम लेना पड़ेगा और उसमें इसबात का विचार करना पड़ेगा कि उससे सामूहिक दृष्टि से सुखवर्धन होता है या नहीं, जैसा कि जीवनदृष्टि अध्याय में बताया गया है, अगर सामूहिक दृष्टिसे सुखवर्धन होता है। तो वह सदाचार या धर्म का अंग है। दान आदि शुभ कार्यों में अगर फलाफलविवेक और निस्वार्थता अर्थात् वीतरागता से काम लिया जाय तो उससे पर्याप्त सुखवर्धन होगा हानि अगर होगी तो नाम मात्र की होगी जिसे लाभ के आगे उपेक्षणीय ही समझना पड़ेगा | अणुभर दुःख के या दुरुपयोग के डर से अगर मन भर सुख की अवहेलना की जाने लगेगी तो विश्वसुखवर्धन कभी न होगा इस प्रकार हमारे जीवन का ध्येय द्दा नष्ट जायगा । इसलिये विश्वर्धन के कि जो प्रवृत्ति आवश्यक हो उसका त्याग न करना चाहिये। हां, उसमें फटाफटविवेक और ता से काम लेना चाहिये । ऊपर जो दान देने और देशसेवा के दुरु-. पयोग के उदाहरण दिये गये हैं उनमें अगर फलाफलविवेक और वीतरागता से काम लिया जाय तो उनका दुरुपयोग न होगा । लेनेवाला कौन है वह किस अधिकार से ले रहा है वह सदुपयोग करेगा या दुरुपयोग इन बातों का विचार फलाफलविवेक है । और दान देते समय कर्तव्यबुद्धि रखना कोई दुःस्वार्थ भाव न रखना वीतरागता है । दान के विषय में बहुत कुछ कहा जा सकता है। परन्तु वह दान के प्रकरण का ही विषय है । देशसेवा में भी फलाफलविवेक और वीतरागता की ज़रूरत है । अगर देशसेवा का फल हो तो ऐसी देश सेवा से दूर रहना चाहिये । दूसरे मनुष्यों के न्यायोचित अधिकारों का नाश राष्ट्रीयता का फल मनुष्यता की हत्या हो तो वह राष्ट्रीयता पाप है । साथ ही देश सेवा में न्याय की रक्षा अन्याय का प्रतीकार पतितों का उद्धार का ही भाव होना चाहिये उसकी ओट में अपने व्यक्तित्व की विजय या और किसी तरह का दुःस्वार्थ न होना चाहिये यह वीतरागता है । प्रश्न- फलाफलविवेक और वीतरागता सं प्रवृत्ति की काली बाजू बहुत कम हो जाती है, फिर भी न तो प्रत्येक मनुष्य पूर्ण होता है न प्रकृति हमारी इच्छा के अनुसार कार्य करती है इसलिये फलाफल विवेक और वीतरागता रख करके भी प्रवृत्ति से सुखवर्धन का निश्चय नहीं किया जा सकता। हमें यहां सदाचार का विचार करना है मन की शुद्धि का नहीं । उत्तर- प्रत्येक मनुष्य क्या कोई भी मनुष्य पूर्ण नहीं होता । मनुष्य तो सदाचार के लिये इतना ही कर सकता है कि वह अपनी भावना या परिणाम शुद्ध रक्खे और शुद्ध भावना के Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती अहिंमा [ २१८ अनुसार शक्तिभर प्रकार करे, निश्छल रहे । भावना अर्थात् कवि और ना होने पर का धर्म या मदवार के साथ जो इतना सम्बन्ध हर एक प्रवृत्ति सदाचार का बन सकती है। है इस के चार कारण हैं उदारपद १- हमारी जैसी भावना होती है वैसा ही प्रश्न-15 आदमी अपने कुटुम्बियों के हमसे प्रयत्न होता है जैसा प्रयत्न होता हे पालन पोषण के लिये झूठ बोलता है दंभ करता वैसा कार्य होता है यह साधारण है चोरी करता है और अनेक पाप करता है पर नियम है। इसके अपवाद बहुत कम होते खद बहत मादगी से रहता है यहां तक कि मनि हैं इसलिये सदाचार में भावना की मुख्यता है। या सन्यासी तक बन जाता है इसलिये उसे २- मनष्य अच्छे काम के लिये अछी निःस्वार्थ तो कहना ही पड़ेगा क्योंकि वह अपने भावना की ही जिम्मेदारी ले सकता है न कि लिये कुछ नहीं करता और कटक यकी भी अच्छे फल की, डाक्टर ईमानदारी से काम करने उसे मानना पडेगा क्योंकि उससे कुटुम्बियों के की ही जिम्मेदारी ले सकता है। वह रोगी को दुःख दूर होते हैं इस प्रकार अपको दश से यह बचा ही लेगा यह नहीं कहा जा सकता । अच्छी निर्दोष प्रवृत्ति कहलाई परन्तु इस निर्दोष प्रवृत्ति भावना पूर्वक प्रयत्न करने पर भी अगर कोई मर में दुनिया भर के पाप समा सकते हैं, दंन चेरी जाय और इस कारण डाक्टर को खूनी कहा जाय आदि करते हुए भी अगर निर्दोष प्राति कही तो कोई भी डाक्टर इलाज करने को तैयार न होगा। जा सकती है तब सदोष प्रवृति किम करेंगे । ३-भावना के साथ सुख दुःख का खास सच तो यह हैं कि प्रवृत्ति को निर्दोष कहना सम्बन्ध है । चोरी करते समय जो भय उद्वेग ही व्यर्थ है। आदि पैदा होते हैं वे चोरी की भावना पर ही उदा-बटन्यो यि प.प करने वाला न निर्भर हैं। भल से अगर हम किसी की चीज तो निःस्वार्थ है न फलाफलविवेकी । अपने स्वार्थ उठालें तो हमें चोर के समान मानसिक केश का के लिये जो उपयोगी हैं उनकी भलाई बुराई भी अनुभव न करना पड़ेगा। अपनी भलाई बुराई है। अथवा मोह या अभि४-हमारी भावना का दूसरेके दिल पर अधिक मानवश जिन्हें हम अपना समझने लगते हैं उन प्रभाव पड़ता है । एक बालक को प्रेमपूर्वक जोर से की भलाई बुराई भी अपनी भलाई बुराई है। थपथपाने पर भी प्रसन्नता होती है किन्तु क्रोध इसलिये स्वार्थ का क्षेत्र अपनी भलाई बुराई नकः पूर्वक उंगली का स्पर्श भी मान नहीं होता। कैसा सीमित नहीं है। घर कुटुम्ब जाति राष्ट्र आदि भी कार्य हो परन्तु उसके मूल में जो भावना होती भी स्वार्थ की सीमा में समा जाते हैं। हां, यह है उससे हमें और दूसरों के प्रसन्नता मिलती है। अवश्य है कि जिम सीमा जिनन बताण है इससे मालूम होता है कि सदाचार और उस वह उतना ही उदार या महान है ! इस उदाके फन्ट विश्वकल्याण के साथ मनकी शुद्धि का रता की दृष्टि में प्राणियों क. माहिती सब से अधिक मम्बन्ध है । मनकी शुद्धि होने पर हैं जिन्हें उदारपद करने हैं-१ परमस्त्रार्थी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ ] सत्यामृत २ स्वार्थी, ३ संकुचित, ४ अल्पोदार, ५ अ?- ५ अर्घोदार वे हैं जिनमें राष्ट्रीयता पर्याप्त दार ६ उदार ७ परमोदार । __मात्रामें है राष्ट्र से छोटी स्वार्थसीमाओं पर जो परमम्वार्थी वे लोग हैं जो अपने सिवाय उपेक्षा करते हैं राष्ट्रहित का सदा खयाल रखत हैं। कि.मी भी दूसरे के स्वार्थ की पर्वाह नहीं करते, ६ उदार वे हैं जो मनुष्यमात्र से प्रेम करते माता पिता पानी पुत्र आदि के लिये भी जो हैं राष्ट्र की सीमाएं भी जिनके प्रेम को कैद कष्ट नहीं उठाते या उतना ही उठाते हैं जितना नहीं करा सकत। न अन्याय करा सकती हैं। अपने स्वार्थ के लिये आवश्यक होता है । ७ परमोदार वे हैं जो प्राणिमात्रके स्वार्थ आफ्रिका की कुछ जंगली जातियों में बूढे मां बाप को अपना स्वार्थ समझते हैं ध्येयदृष्टि अध्याय में ३च दिये जाते हैं जरासी बात में पत्नी और बतलाया हुआ विश्वहित ही जिनका लक्ष्य होता है। मन्नान की हत्या कर दी जाती है यह परमस्वार्थी का उग्रप है। माधारणतः परमस्वार्थी अधि- प्रश्न-उतार या परमोदार व्यक्ति मनुष्यमात्र या कांश पशुओं में, कळ असभ्य जातियों में और प्राणि मात्र के हित पर ही ध्यान देगा वह घर के सभ्य जातियों के कुछ व्यक्तियों में पाये जाते हैं। स्त्री पुत्रों की विशेष पर्वाह नहीं करेग क्योंकि ___ इससे उसकी उदारता को धक्का लग जायगा इस २-स्वार्थी वे हैं जो अपना स्वार्थ और प्रकार उदारों के स्त्री बच्चों को मौत के मुंह में अपने घरवालों का स्वार्थ एक बना देते हैं । वे चोरी चपाटी आदि घरके बाहर करेंगे। जाना पड़ेगा। वे जिस राष्ट्र में रहते हैं उस पर . अपने घरवालों का स्वार्थ सिद्ध हो कोई अत्याचार भी करे तो भी वे विरोध करना जाय फिर जाति प्रान्त राष्ट्र और मानवता जहन्नुम पाप समझेंगे क्योंकि यह बात उदारता के विरुद्ध में जाय उन्हें कुछ मतलब नहीं। मनुष्यों का है। इस प्रकार उदारता का वही फल होगा जो अकर्मएक बहुत बड़ा भाग इस श्रेणी में है। ण्यता या दंभ का होता है । ३ संकुचित वे हैं जो अपने घर वालों की उत्तर-उदारता का इतना ही अर्थ है वह ही नहीं किन्तु रिश्तेदारों और विभक्त हुए कुटु न्याय की हत्या न करे इसलिये उसके कुटम्बी भी म्बियों की भलाई भी अपनी भलाई समझते हैं अगर अन्याय होंगे तो वह उनका समर्थन न करेगा परन्तु कट्टम्बियों के विषय में जो उसका उनके साथ कोई अनीति नहीं करते किन्तु उदाग्ता का व्यवहार रखते हैं और उनके लिये कुछ उत्तरदायित्व है, उदारता के नाम पर उस पर उपेक्षा नहीं कर सकता । पत्नी का पति के विषय में, पति का पत्नी के विषय में जो कर्तव्य १ अल्पोदार वे है जो अपनी जाति या है वह उन्हें पूरा करना ही चाहिये । वह कर्तव्य उपजानि या प्रान्त के लिये उदार हैं स्नेही है जाति तो एक प्रकार का ऋण या प्रान्त की उम्ननि या यश को अपनी उन्नति या है अगर वह पूरा न करे तो वह पाप करेगा। यश ममझते हैं पर राष्ट्र की या मनुष्यता की अपने देश के ऊपर होने वाले अत्याचार को दूर करने का प्रयत्न उसे परमोटार होने पर भी । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती अहिंसा पहिले करना चाहिये । न्यायरक्षा के लिये तो करना ही चाहिये पर इसलिये भी करना चाहिये कि उस देश में या समाज में रहने के कारण हम अनेक प्रकार से उसके ऋणी हैं। इसके लिये वह अन्याय न करेगा विश्वहित के विरुद्ध न जायगा यही उसकी उदारता है । उदारता से अतिया का कोई सम्बन्ध नहीं है । जो लोग अकर्मण्यता या द्वेष को उदारता को ओट में छिपाते हैं वे दंभी हैं उदारता मे कोम दूर हैं । उदारता व्यवहार में कोई अड़ंगा नहीं डालती किन्तु व्यवहार को व्यापक, सुखद और न्यायोचित बनाती है । जिनके जीवन में जिस श्रेणी की बहुलता हो उन्हें उसे श्रेणी में सर चाहिये । प्रवृति के प्रकरण म उन व्यक्तियों से मतलब नहीं है किन्तु उस श्रेणी के कार्य से मतलब है । त्रिविध प्रवृत्ति इनमें से सातवीं श्रेणी पूर्णशुन अर्थात् शुद्ध शुभ या शुद्ध है । इस तरह की प्रवृत्ति अर्हत् जिन योगी बुद्ध वीतराग स्थितिप्रज्ञ आदि महात्माओं की हुआ करती है । परन्तु प्रारम्भ की जो छः श्रेणियां हैं वे पूर्ण शुभ नहीं हैं उनके साथ थोड़ा न थोड़ा अशुभ लगा ही रहता है। वे अपने स्वार्थ की सीमा के भीतर भले ही शुभ हों पर उम सीमा के बाहर अशुभ होती हैं। उदार श्रेणी का मनुष्य मनुष्य से प्रेम करेगा पर मनुष्य के थोड़े से सुख के लिये पशु के महान से महान कष्ट की भी पर्वाह न करेगा, वह अधिक का हिना भूल जायगा और लगायगा भी तो सिर्फ मनुष्यों के सुख के विचार में अधिकतम सुख की नीति कान में लेगा । इस प्रकार उसके शुभ कार्य में भी अशुभ का चित्र मिला रहेगा । और जब यह अधिक हो जायगा तब इस प्रवृत्ति को पाप ही कहेंगे । | २२० शुभ से अशुभ या अदार व्यक्ति राष्ट्र के लिये प्राण भी दे देगा पर राष्ट्र के स्वार्थ के लिये दूसरे राष्ट्र के बर्बाद करने में भी न चूकेगा । इसी प्रकार अल्पो दार आदि भी अपने क्षेत्र के बाहर नीति अनीति का विवेक भूल जाते हैं। इस प्रकार के भी पापी हो जाते हैं । जब कोई मनुष्य अपनी स्वार्थ सीमा के बाहर इतना पाप कर जाता है कि वह स्वार्थ सीमा के भीतर के पुण्य से बात है वित के नियमों का उल्लंघन कर जाता है तब वह पापी हो जाता है। इस प्रकार अध्याय में चतलाये हुए विश्वहित के विरुद्ध रहती है वह पाप या अशुभ प्रवृत्ति है। जो इस विश्वहित के विरुद्र तो नहीं है पर जिन में दृष्टि अनुदार है, प्रवृत्ति का कारण राग है, यह अशुद्ध जिसमें राग नहीं है या सिर्फ गुणानुराग है, दृष्टि है वह अशुद्ध शुभ को अशुद्ध पुण्य और शुद्ध शुभको शुद्ध पुण्य कहना चाहिये । पाप, अशुद्ध पुण्य, और शुद्ध पुण्य इन तीनों के भेद को कुछ उदाहरणों से सष्ट करना ठीक होगा । है। वी है एक आदमी अपने राष्ट्र उत्कर्ष के लिये दूसरे पर आक्रमण करता है उन्हें गुलाम बनाता है तो यह पाप है, एक आदमी अपने पराधीन राष्ट्र को स्वतन्त्र करने के लिये विजयी राष्ट्र पर आक्रमण करत है यह अशुद्ध है और एक आदमी अपने ही नहीं किन्तु किसी भी राम की गुलाम बनना पर करते है, इस दृष्टि से कि दुनिया के सभी राष्ट्र स्वतन्त्रता Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत २२१ ] का उपभोग करे, तो यह आक्रमण शुद्ध पुण्य या शुद्ध प्रवृत्ति है। अशुद्ध पुण्य और शुद्ध पुण्य की किया एकसी दिखने पर भी उनकी भावना में अन्तर है और भावना के भेद से पीछे फल भी होता है। इस राष्ट्रोद्धार के कार्य में निम्न विसित अन्तर दिखाई देगा ! अशुद्ध रातोद्धारक बदला लेने में मर्यादा का विचार न करेगा, वह सीमोल्लंघन भी कर जायगा जब कि शुद्ध यी सीमोल्लंघन न करेगा | स्व अशुद्धगुण्णी की मनोवृत्ति सफल होने पर पाप की तरफ जल्दी झुक जाती है, वह स्वतंत्र होने पर दूसरों पर आक्रमण करने के लिये जल्दी तैयार हो जाता है शुद्धपुष्पी समभावी होने से पाप की तरफ नहीं झुकता । [ग] अपने राष्ट्र की स्वतन्त्रता के प्रयत्न में तीसरे राष्ट्र पर कोई अनुचित त्रिपदा तो नहीं आती इसकी पर्चा अशुद्धपी को न होगी जब कि शुद्धी को होगी । (ब) अपना राष्ट्र स्वतन्त्र हो जाने पर शुद्धgoat दूसरों को स्वतंत्र करने का यथाशक्ति प्रयत्न करता है जब की अशुद्ध या इसे शक्ति का अपव्यय समझना / इस प्रकार अशुद्रपुवी और शुद्धगुण्यी की भावना में जो अन्तर है वह समय पाकर फट में भी अन्तर पैदा करती है । अशुद्रपुण्यी के कार्य विश्वनि में कुछ न कुछ हानि पहुँचाते हैं। अब एक दूसरा उदाहरण हो । एक आदमी ने धर्मशाला बनवाई कि अमुक जाति के या सम्प्रदाय के या प्रान्त के आदमी ठहर सकें, दूसरों को उसमें रहने की मनाई रही तो यह पुण्य तो हुआ पर अशुद्धपुण्य हुआ । क्योंकि इसमें मनुष्य मात्र के बीच में बहनेवाली प्रेमधारा के टुकड़े हुए और इससे सुखवर्धक सहयोग घटा, तुमने अपनी जाति के लिये कुछ किया हमने अपनी जाति के लिये कुछ किया यह पक्षपात धीरे धीरे उपेक्षा और द्वेष में परिणत होकर सुखनाशक और दुःखवर्धक हो जाता है । हां, गुणानुराग खासकर संयमानुराग की दृष्टि से नियम बनाया जाय तो अशुद्धता न होगी । जैसे यहां नियम बने कि इस धर्मशाला में शराबी, मांसभक्षी, व्यभिचारी, लड़ने झगड़नेवाले, जुवारी आदि न ठहरने पावेंगे तो इस नियम से पुण्य शुद्ध ही बना रहेगा. क्योंकि इससे विश्वहित के नियमों को उत्तेजन मिलता है किसी मनुष्य पर उपेक्षा नहीं होती | यह नियम बनाना कि यहां ब्राह्मण ही ठहर सकेंगे अशुद्ध पुण्य है किन्तु विद्वानों को फिर वे किसी भी जाति के हों ठहरने का पहिला अवसर दिया जायगा ऐसा नियम बनाने से पुण्य अशुद्ध नहीं होता । यहाँ सत्यसमाजी ही ठहर सकेंगे यह नियम अशुद्ध पुण्य है, यहाँ सर्वधर्मसमभावा ही ठहर सकेंगे शुद्ध पुण्य है । मतलब यह कि गुणानुराग से पुण्य शुद्ध बना रहता है जब कि प्रारम्भिक छः पदों के मोह से पुण्य अशुद्ध हो जाता है । हां, यह अवश्य है कि उदार पदों में पहिले की अपेक्षा दूसरे आदि में पुण्य की अशुद्धि कम है। ऊपर जो बातें धर्मशाला के विषय में कहीं गईं हैं वे बातें मंदिर, औषधालय, छात्रवृत्ति देना, पाठशाला, अनाथरक्षा आदि सभी काम में समझ लेना चाहिये | प्रवृत्ति के इन तीन भेदों से यह पता लग जाता है कि सदाचार, संयम, या चारित्र में . Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती अहिंमा [ २२२ प्रवृत्ति को भी स्थान है । हो, यह प्रवृत्ति पाप या १ मूल नि-ब- को टिकाने के लिय अशुद्ध पुण्य न होना चाहिये । गदाचार के भीतर जो प्रवृत्ति है वह मूल प्रवृत्ति है। ग्वाना पीना, उमी प्रवृत्ति का समावेश हो सकता है जो शुद्ध चलना, उटना, बैठना, आदि मूल प्रवृत्तियाँ हैं। पुण्यरूप हो । प्रवृत्ति के रूप इतने भिन्न भिन्न है इन्हें न तो पुण्य कह सकते हैं न पाप । इन कि इतने से ही उस पूरी तरह समझ लेना कठिन प्रवृत्तियों के लिये जो दूसरी प्रवृशियां की जाती है । एक प्रवृत्ति जो एक तरफ़ से शुद्ध मालूम है वे पुण्य या पाप रूप हो जाती हैं जैसे भोजन होती है दूसरी तरफ़ से अशुद्ध हो सकता है। करना न पुण्य है न पाप, परन्तु भोजन के लिये एक आदमी ने धर्मशाला बनवाई और उसके जबदस्ती करना, दूसरों को सताना पाप है। मतनियम भी खूब उदार रक्खे जिससे वह शद्ध लब यह कि मूल प्रवृत्तियों के आधार से पुण्यपाप प्रवृत्ति कहन्दावे पर यह सब काम उसने सिर खड़े होते है वे स्वयं न पण्यरूप हैं न पापरूप इसलिये किया जिससे उसका यश हो और परीमी है, इनसे सदाचार को धक्का नहीं लगता इन्हें सेठ को, जिसने छोटी धर्मशाला बनाई है. नीचा सब काइ कर सकता है। देखना पड़े, ऐसी भावना के माथ उदार से उदार २ उरण प्रवृषि-धन पैसा या सेवा आदि नियमवाटी धर्मशाला भी पण्य नहीं कहला मकती का ऋण चकाना । इस प्रवत्ति के करने में पुण्य क्योंकि सा यगोलाला व्यक्ति यश की बंदीपर नहीं है पर न करने में पाप अवश्य है इसलिये जनहित का भी बलिदान करता है, इसके लिये वह जिसके सामने इसका अवसर आवे उसे अवश्य पाप से भी सम्पत्ति पैदा करता है, यश न मिले तो यह करना चाहिये । सदाचारी और योगी के वह विश्वासवान भी करता है, दूसरें का अपमान लिये भी यह कर्तव्य है। भी करता है इस प्रकार विश्वकल्याण की राह एक आदमी अपने शरीर पोषण के लिये विश्व का अकल्याण अधिक कर जाता है, कल्याण समाज से लेता है पर उसके बदले में समाज की उसे पर्वाह नहीं होती। इस प्रकार शुद्धपुण्य रूप सुखके लिये आवश्यक कुछ देता नहीं है इस दिखनेवाली प्रवृत्ति कैसी अशुद्धपुण्य या नष्टपुण्य प्रकार अगर वह उरण नहीं होता तो पाप होती है यह भी समझ लेना चाहिये । इसके लिये करता है। प्रवृत्ति के भेद कुछ विशेष रूपमें बतलाना पड़ेंगे। अपने उपकारी का आदर सेवा विनय आदि प्रवृत्ति दस तरह की होती हैं करना भी उरण प्रवृत्ति है। प्रवृत्ति के दस भेद ३ गच्छ-पुण्य प्रवृत्ति-अपने पुण्य का १ मूत्र प्रवृत्ति, २ उरण प्रवृत्ति, ३ गच्छ- फल भोगना । हमने किसी की या समाज की पुण्य प्रवृत्ति ४ मुक्त पुण्यप्रवृत्ति ५ नष्टपुण्य प्रवृत्ति सेवा की उसने हमारा आदर कर किया यश ६ अज्ञातपुण्य प्रवृत्ति ७ पाप प्रवृत्ति, ८ अशुद्ध गाया तो उनने अंश में हम पुण्य का फल भोग पुण्य प्रवृत्ति ९. पुण्यापाप प्रवृत्ति, १० शुद्ध चुके । जितने अंश में हम आदर सत्कार आदि 'पुण्य प्रवृति। लेंगे उतने अंश में हमारा पुण्य फल देता हुआ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत २२३ ] aar arrer earचारी योगी बन जाता है पर वह परिस्थितिवश पुण्य बनने की इच्छा नहीं करता। प्रत्युपकार स्वीकार करने से और प्राप्त का भोग करने से भी मनुष्य गच्छहोता है पुण्य होने में पाप नहीं है पर न होने में पुण्यसंचय अवश्य है । प्रश्न- अपने जो पुण्य भेद बतलाया उससे मम होता है कि हमें महात्माओं का, areesia, उपकारियों का आदर सत्कार पजा आदि न करना चाहिये क्योंकि इससे वे होगे जो कि वे होना नहीं चाहते । उत्तर- इसका दुष्परिणाम यह होगा कि तुम्हारे मन से भी यह बात निकल जायगी कि लोकसेवा आदि पुण्य है, इसलिये तुम लोकसेवा आदि से वंचित रह जाओगे । जो असर तुमपर होगा वही दूसरों पर होगा, इससे लोकसेवकों के दर्शन दुर्लभ हो जायगे क्योंकि तुम्ही में से लोक सेवक आते हैं। जगन में से परोपकार आदि उट जांय तो प्रलय ही समझो। इसीलिये तो कहा कि उरण प्रवति हरएक को करना चाहिये अगर उरण प्रवृधि न की जाय तो पाप होगा । उपकारियों का आदर सत्कार पूजा तुम्हें अधिक से अधिक करना चाहिये और उपकारियों को उससे बचने की कोशिश करना चाहिये इस से दोनों की शोभा है दोनों पुण्य संचय करते हैं। ४ शुक्त पुण्य प्रवृति-यश पूजा आदि की इच्छा से कोई अच्छा कार्य करना । ऐसा आदमी का फल पहले ही भोग लेता है इसलिये पीछे के लिये उनका पुण्य कुछ बच नहीं रता । सदाचार में ऐसी प्रवृतियों को स्थान नहीं है । ५ नष्टपुण्य प्रवृत्ति पुण्य का फल इस तरह मोगा कि उसकी पुण्यता नष्ट हो जाय । जैसे अपनी महत्ता के लिये अपने ही मुँह से अपनी सेवाओं के गीत गाने लगना, ऐसे आदर सन्मान के लिये आगे आगे करना जो अपनी सेवा से अधिक हो, या प्राप्त होने योग्य आदर आदि को जबर्दस्ती छीनने की कोशिश करना, मतलब यह कि ऐसे भद्दे तरीके से पुण्य का फल भोगने की कोशिश करना जिससे पुण्य न रहे, प्रशंसा और यश, निन्दा अपकीर्ति और घृणा में परिणत हो जाय, यह नष्टपुण्य प्रवृत्ति हैं । एकबार मुझे ऐसे विशाल भोज में शामिल होने का दुर्भाग्य मिला जहां परोसने का इन्तजाम ठीक नहीं था, कुछ लोग घेर का एक बड़ा टोकना उठा लाये जिस में शायद मनभर घेवर होगा । उसे छीन छीन कर अपनी पत्तल में रखने के लिये इतने आदमी टूट पड़े कि वह सारा घेवर जमीन में विखर कर पैरोंसे कुचल गया इतना ही नहीं किन्तु पत्तलों में जो पहिले से भोजन परोस कर रक्खा गया था वह भी पैरों से कुचल गया । इस प्रकार लोगों की मूढ़तापूर्ण उतावली या भुखमरापन से मनभर अन्न नष्ट हो गया । इसी तरह बहुत से लोग यश पूजा आदर आदि के रूप में अपनी सेवाओं का फल भोगन के लिये ऐसी उतावली या अदतादान करते हैं, एक तरह से भुखमरापन का परिचय देते हैं कि उनकी सेवाओं का पुण्य नष्ट हो जाता है । सदः चार में ऐसी प्रवृत्तियों को स्थान नहीं है। . प्रश्न -- कभी कभी मनुष्य को जनसेवा के लिये भी नष्टपुण्य बनने की आवश्यकता होती है । जब हमारे पास कोई जनहितकारी सत्य होता है या शक्ति होती है परन्तु जनता भ्रमवश अथवा अपनी सनातन नीति के अनुसार उस सत्य पर या शक्ति पर अविश्वास कर अपना Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहित करती है उस सत्य को या शक्ति को प्रकाश में अने के लिये मनुष्य को कुछ ऐसा व्यवहार करना पड़ता है या बोलना पड़ता है जिससे उसकी महत्ता की छाप जनता पर पड़े। कभी कभी इससे वे मुक्तपुण्य या नष्ट हो जाते हैं अथवा मुक्तपुण्य या नष्ट पुण्य होने आरोप तो उनके ऊपर किया ही जा मकता ऐसी हालत में वे क्या करें ? का है उत्तर -मुक्तपुण् या नष्टपुर कहलाने की तो उन्हें पर्वाह न करना चाहिये किन्तु न होने की पवई अवश्य करना चाहिये। यह बात उन की भावना पर निर्भर है अगर भावना हो तो किसी न किसी रूप में उसके कार्य भी दिखाई देने लगते हैं। कुछ चिह्न ये हैं १ कभी कभी जीवन में ऐसे प्रसंग आते हैं जब सत्यपथ पर चलने में निंदा उपेक्षा विरोध और अर्थसंकट झेलना पड़ते हैं और सत्यपथ छोड़नेपर पूजा आदि मिलने की पूरी सम्भावना होती है, ऐसी हालत में वह यश धनं पद आदर आदि की पर्वाह न करके सत्य या वास्तविक लोकहित की पर्वाह करे । २- अपनी दृढ़ता का परिचय अपने कार्यों से दे, शब्दों से दृढता का परिचय सिर्फ उसी जगह दे जहाँ न देने से लोग सत्य पर भी अविश्वास करने लगे । पर दृढ़ता के गीत ही न गाता रहे । ३- ऐसी जगह अपने नाम को आगे लाने की कोशिश न करे जहाँ उसकी जरूरत नहीं है। नाम के लिये ही नाम आगे लाया गया है ऐसा न मालूम हो । ४- नाम देने के लिये उत्सुकता जवाज आदि का परिचय न दे। जहाँ तक हो अपने नाम को अपने हाथ से आगे खाने की कोशिश न करे, ऐसी आने पर कुछ ना होता हुआ अपना नाम आगे लावे । ५- नाम देने, आदि के विषय में शिष्टाचार के नियम का भंग न करे । ६- अन्य सत्यमेवकों का या दूसरों का उचित स्थान लेने को न करें । ७- अपने नाम की छाप वहीं पर लगाने जहाँ नाम देने से सत्य के प्रचार में और महल में सुविधा हो अथवा जनता की माँग के अनुसार नाम देना आवश्यक हो । मतलब यह कि सत्यसेवा या ग की मुख्यता रहना चाहिये, ऐसा कोई कार्य न करना चाहिये जिसने यह मालूम हो कि तुम अपने नाम के लिये तड़प रहे हो और मौके बेमौके उसे घुसेड़ रहे हो । इस प्रकार विचार और व्यवहार की शुद्धता रहने पर भुक्तपुण्य या नष्टपुण्य होने का डर नहीं रहता | दुनिया को अगर भ्रम होता है तो वह कुछ समय बाद दूर हो जाता है । ६ - अजातपुण्य प्रवृत्ति - जब हम अपने पाप छिपाने के लिये कोई पुण्य कार्य करते हैं. तो वहां पैदा नहीं होने पाता । जैसे कड़ी जमीन में हल चलाये बिना बीज डाल देने पर भी खेती नहीं होती उसी प्रकार जो जमीन पाप से कठोर है उस की कठोरता मिटाये बिना उसमें पुण्य का अंकुर नहीं निकल सकता | जब किसी उपाय से जमीन नरम कर दी जाती है हल चलाकर उसके नीचे का भाग खुला कर दिया जाता है तब बीज उग जाता है। उसी प्रकार जबतक मनुष्य पाप की आलोचना तथा नाय त Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५] सत्यामृत नई, कर लेता उसको छुपाय रहता है या छुपाने प्रश्न--इसमें जगहित है और स्वार्थवासना है ही. का प्रयत्न करता रहता है, पुण्य का उपयोग पाप नहीं, तब इसे शुद्ध पुण्य क्यों न कहना चाहिये ? छिपाने के लिये करता है तबतक उसका पुण्य उत्तर-- यद्यपि पुण्यार्थपापवाले को हम पैदा नहीं होता । एक आदमी इसलिये दान देता ___ पापी नहीं कहसकते बल्कि पुण्यात्मा ही कहेंगे है कि लोग उसकी कैती या बेईमानी की तरफ फिर भी वह पुण्यार्थपाप भी समय आने पर ध्यान न दें तो उसका दान अजातपुण्य है। जनता का अहित करता है, वह अतथ्य भाषण ७. पुण्यार्थपाप प्रवृत्ति- विश्वकल्याण अपना बुरा फल दिखलाता ही है । जब कोई कलिये जहाँ थोड़ा बहुत पाप करना अनिवाय परीक्षक उस की परीक्षा करता है और मिथ्या हो बड़ों पुण्यार्थपाप प्रवृत्ति होती है । जैसे पाता है तब उसके सत्यांश पर भी अविश्वास लोग को सदाचार का पाठ पढ़ाने के लिये स्वंग कर बैठता है । इस प्रकार इस का अहित होता है। के करियत चित्र का प्रलोभन देना। अगर इसलिये गद्ध पण्य में शामिल हो सकने योग्य लोग ऐसे अन्धश्रद्धालु हों कि वे युक्ति अनुभव होने पर भी उसे अलग भेद में गिनाया जिससे की सत्य बातें कहने पर भी विश्वास न करें यह पता लगे कि निःस्वार्थता होने पर भी पुण्य किसी अद्भुत अलौकिक देव देवी ईश्वर के शब्द के लिये जितना पाप कम किया जाय उतना अच्छा। पर विश्वास करें तो उन्हें समझाने के लिये शुद्ध पुण्य में अंकुश लगाने की ज़रूरत नहीं है कहा कि यह तो ईश्वर का सन्देश है यह तुम्हें किन्त पुण्यार्थपाप पर यथासम्भव अंकुश लगाने मानना ही चाहिये तो इतना झूठ पाप, महान की जरूरत है, यही बात बताने के लिये इस भेद पुण्य के लिये होने के कारण पुण्यार्थपाप प्रवृत्ति को शुद्ध पुण्य से अलग गिनाया है। है । स्मरण रहे कि यहाँ मुख्यता से लोककल्याण की ही भावना होना चाहिये पैगम्बर प्रश्न-यह पुण्यार्थपाप तो बड़े बड़े ज्ञानियों, तीर्थंकरों पैगम्बरों आदि में ही पाया जा सकता कह कर गौरव प्राप्त करने की नहीं । ऐसा है जन साधारण में तो पुण्यार्थपापी नहीं ही करें तो यह पाप प्रवृत्ति हो जायगी। होते होंगे। प्रश्न- इसे अशुद्ध पुष्प क्यों न कहना चाहिये ! क्योंकि इसका पुण्य पाप से दूषित उत्तर- सब में होते हैं। एक वैद्य रोगी को दिलासा देने के लिये झूठ बोलता है इसमें उसका उतर- अशुद्ध पुण्य में कुछ स्वत्वमोह कोई स्वार्थ आदि न होने से उसे अशुद्ध पुण्य या रखता है जब कि पुण्यार्थ पाप में मोह नहीं रहता। पाप नहीं कह सकते, वैद्यों के विषय में इस बात अशुद्ध पुण्य में पुण्य की मलिनता का कारण को लेकर रोगी के मन में अविश्वास रहता है इसस्वार्थ या स्मार्थ को संकुचित सीमा है जबकि लिये वह शुद्ध पुण्य भी नहीं है तब इसे पुण्यार्थपावापाप में स्वार्थ बासना नहीं है उस की पाप ही कहना चाहिये। धि अमहित पर ही है इसलिये दोनों में प्रश्न- शुद्ध पुण्य की तरह पुण्यार्थपाप को जीवन के ध्येय में शामिल करना चाहिये या नहीं ! Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिये करने की अपेक्षा यही अच्छा कि उस पुण्य और पाप दोनों से दूर रहा जाय । उत्तर- युद्ध पुण्य की तरह पुण्पार्थ पाप भी जीवन का ध्येय है क्योंकि वह भी एक तरह का शुद्धपुण्य है। कोई ऐसी औषध हो जो किसी खास बीमारी को दूर तो करदे परन्तु बीमारी को दूर करके अपना कुछ बुरा असर -- जोकि उस बीमारी से बहुत कम हो - रोगी पर छोड़ जाय, तो उस औषध का उपयोग वैद्य उस समय अवश्य करता है जब किसी दूसरे तरीके से रोगी के बचने की आशा नहीं होती, यह वात वैद्य के कर्तव्य में शामिल है, इसी प्रकार तीर्थंकर पैगम्बर भी जब देखते हैं कि जन समाज को पाप की मौतसे बचाने के लिये अमुक तरह का अतध्य भाषण अनिवार्य हो उठा हैं तब वे उपर्युक्त वैद्य की तरह उस पुण्यार्थनाप का प्रयोग करते हैं। इसलिये यह भी जीवन का ध्येय है। हां, शुद्ध पुण्य करते हुए भी जो पुण्यार्थ पाप से बच सके वह उतना ही अच्छा । पर पुण्य भी न किया और पुण्वार्थपाप भी न किया तो इससे श्रेष्ठता नहीं आती। कुछ खराब दवा टेकर रोगी को मौत के में से बचा लेनेवाला वैद्य उस वैद्य से श्रेष्ठ है जो खराब दवा तो नहीं देता किन्तु रोगी को मर जाने देता है। हां, इन दोनों से श्रेष्ठ वह है जो खराब दवा भी नहीं देता और रोगी को बचा लेता है, पुण्यार्थ पाप नहीं करता पर पुण्य कर जाता है। प्रश्न- पुराने जमाने के महात्मा पापा का जितना प्रयोग करते थे आजकल उसका उतना प्रयोग नहीं किया जाता इससे मम होता है कि आजकल के महात्मा पुराने जमाने के महात्माओं से श्रेष्ट हैं । उत्तर-श्रेष्ठ हैं कि नहीं यह नहीं कहा जा सकत पर यह कहा जा सकता है कि श्रेष्ठ हो सकते हैं, परन्तु उनकी पताका कारण यह नहीं होगा कि वे का प्रयोग नहीं करते । का प्रयोग तो इसलिये भी रोका जा सकता है कि यह दवा आज कारगर न रही हो, आज का रोगी पुराने रोगी की तरह न हो, ऐसी हालत में उसके प्रयोग करने में लघुता तो अवश्य है परन्तु उसके प्रयोग न करने में श्रेष्ठता नहीं है। पुराने जमाने के लोग भूत पिशाच स्वर्ग नरक की कथाएँ कह कर लोगों को धर्म या कर्तव्य का ज्ञान करा दिया करते थे, आज ऐसी कथाओं पर लोग विश्वास नहीं करते इसलिये अब ऐसी कथाएं निरर्थक हैं, जमाना ही ऐसा बदल गया या आगे बढ़ गया है कि ऐसी कथाओं पर विश्वास कराना भी लोगों की वैज्ञानिकता कम करना है इसलिये भी ऐसी कथाएँ निरर्थक हैं इसलिये आज का महात्मा या उपदेशक इन पुण्यार्थपापों का उपयोग नहीं करता, क्योंकि उसकी पुण्यात ही नष्ट हो गई हैं तब इसे पुराने महात्माओं से श्रेष्ट कैसे कह सकते हैं ! श्रेष्ठता तो तब होती जब ऐसे अलध्य वक्तव्यों की बच्ची रहने पर भी वह इनका प्रयोग न करता फिर भी उतना पुण्य कर जाता । खैर, पुण्यपाप यथासम्भव कम करना चाहिये पर उसके डरसे पुण्य कम न करना चाहिये। ८ पाप प्रवृत्ति- - इन तीनों का स्वरूप ९ अशुद्ध पुण्य प्रवृत्ति - ऊपर कहा ही जा चुका १० शुद्धपुण्य प्रवृत्ति है । बहुत सी प्रवृत्तियाँ जो हमें अशुद्धपुण्य या शुद्ध पुण्य मम होनी Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २२७ ] सत्यामृत है उनमें एसी भी हो सकती हैं जो भुक्तपुण्य करें तो चोर को दंड दिये बिना छोड़ देना पड़ेगा नष्टपुण्य या अजातपुण्य हों। प्रवृत्तियों के इन क्योंकि न्यायाधीश यही सोचेगा कि अगर मैं दम भेदों में उनकी परीक्षा करने में सुभीता होग। चोर होता तो यही चाहता कि न्यायाधीश निर्णय निकष मुझे दंड न दे, इसलिये मैं है चोर को दंड न दूं । इस प्रकार स्वोपमता की प्रश्न- प्रवृत्ति के इन दस भेदों से प्रवृत्तियों दृष्टि से कर्तव्यनिर्णय करने में न्याय का काम को परखने का काफी मसाला मिला परन्तु इसमें । सन्देह नहीं कि सब में श्रेष्ठ शुद्धपुण्य प्रवृत्ति ही रुक जायगा और जगत में अंधेर फैल जायगा। है उसी के प्रभाव से या अविरोध से अन्य प्रव- उत्तर-न्यायाधीश के सामने सिर्फ चार ही त्तियाँ भी कर्तव्य में शामिल हो जाती हैं तो यह नहीं है किन्तु जिसकी चोरी हुई है वह भी है । बतलाइये कि उस शुद्धपुण्य प्रवृत्ति को या अन्य उसका विचार करते ममय उसे यह सोचना कतव्य प्रवृत्तियों को परखने की क्या कसौटी है ? चाहिये कि अगर मेरी चोरी होती तो मुझे कैसा अर्थात् कर्तव्याकर्तव्य निर्णय कैसे किया जाय ! लगता इस प्रकार जिसकी चोरी हुई उसे भी उत्तर--ध्येयष्टि अध्याय में विश्वकल्याण लगता होगा। इतना ही नहीं किन्तु चोरी करने का जो रूप बताया गया है उसमें कर्तव्याकर्तव्य वाले चोरसे पूछा जाय कि कोई दूसरा तेरी चोरी निर्णय की कसौटी भी आ जाती है। उस ध्येय करले जाय तो तुझे केसा लगे तो चोर भी नहीं की पत्तिं जिससे हो वही कर्तव्य है। चाहेगा कि कोई उसकी चोरी करले जाय, चोर भी अपने चोर को दंड दिलाना चाहेगा इस प्रश्न- वह कसौटी जरा कठिन है। सब प्रकार आत्मौपम्य पर विशेष विचार करने से जगह और सत्र समय के प्राणियों के सुखदुःख कर्तव्य का निर्णय हो जायगा। का माप नील करना और उससे अधिक सुख का निर्णय करना जरा बड़े से पंडित का काम प्रश्न-एक गरीब आदमी के पास सिर्फ है और उसमें बुद्धि को मिहनत भी बहुत होती एक रुपया है वह किसीने चुरा लिया वह चोर तो ऐसे न्यायाधीश के सामने उपस्थित किया गया है । कर्तव्याकर्तव्य निर्णय के लिये क्या कोई साल। जो लखपति है । जब आत्मौपम्य भाव से न्यायातरीका नहीं है जिससे हम समझ सकें कि उस धीश विचार करता है तो एक रुपये की चोरी ध्येय की पूर्ति हो रही है या नहीं ! उसे बहुत मामूल. चोरी मालूम होती है इसलिये उतर- इसका सरल तरीका है स्वोपमता या वह या तो चोर पर उपेक्षा कर जाता है या आत्मीपम्य । जो व्यवहार हम दूसरों के साथ इतना थोड़ा दंड देता है जो उस गरीब आदमी करते हैं वही व्यवहार अगर हम अपने साथ करें के दुःख को देखते हुए पर्याप्त नहीं कहा जा तो हमें कैसा लगे ! अगर हमें भी अच्छा लगे तो सकता, ऐसी हालत में आत्मौपम्य भाव से ठीक ममझो यह कार्य कर्तव्य है अन्यथा अकर्तव्य है। निर्णय कैसे हो सकता है ? प्रश्न-न्यायाधीश बनकर अगर हम चोर को उत्तर-लखपति न्यायाधीश को एक रुपण सजा देने में, और स्वोपमना मे कर्तव्यनिर्णय सम्पत्ति का लाग्यवाँ हिस्सा है जब कि उस गरीब Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की वह पूरी सम्पत्ति है इसलिये लखपति न्याया, निर्णय कर सकता है । अपायता में भी कर्तव्याधीश को यह सोचना चाहिये कि मेरी सारी सम्पत्ति कर्तव्य के निर्णय में बड़ी मदद मिलती है। नहीं कोई ले जाता तो मझे कैमा लगता, तब वह को अधिक सुख जीवन का ध्येय है ही, जो गरीब के एक रुपये की चोरी का मूल्य समझ कसौटी के काम अमरना है। जायगा । आत्मौपम्य का विचार करते समय सिर्फ इस प्रकार कर्तव्याकर्तव्य निर्णय होने से घटना के रूप को न देखना चाहिये किन्तु घटना निर्दोष प्रवृत्ति का पता लग सकता है जो कि का जो सुख दःख रूप प्रभाव हो उमेदग्बन मदाचार का अवश्यक अंग है। चाहिये तत्र आत्मौपम्य भाव से ठीक ठीक निर्णय होगा। ___ भगवती अहिंसा के स्वरूप में निवृत्ति की मुख्यताहान पर भी आवश्यक प्रवृति.पर उपेक्षा प्रश्न - महात्मा ईसा कहा करत थे कि कोई नहीं की जासकती। फिर भी निवृत्ति से प्रारम्भ होने तुम्हारे एक गाल पर तमाचा मारे तो तुम दूसरा के कारण और उसकी मुख्यता होने के कारण गाल अगे करदो । ऐसे लोग आत्मौपम्य भाव से निषेध-परक अहिंसा शब्द का उपयोग उचित विचार करें तो दूसरे गाल पर तमाचा खाना ही आर आवश्यक है। कर्तव्य हो जायगा अथवा जैसे वे दूसरे गाल पर तमाचा खाकर दुखी नहीं होते वैसे दूसरों को भगवती का मातृत्व भी समझ कर किसी को भी तमाचा जड़ देंगे प्रश्न- भगवती अहिंसा में मातृत्व का जो उनका आत्मौपम्य भाव तो यही निर्णय करेगा आरोप किया गया है, उनका कारण सिर्फ रही और इससे तो बड़ा अन्धेर फैल जायगा। मालूम होता है कि अकस्मात् अहिंसा शब्द स्त्री उत्तर-महात्माओं को दुःख नहीं होता यह लिंग निकल्ला । अगर इस के स्थान पर सदाचार बात नहीं है बल्कि उनकी सुख-दुःख-संवेदन- या प्रेम शब्द होता तो ईबर के. दो अंश दो शक्ति तीव्र होने से अधिक दुःख होता है. परन्तु लिंग में न बताये जा सकते । अहिंसा शब्द का संयमी या वीतराग होने से के क्षुब्ध नहीं होते आकस्मिक रूप में श्रीलिंग होना क्या ईश्वर को यही उनकी विशेषता है। आत्मौपम्य से वे यह नर नारी के रूप में विभक्त करने का पर्याप्त अवश्य समझते हैं कि अमुक व्यवहार से दुस0 कारण है ! को बड़ा कष्ट होता है क्योंकि कष्ट ता उन्हें भी उत्तर-- नर और नारी के मिले बिना होता है, इसलिये वे किसी को तमाचा न मारेंगे। पूर्णता नहीं होती और ईश्वर पूर्ण है इसलिये उम हां, नमाचा खाते हैं खाने का उपदेश भी देते में ये दोनों अंश अवश्य हैं । ईश्वर का उपयोग हैं इसका कारण यह है कि वे भगवनी अहिंसा जब जग-कल्याण के लिये किया जाता है तब की साधना का एक ऐसा तरीका बताते हैं जिम उस का विचार और आचार अंश से मनुष्य अपने शत्रु को प्रेम से जीत सके। उपयोगी होता है । विचार अंश बीज म्प होने खैर, आमौपम्य । स्वोपमता ] भावना एक से पुरुष अंश कहा जाता है और आचार अंश ऐसी कसौटी है जिमसे मनुष्य कर्तव्याकर्तव्य कल्याण मुष्टि का व्यापक उगदन होने से नारी Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९] सत्यामृत अंग कहाजाता है। सन्तान की सृष्टि और इसके स्थान पर प्रेम या आचार शब्द होता तो. वृद्धि में माता पिता का जो स्थान है वही कल्याण उनका लिंग बदलना पड़ता क्योंकि ईश्वर के की सृष्टि और वृद्धि में आचार और विचार का जिस अंश के ये वाचक हैं उसका सम्बन्ध स्थान है। इसलिये अहिंसा माता है। अगर नारीत्व से है। . अहिंसा शब्द स्त्रीलिंग न होता तो उसे स्त्रीलिंग अहिंमा में मातृत्व का आरोप उसके शब्दबनाना आवश्यक हो जाता क्योंकि वह ईश्वर के उसी लिंग के कारण नहीं किन्तु ईश्वर के नारीत्व अंश अंश का वाचक है जिसे नारीत्व कहा जा सकता है। रूप होने के कारण किया गया है । शब्दों में जो लिंग भेद होता है वह किसी यह भगवती अहिंसा है, जो जगत के सारे न किसी प्रकार के अर्थभेद का सूचक है। कल्याणों की जननी है। अहिंसा सत्य अचौर्य अपजब शब्द का लिंग अर्थ की लैंगिक भावना के रिग्रह व्रत जिसके अंग हैं, इनके साधक अनेक अनुरूप नहीं होता तब हमें रूपक आदि के उपनियम जिसके उपांग हैं, अकषायता निर्वैरता द्वारा शब्द का लिंग बदलना पड़ता हे या काला- कर्मयोग आदि जिसके प्राण हैं, समस्त धर्म मत न्तर में जनता स्वयं उसका लिंग बदल लेती है। या मजहब जिसके वस्त्र हैं, देश काल से सम्बन्ध विजय शब्द मूल में पुल्लिंग होने पर भी युद्ध में रखनेवाले बाह्याचार जिसके वस्त्र के रंग हैं, उसका स्थान जब स्वयम्वर की कन्या के समान कल्याण के लिये उपयोगी अनेक गुण जिसके होगया तब विजय श्री आदि रूपों से उसका स्त्री आभषण हैं; वही जगदम्बा भगवती अहिंसा है लिंग बना दिया गया और हिन्दीवालाने तो जिसकी उपासना से सब धर्मों की उपासना हो उसे स्वतन्त्ररूप में ही स्त्रीलिंग मान लिया। जाती है और जिसके बिना कोई क्रिया धर्म नहीं भाग्य से अहिंसा शब्द स्त्रीलिंग है अगर कही जा सकती। सारे नियम यम अंग तेरे वस्त्र तेरे धर्म हैं । ये वस्त्र के सब रंग दैशिक और कालिक कर्म हैं । गुण गण सकल भूषण बने चैतन्यमयि हे भगवती। है विश्वप्रेममयी अभय दे अमर ज्योति महासती ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NIVERSITY 7- MOD ALLAHABA आचारकांड- दूसरा अध्याय ( भगवती की साधना ) साधना और आराधना किसी वस्तु को सिद्ध करने का प्रयत्न साधना है । भगवती अहिंसा की साधना का मतलब है कि हम अपना जीवन ऐसा बनावें जिससे हम पर भगवती की कृपा हो और जगत् में सुख वृद्धि हो । दूसरे शब्दों में यो कहना चाहिये कि अपना जीवन विश्वकल्याण के लिये उपयोगी बनाना भगवती की साधना है । हम स्वयं सदाचारी बनें जगत् को सदाचारी बनाने का प्रयत्न करें दुराचार का प्रसार न होने दें उसे हटाने का प्रयत्न करें यह सब भगवती अहिंसा की साधना है । भगवती के गीत गाना उसकी मूर्ति बनाना उसे प्रणाम करना आदि भगवती की साधना नहीं है वह तो सिर्फ आराधना या पूजा है । आराधना साधना की तरफ प्रेरणा करती है परन्तु जितने अंश में साधना की तरफ प्रेरणा है उतने ही अंश में आराधना की सार्थकता है। आराधना व्यवहार का विषय है और साधना आचार का इसलिये यहां माधना का ही वर्णन किया जाता है । ईश्वर और शैतान भगवती अहिंसा की साधना का वर्णन करने के पहिले कुछ भेद प्रभेदों का समझ लेना जरूरी है क्योंकि उसकी साधना का रूप तभी अच्छी तरह समझा जा सकेगा । 1 आध्यामिक विश्व दो भागों में विभक्त है एक सत् अर्थात् ईश्वर दूसरा असत् अर्थात् पाप या शैतान । ईश्वर के दोरूप हैं भगवान सत्य और भगवती अहिंसा । पाप या शैतान के दो रूप हैं पापी मिध्यात्व और पापिनी हिंसा । दृष्टिकांड में भगवान सत्य का वर्णन विस्तार से हुआ है। उसके विरुद्ध जो विचार या श्रद्धा आदि है वही पापी मिध्यात्व है । भगवती अहिंसा और पापिनी हिंसा का वर्णन इस आचार कांड में किया जा रहा है 1 यह कहा जा चुका है के लिये उपयोगी समस्त ब्राह्म अभ्यन्तर । कायिक मानसिक) आचार के समुदाय को भगवती अहिंसा कहते हैं इसका मतलब यह हुआ कि विश्वकल्याण के विरोधी समस्त बाह्य आभ्यन्तर आचार को पापिनी हिंसा कहते है । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ ] मत्यामृत व्यवहार पंचक भक्षण का अवसर आ जाने पर भी वह विनिमय जब कोई प्राणी हमारे स्वार्थ के सम्पर्क में करता है तो यह उसकी अहिंसा का कार्य है, आता है तब हम उसके स्वार्थ के विषय में पांच विनिमय यहां पर रक्षण बन गया है । इसी तरह का व्यवहार करते हैं १ वर्धन, २ रक्षण, प्रकार विनिमय जहां भक्षण बन जाय वहां हिंसा ३ विनिमय, ४ भक्षण, ५ तक्षग, । इन में से म नसे कार्य हो जायगा । जैसे माता पिताने सर्वस्त्र वर्धन और रक्षण भगवती अहिंसा के कार्य हैं लगाकर पुत्र का पालन किया पुत्र समर्थ होकर और भक्षण तक्षण पापिनी हिंमा के । विनिमय न इतना कमाने लगा कि वह माता पिता का पोषण तो हिमा है न अहिंसा, किन्तु भक्षण और तक्षण कर सके अब माता पिता का रक्षण करना उस के अवसर पर भी विनिमय किया जाय तो वह का कर्तव्य है पर वह माता पिता से कहता है अहिंसा का कार्य हो जायगा और वर्धन या कि तुम कमाकर लाओ तो खाना दूंगा नहीं तो रक्षण के स्थान पर विनिमय किया जाय तो वह नहीं, यह रक्षण के स्थान पर जो विनिमय है वह हिंसा का कार्य हो जायगा । हिंसा है क्यों के यह विनिमय भक्षण बन गया है। इसमें लिये हुए नैतिक ऋण का. चुकाना नहीं है, १ वर्धन-विनिमय का विचार न रखते हुए इसमें कृतघ्नता है इसलिये यह हिंसा है भक्षण है। दुसरे के सुखको बढ़ाना वर्धन है। जैसे हमने भक्षण-अपने स्वार्थ के लिये दूसरों के किसी को दान दिया और इस बात की पर्वाह न की कि हमें यश मिलेगा या नहीं तो यह जीवन का, उनकी शक्तियों का या उनकी सम्पत्ति का, उचित बदला दिये बिना अर्थात वर्धन हुआ । विनिमय का उत्तर दायित्व लिये बिना छल या २ रक्षण-विनिमय का विचार न रखते बन के प्रयोग से उपयोग करना या उसका हुए दूसरे के सुव का रक्षण करना या उसको प्रयत्न करना भक्षण है। जैसे चोरी करना, दुख न होने देना रक्षण है। जैसे किसी की ठगना, किसी देश को या जाति को या मनुष्य को मम्पत्ति को चोर आदि से बचाना। गुलाम बना लेना आदि । भक्षण जब विश्वहित ३ विनिमय-ऐमा लेन देन, जिससे अपना भी के विरुद्ध हो जाता है तब हिंसा पापिनी का स्वार्थ सिद्ध हो और दृमो का भी स्वार्थ सिद्ध कार्य कहलाता है। हो, विनिमय है । जैसे बाजार में हमने सौदा प्रश्न-एक साधु भिक्षा तो लेता है पर खरीदा, हमने पूरे पैसे दिये उसने परा सौदा उसके बदले में कुछ नहीं देता न भिक्षा देनेवाली दिया यह विनिमय है । परन्तु मानलो मैंने कहा जनता ही इस बात की पर्वाह करती है तो क्या कि मे जरा दूसरे काम में जाता हूं तुम सौदा यह भक्षण हिंमा कहलायगा । बाल कर सम्बना, मौदा ऐसा है कि अगर दूकान- उत्तर-साधु के ऊपर समाज सेवा की जो दार घोड़ा बहुत कम तौले तो पकड़ा न जाय जिम्मेदारी है उसमें विनिमय का सिद्धान्त काम फिर भी बह जरा नी कम नही नालता या उन कर रहा है इसलिये साधु भक्षक नहीं है । अगर मेंबरराव मान्द गामि नहीं करना इस प्रकार पेट पालने के लिये या आदर पूजा यश लूटने Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती की साधना [ २३२ के लिये किसीन साधु वय लिया या और किसी के अहंकार को चरितार्थ करने के लिये खुराक तरह से साधुता का प्रदर्शन किया है तो अवश्य देना पर उन की वास्तविक मेवा न करना भयंकर ही वह भक्षक है इसलिये हिंसक है। छल है इसलिये यह भक्षण है, हिंमा है। प्रश्न- साधुता का चिन्ह यही है कि उस प्रश्न- वृद्धावस्था या शैदान वस्था या रोग के जीवन में विनिमय का विचार न हो। वह देते आदि के कारण कोई बदला नहीं दे सकता तो समय अधिक से अधिक दे और लेते समय कम क्या वह हिंसक है? से कम ले । अगर वह एसा करता है तो जनता उत्तर- बद्ध या शिशु या रोगी छल या बल को भक्षण का पाप लगता है अगर वह ऐसा नहीं का उपयोग नहीं करता इसलिये वह हिंसक नहीं करता तो उसे भक्षण का पाप लगता है ऐमी है। हाँ कोई मुफ्त में खाने के लिये रोगी या हालत में साधुता अनर्थकर कहलाई। अधिक सेगी या अदार बनने कागकरे, कढाचित् उत्तर-- अगर साधु अपनी सेवा के मूल्य इसलिये वह बन भी जाय तो अवश्य बह छली से अधिक यश आदर या ऐश आराम लेता है है, हिंसक है। तो वह भक्षक है, हिंसक है, क्योंकि उसका वह लेना छल से है साधु वेषकी ओट में वह जनता प्रश्न - वृद्धावस्था में बहुत से लोग काम तो कर सकते हैं परन्तु इसलिये नहीं करते कि उन को धोखा देता है उसके भोले पन का दुरुपयोग के काम करने से जवानों को काम नहीं मिटता करता है, परन्तु अगर वह जनता को अधिक बेकारी बढ़ती है इसलिये वे वृद्ध बिना सेवा के ही देता है तो वह दानी है साधु है, परन्तु जनता खाते है तो क्या उन्हें मक्षक और हिंसक भक्षक नहीं है क्यों कि जनता साधु से लेने के २.हा जाय? लिये छल या बल का उपयोग नहीं करती। छल और बल ये हिंसा पापिनी के दो शस्त्र हैं जहाँ उचर बेकरी न बढ़ पावे इसलिये अगर ये दोनों नहीं हैं वहाँ हिंसा पापिनी निकम्मी उनन काम छाड़ा ह ता उन्म उनने काम छोड़ा है तो उन्हें कि के हो जाती है। काम न करना चाहिये पर जनसेवा के और भी ऐसे काम है जिनके करने से बेकारी न बढेगी प्रश्न-- कोई साधु वेषी समाज को उचित उन कामा का करने में आपत्ति न होना चाहिये। बदला नहीं देता किन्तु लेता बहुत अधिक है फिर भी उसे भक्षक कैसे कह सकते हैं क्यों कि प्रश्न-कोई आदमी इसलिये काम नहीं वह किसी के साथ जबर्दस्ती नहीं करता लोग करना चाहता कि उसने जीवन में इतना अधिक खुशी से उसे देते हैं तो वह क्या करे ! काम किया है कि अब उसे विश्राम की जरूरत उत्तर-- इससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होता या इच्छा है तो क्या उस भक्षक कहेंगे? है कि वह बल का प्रयोग नहीं करता, पर छल उत्तर-नहीं. यह तो विनिमय का सवाल का भी प्रयोग नहीं करता यह नहीं कहा जा है अगर वह इतनी सेवा कर चुका है कि उसके सकता। लोगों की अन्धश्रद्धा का उपयोग करना बदले में वह विश्राम ले सकता है तो विश्राम और अन्धश्रद्धा को सन्तुष्ट रखने के लिये या उन उसकी पहिली मेवा का ही बदला हुआ उसमें Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ ] सत्यामृत - . . . . भक्षण न हुआ। परन्तु पुरानी सेवाओं का वास्त- पशु का जीवन इतना बेजिम्मेदार है तब उसको विक मून्य ( बाजारू मूल्य नहीं ) जानना कठिन मनुष्योचित स्वतन्त्रता मिलना कठिन है । उसके है इसलिये जहां तक हो सके उसे सेवा कार्य अनुरूप विनिमय के सिद्धान्त पर उससे सेवा ली करना ही चाहिये । हां अगर वह देखे कि मेरी जाय यही ठीक है। मकर ने कट जा रही हैं या लाभ के बदले प्रश्न--साधारण पशुपालन को विनिमय हानि कर रही हैं तब वह निवृत्त भी हो सकता कहा जा सकता है पर गोपालन तो विनिमय है या कुछ समय के लिये निवृत्त हो सकता है। नहीं कहा जा सकता क्योंकि हम उसका दूध प्रश्न-पशुपालन आदि भी एक तरह का पीते हैं । किसी के दूध पर भी अधिकार जमा भक्षण है क्योंकि इसमें पशुओं की शक्ति का अधिक लेना तो एक तरह का अन्याय है खास कर से अधिक उपयोग किया जाता है जब कि उन्हें बछड़े के साथ तो अन्याय है ही। भी मनुष्य के समान स्वतन्त्रता से जीवित रहने उत्तर-जिन जानवरों से दूसरा कोई परिश्रम का अधिकार है। नहीं लिया जा सकता फिर भी अगर हम उनका ..उत्तर-इसमें कुछ न कुछ भक्षण होने पालन पोषण रक्षण करते हैं तो उनसे दूध लेना की सम्भावना पूरी है फिर भी पशुपालन बिलकुल अनुचित नहीं है। पालन पोषण का उचित भक्षण नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उनसे बदला मिलना जरूरी है और वह दूध के द्वारा जो सेवा ली जाती है उसके बदले में सेवा की भी मिल सकता है इसलिये दूध लिया जाता है । भी जाती है और उनका रक्षण भी किया जाता बछड़े के पालन पोषण की जिम्मेदारी भी हमारे है इसलिये पशुपालन विनिमय के सिद्धान्त पर ऊपर है इसलिये बछड़े को भी कुछ त्याग करना खड़ा हुआ है। हां, निर्दयता से सवा लेना उन पड़ता है फिर भी कुछ दिनों तक तो उसे पूरा की ठीक रक्षा न करना भरपेट खाने न देना दूध दना ही चाहिये दिया भी जाता है बाद में अवश्य भक्षण है इसलिये हिंसा है। यद्यपि मनुष्य दूध के बदले में कोमल घास दिया जाता है के समान पशु को भी स्वतन्त्रता से जीवित रहने और थोड़ा दूध भी चालू रहता है। एक बात और के अधिकार है परन्म अधिकार कुछ जिम्मेदारी भी है कि जितना दूध पैदा होता है उतना दूध भी मांगता है। मैंने अपने मकान के पास थोड़ी सदा बछड़ा पीता रहे तो उसके पेट में कीड़े मी जगह में शाक तरकारी लगाई में उसके लिये पड़ जाते हैं इसलिये सारा दूध उसे पिलाना भी दिन में दो बार पानी देना हूं जमीन को तयार न चाहिये इस बचे हुए दूध का उपयोग मनुष्य किया था स्वाद लाकर डाला था अब भी साफ करे तो बुराई नहीं है। मतलब यह है कि बछड़े मामाई करता है इस प्रकार मेरे बड़े परिश्रम का को भूखा माना पड़े भूख के कारण उसका फल कई पशु बिना पूछे ग्वा जाना है अगर विकास रुक जाय ऐसा न होना चाहिये । बछड़े में बाम बोहगाडकर ये क भी लगाता हूं तो बह का भी खयाल रक्खा जाय और दूधारू जानवर के उपक भी पहनीवरता, और दूसो पशु का पालन के लाभ का अर्थात् विनिमय का भी लक्ष्य म . चूकता इस प्रकार जब रक्खा जाय तो गोपालन आदि में पाप नहीं है । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती की साधना प्रश्न--शहद में मधुमक्खियों के धन का छल से या बल से अपहरण ही किया जाता है यह तो भक्षण ही कहलाया इसलिये शहद का उपयोग भी हिंसा मानना चाहिये। जो लोग मधुमक्खी पालते हैं वे भी छलसे अपहरण करते हैं । उत्तर - हिंसा तो यह ही, परन्तु है बहुत थोड़ी मात्रा में शहद मक्खियों का ऐयाशी भोजन है और मनुष्य की दवा है। मधुमक्खी यों तो अपना पेट भर ही लेती हैं संचित मधु के अभाव में वह भूखों नहीं मरती इसलिये हिंसा कम ही रह जाती है फिर औषध के लिये जब मधु का उपयोग किया जाता है तब विश्वसुखवर्धन की दृष्टि से दुखवर्धकता बहुत कम रह जाती है । चैतन्य की दृष्टि से मधुमक्खी का स्थान मनुष्य या पशु के बराबर नहीं है । 1 यों तो प्रकृतिने भक्ष्यभक्षकमय संसार बना रक्खा है । मनुष्य जिस दिन से पैदा होता है उसी दिन से हिंसा आदि का विचार किये बिना भक्षण शुरु कर देता है । वायुमण्डल जीवों का पिंड है एक श्वास में ही लाखों सूक्ष्म प्राणी अपना जीवन खोदेते हैं परन्तु इस भक्षण को रोकना मनुष्य के वश के बाहर है इसमें छल तो है ही नहीं बल का भी प्रयोग नहीं है उसका सिर्फ उपयोग है । भक्षण में छलवल के प्रयोग का विचार करना चाहिये उसके प्राकृतिक उपयोग का नहीं, इसलिये यह प्राकृतिक संहार क्षन्तव्य है । शाकभाजी खाने में भी हिंसा होती है जीवन निर्वाह के लिये वह भक्षण भी अनिवार्य है इसलिये क्षन्तव्य है । इस भक्ष्यभक्षकमय संहार में मनुष्य इतना ही कर सकता है कि वह अधिक चैतन्य वाले प्राणियों को कम से कम दुःख दे और वनस्पति आदि हीन चैतन्यवालों [ २३४ को अनावश्यक कष्ट न दे और चैतन्य के माप से विश्वमुखवर्धन की तराजू को सम्हालता रहे । इस दृष्टि से शहद में अल्प मात्रा में ही हिंसा रह जाती है । तक्षण - विश्वहित की पर्वाह किये बिना प्राणों का नाश करना, प्राणी की शक्ति को नष्ट करना, रोकना, या उसके चित्त को क्लेशित करना तक्षण है । जैसे अहंकारवश किसी को मार डालना गाली देना आदि। यह सब हिंसा पापिनी का कार्य है । प्रश्न- भक्षण और तक्षण में अन्तर क्या है ! उत्तर- भक्षण में दूसरे की शक्ति आदि का उपयोग करने की मुख्यता है तक्षण में इस की मुख्यता नहीं है किसी दूसरे कार्य के लिये सिर्फ ने एक आदमी को इसलिये मार डाला कि उसने दूसरे की बर्बादी की जाती है। जैसे किसी डाकू डाका डालते समय डांकू को पहिचान लिया था । डाकू को डर था कि वह गवाह बनकर पकड़ा देगा । यहाँ डाकू को उस आदमी का उपयोग नहीं करना था सिर्फ अन्याय्य आत्मरक्षा के लिये उसका नाश करना था। प्रश्न- म. राम ने सीता के लिये रात्रण का वध किया यह भी लक्षण कहलाया ? क्या यह हिंसा पापिनी का कार्य है ! उत्तर- तक्षण तो यह जरूर है पर यह तक्षण हिंसा पापिनी का कार्य नहीं है। क्योंकि यह विश्वहित के विरुद्ध नहीं है, बल्कि विश्वहित के लिये जरूरी है। प्रश्न - आत्महत्या बड़ा पाप माना जाता है परन्तु उसमें न तो किसी का लक्षण है न किसी का तक्षण, तब वह पाप क्यों ! Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५) सत्यामृत उत्तर--उसमें तक्षण है क्योंकि उसमें प्राणों इसलिये सब मनोवत्तियों को कषाय नहीं कहते । का नाश किया जाता है चित्त को क्लेशित किया इस बात को अच्छी तरह से समझने के लिये जाता है । मनुष्य आत्महत्या तभी करता है जब मनोवृत्तियों के भेद प्रभेदों को अच्छी तरह जान कोई बात-घटना या परिस्थिति उसकी इच्छा के लेना चाहिये। प्रतिकूल हो जाती है । उसके कारण जब उसके मनोवृत्ति के भेद मन में दूसरों पर क्रोध मान या मोह का ऐसा मनोवृत्ति दो तरह की होती है १ इच्छाउद्वेग पैदा होता है जिसे वह सह नीं सकता तब आत्महत्या करता है । जहाँ आत्महत्या विश्व रूप २ अनिच्छारूप । इच्छारूप के तीन भेद सुख वर्धन का अंग है वहाँ वह भगवती अहिंसा हैं १ प्रेम ( उत्तम ) २ रुचि ( मध्यम ) ३ का प्रसाद बन जाती है इसलिये वह धर्म है। मोह ( जघन्य ) । अनिच्छारूप के तीन भेद हैं ___ भगवती अहिंसा की साधना के लिये यह १ विरक्ति ( उत्तम ) २ अरुचि ( मध्यम ) आवश्यक है कि हम वर्धन और रक्षण का कार्य ३ द्वेष ( जघन्य ) । प्रेम और विरक्ति एक ही करें भक्षण सीमित और कम से कम करें तक्षण तिक्केकी दो बाजू की तरह है, इसी प्रकार रुचि से बचें अथवा उतना ही तक्षण करें जितना और अरुचि, मोह और द्वेष । प्रेम के तीन भेद वर्धन या रक्षण के लिये अनिवार्य हो उठा हो। हैं १ भक्ति २ वात्सल्य ३ मैत्री। रुचि के हिंसा पापिनी के दो शस्त्र हैं छल और बल, इन पांच भेद हैं १ काम २ हास्य ३ आशा ४ शस्त्रोंका उपयोग हम न करें न्याय को ही परम उत्साह ५ आश्चर्य । उसमें काम के चार भेद हैं शस्त्र समझें । परन्तु जहाँ न्याय के लिये या वर्धन १ भोग २ उपभोग ३ सहभोग ४ स्वभोग । और रक्षण के लिये या हिंसा पापिनी को परा- मोह के चार भेद हैं १ अर्थ मोह ( लोभ ) जित करने के लिये उसी के शस्त्र की जरूरत २ नाम मोह, ३ जाति मोह ४ कुल मोह । हो वहाँ छल और बल का भी उपयोग करें पर विरक्ति दो तरह की है १ चिकित्सा २ उपेक्षा। इन्हें एक प्रकार से अपवाद समझें । अरुचि पांच तरह की है १ घृणा २ शोक ३ साधना के अंग चिन्ता ४ भय ५ आश्चर्य । द्वेष तीन तरह का भगवती की साधना के तीन अंग है। है ? १ क्रोध २ मान ३ छल । मोह क्रोध मान १ मन २ जीबन और ३ लोक । अपने मन को ___ और छल इन चारों को कषाय कहते हैं । " पवित्र अर्थात् अकषाय बनाना मन सावना है। मनोवृत्तियों के जो भेद प्रभेद यहाँ बताये काय मन की वह मलिन अवस्था है जो अपने गये हैं उन सबके अर्थात प्रत्येक के दो दो रूप होते और दूसरों के दुःख का कारण है, जैस क्रोध है एक वह जो बहुत समय तक अन्दर ही अन्दर कोभ मद आदि । मन की चंचलता का नाम संस्कार रूप में बना रहता है दूसरा वह जो मसिलता नहीं है और न मन की स्थिरता का क्षणिक आवेगों के रूप में आता है और शीघ्र नाम शुद्धता । दुष्मान में भी मन स्थिर हो जाता मिट जाता है संस्कार रूप में वह बहुत समय है और पवित्र हाय भी आनन्दनृत्य करता है तक नहीं रहता । उत्तम श्रेणी की मनोवृत्तियों के Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती की साधना [२३६ संस्कार रूप को तेज कहते हैं आवेग रूप को उत्तर-ईश्वर को हमारी अनुकूल प्रतिछाया । मध्यम श्रेणी के संस्कार रूप को धारा कूलता की पर्वाह भले ही न हो पर हमारे मनमें कहते हैं आवेग रूप को लहरी । जघन्य श्रेणी के वह भावना रहना चाहिये। अथवा ईश्वर के संस्कार रूप को किट्ट कहते हैं और आवेग बनाये हुए संसार के अनुकूल रहना उसके संदेश रूप को कालिना। अब इन सब का स्वरूप के अनुसार चलना ईश्वर के अनुकूल होना है। वर्णन कर दिया जाता है। प्रश्न- किसी ऐसे देव की भक्ति भी गुणाप्रेम-अपने को दूसरों के अनुकूल बनाने विकता के कारण हो सकती है जो जगत बनाने की भावना प्रेम है। जब हमारे मनमें विश्वके वाला भी न हो और जो संदेश भी न देता हो, अनुकूठ बनने की भावना होती है तब विश्वप्रेम जैसे जैन लोग सिद्धभक्ति करते हैं। सिद्ध पैदा होता है। इस अवस्था में मनुष्य पूर्ण ह । इस अवस्था म मनुष्य पृण अर्थात् मुक्तात्मा न तो जगत्कर्ता माने जाते हैं निष्पक्ष और निःस्वार्थ हो जाता है इसी का नाम न उपदेशक, फिर उनके विषय में भक्त की अनुवीतरागता वीतमोहता जिनत्व बुद्धत्व कैवल्य या कलता क्या? स्थितिप्रज्ञता है। उचर-उनकी विशेषता को अनुकरणीय __पात्र के भेद से प्रेम के तीनरूप होते हैं मानना यथाशक्ति उसका अनुकरण भी करना भक्ति, वात्सल्य और मैत्री । भक्ति-अपने से अधिक गुणियों में, उप- प्रश्न- आपके मतानुसार प्रेमकी पराकाष्ठ, कारियों में, वयोवृद्धों में जो आदर सहित प्रेम से मनुष्य वीतराग होता है परन्तु अबदार में इससे होता है वह भक्ति है। जैसे ईश्वरप्रेम आदि। उल्टा ही देखाजाता है। माता से अधिक से वात्सल्य--अपने से छोटे व्यक्तियों के विषय अधिक प्रेम करती है फल यह होता है कि वह में जो प्रेम होता है उसे वा नल्य कहते हैं। बेटेके सौ खून माफ करने को तैयार रहती है पर दया करुणा आदि वात्सल्य के ही पर्याय नाम है। पुत्रविरोधी बड़े से बड़े न्यायी और वीतराग से मैत्री-छोटे बड़े का विचार किये बिना भी द्वेष करती है इसलिये प्रेम तो अनर्थका ही या बराबरी के भाव से जो प्रेम होता है वह मूल है। मैत्री है। उत्तर- जो अनर्थका मूल है वह प्रेम नहीं इन तीनों में अनुकूल बनने की भावना है है मोह है। मोह और प्रेम में बड़ा अन्तर है। सुख वृद्धि की भावना है इसलिये ये तीनों कषाय- प्रेम में विवेक और विश्वकल्याण है मोह में अविवेक रूप नहीं है। और स्वार्थ है। उपर्युक्त माता के उदाहरण में प्रेम नहीं माह है। प्रश्न--भक्ति अगर प्रेम है तो उसमें अनुकूल वृत्तिता होना ही चाहिये पर ईश्वर भक्ति में वह प्रश्न- भक्तिपत्र के माथ मैत्री का और कैसे होगी? क्योंकि ईश्वर तो कृत्यकत्य है उसे मैत्री योग्यके साथ वात्सल्य का व्यवहार करने से अनुकूल क्या और प्रतिकूल क्या? दुःख भी बनता है इमरियमी और वास्मल्यको Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत प्रेम रूप कैसे कह सकते हैं अथवा उसे अकषायता हुआ ललाई उड़गई बादलों की आकृतियाँ बिखर कैसे मान सकते हैं। गई कुछ बूंदे गिरी गर्मी में कुछ ठंडक सी मालूम उत्तर- यहाँ कर है मैत्री और वात्सल्य हुई मैंने सोचा- बनना बिखरना तो दुनिया नहीं। जब हम किसी भक्तिपात्र के साथ सिर्फ का स्वभाव है रंग जाता है रस आता है क्या बुरा मैत्रीका व्यवहार करते हैं उस समय हमारे मन में है, इस विचार से निराशा और खेद उड़ गये पर बराबरी प्रगट करने का या व्यक्तित्व का अन्तर तभी से बादलों को देखकर प्रेम का अनुभव मिटाने या कम करने का अहंकार रहता है इसलिये करता हूं बादल जड़ है उससे मैत्री आदि नहीं हो यहाँ प्रेम न रहा अहंकार रहा। अहंकार द्वेष सकती दूसरों का संस्मरण भी उससे नहीं होता रूप होने से कषाय है। प्रेम कषायरूप नहीं है। जिससे उनके अनुरूप बादल में भाव लाया जाय प्रश्न- जिससे हमें प्रेम होता है उस की जैसे मूर्ति में भक्ति लाई जाती है । अब बतलाइये स्मारक वस्तु से भी प्रेम होता है । मनुष्य गुरु की यहाँ प्रेम का कौन रूप है। . जूती की तरफ भी प्रेम की निगाह से देवता है उतर-- जो वस्तु हमें अज्ञान से ज्ञान में आदर भी करता है ऐसे प्रेन को किस भेद में लाने का निमित्त बनती है उसके विषय में भक्ति रक्खा जाय ! मैत्री आदि तो प्राणियों से रक्खी पैदा होती है, जो किसी काम में सहायक होती जाती है जड़ पदार्थों से नहीं। है उससे मैत्री का भाव आता है, जिस में छोटेउचर-- जड़पदार्थों में भी भक्ति प्रेम वात्स- पन के भाव के साथ प्रेम होता है उस में ल्य रक्खा जाता है यह सब उसी के अनुसार होता वात्सल्य आता है। फिर भी एक बात हमें ध्यान में है जिसके बे स्मारक हैं स्मारक तो एक तरह की रखना चाहिये कि इस प्रकार का वस्तुप्रेम मूर्त है सहाग है। मूर्ति की भक्ति वास्तव में बहुत ही जल्दी मोह बन जाता है । इस प्रकार मति की भक्ति नहीं होती किन्तु मूर्ति के द्वारा की अधिकांश मनोवृत्तियाँ अर्थमोह या कुलमोह किसी अन्य की भक्ति होता है उसी प्रकार स्मारक की श्रेणी में चली जाती है पर अगर मोह न बने के द्वारा हम स्मरणीय का ही प्रेम करते हैं। तो उन की योग्यता या उपकार के अनुसार उनमें इसलिये स्मारक और स्मरणीय के प्रेम में अन्तर भक्ति वात्सल्य या मैत्री की मनोवृत्ति होती है । नहीं होता दोनों एक ही भेद में शामिल होते हैं। रुचि-दसरों के नैतिक अधिकार छीने प्रश्न-जिस वस्तु का सम्बन्ध दूसरे से है बिना आवश्यकताओं को पूरी काने का भाव रुचि उस में भकि मैत्री या बात्सल्य रक्खा जासकेगा है। प्रेम में स्वार्थ गौण है विश्वहित या परहित पर एक चीज ऐसी है जिसका दूसरों से कोई मुख्य है, रुचि में नैतिक स्वार्थ की मुख्यता है सम्बन्ध नहीं। जैसे मानलो में असफलताओं से परहित गौण है। रुचि अगर न्याय के बाहर निराश होकर बैठा हूं सेचता हूं कि हिले कैसा चली जाय विश्वहित के विरुद्ध हो जाय तो मोह वैभव था रंग राग था पर अब तो सब कुछ बन जायगी । स्थितिप्रज्ञों योगियों और अहंतों में चलाया, इस समय बादलों पर दृष्टि पड़ी सन्ध्या भी रुचि पाई जाती है पर मोह नहीं पाया जाता। की ललाई उनपर बाई की थोड़ी देर में अंधेरा का था। देर में अवेरा काम-रुचि के पांच भेदों में पहिला भेद Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती की साधना । २३८ काम है । यहां काम का अर्थ है मन या इंद्रियों मालिश कर लेना भोग है उसे सूंघ लेना की प्यास बुझाना । यह रुचि का भेद होने से उपभोग है। रुचि की मर्यादा इसे भी लागू है इसलिये यह प्रश्न-- जो परमाणु संघ लिये जाते हैं वे तो विश्वहित के विरुद्ध न होना चाहिये । स्वादिष्ट फिर नहीं सैंधे जाते इसलिये उन्हें भोग ही क्यों भोजन की इच्छा, सुगंध लेने की इच्छा, गीत न कहना चाहिये ! संगीत आदि सुनने की इच्छा, प्राकृतिक या और उतर- भोग उपभोग का विचार फूल की किसी तरह के सुदृश्य देखने की इच्छा, कोमल दृष्टि से करना है उसकी गंध की दृष्टि से नी ! विस्तर आदि की इच्छा, या पति पत्नी सम्मिलन __गंध तो स्वाभाविक गतिसे फैल ही रही है। फल के र की इच्छा, यश आदर सत्कार की इच्छा, यह सब जो गन्ध परमाणु हवा में फैल रहे हैं व नाक में काम है । यह प्रायः सभी को होती है । पर जो गये या और कहीं इस का फल से कोई सम्बन्ध संयमी है वह इनमें से उतने का ही सेवन करता करता नहीं इसलिये वह फट का उपभोग ही कहलाया। है जो विश्वप्रेम या विश्वहित के विरुद्ध न जाय जब कि मोही व्यक्ति इनका इतना सेवन कर जाता है कि जहाँ दो प्राणी एक ही क्रिया से एक दूसरे विश्वहित नष्ट हो जाता है न्याय अन्याय की उसे का एक तरह का भोग करते हैं उसे सहभोग पर्वाह नहीं होती । काम मर्यादित हो तभी वह __कहते हैं । भोग और उपभोग में एक कामी रहन रुचि का भेद बनता है। है एक काम का विषय, सहभोग में दोनों कामी रहते हैं दोनों ही काम के विषय | जैसे पानिपनी के इस काम के चार भेद है भोग उपभोग सइ- कामक्रीडा में दोनों एक दूसरे का एक तरह का भोग स्वभोग।किसी चीज का ऐसा उपयोग करना भोग करते हैं दोनों को स्पर्श सम्बन्धी सुख जिससे दृमरे बार अपने लिये उसकी वैसी उपयो मिलता है इने सहभोग कहते हैं । भोग उपभोग गिता न रहे भोग है। जैसे रोटी खाना पानी पीना में भोज्यभेजकभाव एकतर्फी रहता है सहभोग आदि । रोटी खा लेने पर खाई गई रोटी फिर अपने लिये जाने की चीज नहीं रहती इसलिये में दुती, यही सहभोग की विशेषता है। यह भोग है। रोटी पेट में जाने पर वहां के कभी कभी सहभोग उपभोग भी बन जाता कृमियों के खाने के काम भले ही आवे पर वह है। एक में काम की इच्छा हो और दूसरे में अपने खाने के काम नहीं आ सकती इमलियनोगहै। काम की इच्छा न हो इस प्रकार एक की रुचि ऐमा उपयोग कि एकबार उपयोग लेने के बाद और दूसरे की अरुचि में जो सहभेग की क्रिया भी वस्तु मरे बार अपने उपयोग में आ सके की जायगी वह सहभोग न रहेगी उपभोग हो उपभेग है जैसे पलंग आदि । एक ही चीज जायगी। क्योंकि इस में अननियादा प्राणी किसी दृष्टि से भोग है किसी दृष्टि से उपभोग। भोक्ता नहीं बनपाता । बलात्कार की घटना एक फूट देखने और सूबने की दृष्टि से उपभोग सहभोग नहीं है उपभोग है। है किन्तु आवश्यकतावश मसठकर उसका लेप प्रश्न- एक आदमी सुन्दर गान गारहा है कर लिया जाय तो भोग हो जायगा । तेल का उसके गान से लोग खुश हो रहे हैं और लोगों Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ ] की खुशी से गानेवाले का भी आनन्द बढ रहा है। इस प्रकार दोनों ही आनन्दमग्न हो रहे हैं इसे सहभोग कहा जाय या उपभोग ! उत्तर-- यह उपभोग ही है क्यों कि दोनों का भोग एक तरह का नहीं है । लोगों को संगीत का आनन्द आरहा है जब कि गायक को अपनी सफलता का आनन्द आरहा है - इससे मुझे यश मिलेगा, आदर मिलेगा, पैसा अधिक मिलेगा आदि । मतलब यह कि गायक कर्णसुख देने का आनन्द ले रहा है वर्णसुख लेने का नहीं | सम्भोग में दोनों का आनन्द एक ही जाति का होता है। मात्रा में भले ही सूक्ष्म अन्तर हो । सत्यामृत प्रश्न- गायक जो गाता है वह श्रोता के कान के समान गायक के कान में भी जाता है इसलिये दोनों का सुख एक ही जाति का कहलाया । तब इसे सहभोग क्यों न कहा जाय ? उत्तर- दोनों को कर्णसुख है पर जैसे गायक से मिला हुआ कर्णसुख श्रेता को है उस तरह श्रोता से मिला हुआ कर्णमुख गायक को नहीं है । सहभोग में यह आवश्यक है कि दोनों एक दूसरे के विषय हो । I अपने को विषय बनाकर अपना भोग करना स्वमोग है। एक आदमी अकेले में गाता है और खुद ही अपने स्वर का आनन्द लेता है दूसरा ले तो ठीक, न लेतो न मही, वह खुद ही अपने गाने में नाचने में मस्त है यह स्वभांग है। हास्य- आनन्द का उफान हास्य है । आनन्द का वेग जब कदम इस प्रकार उठता है कि भीतर समाने को उसे जगह नहीं मिलती त मनुष्य खिल उठता है इसी का नाम हास्य है । आशा- किसी इच्छित कार्य की मन में बार देखना | उत्साह - इच्छित कार्य करने की उमंग । आश्चर्य- - सम्भावना से अधिक कार्य या वस्तु के अनुभव में आने से पैदा होने वाला भाव । रुचि के ये पांचों भेद जब विश्वहित के साधक होते हैं तब प्रेमरूप हो जाते हैं, जब विश्वहित के बाधक होते हैं जब मोहरूप बन जाते हैं, विश्वहित के अविरुद्ध जब स्वार्थ के लिये होते हैं तब रुचि कहलाते हैं । आश्चर्य रुचि का भी भेद है और अरुचि भी, सम्भावना से अधिक इच्छित कार्य में रुचिरूप आश्चर्य होता है और सम्भावना से अधिक अनिष्ट कार्यमें अरुचि रूप आश्चर्य । आकस्मिक सुग्व से भी आश्चर्य होता है और आकस्मिक दुःख से भी । मोह - विवेकहित आसक्ति को मोह कहते हैं । प्रेम में विवेक रहता है इसलिये वह अन्याय को सहारा नहीं देता । प्रेमपात्र के सिवाय दूसरों से द्वेष करने को उत्तेजित नहीं करता जब कि मोह में यह विवेक नहीं रहता । मोह प्रेन की वह विकृत अवस्था है जिस का एक भाग बहुत गहरा हो गया है और दूसरा भाग द्वेष बनगया है । कषायका मूल यही है द्वेष भी इस मोह का ही परिणाम है । निमित्त के भेद से इस के चार भेद हैं। अर्थ तोह - जीवन के लिये उपयोगी वस्तु या इन्द्रियविषयसामग्री या उसे प्राप्त कराने वाली सामग्री का मोह अर्थमोह है । जैसे अन्न वस्त्र का मोह या अन्न वस्त्र को प्राप्त कराने वाले रुपये पैसे आदि का मोह अर्थमोह है । अर्थमोह को लोभ भी कहते हैं । लोभी कहने से अर्थमोही का ही ज्ञान होता है । नाममोह - हमारा नाम बढ़े, फैले, भले ही इस के लिये दूसरे की निन्दा करना पड़े दूसरे का Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती की साधना उचित यश या आदर छीनना पढ़े यह सब की एक बात मुझे याद अत: है कि हमारे घर में नाममाह है । यदि न्याय प्राप्त यश का उपभोग एक बैल था जिसके साथ मैं स्वतन्त्रता से खेलता हो यश की वेदी पर विश्वहित का बलिदान न हो था, कभी उसकी पीठ पर कभी गर्दनपर चढ़ जाता तो नाममोह नहीं है वह मानसिक काम है जो कि पूँछ से लटक जाता पर वह शान्त रहता मानों रुचिका भेद है। वह मुझे अपना बछड़ा ही समझता हो । जब मोह के जो ये भेद किये गये है वे निमित्त व्यापारिक असुविधा के कारण वह बेचा गया भेद से हैं मनोवृत्ति के भेद से नहीं। जैसे द्वेष के तब मैं उसके लिये कामा रोया । यद्यपि बैल के पूरे भेद कोधमान छल में मनोवृत्ति सम्बन्धी जातिभेट दाम मिले थे परन्तु बैल धन ही नहीं थ कुदाली में है वैसा अर्थमोह नाममोह आदि में नहीं है इसलिये था इसलिये उसका मोह मोह नहीं कुलमोह था। मोह को एक कषाय माना गया है जबकि द्वेष के प्रश्न- इसे मोह क्यों कहा जाय प्रेम क्यों भेद केध मान हल तीनों स्वतन्त्र कपाय माने गये हैं। न कहा जाय ।। जातिमाह- धर्म, देश प्रान्त नगर गली, उत्तर- मोह में विश्वहित अहित, न्याय व्यवसाय, गुण, आकृति, रूप, परिमाण, कार्य, अन्याय का विवेक नहीं रहता प्रेम में रहता है। नाम, आदि के भेद से जातिभेद की कल्पना इसलिये प्रेम है या मोह इसका विचार विवेक के अनेक तरह की होती है। बिना किसी रिश्ते के आधार पर कर लेना चाहिये । यों तो पशुओं से या स्वार्थ के सिर्फ उपर्युक्त बातों की समानता प्रेम भी हो सकता है और मोह भी । एक हिन्दू देखकर जो एक तरह का पक्षपात पैदा हो जाता गाय को नमाजोपकारी समझकर जब उस की है वह जानिमोह है। भक्ति करता है तब प्रेम है, भूतदया से प्रेरित हो कर जब उसकी सेवा करता है तब वात्सल्य है, ___ कुलमोह- जो कुटुम्बी हैं, रिश्तेदार हैं मित्र , अपना पालतु प्यारा प्राणी समझकर पक्षपात या सहयोगी हैं जिनसे किसी स्वार्थवश या करता है वह किसी का नुकसान कर आती है परिचयवश एक तरह की आत्मीयता पैदा हो गई तो भी वह पर्वाह नहीं करता तब कुलमोह है, है उससे जो आसक्ति पैदा होती है वह कुलमोह और उसे सम्पत्ति समझकर सिर्फ आर्थिक स्वार्थ है । कुलमोह मनुष्यों के साथ ही नहीं पशुपक्षियों की दृष्टि से उस पर भाव रखता है तब अमोह है। के साथ भी हो जाता है । पशुपक्षी जब सम्पत्ति विरक्ति- विश्वकल्याण के मार्ग में जो के रूप में सझे जाते है तब अर्थमोह होता है बाधक है उन्हें हटाना या उनसे हटना विराक्त है। जब साम्पत्तिक सम्बन्ध गौण हो जाता है तब एक आदमी जनसेवा के लिये गहत्याग करता है उन के विषय में कुलमोह होता है । किसी किसी इस प्रकार वह बाधकों से हटता है तो यह को अपने पालतू प्राणी कुत्ता शुक मैना आदि विरक्ति है जैसी कि म. महावीर या म. बुद्ध ने इतने प्यारे होते हैं कि उन की मौतसे उन्हें की थी, और एक आदमी नीतिभंग करनेवाले आर्थिक क्षति का ही कष्ट नहीं होता किन्तु अपराधी के दंड देता है इस प्रकार बाधक को सन्ततिवियोग का भी कष्ट होता है । बाल्यावस्था हटाता है यह भी विरक्ति है। पहिली उपेक्षा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१] सत्यामृत रूप है दूसरी चिकित्सा रूप है । चिन्ता—किसी दुःखद घटना के दूर करने न्यायाधीश निःपक्ष न्याय करके अपराधी को जो के सुखद घटना के पाने के विषय में दुःखानुभव दंड देता है वह चिकित्सा है। म. रामने रावण करते हुए विचार करना चिन्ता है । चिन्ता में को जो दंड दिया वह भी चिकित्सारूप विरक्ति भी दुःखानुभव होता है पर शोक से कम होता है। विक्ति में द्वेष नहीं होता किन्तु नीतिरक्षण है और इसमें विचार की प्रबलता रहती है शोक का विधक होता है इसलिये विक्ति का कार्य है में दःखानुनव की प्रबलता है विचार की नहीं। कि जगत को और अपने को पाप या पापी से भय- अपनी असमर्थता का अनुभव दूर रक्खे । करते हुए हानि की सम्भावना से किसी से दूर __ अरुचि- अरुचि के पांच भेद रुचि के रहने का भाव भय है । घृणा और भय की बाह्यउल्टे है । जैसे इन्द्रिय मन के अनुकूल विषय में क्रिया कुछ मिलती जुलती होती है पर दोनों में काम होता है प्रतिकूल विषय में घृणा । इसी काफी अन्तर है । घृणा में हम किसी को तुच्छ प्रकार प्रतिकटता का अनुभव अरुचि है। यद्यपि समझते है जब कि भय में उसे शक्तिशाली समझते विरक्ति और द्वेष के मूल में भी प्रतिकूलता का हैं कभी कभी एक ही वस्तु के विषय में हमें घणा अनुभव होता है पान्तु ये भाव प्रतिकूलता के और भय दोनों होते हैं । पाप से भय भी होता अनुभव रूप नहीं है किन्तु उस अनुभव के बाद है और घृणा भी पर दोनों का रूप जुदा जुदा है । होने वाले विशेष भाव हैं इन भावों से मन दूसरों घृणा में पाप को तुच्छ समझा जाता है भय में उसे पर असर डालने के लिये क्रियाशील हो जाता है प्रबल समझा जाता है । परन्तु अरुचि में ऐसा नहीं होता। उसमें सिर्फ प्रश्न-- भक्तिभय में दूर रहने का भाव नहीं अनुभव ही होता है । जैसे मानलो हमें किसी का होता किन्तु प्रेम होता है निकटता की इच्छा होती दुष्ट कार्य देखकर उससे घृणा हुई । ऐसी घृणा है तब भय को दूर रहने का भाव क्यों कहा ? योगी या अर्हत् को भी हो सकती है इसमें कुछ उत्तर- जिस अंश में निकट रहने की क्रियाशीलता नहीं है । परन्तु इसके बाद योगी इच्छा होती है उस अंश में भय नहीं होता। जिस अर्हत और संयमी में विक्ति पैदा होगी असंयमी अंश में भय होता है उप अंश में दूर रहने की में देष पैदा होगा। ये भाव अरुचि से भिन्न हैं। इच्छा भी होती है । गुरु की पूरी भक्ति करते हुए कभी कभी घृणा आदि भाव ३.षाय के बाद भी शिष्य बिना काम के गुरु के पास नहीं बैठना भी बने रहते है तब कषाय के फलरूप ये भाव चाहता दूर रहता है कि कोई अशिष्टता न हो क.पायकित बन जाते हैं उस समय ये कषायरूप जाय गुरु को कोई कष्ट न हो जाय । यह भय ही बन जाते है। विनय का फल है लेकिन दूर रहने की वृत्ति इस पणा- क्रिमीच.ज को अपने सम्पर्क में न में अवश्य है । भय तीव्र नहीं है इसलिये दूर रहने रखने का भाव घृणा है। की वृत्ति भी तीव्र नहीं है साथ ही विनय भक्ति धोक- किसी दुःखपूर्ण घटना का ध्यान सेवाभाव आदि होने से यह भय कर्तव्य में बाधक र करके दुश्मन का अनुभव करना शोक है। नहीं किन्तु साधक ही होता है Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती की माधना [ २४२ आर्य के विषय में रुचि के भेद कहते समय श्रेणी का रहता जब उसके सय किया है, विवेक कह दिया गया है। न हो तो जघन्य श्रेणी का बन जाता है, जैसे प्रश्न-- रुचि या अरुचि के भेद में लज्जा भक्ति मैत्री वान्मल्य, मोह बन जाते हैं, विरक्ति देव को क्यों नहीं गिनाया! बन जाती है उसी प्रकार लज्जा, जो कि प्रेम का उचा... लजा एक तरह की विनय भक्ति एक रूप ही है, विवेकशून्य होने पर मोह बन या आदर है इसलिये उसका समावेश प्रेम में होता जाती है । इसलिये व्याख्यान देते समय जो लजाते हैं वे विनयी हैं मांही नहीं नई है अथवा जब बुग कार्य हो जाने से लजित होना कहा जासकता। जिनके पास कुछ करने के है पड़ता है तब लजा विरक्ति में शामिल होती है। और जो कहना जानते है फिर भी वे श्रोताओं में लज्जा रुचि अरुचि के समान मध्यम श्रेणी की गुरुजनों या विद्वानों को देखकर ल जाते हैं तो यह नहीं किन्तु प्रेम आदि के समान उत्तम श्रेणी का लज्जा विनय ही है जिनके पास कुछ कहने को भाव है । लजा एक ताह का संयम है इसीलिये नहीं है और व्याख्याता कहलाने के लिये बोचने निर्लज्ज एक बड़ी भारी गाली है। चले जाते हैं वे अविनय ही करते हैं। हां, प्रश्न- बहुत से लोग लम्जा के मारे गुरुजनों ने व्याख्यान कला सिम्खाने के लिये व्याख्यान नहीं दे पाते क्या इस निर्बलता को। बोलने का अवसर दिया हो तो यह यत दमा विगत रह जाय ? है। मतलब यह किलजाना विनय तो है पर उत्तर- जिसको कुछ आता नहीं वह यदि उसका प्रयोग किक, असक्तानमार व्याख्यान नहीं दे पाता तो यह लज्जा नहीं करना चाहिये। अज्ञान है। आता है फिर भी व्याख्यान नहीं दे डन (क) एक अदनः नः न पाता तो कटाहीनता है, व्याख्यान का का काफी जानता इसलिये गाने में शानदार परिचय है फिर भी अमुक व्यक्तियों के सामने आदमी गाना जानता है पर उसे छोटा काम व्याख्यान नहीं दे पाता तो यह विनय है। समकर शरमाता है (ग) एक आदमी किसी व्याख्याता का व्याख्यान देते समय अपने महत्त्व काम को बुरा काम समझकर उसके करने में का कुछ अनुभव करना पड़ता है वह महत्त्व या शरमाता है। [] एक आदमी जीवन के तो ज्ञान का होता है या कलाका या दोना का, आवश्यक कामों में भी शरमाता है जैसे विवाह परन्तु जिन को इस विषय की त्रुटि का ध्यान शादी के काम में, या मत्रके मामने भोजन करने रहता है व लज्जित होते हैं वे अपने महत्व का में भी शरमाता है इस प्रकारज के जे. नान अनुभव नहीं कर पाते इसलिये यह विनय ही हे। रूप क्या उन्हें विनय कहना चाहिये। प्रश्न- तब तो जो व्याख्यान देते समय उत्तर-(क) विनय है। अन्य यो मत लजाते हे ये विनयी कहलाये और जो जरा भी के आसन पर नहीं बैठना चाहतः यह विनय नहीं ल जाने वे अविनयी कहलाये। है। (ख) अभिमान है। स्थिति को देखने का उचर--उत्तम श्रेणी का कोई भाव तभी उत्तम यह काम करना उसका अनुचित हो तो फिर Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ ] अभिमान न कहके उसे आत्मगौरव कहेंगे। आत्मगौरव विरक्तिरूप है इसलिये उत्तम श्रेणी का 1 (ग) में विरक्ति है इसलिये विनय है ही । (घ) जीवन के आवश्यक कामों में भी शरमाना विनय है। दूसरा भोजन न करता हो और खुद भोजन करे तो इसमें थोड़ा अभिनय तो है ही । कोचची में जो शरमाते हैं वे इसलिये कि अपने गुरुजनों की बराबरी के पास पहुंचने में उन्हें संकोच होता है । विवाहित हो जाने पर वे साधारण बालक बालिका नहीं रह जाने किन्तु माता पिता के समान गृहस्थ हो जाते हैं, जिनके सामने शिशु बनकर रहे उनके सामने कुछ बराबरी के आसन पर पहुंचने में विनयी के कुछ लज्जा आती है। पर लज्जा के साथ विवेक होना चाहिये । लज्जा शिटाचार तक ही सन्ति रहे वह जीवन की महत्त्वपूर्ण समस्याओं में आड़े न आये। जो लड़की माँ बाप के द्वारा बुटेके साथ बाँधी जाने पर भी लज्जा के नाम पर कुछ न बोले और अपना जीवन बरबाद कर ले उसकी लज्जा मुड़ता है मोह है निर्बलता है । लज्जा एक महान गुण है, इसके द्वारा दूसरों की सुविधाओं का उनके सम्मान का, अपनी अनुचित कृतियों को दूर करने का खयाल रहता है । हां, इसमें निरतिवादी दृष्टि का पूरा 1 ग्वाल रखना चाहिये | प्रश्न--लज्जा अगर गुण है तो घूँघट आदि की कृपया भी उचित समझी जा सकेगी । सत्यामृत उत्तर- नहीं, १- घूँघट में अतिवाद है । २ अभिषेक है जहां करना चाहिये वहाँ नहीं किया जाता जहाँ नहीं करना चाहिये यहाँ किया जाता || समान आदरणीय व्यक्तियों में किसी के साथ किया जाना किसी के साथ नहीं किया जाता । ३- लैंगिक विषमता है अर्थात नारीत्व का अपमान । ४ - व्यवहार में असुविधा होती है । ५--स्वास्थ्य नष्ट होता है । इन बातों का विचार व्यवहार कांड में किया जायगा । साधारणतः लज्जा रुचि अरुचि का अंग नहीं है प्रेम का रूप है इसलिये उसे मध्यम श्रेणी में नहीं रक्खा भक्ति में शामिल किया । इच्छानुसार कार्य न होने पर उसके ि क्रोध - द्वेष के तीन भेदों में यह पहिला मन में आक्रमणकारी क्षोभ होना क्रोध है । क्रोध में पूर्ण या आंशिक संहार का भाव आता है । इसलिये क्रोध में मनुष्य मारने पीटने गाली देने स्वर को कठोर करके उसे अपमानित करने का कार्य करता है । है, प्रश्न- क्रोध तो कभी कभी माता पिता पुत्र पुत्री गुरुजन आदि पर भी आ जाता है कभी कभी अपने पर भी क्रोध आता है तो क्या यह माना जाय कि इसमें किसी तरह का संहार करने का भाव है ? उत्तर- माता पिता गुरु आदि जब अपनी रुचि के विरुद्ध कोई बात कहते हैं तब या तो हमें नम्रभाव से अपनी भूल समझकर कार्य करना चाहिये, भूलके लिये लज्जित होना चाहिये, अगर उनकी भूल हो तो उचित अवसर पर नम्रता से विरोध करना चाहिये, पर जब ऐसा नहीं किया जाता और क्रोध आ जाता है तब उसमें उन्हें अपमानित करने का भाव है अपमान भी एक तरह का आंशिक संहार है। हां, माता पिता गुरुजन आदि को कभी कभी सुधार के लिये क्रोध आजाता है और जो जितना प्रिय हो उस पर क्रोध भी उतना ही अधिक आता है, परन्तु यह वास्तव में क्रोध नहीं है किन्तु क्रोध की Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवनीशीमाधना । २४४ कालिगा है जो मोह या वात्सल्य पर लग गई है। दारीर से बन्टबान है इसलिये वह अपने को महान यह क्रोध क्षणस्थायी होता है और इसके मूल में नमशन है और अभी से अच्छे समाजमर्व अविवेकी में मोह और विवेकी में वात्सल्य रहता दोपकारी बिद्रन के कुछ नहीं समझत', ऐसी है। फिर भी क्रोध की कालिमार अच्छी चीज हालत में वह आदमी मान या घडा है पर यह नहीं है इससे जीवन में दाग तो लगता ही है समाजसेवी विद्वान सोचता है कि उस धनवान इसलिये इसका कम से कम होना या न होना क या अधिकारी का वह अभिनान अनुचित है ही उचित है। मुझे धन, अधिकार, या पशुबल के आगे झुकना यो तो हाएक कषाय बरी है पर उन सब उचित नहीं है इसलिये वह अपने व्यक्तित्व के में कैध बहुत प्रबल है, यह मनुष्य को पापी तो उचित मान का रक्षण करता है तो यह आत्मगौरव बना ही देता है किन्तु अविनयी और असभ्य है मान कपाय नहीं है । अभिगोरख एक तरह भी बना देता है । कंध को अग्नि की उपमा की विरक्ति है वह कभी चिकित्सा रूप भी होता दी जाती है यह बहुत ही ठीक उपमा है. अनि है कभी उपेक्षा रूप भी। उस समय वह जघन्य के समान यह खुद को जलाता है और दूसरों श्रेणी की मनोवृत्ति न होकर उत्तम श्रेणी की को भी जलाता है। क्रोध शराब से भी बढकर बन जाती है। नशा है। जैसे शराबी से विनय विवेक संयम कोई कोई सन्त पुरुष गरीबों के यहां बिना की आशा रखना व्यर्थ हे अच्छे मनुष्य भी शराबी बुलाये या बिना आदर सत्कार के चले जाते है की हालत में घोर दुर्जन और असम्य भी बन जाते पर अमीरों के यहाँ या समाज में साधारणतः हैं उसी प्रकार केधी भी संयम विवेक विनय आदि जो अधिकार आदि के कारण बड़े आदमी गिने भूल जाता है । मनुष्य क्रोध में क्या कह डालेगा जाते हैं उनके यहँ, बिन बुलाये नहीं जाते कुछ और क्या कर डालेगा इसका कोई भरोसा नहीं। सन्मान की अपेक्षा रखते हैं तो इस आभगौरव इसलिये कधविजय पर सबसे अधिक ध्यान कहंगे। किसी के यहाँ बिना बलाये न जाने का रखना चाहिये। विचार इसलिये होना कि जाने से उसे कष्ट होगा मान--मान शब्द का सीधा अर्थ तो है उसका समय जायगा उसे संकोच होगा नाम मापना, पकषाय के रूपमें जब इस शब्द का जगह प्रेम कहलाय।। अगर इमरिये नहीं जाता प्रयोग किया जाता है तब उसका अर्थ होता है है कि इससे उसके धनमद बलमद अधिकाग्मद व्यक्तित्र के माप में गड़बड़ी करना अर्थात् दूसरे का को खुराक मिलेगी जोकि न देना चाहिये तो जितना व्यक्तित्व है उसको उससे कम समझना यह आनगौरव होगा इसे विक्ति और अपना जितना व्यक्तित्व है उसको अधिक (चिकिानारूप) मनझना चाहिये । अगर इसका समझना, इस प्रकार व्यक्तित्व के विषय में पक्षपाती कारण सिर्फ एकान्त साधना है व्यर्थ ही लोगों के विचार रखना मान है। जहां माप में गडबडी न सम्पक में नपने की भावना है तो भी यह दिक्क होगी विवेक होगा वहाँ नान व पाय न होगी। जैसे (उपेक्षारूप) है । अगर उसके व्यक्तित्व को मानलो कोई आदमी धनवान है अधिकारी है या तुच्छ समझकर न जाने का भाव है तो मान कवाय Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५] सन्यामृत है । दूसरों की महत्ता समझते हुए भी, अपने धन इनके त्याग करने से मनुष्य संयमी बनता है । अधिकार आदि के कारण उसे तुच्छ समझना बाकी की मनोवृत्तियों में उत्तम श्रेणी की कुछ मान काय है, या इस विचार से उसकी महत्ता संयम रूप हैं कुछ असंयम को रोकने वाली हैं न माना कि इससे अपना व्यक्तित्व फीका पड़ ये आवश्यक हैं । बाकी मध्यम श्रेणी की मनोजायगा, मान कवाय है। वृत्तियाँ जीवन चिह्न हैं स्वाभाविक ह क्षन्तव्य हैं। मोह और मान ये दो कषायें समस्त पापों पाप इन में तभी है जब ये कषायरूप हो जाती के मूल हैं। हैं। फिर भी जहां तक बन सके अरुचि को घटाना छल अपना अनुचित स्वयं सिद्ध करने चाहिये क्योंकि अरुचि से अपने को कष्ट होता है के लिये किसी की अजानकारी की ओट लेना और दूसरों पर भी इससे दुःख की छाया पड़ती है। छल है। मालिक की अजानकारी की ओट लेकर चार कषायों में मोह और मान हस्तकषायें चर चंग करना है यह छल है, कोई साधु- हैं और क्रोध और छल ये शस्त्रकषायें हैं कर दुनिया को अजानकार बनाकर साधु क्योंकि क्रोध और छल से आघात किया जाता भाचरण नहीं करता है यह छल है, मन में है और मोह और अभिमान क्रोध और छल को प्रेरित छ और है पर मुँह से कुछ और कहकर करते हैं, जैसे हाथ शस्त्र को प्ररित करता है । पर्थात् झूठ बोल कर दुस्वार्थ सिद्ध करना छल हाथ जैसा जोर लगायगा शस्त्र उतने ही जोर से :चेरी विश्वासघात दंभ आदि सब छल के ही आघात करेगा उसी तरह मोह अभिमान जितने ये हैं। हां, जहां अनुचित स्वार्थ न हो वहाँ प्रबल होंगे क्रोध और छल उतना ही तीव्र जानकारी की ओट लेना छल नहीं है। जैसे होगा । मोह और अहंकार के दबा देने से क्रोध । मित्र विनोद के लिये तास खेल रहे हैं, तास और छल भी दब जाते हैं। खेल में पत्तों को छुपाकर रखना पड़ता है तेज और छाया-उत्तम श्रेणी की मनोवृत्ति तरे को पता लग जाय तो खेल का रस चला के दो रूप है तेज और छाया । जब उत्तम मनो(य यह अजानकारी का उपयोग छल नहीं है वृति स्थिर होती है, उसके अनुसार हमारा जीवन गोंकि इसमें कोई अनुचित स्वार्थ नहीं है। मैं भी बन जाता है तब उसे तेज कहते है। अहंत पने घरू लड़ाई झगदा को बाहर नहीं कहता योग, आदि के यही हुअ, करता है । परन्तु जब कि बाहर कहने से कौटुम्बिक कलह बढ़ता है उत्तम श्रेणी का मनोमाव स्थानी नहीं होता तब ध की कालिमा क्रोध की रिह बनता है तो इस उसे छाया कहते हैं । छायाचित्र में सफेः कपड़े पर दूसरों की अजानकारी की ओट लेना छल पर ही सब दृश्य दिखते हैं पर हेता कुछ नहीं है क्योंकि इसमें कोई अनुचित स्त्र थ नत्री हैं। इसी प्रकार उत्तमश्रणी की मनोवृत्ति का क्षणिक मनीवत्तियों के इन सब भद प्रभेदों में मोर, आवेग होता है इसे छाया कहते हैं। जैसे मरघट ध, मान और छल, ये चार की मनोवृत्तिा में वैराग्य आ जाता है और जीवन पर उसका है जिन्हें कषाय कहते हैं भगवती अहिंसा कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता। जीवन की उत्तसाधना के लिये इनका त्याग करना चाहिये। मता तेज से है छाया से नहीं। . Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४६ अंग है किसी के ऊपर अन्याय अत्याचार हो या और कोई विपत्ति आजाय तो उसका शोक, यह प्रेम का अंग है । मानवसमाज की मूढ़ता दूर करने की चिन्ता, यह प्रेम का अंग है, पाप से भय, और अप्रत्याशित पाप देखकर होने वाला आश्चर्य ये भी विरक्ति के अंग हैं। इस प्रकार की अरुचि आवश्यक है। कोई जननेत्रक विपत्ति में पड़जाय और तुम्हें उसकी चिन्ता शोक न हो और इस निश्चिन्तता और अशोकता को तुम वीतरागना समझो तो यह दंभ या मूढ़ता है। जनसेवा सदाचार आदि में जो जितना महान् है और कार्यक्षेत्र की दृष्टि से अपने निकट है उसके दुःख में हमें उतना ही अधिक शोक चिन्ता होना चाहिये । अन्यथा उससे प्रेम का भंग होगा, द्वेष होगा । भगवती की साधना धारा और लहरी - रुचि या अरुचि जब स्थायी हो जाती है तब उसे धारा कहते हैं और जब अस्थायी होती है तब लहरी । लहरी जीवन्मुक्त योगी अर्हत् आदि में भी पाई जाती है बल्कि लहरी का होना आवश्यक भी है। जीवार्थ जीवन के प्रकरण में बतलाया है। कि आदर्श जीवन वही है जिस में धर्म अर्थ मोक्ष के साथ काम भी हो । काम भी एक जीवार्थ है। यह काम जीवन्मुक्त में भी लहरी के रूप में मर्यादित होता है। हाँ, काम अगर धाररूप में हो तो मोह बन जाने का डर है इसलिये कामधारा से यथाशक्य वचने की कोशिश करना चाहिये | हास्य आगा उत्साह और आश्चर्य ये तो अपने सुख और दूसरों के सुख के लिये आवश्यक ही हैं। इनकी धाराएँ भी बुरी नहीं होतीं। हाँ, जब बहुत लम्बी हो जायँ तो इन में भी खराबी आ जाती है। एक बात को लेकर आप दिन भर हँसते ही रहें तो इसमें कुछ बेहूदापन आ जाता है। हाँ, रुचि जब उसम श्रेणी उसकी धारामें भी की बन जाती है तब बुराई नहीं रहती। जैसे विश्वहित की आशा में मनुष्य जीवन भर कार्य करता रहे, सफलता मिले या न मिले पर आशा न छोड़े, उत्साह-भंग न करे तो यह धारा भी उचित है। अरुचि की लहरी योगियों में भी होती है पर धारा नहीं होती। जीवन में रुचि को जितना स्थान मिलना चाहिये उतना अरुचि को नहीं । रुचि सुखरूप होती है और अरुचि दुःखरूप | जब कोई दुःख सिर पर आजाता है तब उसे भोगना तो पड़ता ही है पर उस में अरुचि जितनी कम हो और जितने कम समय रहे उतना ही अच्छा । हाँ कोई कोई अरुचि, प्रेम या विरक्ति का अंग होती हैं वह योगी संयमी आदि को भी आवश्यक है। जैसे मांस से घृणा, यह विरक्ति का किट्ट और काल इस प्रकार रुचि अरुचि का जीवन में आवश्यक स्थान है। खयाल इतना ही रखना चाहिये कि ये सीमासे बाहिर न होजॉय, प्रेम और विरक्ति की तरफ झुकती रहें, कषायकिट्ट न बनन पाये, न कषाय की कालिमा इन्हें लगने पाये । जब स्थायी हो जाती है तब बाहर से वह दिखाई दे या न दे उसे कि कहते हैं और कषाय का जो क्षणिक आवेग है उसे कालिमा कहते हैं। कभी कभी कषाय किट्ट के ऊपर प्राणी प्रेम की छाया डाल देता है परन्तु इससे कृपाय की बुराई में विशेष अन्तर नहीं पड़ता । भीतरी या स्थायी द्वेषादि जब तक निर्मूल नहीं हो जाते तब तक मनुष्य कितनी ही सतर्कता से काम ले, कि अपना प्रभाव दिखला ही देती है । हम मेनने हैं कि हमने तो ऐसा सद्व्यवहार किया फिर भी इसका बदला हमें क्यों नहीं मिलता ! पर बात यह है कि जहाँ का है वहाँ प्रेम की Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७] सत्यामृत छाया का कोई विशेष असर नहीं होता । जहां किसी प्राणी को जला जाय या गांव में घरों को हमारे शिष्टाचार की सफलता न होती हो वहां आग लगा जाय तो फूस की आग बुझ जाने पर यह देखना चाहिये कि हममें कषाय-किट तो दूसरी जगह लगी आग न बुझेगी । यही कारण नहीं है। अगर कषाय किट्ट हो तो शिष्टाचार की है कि व्यवहार में लोग कपाय-किट्ट वाले से निरर्थकता पर खेद न करके कपायकिट्ट को जितना डरते हैं, कषाय-कालिमा वाले से भी उतना दूर करने का प्रयत्न करना चाहिये । जीर्णज्वर ही अथवा उतने से भी अधिक डरते हैं। की तरह कापाय-किट जीवन की बहुत बर्बादी कषायकिट्ट से तो असंयम सिद्ध होता ही करता है। है, पर कपाय-कालिमा भी अगर अधिक कषाय-कालिमा एक प्रकार का आवेग है। परिमाण में हो तो उससे भी असंयम सिद्ध होता है। कालिमा किट्ट की तरह हानिकर नहीं है इसमें किटटकालिमा के निमित्त से जीवन के पांच भेद किट्ट की अपेक्षा असंयम कम रहता है पर निबे- होते हैं-१. महापापी, २. पापी, ३ अर्धपापी, लता अधिक रहती है। आवेग मानसिक निबेलता ४. पुण्यात्मा और ५. शुद्ध पुण्यात्मा । का परिणाम है। १. महापापी- जिसमें किट्ट और कषाय कालिमा किट्ट से कम खराब है इसका यह दोनों बहुत मात्रा में हों । मतलब नहीं है कि उसपर उपेक्षा करना चाहिये। कभी कभी कालिमा किट्ट से भी अधिक भयंकर २. पापी- जिसमें किट्ट बहुत हो और हो जाती है । एक आदमी साधारणतः शान्त कालिमा थोड़ी हो। और सरल है, समझाने से अपनी भूल जल्दी ३. अर्धपापी- जिसमें किट्ट थोड़ी हो पर मान लेता है, पछताता भी है पर कषाय का अव कालिमा बहुत हो। सर आने पर वह अपने को नहीं मम्हाल पाता । ४. पुण्यात्म - जिसमें किट्ट न हो या एम आदमी क्रोध आने पर किसी का खन न होने के बराबर हो, कालिमा भी थोड़ी हो। भी कर सकता है, मारपीट कर सकता है ५. शुद्ध पुण्यात्मा- दोनों बिलकुल न कठोर से कठोर और विषैले वचन भी बाल हों । यह मंयमी जीवन का आदर्श है । बड़े बड़े सकता है, निन्दा कर सकता है, अपमान कर महात्मा भी इस श्रेणी में नहीं आ पाते । फिर सकता है, पर की चीजों को बर्बादी कर सकता भी इसे कठिन से कठिन ही कहा जा सकता है है, अपना सिर फोड़ सकता है, किसी के शरीर असम्भव नहीं । या मन में ऐसे घाव कर सकता है जिनमें कभी किट्ट और कालिमा की तरतमता से इन मझ न आवे, ऐसा आदमी अगर थोड़ी देर में पांच के असंख्यात भेद होते हैं । शांत भी हो जाय तो भी आवेग में जो अपनी प्रश्न- जिसमें किट्ट अधिक है पर या दूसरों की हानि कर चुका है उसे वापिस कालिमा थोड़ी है उसे संयमो क्यों न कहा नहीं ला सकता। फस की आग स्वयं जल्दी बुझ जाय ! कपाय को भीतर दबाये रखने के लिये अपनी पर अपनी अणिक यालाओं से अगर वह संयम और मनोबल की आवश्यकता होती है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती की साधना [२४८ उत्तर- इसमें मनोबल की आवश्यकता तो कहते हैं । मोह और छल, मान क्रोध, इन चार है पर मनोबल के सिवाय जो दूसरा कारण है कपायों को बिलकुल दूर कर देने से अकपायता वह संयम भी हो सकता है और असंयम भी। आती है। यद्यपि अकषायी में रुचि पाई जाती अगर उस कषाय की बुराई जानकर उसने है फिर भी अरुचि से जितना बचा जाय उतना कषायाको दबाया है तो संयम है पर इस के होनेसे ही अच्छा । अपायी मनुष्य किट्ट और कालिमा किट्ट अवश्य कम हो जायगा, तब वह पापी से दोनों से रहित होता है । फिर भी जब तक पुण्यात्मा की श्रेणी की तरफ झुक जायगा अथवा __संसार में असंयमी प्राणी हैं तब तक योगी के छोटे दर्जेका पुण्यात्मा हो जायगा; पर जिसने जीवन में भी कपाय-कालिन का होना भ्य भाविक कषाय को इसलिये दबाया है कि क्या करें कषाय है पर वह तीव्र मात्रा में नहीं होती और न भक्षण प्रगट करने की ताकत नहीं है, प्रगट करने का तक्षण के लिये होती है। कयायकालिमा वहीं फल अधिक बुरा होगा इसलिये मौके पर इस क्षन्तव्य है जहां वह चिकित्सा के लिये हो। कयाय का उपयोग किया जायगा। इस प्रकार कषाय को चरितार्थ करने के लिये मौके की ताक सब से अधिक हानिकर है कषाय-किट । में रहने वाला मनुष्य जो कपाय-किट्ट रखता है कषाय की वासना जितन कषाय की वासना जितने अधिक समय तक उसमे वह मनोबली ही होगा पण्यात्मा नहीं, उसे ठहरती है उतना ही अधिक दुःख वह जगत को पापी ही समझना पड़ेगा। और अपने को देती है। योगी मनुष्य में एक तो यहाँ जो मनोवृत्ति के भेद बताये गये हैं वे कषाय पैदा होती ही नहीं है अगर कभी विराक्ति मंयम असंयम की दृष्टि से बताये गये हैं, ज्ञान अज्ञान के कार्य में कपाय की कालिमा लगती भी है तो या मुग्व दृाव की दृष्टि से नहीं । संदाय स्मरण आदि तुरंत ही छूट जाती है। मन की अवस्था भगवती अहिंसा की साधना के कपाय-वासना की तरतमता से हमारे जीवन अंग नहीं है। हाँ, जहाँ ये ज्ञानरूप मनोवृत्तियाँ के असंख्य भेद हैं। दृष्टिकांड के पांचवें अध्याय संयम या असंयम का फल होती है, वहां भगवती में सिद्ध योगी, साधक योगी (मक अर्धकी साधना में विचारणीय हो जाती हैं हम किसी साधक बहसाधक) भेद किये हैं उन योगियों में कर्तव्य को इसलिये भल जाते हैं कि हमें उसकी अकषायता की दृष्टि से भेद होता है। सिद्धयोगी पर्वाह नहीं है या हमारे दुःस्वार्थ में बाधक है तो को कपायवि नहीं रहती जब तक घटना हो इस विस्मरण का कारण असंयम होगा पर अगर तभी तक कषायकालिमा मालम होती है। बाद में इसलिये भूलते हैं कि स्मरण-शक्ति कम है और बहादर हो जाती है या अधिक से अधिक एक जानने की बातों का बोझ ज्यादा है तो इसे असंयम घंटे में दूर हो जाती है । बहुसाधक के कपायन कहेंगे। अहिंसा का प्रकरण होने से यहाँ मना वासना एक. दिन से अधिक नहीं रहती वह वत्ति के ज्ञान--सम्बन्धी भेद नहीं बताये गये है। प्रार्थना के समय या सोते समय या सुबह उठते अकषायता का रूप समय दिन भर की -बसना हटा देता है भगवती की साधना के अंगों में अकषायता अर्धसाधक व्यक्ति सात दिन तक ही कषायमुख्य और मल्ट अंग है । और इसे ही मन-साधना वासना रखता है । सातदिन में या सप्ताह की । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९] सत्यामृत प्रार्थना आदि के समय वह कापायवासना को होगी वह आचार-स्मृति कहलायगी । इन हटा देता है । ल्वसाधक अधिक से अधिक एक भावनाओं से निरपेक्ष जो स्मृति होगी वह ज्ञानस्मृति वर्ष तक काम-वासना रखता है । वर्ष में वह कहलायर्गः । जिस दिन को सबसे पवित्र दिन समझता है जैसे किसी न्यायाधीश ने अपराधी को दंड उसदिन या अपने जन्म-दिन पर वह पिछले वर्ष दिया उस मामले में मैं गवाह था, अब जब मुझे की पाय-वासनाएँ दूर कर देता है। जो एक उस घटना का स्मरण होता है तब मुझे उस वर्ष से भी अधिक कराय-बाम्ना रखता है वह घटना के विषय में कुछ कर्तव्य नहीं मालूम होता लवसाधक भी नहीं है। वह इस दृष्टि से असंयमी है। है सिर्फ धारणा-शक्ति के कारण स्मरण होता है | प्रश्न-कषाय-वासना तभी दूर हो सकती परन्तु अपराधी को जब जब स्मरण होता है तब है जब हम किसी व्यक्ति को या उससे सम्बन्ध तब न्यायावीश पर क्रोध भर आता है, अवसर मिले रखनेवाली अनिष्ट घटनाको भुला दें। पर भूलने तो वह थोड़ा बहुत अपकार भी करें इसलिये न भूलने का सम्बन्ध संवर-अमंचन से नहीं ज्ञान उसकी यह आचार-स्मृति है। ज्ञान की धारणा अज्ञान से है। किसी आदमी ने अन्याय किया से ज्ञानस्नति होती है कषाय की वासना से और वह अन्याय हमें जीवनभर याद रहता है आचारस्मृति होती है। किट्टकषायी न होने के लिये तो इसमें हमारा क्या दोष! स्मरण-शक्ति की तीव्रता कषाय की वासना के त्याग की जरूरत है को हम क्या करें ? ज्ञानकी धारणाके त्यागकी जरूरत नहीं। उत्तर-याद रहना काया-वामना नहीं है प्रश्न--पति-पन्नी के बीच में आचारस्मृति किन्त वैर या मोहरान सपा-बामना है । ज्ञान- जीवन भर रहती है, रहना भी चाहिय तब क्या स्मति एक बात है और आचारसंनि दूसरी बात इसे कषाय किट्ट कहना चाहिये ! अगर कषाय किट है। अनानि से संयम का सम्बन्ध नहीं समझकर इसका त्याग किया जाय तो जगत् में यदि आचार-मति में संयम-असंयम का सहयोग का अभाव ही हो जायगा ! दाम्पत्य और सम्बन्ध है। यह झानस्मृति है या आचारी , विना नष्ट हो जाययी। इसका पता लगाना हो तो यह देखना चाहिये कि उस स्मृति से कुछ पकाने की प्रेरणा । उत्तर-दाम्पत्य और कौटुम्बिकता में कषाय अथवा कार्य न कर पाने: ५५ ताता है अथवा की सरना नहीं है वहां प्रेम की-भक्ति, मैत्री और नहीं होता। यदि होता हो तो समझो आचार-स्मृति बम की जरूरत है। इनकी स्थिरता को तेज ५६ नहीं। तेज पाप नहीं है । है न होता हो तो समझो ज्ञानम्मृति है । यद्यपि के मूड में ज्ञानमति है क्योंकि प्रेम और मोह जानम्मति के बिना अकस्मत नहा मनी प्रश्न- पर केवल प्रेम से जगत का काम फिर भी ज्ञानमनि यई नक है के नहीं चल सकता, वहां मोह ज़रूरी है क्योंकि से मन में भक्षणतरण अदिक भाव न आने प्रेम में निम्पक्षना या न्यायपरायणता आवश्यक है ब। रणनक्षण आदि पर निशाना में पनिष्टता नहीं होती और : Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती की साधना [ २५० घनिष्टता के बिना कौटुम्बकता या दाम्पत्य नहीं रह ऋतिव्य परवशतः के लिए धनीमूत प्रेम की ‘सकते । पूर्ण निष्पक्षता के होने पर प्रेम विश्वप्रेम ज़रूरत है-मोह की नहीं । इसलिये अपायी बनगा। अगर पत्नी, पति के विषय में या पति, मनष्य कैश्रिक कन्या का परिचय पत्नी के विषय में विश्व-प्रेम के समान ही प्रेम दे सकता है। उसकी कन्य-परायणता अगर रक्खे, उसके दुःख में वह उतना ही दुःखी हो स्थायी है तो उसे हम किट्ट न कहेंगे | उसे जितना विश्व के किसी प्राणी के विषय में दुःखी हम तेज कहेंगे। हुआ जाता है तब क्या ऐसे उथले प्रेम से पतिपत्नी, मित्र, पिता-पुत्र, गुरु-शिष्य का रिश्ता रह प्रश्न- प्रेम और मोहे में जो आपने अन्तर सकता है ! इसके लिये तो स्थायी पक्षपात बतलाया है उसको जानलेने के बाद मनुष्य प्रेम चाहिये जिसे आप मोह-किट्ट कहेंगे तब बतलाइये से सन्तुष्ट नहीं हो सकता, प्रेमी की अपेक्षा वह कि अकषायता और कौटुम्बिक कर्तव्य-रायणतः मोही को ही अधिक पसन्द करेगा । विश्वसनीयता इन दोनों का समन्वय कैसे हो । भी प्रेम की अपेक्षा मोह में अधिक है । मोहउत्तर- कौटुम्बिकता स्थायी विनिमय के बाला पना ता अछे बुरे सब कामों में हमारा सिद्धांत पर खड़ी है और इसमें विनिमय का अनुकरण करेगी किन्तु प्रेमवाली पत्नी अच्छे बुरेका रूपभी माप नहीं अमाप है। माप-विनिमय में विचार करती रह जायगी तब पति मोहिता-पढ़ी पर ही अधिक विश्वास कर सकेगा इसी प्रकार देने लेने में बराबरी का विचार रक्खा जाता है। पत्नी को भी मोही-पति अधिक पसन्द आयगा कम मिले तो कम देना, आधिक मिले तो अधिक प्रेमी-पति तो जब देखो तब उचित-अनुचित का देना- ऐसा हिसाब रहता है। व्यापार, नौकरी आदि में माप-विनिमय होता है। पर अमाप विचार करता रहेगा, मोही अधपक्षपाती होकर विनिमय में ऐसा हिसाब नहीं होता। वहां एक हर हालत में उस की रक्षा करेगा। इससे मालूम दूसरे के प्रति सर्मपण होता है । पति-पत्नी एक होता है कि दाम्पत्य और कैम्बिकता के लिये प्रेम की अपेक्षा मोह अधिक उपयोगी है। दूसरे को समर्पण करते हैं । समर्पण के बाद हो सकता है कि पत्नी को पति से कम मिले उत्तर- भगवती की साधना स्वार्थ-परायणतः या पति को पत्नी से कम मिले पर कम मिलने से नहीं बार-कल्याणसे होती है इसलिये हरएक के कारण वे देने में कमी नहीं कर सकते । कोई आदमी को बुराई के कार्य में अपने कुटुम्बियों विश्व-प्रेमी जिन जिन से विनिमय के आधार पर से भी आशा न रखना चहिये । बुरे कार्य में बँधा हुआ है, उन उन की विशेष सेवा करना कुटुम्बीजन विश्वासरत्र न हों यह विश्व के लिये उसका कर्तव्य है। यह विशेष कर्तव्यपरायणता और अपने भविष्य के लिये अच्छा ही है। माह नहीं है, प्रेम है । मोह तो उस आसक्ति को कहते ह जिससे प्राणी दूसरे प्राणियों का भक्षण रहगई प्रेम की अपेक्षा मोह में अधिक विश्वसनीयता या तक्षण करने को तैयार हो जाता है । धनी- या अधिक उपयोगिता, सो मोह की अपेक्षा प्रेम भूत प्रेम का नाम माह नहीं है । के टुम्विक ही अधिक उपयोग और विश्वसनीय है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत __मोह तो एक आसक्ति है-भख है। भूख वुझ- कषाय-किट है, अपने को प्रेमी कहलेना एक जाने पर या कोई दूसरी अच्छी चीज़ मिलजाने पर बात है पर प्रेमी होना दूसरी बात है । दाम्पत्य मोह नष्ट हो जाता है या शिथिल हो जाता है या कौटुम्बिकता या मित्रता में कोई अपने मित्र के जबकि प्रेम बना रहता है वह कर्तव्य की बुरे काम का विरोधी हो सकता है, पर अपने उपेक्षा नहीं करता । रावण को मन्दोदरी से मोह मित्र का विरोधी नहीं हो सकता । मन्दोदरीने था इसलिये सीता के देखते ही वह शिथिल हो रावण के बुरे काम का विरोध किया पर रावण गया और वह सीता को चुरा लेगया । किन्तु की सेवा नहीं छोड़ी। हालाँकि रावण का राम सीता में परस्पर प्रेम था-मोह नहीं था, अपराध इतना बड़ा था कि मन्दोदरी अगर अपना इसलिये रावण की असीम साम्राज्य लक्ष्मी देख पुनर्विवाह करलेती तो भी वह क्षम्य होती पर कर भी सीताजी का राम प्रेम कमन हा और उसने यह नहीं किया तब जीवन की छोटी छोटी रामचन्द्र में सीताजी की रक्षा के लिये एक भूल दिखाकर के प्रेम कम करना या छोड देना बड़े सम्राट् से भी भिड़ पड़े, किन्तु प्राणों की बाजी पूरा दंभ है-छल है। प्रेम पाप में सहायता लगाकर भी जिस सीता को लाये उसे प्रजानुरजन के करने को प्रेरित नहीं करता पर अपने कर्तव्य लिये छोड़ भी सके, और छोड़ने पर भी के उत्तरदायिन्त्र को नहीं भूलने देता। वफादार रहे, उनने सांता को दिल से न जहाँ प्रेम है वहाँ न्यायपरायणता और हटाया, यज्ञ के लिये सहधर्मिणः की आवश्यकता कि उत्तरदायित्व इन दोनों का निर्वाह हुई ते सीता की मूर्ति रक्या र दनरः विवाह से होता है यह बात कल्याणी देवी की कथा न किया। प्रेम और मोह में क्या अन्तर है यह से साफ हो जायगः । बात म, राम और रावण की मन कृत्तिके भेद से कल्याणी देवी की कथा समझी जा सकती है। प्रेमी-राम कर्तव्य-परायण पुराने समय में भारतवर्ष में कल्याणी देवी रहे, विश्वसनीय रहे, अपना भी कराया, जगत नाम की एक विदुषी महिला रहती थी। उनके का भी भला किया, मोहरम न स य । पति का नाम था शारदाचरण । वे राज-पुरोहित हा नवरय सण, स्वयं नष्ट हुआ, हजारी थे, राजकोष की तरफ से उन्हें काफी धन का नाश कराया। ये भी है मोह नरक है। लता था। दोनों बड़े मजे में रहते थे। पति प्रश्न--येक प्राणी गुण दोषों का पिंड है, पक्षी का अधिकांश समय विद्या व्यासंग में आराम सभी से अपराध होते हैं उनका बहाना निकाल से कट जाता था। कुछ दिन बाद राजदीर में कर कोई भी पनी पति से घृणा कर सकती है एक महर्षि आये जिनने अपने अनुभव और ५ पति पनी सणा कर नई कि मैं तो विचार से सरस्वती की उपासना की थी। उस प्रेमी र मोही नहीं .. मोहयश हो कर समय के रिवाज़ के अनुसार दोनों में वाद हुआ दोषी का पक्ष नहीं सकता इस प्रकार प्रेम की और देश में कोई बड़ा विद्वान न होने से कल्याणी यह नि:पक्षना दाम्पत्य के नष्ट ही कर देगी। देवी ही मध्यस्था बनाई गई। कल्याणी देवी को उत्तर-- यहां प्रेम नहीं है, छल नामक यह बात जची कि महर्षि का पक्ष ही सच्चा सिद्ध Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती की साधना हुआ है। एक तरफ पति प्रेम था दूसरी तरफ़ और सत्य था पर प्रेम सत्य हुआ, इसलिये कल्याणी देवी विजय घोषित की। न्याय में बाधक न ने महर्षि की ही राज्य का ऐसा नियम था कि जो राजपंडित को जीत लेगा वह राजपंडित माना जायगा । इसलिये महर्षि राजपंडित माने गये । परन्तु महर्षि ने जिनका नाम सत्यशरण था, कहा- अगर शारदाचरण सत्य को स्वीकार कर मेरे पास दीक्षा लें तो मैं उन्हें ही राजपंडित बनाऊँगा । अभिम्पनी शाखाचरण ने यह बात स्वीकार न की । और लज्जावश वे नगर छोड़कर जंगल में जाने लगे । कल्याणी देवी भी साथ चलने लगीं । शारदाचरण ने कहा-- तुम्हे जंगल में चलने की कोई ज़रूरत नहीं है, पराजय मेरा हुआ है न कि तुम्हारा । लोगों के आवागमन से रहित एक जंगल में जाकर वे दोनों तपस्वी की तरह रहने लगे । जंगल के पद-कन्द-मूल आदि खाकर गुज़र करते थे, बलकल पहिनते थे । एक झोपड़ी बनाकर रहते थे । झोपड़ी को स्वच्छ रखना, उसके चारों तरफ़ जो आँगन बनाया गया था उसे साफ़ रखना, फूलों की क्यारियों में पानी देना, फल-मूल लेने पनि के साथ जाना, उन्हें अच्छी तरह पथों में सजाकर पति को परोसना, बचे हुए समय में चर्चा करना, काम करते समय भी हँसी- विनोद से पति केण चित को प्रसन्न रखना, ये सब काम कल्याणी देवी उत्साह से करती थीं । 'कल्याणी देवी ने ही मुझे पराजित घोषित किया' इस बात को लेकर के मन मे जो एक शल्य था सेवा- परायणता और प्रेमी चुका था और जब एक बार शारदाचरण बीमार पड़े तब कल्याण देवी ने जो दिन-रात अटूट सेवा की शारदाचरण - यदि ऐसा था तो तुमने मेरा उससे शारदाचरण का मन बिस्कुट पिघल गया पराजय घोषित क्यों किया ! वह कल्याणीदेवी की जीवन से दूर हो तीन दिन को और उनने रोते रोते कहा कि 'तुम्हारी निष्पक्षता कल्याणी ने कहा - मेरे देवता, नारी के पराजय होने की जरूरत नहीं है। पति की जय ही उसकी जय है पति का पराजय ही उसका पराजय है । और फिर जो कुछ सीखा मैंने आपही से सीखा है आप मेरे पति भी हैं और गुरु भी । 1 व्ह [ २५२ कल्याणी - राजपंडितां बनने की अपेक्षा आपकी अनुचरी ( पीछे पीछे चलनेवाली ) बनने में मुझे अधिक सुख है- मेरा कर्तव्य भी यही है धर्म की भी यह आज्ञा है । कल्याणी - मैं आपका पराजय घोषित कर रही हूँ यह मुझे ख़्याल ही नहीं आया। मुझे तो यही खयाल आया कि सत्य के आगे मैं झुक रही हूँ, मैं अपना ही पराजय कर रही हूँ | घोषित शारदाचरण तो तुमने महर्षि के पास दीक्षा क्यों न ले ली कदाचित् महर्षि तुम्हें ही राजपंडिता बना देते । के कारण तुम्हारे प्रेम पर मुझे विश्वास हुआ था किंतु उस भूल का अब मुंझ महरा पश्चात्ताप हो रहा है।' कल्याणीने समझा मेरी तपस्या फल गई। आज प्रेम की पूरी जय हुई | उस जंगल में जब ये दम्पति स्वजन परिजन वैभव आदि से रहित तीन जीवन बिता रहे थे और शारदाचरण दिन के लंघन के बाद जब कल्याणोदवी उ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ ] सत्यामृत पथ्य दे रही थी उसी समय मनुष्यों का कलकल परिचय दिया होता । पति-मोह से मैंने पति को सुनाई दिया । कोई कह रहा था इधर इधर । भी खोया होता और सत्य को भी खोया होता । कल्याणी ने देखा कि वह एक ब्राह्मण-कुमार है पति-प्रेम से आज दोनों को पाया है। जिसे कि उनने उस दिन राजसभा में महर्षि महर्षि- इसीलिये तो कहता हूं कि उस के साथ देखा था। उस के पछि पछेि ही दिन तेरी ही जय हुई थी पर मेरा पराजय हुआ ब्राह्मण-बटुकों के साथ खुद महर्षिजी चले आते था। थे । कल्याणी ने उन्हें बैठने के लिये तृणासन देते हुए कहा-महाराज, हम गरीब लोग इस कल्याणी- नहीं महाराज, अगर आपकी जंगल में आपका और क्या स्वागत कर सकते हैं ! __ जय न हुई होती तो उस दिन आपकी जय कभी ___ महर्षिने कहा--बेटी, तुम्हारी इस गरीबी पर घोषित न करती । मेरा क्या ? मैं तो उस दिन हज़ारों रवधैभव न्यौछावर किये जासकते हैं। मध्यस्थ थी-वादी-प्रतिवादी नहीं, इसलिये मेरी जय कीचड़ मिले पानी में शकर डालने से मिठास तो क्या और पराजय क्या ? आयगी पर वह शुद्धजल की बराबरी न तो स्वाद महर्षि-निःसंदेह उस दिन शब्दवाद में मेरी में ही कर सकता है न स्वास्थ्य में ही। तुम्हें इस जय थी पर अर्थवाद में तेरी ही जय हुई। जंगल में जो सुख मिन्दा है बह राजाओं के मान प्रेम और माह में क्या अन्तर है यह बात तो राजसिंहासन पर मिल सकता है न रणवास मैं जीवन भर शब्दों में ही कहता रहा हूं पर में । उसमें कितनी ही शक्कर पड़ी हो पर कीचड़ तने उसे जीवन में उतार कर बताया । जीवन सारा मजा किरकिरा कर देता है और उस में की परीक्षा में मैं उतना उर्णि नहीं हुआ जो दय, कृमि होते हैं उनका विचार जितनी त हुई है । जिस दिन से तुम दोनों ने किया जाय तो दुःख के पहाड़के आगे सुख कण घर छोड़ा उस दिन से मैं और मेरे शिष्य गुप्त सा ही दिखाई देता है। रूप से तुम्हारी गति-विधि पर बराबर ध्यान देते कल्याणी ने विनयपूर्ण लज्जा के कारण सिर रहे हैं। कल जब शारदाचरण की बीमारी और झका लिया किन्तु महर्षि कहते ही गये- तेरी सेवा-परायणतः के मुझे समाचार बेटी, एक दिन मने राजसभा में अपने पति मिले तब तेरा पुण्य-तेज मेरे लिये का पराजय घोषित किया था किन्तु आज मैं असहय हो गया और आज रोता हुआ उसी अपना पराजय घोषित करने के लिये इस जंगल तरह मैं चला आ रहा हूँ जैसे कोई बाप अपने में आया हूं। बेटी-बेटों के लिये दादा आ रहा है।। कल्याणी ने 4x: म, यह आप इसी समय शारदाचरण झोपड़ी में से धीरे२ नम्रता है । उस दिन सत्य मादम हुआ यह मदर आय और महर्षि की चरण-वंदना करके अपने विरुद्ध होने पर भी मैने स्वीकार किया । बोले-गुरुदेव, उस दिन मैं शब्द से पराजित अगर मैं ऐसा न करनी तो मैंने सल की अबहे- दुआ था अउ अर्थ से पराजित हो रहा हूँ सना करके पति-प्रेम के बदले पति-मोह का इसलिये मैं आपको अपना गुरु मानता हूँ । प्रेम Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती की साधना और माह का अन्तर तो कल्याणीदेवी ने अपने जीवन से बतला दिया पर उस अन्तर को परखनेवाले जगत में कहां हैं ! आप उन्हीं पारखियों में से हैं। आपको गुरु बनाकर आज मैं कृतार्थ हो रहा हूँ । महर्षि - बेटा, गुरु बनाकर कोई शिष्य कृतार्थ नहीं होता वह कृतार्थ होता है गुरुदक्षिणा देकर | शारदाचरण - गुरुदेव ! आज मेरे पास क्या है जो आपको गुरु दलिया में हूँ ! फिर भी जो कुछ मेरे पास सर्वस्त्र कहलाने लायक है। वह आप मांग लीजिये । महर्षि - एक दिन बादी बनकर मैंने तुम्हारा वह घर उजाड़ा था आज यह घर उजाड़ता हूँ | गुरु-दक्षिणा में तुम्हारी यह झोपड़ी ले लेता हूं | कल्याणी - गुरुदेव " महर्षि - नहीं नहीं, अब मैं कुछ न सुनूंगा। तुम लोग इसी समय मेरी झोपड़ी में से निकल जाओ और अपने पुराने घर में चले जाओ। वहां तुम्हारा सारा वैभव तुम्हारी बाट देख रहा है। कुछ मुट्ठी-दो मुट्टी मेरा भी उसमें शामिल हो गया है। कल्याणी- पर ये बीमार जो हैं, गुरुदेव ! महर्षि रहने दो, तुम दोनों के लिये दो कियां तैयार हैं । जाने में कोई कष्ट न होगा | 1 कल्याणी की आंखों में आंसू भर आये, शारदाचरण ने भी आंखें पोछीं, महर्षि बड़ी कटिनता से आँसू रोक पाये । भरे गले को साफ़ करते हुए उनने कहा- बेटी, प्रेम और मोह में आकाश पाताल का अन्तर है। पर रंगरूप में उनमें कैसी असाधारण समानना ? | २५४ कल्याणी गला भर जाने से कुछ बोल न सकी | उसने गुरुदेव के पैर छुए और बिदा की । महर्षि ने उसी सुख-दुःख के साथ कल्याणी को विदा किया जैसे बाप बेटी को बिदा करता है । प्रेम कभी कभी कठोर मालूम होता है पर भीतर कोमल से कोमल होता है। प्रेम की वह बाहिरी कठोरता जगत् की के लिये भी उपयोगी होती है और प्रेम-पात्र की भी उन्नति करती है। यह बात एक प्रेमको कहानी से भी स्पष्ट हा जायगी । प्रेमी -पिता पुराने ज़माने में भारतवर्ष में एक विद्वान रहते थे जिनने अपने पुत्रको खूब पढ़ाया था यहाँ तक कि आसपास के सब विद्वानों को वह बादविवाद में हरा देता था। पिता चाहते थे कि वह अभिमान में आकर अपनी उन्नति का द्वार बन्द न करदे इसलिये मनयममय पर उसकी त्रुटियाँ बताया करते थे। जब बेटा कभी नादानी कर जाता तब उसे झिड़क भी देते थे । वे चाहते थे कि यह कोरा पंडित ही न बन किन्तु विचारक भी बने, कुशल भी बने, विवेक और संयमी भी बने इसलिये भी उसके दोष दिखाते रहते थे। बेटे को यह मालूम होता था कि मैं छोटी उम्र में ही बड़ा विद्वान हो गया हूं इसलिये पिता ईर्ष्या करते हैं। मेरा ५श उन्हें सहन नहीं होता ! इसलिये वह अपने विद्वान दिन पर क्रुद्ध रहता था। एक दिन उसने सोचा कि रात में पिता से कहूंगा कि या तो तुम मेरी निन्द्रा बन्द करदो नहीं तो मैं तुम्हें मार इस विचार से जब वह अपने पिता के नागार पर पहुँचाना हुआ कि माता-पिता Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ ] सत्यामृत दोनों जाग रहे हैं और कुछ बातें कर रहे हैं। गिर पड़ा और अपने मानसिक पापका प्रायश्चित्र यात मुनने के लिये यह चुपचाप द्वार पर खड़ा मांगा । बाप ने कहा-बेटा ! अगर सच्चा पश्चात्ता हो गयः । माता पिता से कह रही थी-नुम लड़के हो जाय, ऐसा पश्चाताप जो उस पाप की लेइ कोडम्बानी क्यों करते रहते हो? जब देखो तब मात्र भी पुनरावृत्ति न होने दे और किसी भी रूपरे उसकी भूल ही बताते रहते हो! मैं देखती हूं, न होने दे तो अलग प्रायश्चित्त की ज़रूरत नहीं इससे वह सदा अप्रसन्न रहता है। ऐसे होश्यार रहती। लड़के से तुम प्रेम क्यों नहीं करते ! ____ मतलब यह है कि प्रेम स्वपर-कल्याणकारी पिताने कहा-तुमने कैसे समझा कि मैं प्रेम होता है । हाँ, प्रेम करना और प्रेम पहिचानना नहीं करता, प्रेनकरता हूं तभी तो उसे डाटता डप- दोनों ही कठिन है । मोह सरल और आकर्षक टता रहता हूँ। मुझे डर है कि उसमें अहंकार न है पर अन्त में उससे दोनों का नुकसान होता है। आजाय, वह अपने को सर्वज्ञ न समझने लगे, मोहिनी माता के दृष्टान्त से यह बात स्पष्ट हो जायगी। अपने मुँह से अपनी तारीफ़ न करने लगे । इन मोहिनी माता दोषों से मनुष्य का विकास रुक जाता है, वह यश जूटने जाता है, पर यश के योग्य होने पर एक नगर में एक विधवा स्त्री रहती थी भी बह यया के बदले निन्दा, और हँसी पाता है, जिसका एक ही लड़का था । एक तो इकलौता वह सम्मान रटने जाता है पर घणा और अपमान वेटा फिर दूसरा कोई सहारा नहीं, इसके अतिरिक्त पाता है। सन्मान और यश दूसरों के दिये हुए मोहिनी मूढ़ भी काफ़ी थी इसलिये उसे अपने ही अच्छे होते है। इनकी छीनाझपटी से ये नहीं लड़के का गहरा मोह था। निरंकुश रहने से. मिलते और जो कुछ मिलते हैं उनमें स्वाद भी नहीं लड़का उइंड होने लगा । जब वह कोई बदमाशी रहता बल्कि उनके सम्पर्क से पुराना यश और करता और पड़ोसी उलहना देते तो वह लड़के मान भी बेस्वाद हो जाता है इसीलिये मैं उस पर के अपराध का विचार किये बिना पड़ौसियां से अंकुश लगाता। मैं चाहता हूं कि वह मुझ से लड़ने लगती । अगर पड़ोसी इतना प्रभावशाली नीबदा विद्वान और संयमी बने । यह तभी हो होता कि उससे लड़ना कठिन होता तो वह सकता है जब बब मेमनार बाते जल्दी से जल्दी लड़के को अंचल से ढककर रोने लगती । इस * मेरे बाद कुछ अपनी कमाई भी करे। प्रकार कहीं जीभ चलाकर और वहीं आंस दिखाकर इसलिये मैं उसे जीवन की और विद्वत्ता की वह पड़ौसियों को हरा देती और अपने लड़के पर अटियाँ बताया करता हूं। ऐसा न करूंगा तो आंच तक न आने देती। विद में ही बह कृतकृत्य मानकर अपने को परिणाम यह हुआ कि लड़का चोर, नष्ट कर देगा। बदमाश और कर हो गई । और जबानी के विद्वान बोने ना के एम म प्रेम प्रारम्भ में ही वह रंडीबाजी भी करने लगा। क. नाना तब उनमः नमनार में उद उमा भारी वेश्या से जब एक दूसरे आदमी लगा । परमपर नहर में चोर ने संबन्ध जोडाइमने उस आदन का और Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती की साधना वेश्या का खून कर दिया । जब सरकार से उसे मृत्युदण्ड मिला और अधिकारियों ने जब दण्ड देने के समय उसकी अन्तिम इच्छा जानना चाही तो उसेन माता से मिलने की इच्छा प्रगट की । जब माँ उससे मिलने आई तो उसने माँ की नाक काट ली और कहा, 'अगर तूने मेरी छोटी अवस्था में ही माह में भूलकर मुझे उद्दण्ड न बनने दिया होता, पड़ोसियों के उलहनों का विचार करके मुझे सुधारा होता तो आज मेरी यह दशा न हुई होती । इस प्रकार मोह से मोहिनी का जीवन भी बर्बाद हुआ, दूसरो की भी हानि हुई और उसका प्यारा लड़का भी जान से गया । सन्तान से प्रेम और वात्सल्य रखना चाहिये, मोह नहीं, मोह मे अपना भी नुकसान होता है और सन्तान का भी जीवन बर्बाद होता है। प्रेम की अपेक्षा मोह कुछ मीठा तो अवश्य मालूम होता है और विश्वसनीय भी लगता है पर अन्त में वह बहुत कडुआ निकलता है और की भी पोल खुल जाती है। मोही व्यक्ति को विश्वसनीय नहीं समझना चाहिये । प्रेमी नतिप्रधान है जब कि मोही स्वार्थप्रधान । यह बात हिप्रोजा की कहानी से और भी साफ हो जायगी । हिमोजा की कथा महात्मा ईसा से भी पुरानी बात है। उस समय यूनान दार्शनिकों का विख्यात केन्द्र था । प्रसिद्ध दार्शनिक जयना के अनुयायी धर्म के नाम पर आत्महत्याएं करने लगे थे जब कि अतिसुखवादी एपीक्स के अनुयायी विषय भोगों के गुलाम बनकर नीति- अनीति भूल गये थे। इस दलके दार्शनिक वेश्याओं से सम्पर्क रखने में जरा [ २५६ भी शार्मिन्दा न होते । ऐसे दर्शकों में हिमोजा नामका एक दानिक पंडित था जो इलिया नाम की एक वेश्या के सौंदर्य पर विक गया था । इलिया इकदम किशोरी और सुन्दरी इसलिये अच्छे अच्छे दार्शनिक विद्वान् उसके एक एक कटाक्ष के लिये न्यौछावर होने को तैयार रहते थे। जगप्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो के साम्यवादी विचारों ने कुटुम्ब संस्था को काफी डीला कर दिया था इसलिये बहुत मे दार्शनिक वेश्याओं के यहां पड़े रहते थे, इससे जहां दार्शनिकों के चरित्र का पतन हुआ था वहां दार्शनिकों के संसर्ग में बौद्धिक विकास और शास्त्रीय ज्ञान भी बढ़ गया था। इसलिये इलिया बेश्या होने के साथ कुछ विदुषी भी थी । हिमोजा उसे प्राणपण से चाहता था और इलिया भी उसे सचे दिल से चाहती थी। दोनों इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि उनमें से कोई किसी के साथ कभी बात करेगा । एक दिन इडिया ने हिनेजा से कहा पारे हम दोनों आपस में विवाह क्यों न करलें ! जिनमें प्रेम नहीं इलिया की बात सुनकर हिमोजाने हँस दिया और कहा- प्यारी तुम्हें यह पागलपन कहाँ से सूझा ! विवाह वे करते हैं होता और अविश्वास होता है । उन्हें डर रहता है कि कहीं कोई किसी को धोखा न दे दे । उनमें सचा आकर्षण नहीं होता इसलिये वह के बन्धन से एक दूसरे को बाँध कर रखना पड़ता है पर हम दोनों तो एक दूसरे को कञ में भी न छोड़ेंगे। तुम्हारे एक एक कक्ष पर मैं मोर की तरह नाचत हूं। क्या तुम विश्वास कर सकती हो कि मैं तुम्हें कभी छोड़ सकूंगा ! तुम्हारी ये मदमाती आंखें, ये लम्बे केश, यह Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ ) सत्यामृत कलं कहीन चन्द्रमा सरीखा मुखड़ा, कहां तक कई दिन हिमोजा के दर्शन हुए । प्रेम की ओट में तुम्हारा एक एक अंग एक एक उपांग चुम्बक की मोह रखनेवाले विश्वासघाती हिमोजा का मह तरह मुझे खींचता है, मैं इस आकर्षण से कभी देखना भी इलिया को पसन्द न था पर अब वह नहीं छूट सकता तब विवाह की बला किसलिये? विश्वासघात का बदला लेना चाहती थी इसलिये ___ यह कहकर हिमोजा ने ऐसी तिरछी आंखों उसने हिमोजा का आदर किया, शराब पिलाई से देखा और मुसकरादिया कि इलिया लज्जित किन्तु एक प्याले में विष मिलाकर उसने हिमोजा हो गई। विवाह की बात दूर रही और दोनों के प्राण ले लिये । इस प्रकार मोही जीवन का चैन से रहने लगे। अन्त हो गया । हिमोजा मोही था इसलिये वह कुछ समय बाद इलिया गर्भवती हामी विश्वासपात्र सिद्ध न हुआ और इस अविश्वास भार से उसके दारीर में अटस रहने लगा बह की प्रतिक्रिया इलिया के जीवन में भी हुई । चचलता न रही। हिमोजा की कामुकता में बाधा पश्न-प्रेम और मोह का भेद आपने साफ़ पड़ने लगी । उसने देखा आंग्यों में अब वह कटाक्ष तो किया फिर भी जीवन में ऐसी ऐसी घटनाएं नहीं है वह चपलता नहीं है । कुछ समय बाद होती रहती हैं कि यह पता लगाना मुश्किल है हिमोजा के ऊपर लिया : सेवा का भी भार कि उनके मूल में प्रेम समझा जाय या मोह समझा भनेर । मोजा ने दे। अब इलिया का जाय। कहीं कहीं तो प्रेम की उपयोगिता ही रसत्रोत सूखा जा रहा है या किसी दुसरी तरफ़ नहीं मालूम होती और मोह ही उचित मालूम 4ह 102 इसलिये हिमोजा किसी दूसरी वेश्या होता है, मोह के विना समाज में बड़ी अव्यवस्था के यहां आने जाने लगा। हो जायगी । जैसे एक आदमी ने हमारे ऊपर दुर्भाग्य मे बच्चा होने के दो तीन दिन पहिले बहुत उपकार किया पालन पोषण किया जीवन इलिया के पेट में काफी दर्द रहा। यह देखकर दिया पूरा विश्वास रक्ता, पर हमें मालूम हुआ हिमोजा ने इलिया के यहां आना बिटकुल्ट अट कि वह पाप करता है दूसरों को ठगता है । अब कर दिया । अंतिम दिन तो इलिया की हादन आवश्यकता होने पर भी अगर मैं उसके पापको बहुत खराब रही। पड़ोनिने अगर उमको मदद न अमट नहीं करता हूं तो मोही हूं। अगर प्रगट पहुंचाता तो प्रगति के दिन वह मर गई होती करता हूं तो कृतन और विश्वासघाती पर इस प्राण संकट के समय भीम. दूसरी है। इसका परिणाम भी ऐसा बुरा होगा कि कोई बेश्या के यहां मौज कर रहा था। आदमी किसी का उपकार न करेगा न विश्वास अब इलिया को प्रेम और मांड का असर रखेगा। इसी प्रकार धर्म समझ कर पति के समझ में आया और यह भी समझा कि हिमोजा देने वाली पत्नी में प्रेम माना जाय या ने विवाह के लिये क्यों मना कर दिया था र मोह ! इन सब बातो क! निर्णय कैसे किया जाय ! दो मीन महीने बाद टिया की तबियत अच्छी उत्तर- जीवन विरोध से भरा हुआ है । है: गई, उसके शरीर पर फिर पहिले सरीखी कभी दे ३५. इस तरह हमारे मामने आ नय, आने लगा । नब कर लिया को एक जानी है उनमें से किसी एक ! अपनाना Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती की साधना 1 लाज़िमी हो जाता है । ऐसे अवसर पर विचार करके जिससे निःस्वार्थता का परिचय मिले और सामूहिक रूप में समाज हित अधिक हो वही काम करना चाहिये, अगर एक तर न्यायरक्षा हो और दूसरी तरफ विश्वासघातकता हो तो दोनों का बलाबल देखकर ही कर्तव्य निर्णय करना उचित है । यद्यपि पहिले कुछ दृष्टांतों द्वारा प्रेम और मोह का अन्तर और उनका परिणाम बताया जा चुका है फिर भी यह विषय इतना जटिल है कि इसको अधिक से अधिक साफ करने की जरूरत है, इसलिये एक उदाहरणमाया के द्वारा कर्तव्य निर्णय करते हुए प्रेम और अतर दिखाया है व्यापक अधिक १. विभीषण ने रावण के अन्याय से ऊब कर राम का पक्ष लिया । अगर विभीषण में लङ्का के राज्य हथियाने की बासना बिलकुल न हो तो भिषण में न तो रावणद्वेष माना जा सकता है न राममोह, दोनों जगह प्रेम ह अगर राज्य हथियाने की वासना हो तो न्यायक्ष लेवर भी वह स्वार्थी माही आदि 1 २– एक राजाने मेरे देशमें इसलिये धर्मप्र - चारक भेजे कि उसके धर्म का प्रचार होने से उसे साम्राज्य बढ़ाने में सुभीता होगा, अगर धर्मप्रचारकों को सताया या मारा जायगा तो मेरे देश पर आक्रमण करने का उसे बहाना मिलेगा, ऐसी हालत में मैं उस धर्मप्रचार का भी विशेष करूं तो यह देश मोह नहीं, देश-प्रेम होगा । ३ - एक ड. कू अपने बेटे को खूब चाहता है और कोशिश करता है कि यह मुझसे भी बढ़िया डाकू बने । बेटा भी बापको खूब चाहता है। पर बड़ा होने पर वह डकैती को पाप समझकर [ २५८ पिता का साथ नहीं देता । डकैती में कभी बाप घायल होकर आजाता है तो वह बाप की सेवा करता है पर बाप डाका न डालने पावे इस की कोशिश भी करता है, जहाँ डाका डालने का विचार किया जाता है वहाँ के भी कर देता है। बाप को दंड देता है, बेटा सहलेता है पर अपने न उसे दुःखी देखना मोही नहीं प्रेमी है । इस पर क्रुद्ध होकर बेटे चुपचाप विनयपूर्वक दंड पापी वापसे द्वेष नहीं करता चाहता है तो वह बेटा ४- एक आदमी इसलिये अपने धर्म की तारीफ करता है कि वह उसका धर्म है तो यह धर्मप्रेम नहीं धर्ममोह है। इस प्रकार जाति कुल देश प्रान्त आदि की भी बात समझना चाहिये । ५- एक आदमी ने एक अनाथ लड़के का पुत्र की तरह पालन किया, वह आदमी व्यापार में कुछ मिलावटी चीजों का उपयोग करता है। लड़के को इस रहस्य का पता है, वह इसे अनुचित समझता है इसलिये उस में भाग नहीं लेता फिर भी अपने पालक का रहस्य इसलिये जगत् को नहीं बतलाता कि इससे पालक के मनने अनाथ बच्चों को पालने से घृणा न हो जाय, ऐसी हालत में वह लड़का अपने पालक का प्रेमी है मोही नहीं । पर अगर वह आदमी किसी भी स्त्री पर बलात्कार करने या हरण करने का षड्यन्त्र रचता है और लड़के को मालूम हो जाता है लड़के का अवसर है कि वह उस स्त्री को सतर्क करदे फिर भी यह नहीं करता तो लड़के को प्रेमी नहीं मोही कहना चाहिये । साधारण मिलावटी चीज मिलाने में और एक स्त्री पर बलात्कार करने में पापका इतना अन्तर है कि एक जगह मौन क्षम्य है दूसरी जगह नहीं है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ ] मत्यामृत ६-- अपनी पत्नी का अनुचित अपमान यद्यपि सबसे प्रबल और व्यापक कषाय होने पर उस अपमान का बदलादेना पत्नी-प्रेम है मोह है पर कई दृष्टियों से उसमें स्वाभाविकता किन्तु मातापिता कोई अच्छी बात सिखाना अधिक है, जीवन की आवश्यकता-पूर्ति के लिए चाहें, काम का अभ्यास कराना चाहे, उचित भी माह का उपयोग हो जाता है पर मान इतना सेबा देना चाहे तो पत्नी का पक्ष लेकर माता- स्वाभाविक और आवश्यक न होने पर भी तीव्र पिना से लाना पली-मोह है। होता है इसलिये यह माह की अपेक्षा कम प्रेम और मोड का अन्तर सायली मन्तव्य है। अभिमान का उपयोग सिर्फ इतना थामाला और भी लंबई जा मय है। सार हा है कि हम ही है कि हम दूसरों के सिर पर अपना महत्व बान बम सनही कह मूल में स्वार्थ लादें । महत्वानन्द की भूख बुझाने लिये मनुष्य और अविवेक रहता है जबकि प्रेम के मूल में आभमानी बनता है। मनुष्य महान् बने इसमें स्वपर-हित और विवक ।ता है। प्रेम बहुत फल कोई बुराई नहीं है, पर मनुष्य बडा बनना नहीं सकता है और उसकी सीमा पर ऐसी घर नहीं चाहता बड़ा कहलाना चाहता है और इसीलिए न जिस दूर को काटे, प्रेम अपनी अभिमान पाप रूप हो जाता है । भर .. कहलाने लगता है, मोह अभिमान से अनेक हानियाँ होती हैं । संकुचित होता है और उसकी सीमा पर ऐसी नमूने के रूप में कुछ का उल्लेख यहां किया धार होती है जिससे बह दुसरे को काटे । मह जाता है। इससे पता लगेगा कि बड़े कहलाने के की सीमा द्वेष से घिरी रहती है जब कि प्रेम लिये हम जितना अभिमान करते हैं, उतने ही की सीमा पर द्वेष नहीं होता बल्कि उसके चारो .तुच्छ होते जाते है और तुच्छ कहलाते भी आर 'स्वागतम' लिखा रहता है । प्रेम पुण्य है, जाते है । धर्म है। मोह कषाय है पाप है । इसलिये १- अ साधारण मनुष्यों में न मन के लिये माह का त्याग जमरत बजरूरत अपनी तारीफ करने की आदत दाना और प्रेम को अपनाना चाहिये। होती है और इसके लिये वे अतिशयोक्ति या निरभिमानता मिथ्यावाद से भी काम लेते हैं। ऐसे लोग। भगवती की म न' का दूसरा अंग को समझना चाहिये कि अगर कोई हमारे सामने नम: । का स्वरूप इसी अपनी तारीफ़ के पुल बांधता आवे तो जैसे हम अध्याय में पहिले कह दिया गया है और यह भी उसे क्षुद्र समझकर हंसने लगते हैं, प्रत्यक्ष में न बतला दिया गया है कि अभिमान और अम- करें तो परोक्ष में उसकी निंदा करने लगते हैं, गौरव में क्या अन्तर है ! अभिमान कपाय है. हमें उसकी फ सहन नहीं होती उसी प्रकार नगौरव कपाप नही। यहां तो भगवती की दुसरेको हमारी तारीफ़ सहन नहीं होती माधना के लिये अभिमानस होने वाली बुराई और वे भी निन्दः और घृणा करने लगते हैं। और निरभिमान से होने वाले लाभ क. विवेचन आनन्द तो हमें महान् बनंन या महान् कहलाने इमरी से अदर और सेवा पाने से मिल मकता Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती की साधना है. पर आत्मप्रशंसा से हम अनादर असहयोग और घृणा ही पाते हैं इसलिये आत्मप्रशंसा बेकार है, इतनाही नहीं वह हनांग स्थान नीचा भी बनाती है ! भले ही मूढ़तावश हम इसे समझ न सकें । तारीफ तो दूसरे के मुंह से ही अच्छी मालूम होती है अपने मुँह से अपनी तारीफ़ में न तो मज़ा है न स्थिरता है और न व्यापकता है 1 २ - कायिक असा आत्मप्रदीमा बचन से ही नहीं होती. शरीर से भी होती है जिससे कि अहंकार का परिचय मिलता है और से जो हानियां ऊपर बतलाई गई हैं वे हानियां उठाना पड़ती हैं । तुम जब ऐसी सभा में बैठे हो जहां सेवा आदि के अनुसार बैटने का विचार किया जाता है वहां अपने से बड़े लोगों का स्थान झपट लेना कायिक है । इसी प्रकार, फोटो खिंचवाने की सामूहिक व्यवस्था में अपने उचित स्थान से ऊंजे दर्जे पर बैटना जिससे तुम्हारे अनुचित महस्व की घोषणा होती हो' राथ चलने में इस प्रकार बढ़ चढ़ कर चलना जिससे योग्य मनुष्यों का महत्त्व छिपता हो, योग्य व्यक्तियों से स्वयं पहिले शिष्टाचार न करना या शिष्टाचार की क्रिया या वचनों का योग्य उत्तर न दना, जरूरी और योग्य सेवा को तुच्छ समझकर उससे दूर रहना, आदि कायिक आत्मप्रशंसा है इससे हम दुनिया की दृष्टि में घृणास्पद और नीच बनते हैं । ३-- चुटिल, मांसामा और भी रूप हैं । कभी कभी हम आत्मप्रशंसा सीधे शब्दों में न करके कुछ ऐसे टेने शब्दों में या टेढ़े व्यवहार में करते हैं कि अगर हमें कोई अभिमानी सिद्ध करना चाहे तो हम शब्दों को हमें न आयें यह कुटिल प्रशमा है इसका परिणाम भी [ २६० बुरा होता है इसमें मन की । बल्कि हल का मिश्रण होने से अशुद्धि बढ़ भी जाती है। इस विषय में मेरे जीवन के कुछ संस्मरण और अन्य कथाएं उपयोगी होंगी | के क--जब मैं अन्तर्वतीका आन्दोलन करना था तब बहुत से विद्वान् मेरे विरोध में लेख लिखते थे। जिनने बहुत दिनतक मेरे विरोध में लिखा और सब से अधिक जोरदार लिखा ऐसे एक विद्वान् का मत अन्त में बदल गया और इस विषय में वे मेरे क्रियात्मक समर्थक हो गये। कुछ दिनबाद जब मैं दूसरा आन्दोलन करने लगा और उनने उस दूसरी बात का विरोध किया, तब मैंने लिखा आन्दोलन में आपने जैसी निःपक्षता का परिचय दिया वैसी आज भी देंगे तो फिर मेरे समर्थक बन जायेंगे । इन शब्दों में मेरा अभिमान छलछला रहा धालय का तो मंत्र था । इसका फल यह हुआ कि उनका भी अभिमान जग पहा और थोड़ा बहुत मेरा जो प्रभाव उन पर पड़ा था वह भी उनने अस्वीकार किया और आगे के किसी भी आन्दोलन में वे मेरे समर्थक नहीं हुए इस प्रकार मेरा इस कुटिल आत्मप्रशंसा ने मेरा उनका और समाज का काफी नुकसान किया । ख - एकबार बहुत से नेता लोग एक समारोह में मेहमान होकर गये थे । गांव के हजारों लोग उसमें हाजिर थे उनने सब मेहमानों के बैठने के लिये, खासकर जो उस समारोह में व्याख्यान देने आये थे उनके लिये कुर्सियों का इन्तजाम किया। मेहमानों में से एक सज्जन उस समारोह के अध्यक्ष चुने जाने वाले थे। उनने सोचा कि मेरे साथ सब मेहमान कुर्सी पर बैठें तो मेरी विशेषता क्या रही ! इसलिये उनने वहां के लोगों Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ ) सत्यामृत से कहा- आप लोग कुर्सियां उठालेजाइये तुच्छ न थे, वे गादीवाले आसन पर जमकर हम लोग जान पर बैठेंगे, मेहमान हैं तो क्या बैठ गये । अब मुझे वह गादी भीष्म की बाणआपके सिर पर बैटने के लिये । उनकी इस विनी- ' शय्या से भी अधिक कटीली मालम होने लगी तता से खुश होकर लोगों ने कर्मियां उठाली उनने खिलापिला कर जो मेरा आदर किया था पर जब आप अध्यक्ष बनाये गये तो आपको वह सब मिट्टी में मिल गया उनकी तुच्छता पर कुसी की जरूरत पड़ी तब आप कुसी का अस- मुझे हसी भी आई और घृणा भी हुई । उनन तो पन राज्य पाकर आराम से कुर्सी पर बैठे । इससे सोचा होगा कि मैं प्रभावित होगया इसलिये इस वे आसमान में कितनी ऊँचाई रचे यह तो कुटिल आत्मप्रशंसा का उपयोग किया गया पर किसे मालम पर उनके मित्रों के दिल में उनका इससे उनने घृणा ही पाई । पछि तो मालूम हुआ स्थान सदा के लिय बहुत नीचा हो । या । यह कि ये श्रीमान्जी उन महाशयों में से हैं जो पाच कुटिल आत्मप्रशमः का फल था। __ का दान करके दम रुपया उस मे विज्ञापन में ग-एक बार मुझे एक ऐसे श्रीमान का मह- खर्च करते है इसलिये बेचारे यश के लिये बहुत मान बनने का दुर्भाग्य प्राप्त हुआ जिन्हे कुटिल परिश्रम करते हैं पर निन्दा ही पाते हैं । आमप्रशंसा की बीमारी थी । उनने मुझे अनेक घ-- बात काफी पुरानी है, उस समय मगध तरह की मिठाइयां और अच्छे अच्छे व्यञ्जन परोसे में बहुत से गणतन्त्र राज्य थे जो कि आसपास यह कल्पना तो मुझे अच्छी न लगी कि उनने अपने के एकतंत्री राज्यों की अँखों में खटकते थे । एक वैभव का प्रदर्शन किया है, मैंने तो यही समझा गणतन्त्र के मुखिया दो भाई थे जो बड़ी बहादुरी कि मेरा असाधारण आदर करन के लिये उनने और होश्यारी से अपने पत्रब: रक्षा करते थे। यह तकलीफ उठाई है । भोजन के बाद उनने एक बार उन्हें पता लगा कि उनके राज्य पर २.६१-चरिये, घुमने चलें उनने बग्घी मगाई। आक्रमण होनेवाला है इसलिये एक भाई सैन्यउसमें एक साथ दो आदमी बैठ सकते थे पर संग्रह के काम में लग गया और जैसे आदमी अंमन में आध, जगह पर रई की अदिया मिल वह सेना में भरने लगा, दूसरे भाई ने कहा गादी विद्या रक्खी थी और पीछे टिकने के लिये चुने हुए आदमियों को ही सैनिक बनाना चाहिये एक तकिया था। बाकी आधी जगह पर यह सब इस प्रकार भीड इय ही करने से कुछ लाभ नहीं नहीं था। जब गाड़ी पर चढ़ने का अवसर आया पर पहिला भाई भीड़ उक्ट्टी करता रह।। पर तो आपने मुझे पहिले बैठने के लिये है।-अभि- ज्यों ज्यों लड़ाई का अवसर पास आने लगा त्यों मान न मालूम हो इसलिये में खाली जगह पर यों सनिक भागने लगे इसलिये उसने सोचा यह ग्या, सोचता था कि विद्वान् व हटाने के ठीक नहीं इनमें से अच्छे अच्छे सैनिक चुन लेना लिहाज से नही तो मेहमान हटाने के लिहाज चाहिये। पले भाई का यह परिवर्तन देखकर में ही ये श्रीन । ॐ अस्य मुझ में गादी- दूसरे भाई को कुछ घमंड आया कि आखिर इन्हें मारे आमन पर बैटने का अनुराध करेंगे। पर मेरे रास्ते पर ही चलना पड़ा । घमंड को वह मा तु या श्रीमान ज. उससे कुछ कम दया न सका । उसने पहिले मई में कहा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती की साधना [२६२ आखिर आपको मेरे रास्ते पर ही आना पड़ा मुझे उनके शिष्य का भी लोग काफी आदर करते थे। आपके मतपरिवर्तन से प्रसन्नता हुई है, अब अपना विनर और विद्वान् था पर उसमे काम अच्छा चलेगा। कुटिल मास की बड़ी बीमारी थी, इसके __ पहिले भाई का मतपरिवर्तन हो ही गया लिये यह एक न एक कुटिल उपर काम में लाया था पर दूसरे भाई ने अच्छा काम चलने के बहाने करता था। पाहेला काम उसने यह किया कि जो आत्मप्रशंसा की उसने विष घोल दिया । अब हरिहरमंदिर का नाम विनय दर कर सुव्यवस्था का प्रश्न न रह गया। प्रश्न अपने अहं- दिया । हरिहर शब्द उच्चारण में सरल और कार का रह गया । अब पहिले भाई ने यही छोटा होने पर भी अर्थ में कैसा काटिन है इस समर्थन करना शुरू कर दिया कि जैसे भी मिलें पर उसने एक दिन अच्छा व्याख्यान भी दे सैनिक भरती किये जय दुसरे ने कहा-नहीं, चुने डाला । पर शब्दों की दीवार शब्दों से ही हुए आदमे ही सैनिक बनाये जायें। अब काफी अभेद्य हो सकती है, वह दिल से अभेद्य नहीं शक्ति इन झगड़ों में जाने लगी, अव्यवस्था भी हो सकती। दिल तो उसे भी पारकर तथ्य को फैली, दोनों में विरोध भी बढ़ा, विरोधियों को पकड़ लेता है, इसलिये लोग चौकने हो गये । पता लगा, मौका पाकर उनने उस गणतंत्र को उनने कहा तो कुछ नहीं, पर समझ लिया कि नष्ट कर डाटा । इस प्रकार अभिमानका यो:- पुजारी भगवान के बहाने अपनी सी आत्मप्रशंसा ने सर्वनाश कर दिया। पूजा और कनिन कराना चाहता है। पर शिव हु-उस जमाने की बात है जब भारतवर्ष नारायण तो कुटिल में अन्धा हो में आर्य और नागद्रविड आदि में संस्कृतिक एकता रहा था, लोगों की अरुचि उसे न दिखी और का प्रयत्न चल रहा था इसलिये शिव और विष्णु उसे दिन की बीमारी हो गई । उस एक ही परमात्मा के अंश माने जाने लगे थे और समय लोग आपस में शिष्टाचार के तौर पर उनमें आवरोध बतलाकर दोनो जातियों का हरिहर' बोलते थे जैसे कि आजकल शमराम' सम्मिलन कराया जाता था। जनमेजय का नाग- बोलते है । पर शिवनारायण ने हरिहर' की यज्ञ बन्द करानेवाले आस्तीक मुनि की परम्परा जगह मिलनार ' का प्रयोग करना में नागार्य नाम के एक महर्षि हए थे जिनने शुरू किया । हरिहर मन्दिर बनाकर आर्य-अनार्य सब को एक महर्षि नागार्य को जब कोई प्रणाम करता स्थान पर मिलाने की कोशिश की थी । इस तब वे मस्तु' कहकर आशीर्गद देते थे मन्दिर में विष्णु और शिव दोनों की मूर्तियां थीं पर पिनास को जब कोई प्रणाम करता तो इसके प्रताप से शैव और वैष्णव आर्य और अनार्य शिवमस्तु' कहकर अदीद देता था। फल यह का भेद मिटता जाता था। हुआ कि लोगों को यह शिव शब्द भी काटेसा महर्षि नागाय के मरने के बाद उनके चुभने लगा। शिष्य शिवनारायण के हाथ में मंदिर का प्रबंध हरिहरमंदिर को समानत लोग मंदिर आया । नागार्य को लोग बड़ी श्रद्धा से देखते थे कहा करते थे । हरिहर तो प्रकरण से ही समझ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ ] सत्यामृत लिया जाता था पर शिवनारायण को सिर्फ मन्दिर से बड़ा विद्वान् भी मूर्ख से मूर्ख साबित होता है। कहने में संतोष नहीं होता था, वह बातबात में ४ परनिंदा-साधारण मनुष्यों को सब से शिवनार या-मंदिर कहा करता था । इसप्रकार रोचक समाचार है परनिन्दा । जहां पर अच्छे से अवलम्बन न रहने से हरिहर शब्द छूट गया अच्छे विद्वत्तापूर्ण और कलापूर्ण भाषण के लिये और लोगों ने यह समझकर कि भगवान के बहाने श्रोता न मिलते हों वहां भी निन्दापूर्ण भाषण के यह पुजारी अपनी पूजा कराना चाहता है, लिये श्रोताओं की कमी नहीं रहती । मनुष्य को शिवनारायण शब्द भी छूट गया और इस तरह निन्दा करने की और सुनने की जो आदत है मंदिर भी छूट गया। उसका कारण उसका एक भ्रम है । वह समझता लोगों के इस असहयोग से पुजारी का क्रोध है कि दूसरों की निन्दा से मैं बड़ा या भला कहबढ़ने लगा । अन्त में फल यह हुआ कि महिनों लाने लगूंगा जब कि बात इससे उल्टी है। दूसरों तक लोग न उस मंदिर में आते न पुजारी से की निन्दा मे अगर हम बड़े बनने लगें तो हमारी मिलते । मंदिर की मरम्मत भी न होती, कुछ निन्दा से दुसरे भी बड़े बनने लगेंगे । टोटल ददिर की दीवारें गिरने लगी, पुजारी बराबर ही रहेगा । हाँ, सामूहिक रूपमें सब का • चार भागों में यह अफवाह फैली कि पतन अवश्य होगा । शरीरकर मंदिर में भूत हुआ है, इससे जैसे आत्मप्रशंसा से दुनिया हमें बड़ा नहीं लोगों ने उस रास्ते से निकलना भी बन्द समझने लगती उसी प्रकार परनिंदा से हमारी निर्बलता ही साबित होती है। इस प्रकार पुजारी की कुटिल आत्मप्रशंसा आत्मप्रशंसा के विषय में जिन बातों का से महर्षि नागार्य का लगाया हुआ पाना असमय उल्लेम्ब ऊपर किया गया है उन्हें परनिन्दा के में ही सूख गया इस प्रकार कई शताब्दियों के विषय में भी समझ लेना चाहिये । परनिन्दा भी निद्रय सांस्कृतिक एकता या कार्य रुक गया। कायिक तथा कुटिल हुआ करती है । किसी की इस प्रकार तथ्यातथ्यरूप सत्यकथाएं और उचित तारीफ़ न सहकर दुसरा की तारीफ़ करने भी लिखी जा सकती है पर इतने से भी बात लगना कुटिल परनिन्दा है। निन्दा किसी प्रकार भी पुरी समझ में आ जाती है। सार यह है कि घुमाफिरा कर की जाय जब हमारे मन में अहंकार मके काम में हम कितनी ही कटिटर हैनो उसका दुष्परिणाम होगा ही। या चतुर्राई से काम लें हमारे मन का पाप छिपा अपवाद-मान कपाय का स्वरूप कहते नहीगह सकता। दुनिया हमारे मुंह रतः सायं 4 बतला दिया गया है कि अभिमान पाप इसका यह अर्थ नहीं है कि वह नहीं समझती । है-आमगारव रा नहीं है। अभिमान के द्वारा ऐसी बातें तो साधारण आदमी भी समझ जाते हम दसर का महत्व नष्ट करना चाहते हैं और हैं रचना की तो बात ही दूसरी है । यहाँ अपना महत्व किसी भी तक से बढ़ाकर दूसरों हमन ट, उगाने है दुनियां की आंखें पर लादना चाहते हैं, जब कि आत्मगौरव में उत र ने हैं। श्रमप्रशंमा में बड़ा अपने उचित महत्व को रक्षा कम होता है, Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती की साधना किसी कार्य में अपनी दृढ़ता का परिचय देने के लिये कुछ ऐसे वचन कहे जायँ जिससे जो दूसरे को आश्वासन मिले तो ऐसी जगह I आत्मप्रशंसा होगी उसमें भी अभिमान का दोष न होगा । जैसे किसी ने कहा, आप चिन्ता न करो मेरे रहते आपका कौन क्या कर सकता है ? वैद्य रोगी को इसी प्रकार आश्वासन दें तो यह आत्मप्रशंसा नही। हां, आश्वासन देने का भाव न हो या गौण हो किन्तु ठगने का भाव मुख्य हो तो यहां लोभ छल अभिमान आदि दोष हैं ही । या सुधारक लोग जो अपने प्रयत्नों की अमोघता बताने के लिये दृढ़ता का परिचय देते हैं वह भी अभिमान नहीं है। इस बहाने से अपने गीत गाना हो तो अभिमान है ही । आत्मगौरव के द्वारा न तो दूसरों का उचित महत्व गिराया जाता है, न अपना अनुचित महत्व बढ़ाया जाता है । इसलिये अभिमान दूर करके मनुष्य को आत्मगौरव का खयाल रखना चाहिये । तुम में आत्मगौरव है या अभिमान ! इसका निर्णय दुनिया कर ही लेती है पर अगर कुछ समय के लिये लोग भ्रम में भी पड़ जाय तो उस न को सहन करके भी आत्मगौरव की रक्षा करना चाहिये । ऐतिहासिक व्यक्तियों की आलोचना करने में अभिमान नहीं है, रावण आदि की निंदा परनिन्दा नहीं है क्योंकि इसमें अपना महत्व बढ़ाने का विचार नहीं होता किन्तु पाप-पुण्य की आलोचना का विचार होता है, पाप का दमन आर पुण्य को उत्तेजन देने की समान होती हैं। हाँ, किसी ऐतिहासिक व्यक्ति को अपना समकक्ष समझकर अपना महत्व बढ़ाने के लिये उसकी निन्दा की जाय तो यह भी पर- निन्दा होगी । अपने प्रांत, देश, जाति आदि का होने से किसी ऐतिहासिक व्यक्ति की प्रशंसा की जाय और उसे बढ़ाने के लिये दूसरे प्रांत, देश, जाति आदि के ऐतिहासिक व्यक्ति की निन्दा की जाय तो यह भी परनिन्दा है । वर्तमान के प्रसिद्ध व्यक्तियों के विषय में भी इसी नीति से विचार करना चाहिये । सन्तान या सन्तानोपम व्यक्तियो की निंदा उनके सुधार के लिये की जाय तो यह परनिन्दा नहीं है । ऐसे व्यक्तियों के सामने अगर अपने जीवन की ऐसी सचाई रक्खी जाय जिससे वे कुछ सीख सकें, तो सिखाने की दृष्टि से आत्मप्रशंसा में भी अभिमान का दान होगा | २६४ जिस जगह हमारा व्यक्तिगत स्वार्थ न हो सिर्फ नीति का विचार हो वहाँ भी निन्दनीय कार्य की या कर्ता की निन्दा परनिन्दा नहीं है । जगत में भले बुरे आदमियों का जो फैलता है वह ऐसी ही निरपेक्ष स्तुतिनिन्दा के आगर पर फैलता है । धर्मी की प्रशंसा के समान पापी की निन्दा भी मानव स्वभाव है और उसकी समाज में भी है इसलिये इसे अभिमान या द्वेष नहीं समझना चाहिये। हां, उसने हमारा अमुक काम नहीं कर दिया इसलिये खराब है और हमारा अमुक क.म कर दिया इसलिये अच्छा है इसको लेकर जो निन्द्रामा की जाती है वह स्वभाव का अच्छापन नहीं है, वह हेय है पश्न-- प्रत्येक मनुष्य अपने अनुभव आधार से किसी के गुण दोष समझा करता उसके लिये जो अच्छा साबित होता है उसी को अच्छा कहता है, जो उस के लिये बुर| साबित Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५] सत्यामृत होता है उसे बुरा कहता है । इस में स्वभाव का जब सुना कि राजा साहिब दर्शन करने के लिये ___ आरहे हैं तो वह राजा साहिब के स्वागत के लिये उत्तर-- अले धरे का निर्णय विश्वहित की आगे बढ़ा । राजाने देखा कि साधु जी मेरे स्वागत दृष्टि से ही किया जाना चाहिये । एक पहरेदार के लिये आरहे हैं तो वह लौट गया ।। अगर हमें चोरी कर लेनेदे तो हमें वह अच्छा साथियों ने पूछा, आप लौट क्यों आये ? टोमा पर नीकर की ऐसी नमकहरामी या विश्वास- राजाने कहा-मैं साधु के पास कुछ लेने गया था घातकता अच्छी चीज़ हो तो जगत के व्यवहार ज्ञान का भिखारी बनकर गया था, अगर साधु में इतनी गहबी आजाय कि उससे बह नौकर, मुझे कुछ देने लायक होता तो इस तरह मेरे स्वागत हम सरकार आदि मब नहाये। खद हम भी II, जब आगे बढा तब मैंने ऐसा नौकर रखना पसन्द न करेंगे। इसलिये अच्छे समझा कि वही मुझसे कुछ लेना चाहता है । बुरे का निर्णय विश्वहित की दृष्टिसे करना चाहिये तब मैं देने के लिये उसके पास क्यों जाऊँ ? अपने स्वार्थ की दृष्टि से नहीं। आमगौरव को छोड़ने का ऐसा ही परिणाम ___ अपवादों की भी कोई गिननी नहीं है। लोग होता है और होना भी चाहिये । अहंकार को भी अपवाद में शामिल कर सकते हैं इस प्रकार आमगौरव के नाम पर जो विनय आर अपवाद पर भी कारकी छाप छोड़ देते हैं उनकी भी साधना व्यर्थ जाती है । हैं पर प्रायः अन्न में अमन लिपी नहीं एकबार एक सेठने ज्ञानी बनने के लिये एक इसलिये दमिका की ओझा भतिर कोटन चहिये विद्वान को बुलाया सेठजी पलंग पर लेटे-लेटे पढ़ने कि मनमें अभिमान तो नहीं है। इस प्रकार लगे और विद्वान को नीचे जमीन पर बैठकर निकमा व्याक्ति में एक तरह का ब्याक्ति- पढ़ाने को कहा । पर बहुत दिन होने पर भी समभाव रहता है। मूल में न वह किसी व्यक्ति सेठजी कुछ सीख न सके। तब सेठजी पंडितजी कोयामम्झन हैन छोटा । अगर किसी में नोटा अगर किसी के मन मझकर और कटवा लेने लगे। एक गुणों की विदेोपता है, सेवकता है तो वह अपने दिन सेठजी बोले पंडितजी, मुझे प्यास लगी है ब्यक्तित्व का खयाल न कर उसका आदर करता मेरे यार से धीरेधीरे नी टाट दजिये । है अगर कोई गुणों में विशेष नहीं है न उस में पंडितजी ने पानी लिया और जमीन पर सेवकता बहुत है तो बड़ा महर्दिक पदाधिकारी बैठे बैटे पानी डालने लगे। सेठजी गुस्से से बोले और यशस्वी होने पर भी वह उसे साधारण दृष्टि क्या जमीन पर बैठे बैठे पानी डालने से मेरे मुंह में देना है। इस प्रकार उस में आमगौरव और में पानी चला जायगा ! म दोनों का भार सम्मिश्रण रहता है। जो पंडितजी ने कहा --- या चली जाती लोग बिनय के नामपर : खोदेते हैं ये ह तय पानी क्यों न चन्दा जायगा ! वास्तव में जगत को कुछ नहीं दे पाते। तब सेठजी समझे कि मुझे विद्या क्यों नहीं एक बार एक साधु की प्रशंसा सुनकर आ रही है ! तब अभिमान छोड़कर सेठजी नीचे एक गजगदर्शन करने के लिये आया । साधुने बैठने लगे और धीरे धीरे विद्वान बनन लगे। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्रोध [ २६६ विनय और आत्मगौरव दोनों का उचित समन्वय वापस नहीं लिया जा सकता । क्रोध करके निरभिमानी बनना भगवती की मन-साधना तीव्र शस्त्र होने से अपने पर या दूसरे पर जो के लिये अन्यावश्यक है। आात करता है वह आघात वापिस नहीं आन् । ___ मोह और अभिमान समस्त पापों के मूल क्रोध का आवेग तीव्र होने से मनुष्य की हैं। मोह और अभिमान नष्ट हो जाने पर क्रोध विचारक शक्ति नष्ट हो जाती है और वह आग और छल नहीं रह पाते । जैसे हाथ के कट जान से में कुछ का कुछ कर जाता है । इस तरह की तलवार का उपयोग नहीं हो सकता इमी प्रकार मोह यह कहानी प्रसि है। और अभिमान नष्ट होने पर क्रोध और छल का उप एक स्त्री ने एक नौला पाल रक्या था । वह योग नहीं हो सकता । इमलिय मोह और अनिम्न अपने शिशु को पालने में मुलाकर जब पानी को हस्त-कषाय और क्रोव और छल को दास-कापाय भग्ने गई तो नौले को शिशु की रक्षा के लिये कहा है। भगवती की साधना में इन दोनों का छोड़ गई । इतने में एक सर्प आया और पालने त्याग मुख्य है। पर चढ़ने लगा पर ज्यों ही नौटे की नज़र पड़ी अक्रोध नै.ले ने सर्प को मार डाला और उसके टुकड़े क्रोध का स्वरूप पहिले कह दिया गया टुकडे कर दिये । जब बच्चे की माँ आई और है। मोह और अभिमान से पाप को प्रेरणा उसने नौले के मुँह में खून लगा देखा तो उसने मिलती है पर दुनिया के साथ संघर्ष होने में सोचा कि नौले ने मेरे बच्चे को मार डाला क्रोध और छल का सीधा उपयोग होता है। है बस गुस्से में उसने सिर का घड़ा नौले पर क्रोध में अन्य कषायों से एक विशेषता यह है पटक दिया, बेचारा नौला मर गया । पर जब कि वह दुःख देनेवाला ही नी दयामर भी उसन पालन में अपने बच्चे को सुरक्षित देखा है या अन्य कषायों से अधिक दुःखत्मक है । और सांपके टुकड़े देखे तो पश्चात्ताप करने लगी मोड और अभिमान का फल दःख है पर उनका पर पश्चाताप स नौला जीवित न हुआ। संवेदन इतना दुःखात्मक नहीं होता । मोह से इष्ट क्रोधके आवेशमें मनुष्य ऐसी ऐसी गालियाँ वियोग आदि के सत्य दुःखानुभव होता है स्वयं बकजाता है, गुरुजनों, उपकारियों तथा अच्छे तो मोह दुःखात्मक नहीं मालूम होता; अभिमान से अच्छे सज्जनों पर भी ऐसे बचनःण छोड़ में भी कुछ छाती ही फलता है पर क्रोध में तो जाता है जो कभी वापिस नहीं आते, इस प्रकार मनुष्य तड़पता है चिल्लाता है फड़फड़ाता है इस यह धर्म परोपकार आदि के मा में प्रकार उसी समय उनकारक का बहुत अनुभव करना पड़ता है। अटकाता ही है, व्यवहार का नाश तो करता ही क्रोध में दूसरी कार्यों से एक दूसरी विशे- है, किन्तु खुद भी स्थान-नष्ट होता है। पता यह भी है कि अन्य कषायों की कालिमा के प्रगट करने के बाद यह बहुत कठिन है का प्रभाव जितनी जल्दी वापिस जा सकता कि सच्चे दिलसे क्षमा मांगी जाय। क्षना का है उतनी जल्दी क्रोध की कालिया का प्रभाव रिवाज पूरा कर भी दिया जाय नोभी उसका Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्यामृत विशेष फल नहीं होता । क्रोध करना और क्षमा प्रश्न- अगर आप क्रोध किट और कालि * क्रोध करना और फिर क्षमा मांगना को इस तरह पाप कहेंगे तो कहना पड़ेगा। इस प्रकार मनको नचाने से भी दूसरा यही इस पाप के बिना जगत में धर्म भी नहीं : समझता है कि हमें धोखा दिया जा रहा है। पायेगा क्योंकि धर्म के लिये सज्जनता अमरना न तो इतना तो मसझेगा अनुग्रह के साथ दुर्जनता के निग्रह की । .. करेगा पीछे जरूरत है, दुर्जनता के निग्रह के लिये क्रो भले ही मरहमपट्टी के समान क्षमा मांगले पर कालिमा की आवश्यकता तो है ही, पर अगर वर्क के से कोई अपना चमड़ा कटाने के तक किसी दुर्जनता का निग्रह न हो पाये । लिये रानी है। वर्षों तक क्रोध को सुरक्षित रखना पड़ेगा इस प्रश्न- बहुत से आदमी से होते हैं कि प्रकार क्रोध-किट भी आवश्यक हो जायगा । थे गाली आदि बकरेन पर ही शान्ति पाते है उत्तर- दुर्जनता के निग्रह के लिये क्रोधादि अगर वे ऐसा न कर ना उन का कत्र क्रोध- कषायकी ज़रूरत नहीं है किन्तु चिकित्साकिट्ट बनकर अपनी और दूसरा की हानि करता रहे। मनोवृत्ति की ज़रूरत है । न्यायाधीश अपाधी उत्तर- यमन (उल्टी) होजाने से पेट को दंड दे यह चिकित्सा है-क्रोध नहीं । भले साफ़ रहता है इसलिये उल्टी होजाना अच्छा ही दंड देने का कार्य वर्षों में हो तो इसे चिकित्सा भले ही कहा जाय पर जिसे उल्टी करने की हा कहा जायगा । कमी कमी ता ऐसा होता है अदन है उन गावचनेक कोशिको यह कि क्रोध प्रगट करना ही दंड का रूप बनजाता यानी उन के भरोसे खाते जाने बाल है । कल्पना करो कि अपने बेटेने कोई अपराध व्यक्ति गंदा तो है ही, पर अपनी और दूसरों को किया हमने कुछ कर्कश स्वर से डाटदिया तो परेशानी भी बढ़ाता है । अब यह है कि इसे कपाय न कहेंगे दंड कहेंगे इसलिये इसे अम्मको विकृत किए बिना पाया जाय अगा चिकित्सा में शामिल किया जायगा । हां, यह बात भी थोड़ी बहुत विकृति होजाय तो अनशन दूसरी ह कि इस प्रकार क्रोध-रूप दंड देना सफल आदिम पचन का अवकाश दिया जाय, अनशन हो या असफल, यह तो दंडविज्ञान का विचार के प्रयोग से भी विकार शान्त न हो तो उल्टी कलाया, पर मधरणात: यह चिकित्सा रूप है। गनिकाल : इसी तरह अच्छ। यह प्रश्न- तब तो हर एक आदमी यह कह कि क्रोध दम, हो जाय तो न्याय- सकेगा कि मैं तो कपाय नहीं रहता हूं किन्तु जनय दक दउसे पचाया । या । उस दंड दे रहा हूं। यह चिकित्सा है कि व.पाय है नान सनी का है और वि बन,लना इसकी कस टी क्या ? नाम है वि और करिमा ने रखना महापाप उत्तर- कप:य और चिकित्सा काअन्तर हे । यह टीक है : अ- अच्छा समझने के लिये चार बातों का विचार करना चाहिये घर कभी कभी ऐसा होता है कि अध पाप की १- चिकित्सा में वर्धन और रक्षण किया जाता ओट में महापाप जगह बना देता है। कषाय म भक्षण और नक्षण । २- चिकित्सा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... अक्रोध [ २६८ व्यवस्था में बड़ी गड़बड़ी होगी इसलिये आज्ञा पालन करना भी न्याय है, स्वार्थ नहीं। इन प्रकार के विशेष को बात दूसरी है पर साधारणतः अपान कराने की ओट में स्वार्थपरता आदि का प्रवेश न हो जाय इस का ध्यान रखना चाहिये | में न्याय की मुख्यता रहती है कपाय में स्वार्थ की । ३ - चिकित्सा में प्रतीकार की मर्यादा का विचार रहता है कषाय में मर्यादा लुप्त हो जाती है | ४ - चिकित्सा में शिष्टाचार का विचार बना रहता है कषाय में शिटाचार का विचार नष्ट हो जाता है । इन चारों बातों को कुछ सफाई के साथ समझना ठीक होगा । १- एक आदमी अपथ्य - Har करता है इसलिये हम उस पर नाराज होते हैं या प्रमाद आदि के कारण ही अपनी सन्तान अदि पर नाराजी प्रगट करते हैं तो इस में तक्षण नहीं है रक्षण और वर्धन है । अथवा न्यायाधी किसी को दंड देता है तो इस में भी रक्षण हैं। चिदंडनीय व्यक्ति का न हो पर जनता का रक्षण है इसलिये इसे रक्षण ही महंगे व्यवहार पंचक का विवेचन इस अध्याय के प्रारम्भ में किया गया है उसके अनुसार विश्वहितकारी वीन जहाँ हो वहाँ कराय के बदले चिकित्सा की ही अधिक सम्भावना है। २ कभी कभी रक्षण और वर्धन के कार्य में भी मनुष्य चिकित्सक की अपेक्षा पायी बन जाता है। जैसे किसी को सुधारने की अपेक्षा आज्ञा चलाने की लालसा तीव्र हो तो इस स्वार्थप्रधानता के कारण रक्षण व गौण हो जायेंगे इसलिये वहां विधि-वृत्ति न होगी कर होगी। हां, अगर सुव्यवस्था के लिये अज्ञापालन करान भी कर्तव्य में दारू हो तो बात दूसरी है । जैसे एक ना एक सैनिक को आज्ञा दी पर सैनिक कुछ उदंड या लापर्वाह है इसलिये उसने आज्ञा की उपेक्षा की, सेनाध्यक्ष जानता है कि अगर वह यह आज्ञा न भी पाले तो भी कोई काम अड़ न जायगा पर इससे अज्ञा की उपेक्षा करने की जो आदत पड़ जायगी उसमे ३ कभी कभी न्याय के नाम पर मनुष्य बहुत कड़ाई कर जाता है प्रतीकार की मर्यादा भूल जाता है ऐसी अवस्था में वहां काय का आवेग ही समझना चाहिये। यह हो सकता है कि कहीं प्रतीकार काम न इसके तो कठोर और अधिक प्रतीकार भी उचित ही समझा जायगा । जैसे मानो कि कहीं के लोग ऐसे जगली है कि नारियों पर वार करने में नहीं चूकते साधारण सज़ा का उन पर प्रभाव नहीं पड़ता तो जब तक उस जनि लोग जन्म से सुसंस्कृत नहीं बनाये जाते तबतक कारियों को अधिक से अधिक दंड भीप्राणदं समझा जायगा | मतलब यह है कि प्रतीकार में जनहित की दृष्टि से पात्रापात्र का विचार करते हुए कार्य करना चाहिये । स ४ मर्यादित प्रतीकार में शिष्टाचार का भी विचार रखना चाहिये। एक आदमी प्रतीकार के नाम पर माँ बाप को भी गालियाँ देने लगता है तो समझना चाहिये कि उसमें चिकित्सा नहीं है कपाय है। अगर ये जाने सर्प के कारण हो, माता पिता की उचित शासकता के विरुद्ध हो तब तो क्रोध अक्षम्य ही समझना चाहिये पर मांबाप की लेने पर भी गालियाँ बककर या और किसी तरह से शिष्टाचार का मंग किया जाय तो यह क्रोध की तीव्रता ही समझना चाहिये । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९ ] 1 -1 यद्यपि प्रतीकार करने में कुछ न कुछ शिष्टाचार को धक्का लगता ही है, पर देखना यह चाहिये कि जनहित न्यायरक्षा आदि के लिये अनिवार्य क्या है | अनिवार्य जितना हो उसे चिकन सूचक की काय सुच होगा | इस प्रकार दुर्जनता का निग्रह करते हुए मनुष्य कषाय से बचा रहेगा । जो बात कषाय कालि के विषय में कही गई है वही कषायकिड्ड के विषय में भी समझना चाहिये । मानलो एक आदमी दुर्जन है, अन्यायी, अभिषेकी या मूर्ख है, उसकी योग्यता और स्वभाव से परिचित हो कर हम जीवन भर व्यवहार करते हैं, व्यवहार करते समय उसके दुर्जन स्वभाव का हमें स्मरण रखना पड़ता है तो इसे कहेंगे । इस प्रकार संस्कार के रूप में जो आचार-स्मृति होगी उसके मूल में अगर भक्षण तक्षण होगा उसे कहेंगे अन्यथा चिकित्सा कहेंगे । प्रश्न- क्या यह उचित न होगा कि हम आचार स्मृति का त्याग ही कादें और बिलकुल श्रीराग बन जायें | हमारे ऊपर अन्याय हो तो हम अन्याय को चुपचाप महनीय | उत्तर- भगवती की मी एक अंग है, किसी किसी व्यक्ति सेवा के लिये इसी नीति को सत्य मृत का यह को जन होती का अंग की भगवती की अधिक शान्त भी नम्व केक और कल का जमी तो आन-साधना साधना या मनसाधना | परन्तु यह भगवती की एक ही अंग है। इसके सिवाय दूसरे आवश्यकता अधिक होती है | लोक साधना मे यह उचित रहा जाय । चिकित्सक ऐसा न हो कि भ्रम हो जाय । र, प्रकरण है 最 की दृष्टि से चिकित्सा को कषाय नहीं कहते । हां, चिकित्सा की ओट में कषाय का प्रवेश सरलता से हो सकता है इसलिये इस तरफ से काफी सतर्क रहने की ज़रूरत है । प्रश्न- आप कालिमा की अपेक्षा किट्ट को बड़ा पाप बताते हैं पर जितनी हानि कालिमा म है उतनी कि में नहीं है । क्रोध को रोक है इस मनोबल को पाप क्यों कहते हैं ! रखने में एक तरह के मनोबल का परिचय मिलता उत्तर- मनोबल तो पाप नहीं है किन्तु जिस मनोबल या बल का उपयोग भक्षण- तक्षण में हो वह पाप अवश्य है। मनोबल का मनचाहा उपवर्धन रक्षणमय उपयोग संयम संयम है, क्रोध को रोक यद्यपि मनोबल दोनों में योग संयम नहीं है में है। क्रोध को रोकने रखने में संयम नहीं है । है । क्रोध में किसी को रोककर पत्थर न क्रोध को रोककर पत्थर से यह भाग जायगा तब यह सब से बुरा है। को रोका जाता है आदि के कारण क्रोध पत्थर मारना बुरा है, क्रोध मारना अच्छा है, पर इसलिये न मारना कि पत्थर मारने बन्दुक न मार पाऊँगा बदला लेने के लिये जो अथवा अशक्ति, अनवसर प्रगट नहीं होता किन्तु भीतर ही भीतर जलता रहता है वह अपनी हानि करता है अपना जीवन नरक बनाता है और दूसरों को भी जलाता है और शंका से बेचैन करता रहता है। 1 पहिले कहा जा चुका है कि कांव का संवेदन दुःखानक होता है, क्रोध रोककर रखने से जब तक यह रक्खा रहेगा तब तक हमें दुःख ही देता रहेगा। साथ ही वह दूसरों को बेचैन और दु:खी बनाता रहेगा। घर में छुपे हुए सांप से जिस प्रकार लोग शक और बेचैन रहते Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्रोध [२७० । उसी तरह हमारे दिल में छिपे हुए क्रोध से क्रोध करने का पर्याप्त कारण मिलने पर की लोग सशंक और बेचैन रहते हैं। हम आत्मौपम्य भाव से कुछ विचार करो इस तरह केतनी ही कोशिश करें, उस को छिपाने के विचार करने से पचास में से चालीस घटनाएं हेये कितने ही आवरण डालें उसकी असलियत तुम्हें क्रोध योग्य न मालूम होंगी। बाकी दस गट हुए बिना नहीं रहती। हमारी प्रवृत्तियाँ घटनाएं अगर क्रोध योग्य निकलेंगी भी तो तुम्हारी . गबना के अनुसार होती हैं, बुद्धि के द्वारा अगर विचारकता के कारण क्रोध चिकत्सकता का रूप पावना पर आवरण डालते भी रहें तो भी इसमें धारण कर लेगा। क्रोध को जीतने का मूल में बड़ा परिश्रम पड़ता है और फिर भी वह उपाय तो मोह और अभिमान पर विजय पाना नेरर्थक जाता है। क्योंकि सोते जागते उठते है । उनके जीत लेने पर क्रोध को ठिते प्रत्यक्ष परोक्ष में बुद्धि का का आवरण पैदा होने के भीतरी कारण ही नष्ट हो जाते हैं खेसक हो जाता है, क्रोध-किट या वैर प्रगट ही पर अगर उन पर पूरी या पर्याप्त विजय न मिल हो जाता है। इस प्रकार छिपे हुए घावों से पाई हो तो भी क्रोध के निमित्त मिलने दुनिया बहुत घबराती है और हमें इस दुष्कर्म पर तब तक तो उसे रोकना ही चाहिये जबतक और दुप्फल का भान नहीं होने पाता। साथ उस घटना को अच्छी तरह समझ न लिया ही इतनी बुराई और है कि एक के बदले लोग जाय । इस विवेक से धारे धीरे क्रोध किसी दिन इस वैरों की करना कर लेते हैं इसलिये जहां हम निर्मल हो जायगा । सिर्फ चिकिता के अनुकूल नेर होते हैं वहां भी हमें वैरी समझ लिया जाता है। अरुचि का भाव रह जायगा । क्रोध अग्नि के समान है जो अपने को निश्छलता और मरों को जलाता रहता है । और क्रोध छल का भी स्वरूप पहिले कहा जा चुका किट्ट तो तेजाब की तरह भयंकर और वंचक है। है ल एक तरह का निर्ब उता का परिणाम है। वह तरल होकर भी जलाता है। क्रोध का कि जहा हम अपने मोह और अभिमान हो या कालिमा, दोनों का त्याग करना चाहिये। के सफल नहीं बना सकते, क्रोध का उपयोग अगर कभी क्रोध का अवसर आ भी जाय नहीं कर सकते यहाँ छल का उपयोग करते हैं। तो भी क्रोध को रोक लो और जिस कारण से छल के विषय में भी यह बात ध्यान में रखना क्रोध आया है उसकी जाँच कर लो । जाँच चाहिये कि जहाँ भक्षण और तक्षण के लिये करने पर फीसदी पचास घटनाएँ ऐसी मिलेंगी कोई बात छिपाई जायगी वही जण है जिनमें तुम्हें अपना भ्रम मालूम हो जायगा, किन्तु जहाँ विनिमय रक्षण वर्धन आदे के लिये किसी बात को सुनकर या देखकर भी बिना कोई बात छिपाई जाती है वझ छल कपाय नहीं बिचारे क्रोध न करो, सारी घटना को अच्छी होती वहां चिकितना समझना चाहिक तरह समझ लो फिर क्रोध करने का पर्याप्त कारण है। कभी कभी तीर्थकर पैगम्बर और अवतारों भी होगा तो भी विचार करने पर क्रोध का को भी सुवैद्य की तरह कोई बात छिपाना पड़ी आवेग कुछ धीमा पड़ जायगा। है पर इससे वे अन्ट-कपाश्री नहीं हो जाते। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ ] सत्यामृत कोई कोई बातें, जिन का दूसरों से कोई करते समय पास पास ही तो रहते हैं पर उन सम्बन्ध नहीं है उनका छिपाना भी छल नहीं है। की नजदीकी सिर्फ दाव पेंच अजमाने के लिये मैंने एकान्त में पत्नी के साथ किस प्रकार प्रेम- ही होती है । इसलिये दूर दूर देशों में बैठे हुए दो प्रदर्शन किया आदि व्यक्तिगत जीवन में ही पूरी निश्छल मित्रों की अपेक्षा उन की दूरी असंख्य गुणी हो जानेवाली बातों को प्रगट न करना हल नहीं है। होती है । इन सब क्षम्य अपवादों के रहने पर भी जीवन में छल से मनुष्य दूसरों का नुकसान तो करता छल का उपयोग बहुत किया जाता है । जिससे ही है किन्तु उससे अधिक वह अपना नुकसान हम छल करते हैं उससे कुछ पाने की आशा करता है । रोगी अगर वैद्य के सामने छल करे हमें न रखना चाहिये । मनुष्य इस विषय में तो वैद्य को चिकित्सा करने में कठिनाई तो होगी काफ़ी मूर्ख है । प्रायः हर एक आदमी यह सोचता ही इससे उसे कष्ट भी होगा पर उससे अधिक है कि मैं तो दूसरों की चालबाजियां समझ जाता कष्ट रोगी को होगा । वह अपनी ही बीमारी हूँ पर मेरी कोई नहीं समझ पाता । अगर हम बढ़ायगा और जीवन नष्ट करेगा। इस मूर्खता का त्याग करदें तो आधे से अधिक एक विद्यार्थी पाटक से अपना अज्ञान छल तो हमें निरर्थकता के कारण लग देना पड़े। छिपाता है, नकल करके पास हो जाता है, परिणाम पहिले निरभिमानता के प्रकरण में कुटिल आत्म- यह होता है कि वही ज्ञान से वञ्चित रहता है, प्रशंसा के उदाहरण दिये गये है, अत्मप्रशंसा पढने में कमजोर रहता है। आगे किसी न किसी के कारण वे अभिमान के प्रकरण में लाये गये परीक्षा में अड़कर रहजाता है । पाठक की इस और कुटिलता के कारण वे छल के प्रकरण में भी में क्या हानि है, छली विद्यार्थी की ही हानि है। लाये जा सकते हैं। उन से मालूम होता है कि एक साधक अपने गुरु या आचार्य से अधिकांश हट गुनाह बेलज्जत हैं, बिना स्वाद के , अपने मन के पापछिता है, समझाने जाओ है। टोग आज किसी बात को न समझेगे तो विनय-अविनय का विचार न करके अपने परन्तु छल की सफलता के समय तो समझ जायेंगे। को निष्पाप सिद्ध करने के लिये गर्जन तर्जन कि तुम्हारा क्या बिचार था । परिणाम यह होगा और वाद-विवाद करता है, समझता है कि शब्दों का कि तुम्हारे निश्छल कार्य में भी लोग छल समझेगे। ___आवरण डाल देने से पाप छिप जायगा पर शब्दों इस प्रकार छल तो निरर्थक जायगा ही पर और से किसी का मुंह बन्द किया जा सकता है मन पुण्य भी निरर्थक जायगा। नहीं और मुँह बन्द कर देनेसे उसका ही जिसके साथ नुमछल करते है। उसके साथ नुकसान होगा। क्योकि वह आचार्य से जो कुछ तुम्हारी कैसी भी घनिष्ठ मित्रता क्यों न हो, पासकता था अब न पासकेगा। हल दिलों को शिष्टाचार के द्वारा नुम कितना ही प्रेम प्रदर्शित तोड़ देग, दिलों के मिलानेवाले समस्त शिष्टाचार करते रहो न हारे अद्वैत के टुकड़े व्यर्थ जायेंगे। टुकड़े कर दंगा, तुम पास पास भले ही रहो पर एक दूकानदार ग्राहकों को छलता है, एक जीवन-चर्या कदाट जागभी। दो पहिलवान कुश्ती दो बार सफल होगा बाद में वह अपनी परेशानी Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्रोध [ २७२ बढ़ायगा दूसरों की भी बढ़ायगा । छल का लाभ उसका परीक्षण ही, इनके बिना मनसाधना एक निकल जायगा परेशानी की निष्फल तपस्या तरह की जड़ता ही हो जायगी । जड़ता का जीवनभर को चिपक जायगी। भगवती के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। ___ झूठ चोरी व्यभिचार आदि नाना पाो का जीवनसाधना का अर्थ यह है कि जीवनमुल छल है । इससे सर्वदा भय, लज्जा आदि कला का विचार करके जीवन को ऐसा अच्छा दुःखात्मक भावों का अनुभव करना पड़ता है, बनाया जाय कि वह पवित्र, सुखद, महान् और अपमान घृणा अविश्वास आदि के पात्र बनकर जगहितकारी बन सके । जीवन को मैंने एक कला अनेक भौतिक और आध्यात्मिक लाभों से बञ्चित कहा है, कला को लक्षण या चिह्नों के चौखटे में रहना पड़ता है । वर्तमान के थोड़े से स्टाभ के पीछे बिठलाना काफ़ी कठिन है उसे तो अनुभव से ही भविष्य और निकट भविष्य के बड़े से बड़े लाभ समझा जा सकता है । किसी सुन्दरी के सौन्दर्य से हाथ धोना पड़ता है। का मा५ लगाने के लिये हम ढेरों उपमाएं दें और ___ यहाँ यह न भूलजाना चाहिये कि गाम्भीर्य मापतौल के साथ उन्हें सजाकर रक्खें तो सुन्दऔर छल में जमीन आसमान का अन्तर है। रता दिखाई न देगी कुछ कुछ इसी प्रकार जीवन गाम्भीर्य सहिष्णुता का परिणाम है उससे रक्षण के विषय में भी कहा जा सकता है। चतुर चित्रऔर वर्धन किया जाता है जब कि छल से भक्षण कार जैसे दस पांच आडीटेढ़ी रेखाएं खींचकर और तक्षण किया जाता है। भी अच्छा चित्र बना लेता है किन्तु अनाड़ी मनुष्य जितना अधिक अकषायी बनेगा आदमी बोतलों से स्याही खर्च करके भी कागज़ भगवती की उतनी ही अधिक साधना करेगा या दीवार बिगाड़ने के सिवाय कुछ नहीं कर इससे वह अकर्मण्य न बनेगा किन्तु उसके कर्म पाता इसी प्रकार जीवन भी है। जीवन की शक्ति आत्म-शान्ति और जगत्कल्याण के लिये उपयोगी बराबर रहने पर भी और उसका दिनरात उपहो जावेगे। योग करने पर भी एक का जीवन स्वपर-कल्याण जीवन-साधना कारी बनता है जब कि दूसरे का जीवन स्वपरभगवती की मनसाधना और लोकमाधना भी अक्ल्याणकारी दुःखमय और असफल बनता है। एक तरह की जीवनसाधना है क्यों के जीवन में इसी से जीवन एक कला है । यद्यपि कला के इनका भी समावेश होता है। फिर भी साधना भी कुछ नियम रहते हैं और उससे कला को के अनेक पहलू सरलता से दिखाये जा सकें समझने में काफी सुमीता होता है फिर भी कला इसलिये उसके तीन भाग कर दिये गये हैं। पर के नमने ही कला को पूरी तरह समझाते हैं यही उन साधनाओं को एक दूसरे से अलग रखना बात ‘जीवन के विषय में भी कही जा सकती असम्भव है। मनसाधना के बिना जीवनसाधना है। जीवन के कुछ अच्छे बुरे नमूने देख लेने या लोकसाधना नहीं हो सकती और जीवन- से पता लग जाता है कि कलामय जीवन कैसा साधना और लोकसाधना के बिना मनसाधना होता है और उसकी साधना किस तरह करना का न तो विवेचन ही किया जा सकता है न चाहिये। यहां कछ नमना का उल्लेख किया जाता है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ ] १ - राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, मुहम्मद आदि महात्माओं के जीवन इस बात के प्रमाण हैं कि किस प्रकार का निःस्वार्थ और लोक हितकारी जीवन बिताने से मनुष्य स्वपर कल्याण करके भगवती अहिंसा की साधना करता है । अगर ये लोग अपने ऐहिक स्वार्थे के लिये जीवन खपा देते तो ये न तो महान् बन पाते न सुखी हो पाते, न जगत्कल्याण कर पाते । संत्यामृत २- म. राम का विरोधी रावण, म. महावीर का शिष्य जमालि, म. बुद्ध का शिष्य देवदच, पांडवों को छलने वाला और श्रीकृष्ण को क़ैद करने की नियत रखने वाला दुर्योधन इत्यादि लोग इस बात के प्रमाण हैं कि भोग, यश, पद, वैभव आदि की लूट मचाने की इच्छा से अन्त में मनुष्य का जीवन नाना कष्ट सह कर भी बुरी तरह नष्ट हो जाता है । स्वर, प्राचीन काल के इन बड़े बड़े आद मियों के उदाहरण छोड़िये पर हम दिन रात अपने और दूसरों के जीवन में जो कलाहीनता देखते हैं, मोह प्रमाद छ अहंकार आदि के कारण जो अपने जीवन को दुःखस्य तथा दूसरों के जीवन को अशान्त बनाते हैं अपनी महत्ता का नाश करते हैं उससे चीन के विषय में हम कितने अनाड़ी हैं इस बात का पता लग जाता है। विधवा को कौड़ी कौड़ी के लिये तरगाया, उसकी सम्पत्ति छीनली, सुधार का समय आया तो ऐसे छिपे कि लोग ढूँढ ढूँढ़ कर हैरान हो गये पर न मिले | दान के एक लाख रुपयों में से एक रुपया भी न निकाल सके। तब लोग उनके पास फटकते न थे । रास्ते में से जाते हुए मुझे उनने एक बार बुलाया, सिर्फ पांच मिनिट के लिये, पर मुझे इतनी हिम्मत न हुई कि उस धनी बुजुर्ग जीवको पाँच मिनिट का भी दान कर सकूँ । वह बीमार था इसलिये पैसे का कुछ भोग भी न कर पाया, पंडिताई की बातें करके और एक धनी होकर भी वह भिखारी बराबर भी इज्जत न कमा पाया, मोह छल आर भय से उसने अपना जीवनचित्र बुरी तरह बिगड़ लिया इसकी अपेक्षा वह उतना ही बकता जिस पर वह छड़ रह सकता था, दान की झूठी घोषणा न करता, दिल में कमज़ोरी थी तो अपनी कमज़ोरी स्वीकार करके कहता कि यथाशक्ति ही कर सकूंगा तो चित्र न बिगड़ता । २-- एक बाई थी, बड़ी कर्मठ, पर उस में दो दोष थे एक तो यह कि किसी का थोड़ा सा भी काम करके वह बार-बार कब से कहती थी, दूसरा यह कि अपने से ज्यादा सुखी व किसी को देख न सकती थी यहां तक कि कोई पति अपनी पत्नी से प्रेम करे, बीमारी में सेवा करें तो भी उसे बुरा लगता था, निन्दा करती थी इसके कारण खूब काम करने पर भी अन्तमें कटु वचन ओर गालियाँ ही पाती, यहाँ दुर्दशा थी कि उसक माँ बाप भी उसे सह न सकते थे। बहुत कुछ करके भी वह किसी के लिये भी न बन पाई, न सुफी हो पाई। जनता का न १- एक श्रीमान् माई थे, दिनरात समाजकरते थे, नरनारी समभ व पर किया करते थे एक बार एक लाख रुपये के दान की भी कर चुके थे, सामाजिक क्रान्ति के दिये लोगों को उनाड़ा करते थे, क्रान्तिकं विरोधियों थे पर अवसर आया तो उनने एक रिश्तेदार कैसा अज्ञान ! नेपाली Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्रोध ३ - एक भाई एक सेठजी के यहाँ मुनीम थे, काम में होश्यार थे, कोई ऐसी चोरी न करते थे जो सरकार में चोरी कही जामके, पर इस का कारण उन की ईमानदारी या संयम नहीं था, नौकरी छूटने का भय था । वास्तव में वे असंयम को जीत न सके थे। इसलिये अपने लिये कोई तरकारी खाते तो सेठजीके हिसाब में लिख देते, किसी चीज की जरूरत होती चुपचाप उठालाते, जय तपम होती कि वह चीन कहाँ गई तो सुनकर भी चुप रहते, कभी जब पकड़े जाते तो कहते किसी तरह वह चीज मेरे घर चली गई होगी, आतिथ्य के लिये जो चीजें रहतीं वे अपने दोस्तों को खिला देते, सेठजी की अनुप में जब कोई अपरिचित आदमी मिलने आता तो इस तरह परिचय देते जिससे वह समझे कि ये मुनीम नहीं मालिक हैं, इस प्रकार कभी कभी झूटे गौव का अनुभव करलेते और महीने में रुपये आठ आने की पर इतने से क्षुद्र लाभ के लिये वे बड़ा परिश्रम करके भी मालिक की नजरों में तुच्छ और अविश्वसनीय बन बैठे | मालिकने उनकी रोकदी, हर दिन कुछ खाने पीने की चीजें भेंट में मिलती थीं वे बन्द करदी, दीवाली का इनाम बन्द कर दिया. पर वे सन्मान से कुछ पाने की आदत न डालसके, छिपाकर झूठ बोलकर लेने की आदत ही रही। इस तरह वे आने की जगह पैसा भी न पासके, इज्जत खो बैठे, एक दिन नौकरी से अलग भी कर दिये गये, इस प्रकार अपनी नादानी से अपना जीवन चित्र बर्बाद कर बैठे। ४- एक भाई थे, जगत की सेवा के लिये सर्वस्व दे चुके थे अनेक कष्ट सहे थ, देवता की तरह पुजे भी, पर उनकी अनैतिकता अहंकार [ २७४ अविश्वसनीयता ने उन्हें कुछ अप्रिय बना दिया । चतुर कलाकर होते तो इस बिगड़ते जीवन चित्र को सुधार लेते पर न सुधार सके, आवेश में चित्र को बिगाड़ने लगे । पुराने पुण्य का पश्चात्ताप करने लगे, इस प्रकार जगत् के लिये भिखारी बन कर भी पतित बने, अपना जीवन बर्बाद किया पर जगत को भी लूटा । आप इबे की दूसरों को भी डुबाया । ५- एक विधवा बाई थी. शिक्षित थी, सुंदर थी, पर वनक ग न सँभाल सकती थी एक सुधारक ने विवाह करने की सलाह दी, पर उस ने सुधारक को पचास गालियाँ सुनाई । लेकिन कुछ महीने बाद व्यभिचार में पड़ गई, बिना विवाह के एक पुरुष के पास रहने लगी, लोगोंने फिर भी शादी करने की सलाह दी, फिर भी उसने गालियाँ चैन कहना है कि मैं अमुक की पत्नी बन गई हूं। लोग चुप रहे । कुछ दिन बाद गर्भ रहा, पुरुष का दिल ऊब गया, बन्धन कुछ था नहीं, उसे निकाल बाहर किया, अन्त में आमहत्या करके मर गई । ब्रह्मचर्य से रह सकती या विवाह कर देती तो जीवन-चित्र न बिगड़ता । ६- एक नववधू थी, सासससुर काफ़ी प्यार करते थे पर उसे दिनरात यह ख्याल रहता था कि मुझे सब मालिक तो समझते हैं ? नौकर तो नहीं समझते। सास कर्मठ थी, घर के बहुत से काम करती, थोड़ा बहुत काम बहू को भी बता देती पर बहू तबतक उस काम में हाथ न लगाती जबतक सास आधा काम करने के लिये तैयार न हो जाती, सास को और काम पूरे करना पड़ते जो बहु के बश के नहीं थे, और बहू के Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ ] यह भ्रम काम में भी आधा हिस्सा बटाना पड़ता, फिर भी बहू रहता कि मुझे नौकर समझा जाता है । ही मन है यह उसकी परिभाषा थी । आखिर घरमें चैन से न रह सकी, न किसी को रख सकी, पति को भी उसने ऐसा ही सिखाया कि वह समझे कि मेरी पत्नी का घोर अपमान किया जाता है, वह समाचारों को ऐसा ही रंगती थी। पति भी कलाहीन था | आखिर बहू मा के घर चली गई पति को बुला लिया | सासससुर अपनी संपत्ति कुछ दूसरों को देकर कुछ साथ लेकर सदाके लिये तीर्थयात्रा को चले गये। पीछे बहू को गरीबी, कलह अपमान आदि हुन सहना पड़े, पर फिर समपुर न मिले, जीवन नरक हो गया, जीवन का ही नहीं कुटुम्ब का चित्र बिगड़ गया। सत्यामृत ७-एक कथा एक सद्गृहस्थ ने उसे पाललिया था । वह बड़ा ही ईमानदार, बड़ा ही कर्मठ, बड़ा ही विनीत था जो काम कहदो अवश्य पूरा करे | बिना दिये एक कौड़ी भी न ले, थोड़ीसी भूल हो जाय तो बिना पूछे ही कहने और पश्चात्ताप में आंसू बहाया करे, जो भी जरूरी काम हो उसके करने में शर्म नहीं । जब उन सद्गृहस्थ के यहाँ कोई अरिचिन व्यक्ति आये तो वह समझे वह इन का पुत्र है पर जब उससे पूछा जाय तो कहढे में तो अनाथ बालक हूं मालिकने मुझे दया करके पाला मालिक से बाप की तरह प्रेम करता था, उन्हें र समान समझकर डरता था देवदेवी समान समझकर अपराध स्वीकार करता र उन्हें मालिक समझकर दास के समान कोई भी सेवा करने को तैयार रहता था, 1 3 " विद्यार्थी की तरह हर एक बात सीखने को तैयार रहता था । फल यह हुआ कि उसे जरूरत से ज्यादा बिना ही मांगे मिलता था । दुर्भाग्यवश में उसके मालिक मालकिन का देहान्त हो गा वह किसी तरह बचगया | सामने चिन्ता थी कि अब वह कहाँ जाय ? कैसे कमाये खाये ? मालिक के रिश्तेदार लोग सम्पत्ति पर कब् करके उसे हटाना चाहते थे। इतने में एक कल आया, उसने रिश्तेदारों को मृतदम्पति का बताया । सब सम्पात्त उसी अनाथ बालक के नाम थी । कलाकार ने अपनी कला का भरपूर इनाम पाया था । ८ - एक श्रीमान् दम्पति उतरती उम्र में अपने दो मुनीमा के भरोसे अपना सारा कारवार छोड़कर की यात्रा करने गये। दोनों मुनीम काम सँभालने लगे। कुछ दिन बाद एक आदमी सेट की चिट्ठी लेकर आया । चिट्ठी क्या थी मरने के पहिले की कुछ आज्ञाएं थीं । पत्र हरिद्वार से लिखा गया था वहां की एक शिक्षण संस्था के नाम साठी जायदाद कर दी गई थी। यह भी हुक्म था कि दोनों मुनीम अगर ईमानदारी से काम करना चाहें तो स्थावर संपत्ति समालने के लिये काम करते रहें और आमदनी उस संस्था को देते जावें परन्तु जंगम जायदाद तो सबकी सब लेकर हरिद्वार की उस संस्था के कुलपति के सामने उपस्थित हो । एक मुनीम को मालिक की मृत्यु का शोक हुआ और वह मलिक की आज्ञा के अनुसार हरिद्वार ले जाने के लिये सम्पत्ति इकट्ठी करने लगा। दूसरे ने कहा- कैसे मूर्ख हो, मालिक मर गया अब कौन अपना क्या कर सकता है ? चलो अपन दोनों यह सपाट लें । पहिले मुनीम Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्रोध . [२७६ ने विरोध किया पर दूसरा न माना । उसने ऐसा चित्र वन गया कि यह कीलिमा उस चित्र मकान पर अपने नाम का पाटिया लगा दिया , का अंग वनकर शोभा बढ़ाने लयी। और भी सब कारबार हथयाने की कोशिश की इतिहास में भी अम्बपाली वेश्या का नाम पर कुछ दिन बाद उसके आश्चर्य का ठिकाना प्रसिद्ध है जिसने महमा बुद्ध के चरणों में सब न रहा जब मालिक और मालकिन अमावस्या सम्पत्ति अर्पित करके अपने जीवन को सफल की रात को घर में आये । पहिला मुनीम मालिक बनाया था और अमरता प. थी। और मालकिन को देखकर प्रसन्नता से नाच १०-दो पड़ोसी थे। अगर स्वभाव के अनुउठा । जब कि दुसरा अपने मालिक को भूत सार उनका नया नामकरण किया जाय तो एक समझकर घबराकर बेहोश हो गया। न्यायालय में का नाम होगा रुदन्तजी आँसवाल और दूसरे उसको बेईमानी की सजा दिलाई जाय इसके का हसन्नजी दिलखुश दोनों की आर्थिक और पहिले ही वह उस रात को र कर कोटबिक परिस्थिति एक सी थी पर जब कोई सदा के लिये पागल हो गया और एक दिन इसी रुदन्त भाई के पास आता तब वे अपना एक तरह डरो आवेग में कुएँ में कूदकर मर गा। न एक दुखड़ा रोया काते, कभी बिक्री कम हुई मालिक ने जो वसीयतनामा लिखा उसके अनु- कभी अमकने राम राम न की, कभी रोटी ठीक न सार उनके मरने के बाद आधी सम्पति हरिद्वार बनी की दस्त ठीक न हआ, कभी हाथ पर की संस्था को और आधी पहिले मुनीम को फुसी है, कभी धोबी अभी तक कपड़े न लाया, मिली । ईमानदारीसे एक का जीवन-चित्रा चमक इस प्रकार छोटे बड़े दो चार दुःखों का पुराण उठा और दूसरे का पुत गया। पढ़ने बैठ जाते, चाहते आ न्तुक हमारे दुःखा ९-एक वेश्या थी, उसके पास सौन्दर्य को सुनकर मनाम बतलाये, दया करे, प्रेम था, जवानी थी, वैभव था, बीसा युवकों को इशारे करे और फिर उनका यह पुराण तबतक बन्द पर नचा चुकी थी। पर दिल को शान्ति न न होता जबतक आनेवाला जरूरी काम का थी। वई दुनिया का शिकार करती थी, दुनिया बहाना बताकर चला न जाय । आदमी नकली उसका शिकार करती थी। उसने अपना धंधा सहानुभूति में जल्दी थक जाता है और असली छोड़ दिया और रास्तों में यात्रियों के लिये धर्म- सहानभति इतनी अधिक नहीं होती कि इस शालाएँ और कुंए बनवाने शुरू किये, वेश्यावत्ति प्रकार फालतु बहायी जाय इसलिये लोग उनसे छोड़कर सादगी से जीवन बितानेवाली स्त्रियों को किनारा काटने लगे । दुःख सुननेकाटा न मिलने खानपान का प्रबन्ध किया । गरीबों को तो मदद से उनका दुःख और बढ़गया। करती ही थी पर मध्यम परिस्थिति के उन हसन्तजी इनसे बिलकुल उल्टे थे । कहते कुलीन कुटुम्बों को भी चुपचाप मदद करती थी दुनिया में सुखदुःख दोनों हैं और सभी को है, जो माँग नहीं सकते थे। उसका नाम घर घर तब किस को अपना दुःख सुनाया जाय । हम फैल गया । उसका जीवन जो डामर से रंगे हुए से भी ज्यादा दुःखी लाखों पड़े हैं हम उनके के समान काला था उस पर पक्के सफेदा से लिये तो रोते नहीं अपने लिये क्यों रोय ! खुदा Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ ] सत्यामृत की यही मर्जी क्या कम है कि उसने हमें है। कभी कभी ऐसा होता है कि दुनिया भ्रमकिसी न किमी से अच्छा बनाया। वश पवित्र जीवन को अपवित्र समझ लेती है , मालिक ने एक एक से बढ़कर बना दिया। पर अगर ईमानदारी है तो काल जीवन की सौ से बुरा तो एक से अच्छा बना दिया ॥ पवित्रता प्रगट कर देगा और साथ ही मन में वे रोते आदमी को हँसा ही न देते थे इतनी शान्ति, सन्तोष और गौरव रहेगा कि हम किंतु उसका दुःख बिलकुल भुला देते थे। उनके सब दुःख भूल जायगे । इसलिये जीवनकला में पास बैटने को आदमी लालायित रहते थे। ईमानदारी सब से पहिली चीज है। रुदन्तभाई को इसस इयां होती, वे हसंत दूसरी बात जनसेवा और नि है । भाई के बार समझते या बदमाश कहते, अपना बोझ दूसरों पर कम से कम डालकर उन लोगों को मर्च उल्लू नासमझ आदि कहकर की जितनी सेवा की जासके उतनी करना चाहिये । उनकी घृणा बढ़ाते । एक ता वे यों ही बहुत भगवती की जीवन-साधना इन दो बातों दुःखी ये पर पछि से इस ईर्ष्या के सामान ने पर निर्भर है । यद्यपि जवन माधना के और और दुःखी बना डाला। सामग्री एकसी थी पर भी अंग हैं जैसे बाल-समन्वय । इनका उल्लेख एक भाई रुदन्त था और एक हसन्त था। दृष्टि कांड में हो चुका है । मन-साधना का केन्द्र पहिला मूढ था, दूसरा चतुर कलाकार था। मन है, जीवन-मन का केन्द्र मन,तन, वाणी ___ यह उन ' और भी बढ़ाई जा तीनों है । मनसाधना और जीवन साधना, दोनों सकती है, हर एक मनुष्य के जीवन में ऐसे वो एक शब्द में कहना चाहें तो इसे आममयना अक्सर मिलते हैं जब वह अपन यिन के चतुर कहसकते है। कलाकार के समान सजा सकता है या अना। लोकमाधना बन कर नष्ट कर सकता है । सब से मुख्य बात यह बन के मूल में ईमान रहना चाहिये का मतलब है जगत में से बड़ी चतुरता है । हम दुमरों भगवती अहिंसा का प्रसार करना अर्थान् दुराचाको कितना भी धोखा देने की कोशिश रियों को सदाचारी बनाना, बेईमानों को ईमानदार करें पर दुनिया की अपेक्षा हम ही अधिक धोखा बनाना, जो न बनसके उन से दूसरों को बचाये बायगे । कानून की पकड़ में हम भले ही न रखना अथवा उनके चारों और अन्यायों से आ पर दिल की काट म तो आ ही जाने है। जगत को मुरक्षित रखना । इस प्रकार लोकइसलिये दनिया और पोई दंड भले ही न दे जीवन की शुद्धि और न्याय का पचार भगवती हर निन्दा का दंड तो अवश्य दे की है। सकती है जो कि अंत में हमारी: अनक सुविधाओं यह तो आवश्यक ही है कि जो भगवती सब कीर्ति को नष्ट कर सकता है। की कसायना करेगा वह मन कर 1 का मनुष्य धोख में आ भी लेगा। खुद बेईमान हो वह दूसरों जपर सबकी परीक्षा कर लेता की ईमानदार क्या बनायेगा ! और दूसरे बेर्डग नों Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकभवना से जगत की पैसे रक्षा करना जरूरी हो जायगा । इस के मूल अर्थात् मनसाधना और आवश्यक हैं। इसके अतिरिक्त उसे तपस्वी होना भी जरूरी है, तपस्वी हुए बिना कोई नहीं कर सकता है। उसके पहले अपने से तपस्याओं का वर्णन करने के पहिले क साधना के नाना रूपों पर प्रकाश डालना उचित है, इसलिये पहिले उन्हीं का वर्णन किया है I जाता लोकाना दो तरह की होती है एक प्रबोधनी दुसरी संहारिणी । प्रबोधनी साधना में लोगों के दिल पर ऐसी छाप मारी जाती है जिस से उनका दिल बदल जाये और पाप से विरक्त हो जाये । मनुष्य को ऐसा बोध या शिक्षण दिया जाय जिससे उसके मन में बैठी हुई पशुता निकल जाय, कम हो जाय, यह प्रबोधनी लोकसाधना है । महारिणी लोकाना में पापी को दण्ड देकर पाप-ताप से दुनिया की रक्षा की जाती है । प्रबोधन के छः भेद है । १. आदी दर्शन. २. आग्रहिणी, ३. वैफल्यदर्शनी, ४. ५. उपेक्षणी और ६. शिक्षणी । १ - आदर्श दर्शनी - अपना जीवन ऐसा निष्पाप बनाकर जगत के सामने रक्खा जाय कि उसे देखकर लोग धार्मिक जीवन की ओर आकर्षित होने लगे। अगर हमारे जीवन में सेवाप्रियता, समभाव आदि गुण हो तो इन्हें देख कर दूसरों में भी इन गुणों को अपनाने की म होती है। पर एक बात यह भी है कि इन गुणों के साथ प्रसन्न रहना आवश्यक है । [ २७८ इन गुणों को अपनाने से सम्भव है गरीब ही रहना पड़े, सम्भवतः पूजा, यश, आदर, पद आदि न मिले तो भी हमारा जीवन सुखी है सन्तुष्ट है तो हमारे जीवन को देखकर दूसरे लोग आकर्षित हो सकते हैं और हमारे पवित्र जीवन का अनुकरण कर सकते है इससे भगवती की रोकसाधना हो सकती है। सदाचारी त्यागी मनुष्य का जीवन अगर दु:खी हो तो लोग उस पर दया तो कर सकते हैं पर अनुकरण नहीं कर सकते, ऐसी हालत में यह भगवती की कसाना नहीं कही जा सकती। हां, अमुक अंश में वाचकही जा सकती है। सदाचारी और सुखी जीवन से किस प्रकार होती है, इसका महर्षि सात्यकि का जीवन है। महर्षि सात्यकि विन्ध्याचल की तलहटी में एक आश्रम बनाकर रहते थे। पास में छोटी सी नदी थी, कुछ ज़मीन थी, कुछ गायें थी— इसीसे उनकी और उनके विद्यार्थियों की गुजर होती थी । यद्यपि काफी गरीबी थी, कभी कन्द खाकर रहने की भी नौबत आ जाती थी। फिर भी सब ग्वूत्र प्रसन्नता रहते थे। खुब मिहनत करना सबकी सेवा करना, विनय ने रहना, इस प्रकार पन और संयमोपार्जन करते थे । एक बार बनारस का राजा विक्रमदेव अपनी रानी और कुछ सेवकों के साथ वनक्रीड़ा करता हुआ वहां से निकला और महर्षि सात्यकि के आश्रम में ठहरा | एक दिन ठहर कर ही राजा को समझ में आ गया कि आश्रमवामी बड़े गरीब है पर आश्चर्य यह है कि किसी के चेहरे पर दीनता नहीं है चना का भाव नहीं है - वे गरीबी Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] सत्यामृत में भी पूर्ण हैं। एक बार राजा ने एक विद्यार्थी की भूख से मरे जाते हैं जबकि ये भूखे रहने को कुछ मिठाई देना चाही पर उसने कहा- पर भी वितृष्ण हैं - तृप्त हैं ! जो कुछ देना हो गुरुदेव या माताजी के पास राजा ने महर्षि की वंदना करके कहाभेज दीजिये मुझे आप से कुछ नहीं चाहिये । गुरुदेव, मैं राज्य नहीं चाहता आपकी शिष्यता विद्यार्थी का यह अनर्ग,स्व से भरा हुआ उत्तर चाहता हूँ, मुझे भी आश्रम में थोड़ी सी जगह सुनकर राजा चकित हो गया। साचने लगा- दे दीजिये। में भरा होकर भी अधूरा हूँ, ये खाली होकर भी महर्षि ने कहा-तुम्हारे यहां आ जाने से पूरे हैं। मैं सुखी हूँ या ये! तुम्हारी जगह किसी को राजा बनना ही पड़ेगा, दूसरे दिन राजा चन्दा गया । पर अगले तब तुम्हारी तरह वह भी तृष्णा की आग में पड़ाव पर पहुँचकर पता लगा कि रानी का हार जलेगा । इसकी अपेक्षा यह अच्छा है कि तुम आश्रम की नदी के किनारे रह गया है । हार राजा बने रहो और अपनी वितृष्णता से दूसरों बड़ा कीमती था। हलहल मचाई । दने को को भी वितृष्ण बनाओ! किसे भेजा जाय ! जिसे भेजा जाय कदाचित् राजा के जीवन में जो परिवर्तन हुआ उस बहा हार का छिपाल, इसालय राजाराना सहित का असर राजकर्मचारियों पर ही नहीं सारी प्रजा सब लोग आश्रम लौटे । चुपचाप ढुंढाई शुरू हुई पर पर पड़ा । लोग कहने लगे सतयुग आ गया है । हार न मिला। अन्त में राजा ने महर्षि से कहा। महर्षि की जो जो चीजें गमी आदर्शदर्शनी लोकसाधना ऐसी ही होती है ! सब उस झोपड़ी में रक्खी हैं । जाकर देखा तो २ आग्रहिणी-पाप अन्याय अत्याचार के यहाँ हार था, सोने का एक आभूषण और था। मार्ग में इस प्रकार अड़जाना जिससे पापी को एक दासी तांबूल भूल गई थी वह भी रक्खा था। पाप करना कठिन हो जाय । अगर वह हमें मार एक का नारियल रह गया था वह भी वहां कर पाप कर भी ले तो उसके अन्तस्तल में ऐसा पर मिला। लवंग, इलायची, सुपारी के टकडे दंश होता रहे कि वह पाप का मार्ग सदा के तक वहां मिले । आश्रम का ऐसा नियम था कि लिये छोड़ दे । इसे सत्याग्रह भी कहते हैं। गुरुदेव या माताजी की आज्ञा के बिना वहां राजस्थान की एक ऐतिहासिक घटना है कोई भी किसी चीज का उपयोग न करता था। कि दो भाई, जो राजकुमार थे, थोड़ी सी बात भूली हुई चीजे एक जगह इकट्टी रख दी जाती को लेकर अहंकारवश लड़पड़े, घर के एक पुराने थीं। राजा ने सोचा मेरे एक नौकर का जितना वृद्ध ब्राह्मण ने दोनों को रोका पर न माने । दोनों खर्च है उतने ही खर्च में इस सारे आश्रम का ने तलवारें निकाल ली, लड़ाई को रोकने के लिये काम चलता है, पर हम सब भूखे है लेकिन ये ब्राम्हण बीच में खड़ा हो गया पर दोनों के हाथ सब तृप्त है । अगर मेरे राजमहल में हार तो छूट चुके थे, ब्राह्मग घायल होकर चल क्या एक कौड़ी भी गमी होती तो क्या कभी बसा पर अपने खून से दोनों के दिल साफ़ पता लगता ! हम दुनिया को लूट कर भी तृष्णा कर गया। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकसाधना [ २८० सत्याग्रही आनी कुर्बानी से लोगों के दिल पर भी निष्फल बनाया जाता है। जैसा कि म. पिघला देता है और पाप कार्य में बाधा डालता ईसा उपदेश किया करते थे। है। सत्याग्रही के मनमें द्वेष न होना चाहिये साथ ४ प्रेमदर्शनी-इसमें पापी के साथ ऐसी ही यह भी देखना चाहिये कि जिसके साथ सत्या " सहानुभूति दिखाई जाती है कि वह हमें अपना ग्रह का उपयोग किया जा रहा है उसके हृदय में मित्रा समझने लगे और हमारी सहानुभूति पाकर जाग्रत होने की योग्यता कितनी है ? जो तीव्र लज्जित हो जाय और पाप से विरक्त हो जाय । स्वार्थी या अत्यन्त निष्ठुर या असंस्कृत हैं उनके सामने सत्याग्रह का कोई उपयोग नहीं। ___ एक विश्वप्रेमी महोदय रात में सोरहे थे ३ रनली- दृद्धशान्ति और ___ इतने में चोर घुसा । इन्हें सोया जानकर घर का सामान लेकर उसकी पोटली बाँधी । [ इनकी निर्भयता से दूसरे के दिलपर यह छाप मारी जाय नींद खुल गई पर इनने कुछ कहा नहीं ] पोटली कि वह • अन्याय करके भी उसकी निष्फलता का अनुभव कर सके । जैसे किसी ने हमें इतनी बड़ी बंध गई थी कि चोर उसे उठाकर अपने सिर पर नहीं रख सकता था। चोर की एक तमाचा मारा और हमने दृसरा गाल आगे करके कहा-लीजिये एक तमाचा और मारिये ।। यह परेशानी जानकर वे खुद उठे और चोर के सिर पर पोटली रखवाने लगे। चोर घबराया मारने वाले ने तमाचा इसलिये मारा था कि पर इनने कहा घबराओ मत, मैं समझता हूं मेरी पिटनेवाला डर जायगा झुक जायगा । पर जब अपेक्षा तुम्हें इसकी ज़रूरत अधिक है इसलिये वह देखता है कि तमाचे ने तो इसमें भय की तुम लेजाओ, इस सहानुभूति और प्रेम को पाकर अपेक्षा निर्भयता को ही जगाया है तब तमाचे चोर के दिल का पाप भाग गया वह पैरों पर गिर की विफलता से वह हट जाता है। हो सकता पडा. क्षमा मांगी और सदाके लिये चोरी है कि वह दोचार तमाचे और मारे पर पिटनेवाले छोड़ दी। में अगर दृढ़ता बनी रहेगी तो अन्त में वह अपनी मनुष्य प्रेम का भूखा है। स्वार्थवश या विफलता समझ जायगा । जीवन की आवश्यकतावदा कभी उसे नीति का आग्रहिणी-साधना में एक अन्याय को भंग करना पड़ता है पर इतना तो वह चाहता विफल बनाने के लिये दूसरे अन्याय निर्भयता से ही है कि मैं उन्हें न सताऊं जो मुझसे प्रेम सहे जाते हैं और मूल अन्याय को रोकने की करते हों, और जब अपरिचित आदमी उसके कोशिश की जाती है । जैसी कि प्रह्लाद ने की पाप को भूलकर उससे प्रेम करने लगता है तब थी। ईश्वर के नाम लेने का प्रतिबन्ध दूर करने वह समझने लगता है कि जगत् में मुझ सरीखे के लिये प्रह्लाद ने सब कष्ट सहे पर पिता की पापी से भी प्रेम करनेवाले हैं और मैं ऐसे प्रेमियों अनुचित आज्ञा न मानी। को सताता हूं यह कितना बड़ा अन्याय है ? वैफल्य-दर्शनी में अन्याय की घटना को प्राणी बल और धनकी उपेक्षा जितनी बंद नहीं किया जाता किन्तु उसे हो जाने देने जल्दी कर सकता है उतनी जल्दी प्रेम की Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ ] उपेक्षा नहीं कर सकता । प्रेमी लोक पापक्रिया को जबर्दस्ती रोकती है । इस साधना साधना का मूल इसी में है । का उपयोग तभी करना चाहिये जब पाप दूर करने का कोई और मार्ग न रह जाय या दूसरे मार्ग से पर्याप्त सफलता मिलने की आशा न हो । मत्यामृत ५ उपेक्षणी में पापी पर ऐसी बताई जाती है कि वह पाप की निष्फ लता समझ सके । बहुत से लोग ऐसे होते हैं कि 'अगर उनसे डरो या लड़ो तो उनका पाप और भी बढ़ता है यहां तक कि उनकी तरफ किसी भी तरह का ध्यान दो तो वे अपने पाप की सफलता समझकर उसी मार्ग में और बढ़ते हैं उनके विषय * उपेक्षणी दो साल का प्रयोग करना उचित है। म. महावीर के जीवन में और उनके सच्चे अनुयायी साधुओं के जीवन में इस सा के विशेष दर्शन होते हैं । । ६ शिक्षणीक साधना में जगत को या पापी को पाप का दुष्फल समझाया जाता है भगवती की सेवा में ही विश्व का और तेरा हित है इस तरह का उपदेश इस तरह से उसे दिया जाता है कि वह पाप अन्याय आदि से विरक्त हो जाता है । जो लोग पाप के विरोध के लिये सरकारक साहिल - निर्माण करते हैं उपदेश आदि देते हैं वे साधना करते हैं । पर इस साधना के लिये यह आवश्यक है कि जो कुछ कहा जाय, अपना जीवन उसके अनुरूप 1 चीन उपदेशों का या लेखनों का कोई मूल्य नहीं। वह तो फोनोग्राफ की तरह बजना है। ७ महारणी या पाप को दूर करने के लिये अन्यायी या पापी को दंड देना संहारिणी लोक साधना है । जैसा कि म. राम ने रावण को दिया था । प्रबोधन कन्सना साधारणतः प्राणी को संयम की ओर काती है जब कि संहारिणी भगवती की इन सातों नावनओं के विषय में दो बातों का खयाल रखना चाहिये। पहिली बात तो यह है कि साधनाएँ वहाँ निष्फल हो जाती है जहाँ साधक पात्रापात्र का विवेक भूल जाता है। प्रबोधिनी की जगह संहारिणी और संहारिणी की जगह प्रबोधिनी का उपयोग करने से साधना निष्फल जायगी और कभी कभी दुष्फल हो जायगी । दूसरी बात यह है कि लोक- मु.धना कोई भी हो उसके मूल में वीरता होना आवश्यक है । खास कर प्रबोधिनी में इसका विशेष ध्यान रखना चाहिये। अगर हम अपनी कष्टसहिष्णुता से अन्यायी को पाप से रोक भी दें पर उसके मनमें पश्चात्ताप पैदा न हो सिर्फ दया पैदा हो तो प्रबोधिनी लेोकसाधना को सफल नहीं कह सकते । मानलो 'क' राष्ट्र के ऊपर 'ख' राष्ट्र का शासन चलता है, 'क' राष्ट्र स्वशासन चाहता है। इसलिये वह आग्रहिणी याचना के द्वारा 'ख' राष्ट्र को पाप से दूर हटाना चाहता है। 'क' राष्ट्र के अडंगों से कुछ परेशान होकर और कुछ दया से प्रेरित होकर 'ख' राष्ट्र 'क' राष्ट्र को कुछ अधिकार दे देता है उसे अपने अन्याय का पश्चात्ताप नहीं होता, तो यह प्रबोधिनी न हुई। क्योंकि 'ख' को इससे कुछ प्रबोध तो मिला ही नहीं उसने अपनी भूल तो समझी ही नहीं । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकगायना प्रबोधिनी में तीन बातें जरूरी हैं । १. हिंसक को अपने अन्याय का ज्ञान हो जाय, २. उसे अन्याय का पश्चात्ताप हो, ३. कर्तव्य समझ कर पाप से दूर हो- किसी पर दया करके नहीं | बालक का हट देखकर माँ-बाप झुक जाते हैं। अगर बालक को मार दिया होता है तो उन्हें पश्चाताप भी होने लगता है, पर उन्हें बालक का पक्ष न्याययुक्त नहीं मालूम होता, उन्हें मोहवश दया आ जाती है 1- यह बालक की साधना नहीं है | बालक मे महता और स्वार्थ है- मां-बाप में मोह है । जो प्रबोधिनी - साधना का साधक है उसमें दयनीयता नहीं आना चहिये रहना चाहिये । I लोकसाधकों का रूप भगवती की लोकसाधना करने वाले टोकस नाना तरह के होते हैं। अपनी अपनी योग्यता, रुचि और समझ के अनुसार साधना का क्षेत्र चुन लेते हैं, एक साधना के साधक में दूसरी साधना के अंश नहीं यह बात नहीं है पर जिसकी मुख्यता होती है, उसी में उसकी प्रसिद्धि हो जाती है लेकिन किसी एक लोक-साधना से जगत का काम नहीं चल सकता, कहीं संहारिणी की आवश्यकता है कहीं प्रबोधिनी की। जो उचितस्थानों पर उचित लोकसाधना का उपयोग कर सकते हैं उनका साधक जीवन सभी के लिये आदर्श हो सकता है। मनुष्य को चाहिये कि वह प्रबोधिनी और संहारिणी दोनों चनाओं का योग्यरूप में साधक हो । जैसे कि म. राम, म. कृष्ण, और म. मुहम्मद के जीवन थे 1 [ २८२ के बिना किसी भी सकता इसलिये हर साधक का काम नहीं चल एक के जीवन में यह कफी मात्रा में रहती है पर बहुत से साधक अपने जीवन में सिर्फ प्रबोधिनी साधना ही करते है, क्योंकि उनका कार्यक्षेत्र इसी के अनुकूट होता है। जैसे म महावीर, म. बुद्ध, म. ईसा आदि के जीवन में प्रबोधिनी ही पाई जाती है। अगर ये लोग संहारिणी लोकसाधन को अपनाने तो ये अपने कार्यक्षेत्र में असफल रहने । पर बहुत से साधक एक बड़ी भारी गलती कर जाते हैं ये स्वयं जिस साधना में निष्ण. त होते हैं वही साधना सब के हाथ में देना चाहते है फल यह होता है कि वह साधना विफल हो जानी है, क्योंकि सभी की बराबर योग्यता नहीं होती । एक आदमी प्रेमदर्शनी में निष्णात हो सकता है पर इसीलिये सभी को वह इस लोकसाधना के लिये प्रेरित करे तो साधना निष्फल जायगी । उसके गाउपर कोई तमाचा मारे और वह दूसरे गाळपर तमाचा खाने के लिये तैयार हो जाय तो कोई बुराई नहीं । पर समाज के लिये इसी नीति से काम ले बनकर वह इस साधना के नाम पर अपराधियों को छोड़ दे तो वह साधना के नामपर ऐसी असाधना करेगा कि हिंसा का विस्फोट होने लगेगा | इस विषय में सबसे अच्छी बात यह है कि अपने विषय में अपनी योग्यता और रुचि के अनुसार चुनाव कर ले परन्तु जनता को सब साधनाओं के रूप साधना का उपदेश दे क्योंकि जनता में सब तरह के लोग रहते हैं ! जैसे म. महावीर तो और Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ ] सत्यामृत उपेक्षिणी योजनाधना के साधक थे पर साधारण करना चाहिये इतने पर भी असर न पड़े तो जनता के पालन के लिये उनने सब तरह की आग्रहिणी या संहारिणी का उपयोग करना चाहिये । साधनाओं के विधान बनाये थे और कथाओं ४--कुटुम्ब या कुटुम्ब के समान संस्था में द्वारा उनका स्पष्टीकरण किया था। यही हाल सर्वोत्तम साधना है आदर्शदर्शनी, दूसरे नम्बर म. बुद्ध का भी था ।म. मुहम्मद, म. कृष्ण, शिक्षणी, तीसरे नम्बर अन्य प्रबोधिनी साधनाएँ, म. राम ने तो अपने जीवन को ही प्रबोधिनी चौथे नम्बर संहारिणी । . और संहारिणी टोकसाधना की प्रयोगशाला ५- चोर डाकू व्यभिचारी वञ्चक, ताड़क बनाया था। आदि नैनिक अपराधियों के विषय में पहिले कुछ मृचनाएँ-... संहारिणी है, क्योंकि अगर उन्हें दंड न दिया व्यक्ति को और जनता को किस परिस्थिति जायगा तो जिनका उनने अपराध किया है उनके में किस लोयस ना का उपयोग करना चाहिये मन में सन्तोप न होगा, उनके जीवन में प्रतिक्रिया इसकी कुछ सूचनाएँ यहाँ दी जाती है। होगी, दूसरों का आवश्यक भय कम होने से -दर्शदर्शन .क्या व्यक्तिको पपोत्तेजना फैलेगी इसलिये उन्हें दंड देना आवक्या जनता को, सब को उपयोगी है और प्रायः हर श्यक है जोकि संहारिणी लोकसाधना है। पर हालत में उपयोगी है। हां, इतना ध्यान में रखना साथ में शिक्षणी लोकसाधना भी होना चाहिये। चाहिये कि यह हर हालत में नहीं है। सामूहिक दृष्टि से इनके विषय में ही दो साधनाएँ सिवाय अन्य साधनाओं की भी जरूरत पड़ती है। उपयोगी है । पर हाँ, व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार आदर्शदर्शनी प्रेमदर्शनी और उपेक्षणी का भी उपयोग कर सकता है पर आपहिणी उपेक्षणी साधना प्रायः अपने व्यक्तिगत जीवन विन और कल्यदर्शनी का उपयोग प्रायः ठीक नहीं। भी रखना चाहिये या अपने समान साधको क्योंकि इन दोनों साधनाओं से ये साधक को का संघ बनाना हो तो उन तक रखना चाहिये । दयनीय समझने लगते हैं । जहाँ दयनीयता आई पत्र का विचार किये बिना जन-समास कि साधकता निष्फल हुई । को :मकर साधक न बनाना चाहिये। ६-जब एक ही देश, प्रांत, नगर, मुहल्ला आदि ३-मिनी-साधना का उपयोग अवसर में दो दल आपसमें लड़ते हों लड़ने का ध्येय देखकर प्रायः सब जगह किया जा सकता है। भक्षण नहीं तक्षण हो, किसी अज्ञानता के कारण पर इसे पर्याप्त नहीं कह सकते । यत स्थान पर उनमें शत्रता की कल्पना आ गई हो, अहंकार इसकी सफलता के लिये संहारिणी, अथवा आदर्श- जग पड़ा ही तब वहां आदर्शदर्शनी के साथ दर्शनी आदि एक या अनेक प्रबोधिनी लोक- शिक्षण कमावना विशेष उपयोगी है। अपने साधनों की मन की । अर्थात् न्याय को नियम बनाकर उन्हें समझाओ बुझाओ, यही की बात समझाने पर अगर अन्य के न जंचे सर्वेत्तम उप य है। इतने पर भी काम न चले तो अपना जीवन अदर्श बनाकर उसे प्रभावित तो स्वयं या अपने समान ऐसे लोग चुनो जा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकनाधना [ २८४ काफी सहिष्णु और द्रदी हो उनके साथ ८ जहां एक देश या .एक नाति दुर्गर या अकेले अवधिमा बैफल्यदर्शनी, प्रेमदर्शनी देश या उसकी जाति पर शासित जाति की साधना का उपयोग करो । ऐसे मौके पर अनिष्ठा होने पर भी शासन कर रही हो अथवा उपेक्षिणी साधना भी बहुत काम दे जाती है । आक्रमण कर रही हो तो वहां साधारण क्योंकि इससे दूसरों का अभिमान जगना कम शिक्षणी का उपयोग करके संहारिणी का उपहो जाता है। पर यहां जहां तक हो सके योग करना चाहिये । अन्य साधनाओं का वहां संहारिणी साधना का उपयोग न करना चाहिये। कुछ उपयोग नहीं। आत्मरक्षा के लिये संहारिणी साधना अनिवार्य प्रश्न-संहारिणी साधना के लिये जिस हो उठे तभी उसका प्रयोग करना चाहिये सी शक्ति की जरूरत है वह शक्ति अगर किसी में भी उतनी ही, जितनी अनिवार्य हा। न हो तो क्या आपहिणी आदि साधनार न करे । ७-जहां कुछ स्वार्थी लोग स्वार्थ के लिये उनर-निवरस के कारण जहां प्रबोधिनी विद्रोह करते हो, जानकर हटने के लिये या यश साधनाओं का उपयोग किया जायगा वहां न तो पट अधिकार लिये अतिकता का नाम बाले साधक में बह हृदयशुद्धि होगी जो इन साधहो तो उनके विषय में :: शिक्षण का नाओं के लिये जरूरी है न अन्यायी में पश्चात्ताप का भाव आयगा, बड़ी मुश्किल से उसमें दया उपयोग कर संहारिणी का ही उपयोग करना चाहिये क्योंकि अन्य साधनाओं का इनके ऊपर का भाव आसकता है पर दयनीयता से साध कता निष्फल होती है। कोई अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता । हां, अगर ये ऊपर के छठे भेद में इस तरह मिल गये हो कि प्रश्न-आग्रहिणी आदि साधनाएँ ऐमे अवइन को उनसे अलग न किया जा सकता हो सर पर निष्फल भले ही हों पर उनके प्रयोग से तो जबतक ही श्रेणी से इन लोगों में भेद न माथियों में एक तरह की स्फूर्ति पैदा होती है हो जावे तबतक छठी के समान ही इनके साथ संगठन और शक्ति आती है इसलिये उमे सर्वथा व्यवहार करना चाहिये । जैसे कुछ धूत नेताओं निष्फट नहीं कह सकते। ने एक जगह की जनता को अहंकार की शराब उत्तर-नकी उपयोगिता तो है पर बह पिलाकर अपनी मुट्ठी में कर लिया, इनके संहार प्रबोधिनी साधना के रूप में नहीं है वह है को जनत. अग्नः संहार समझने लगी तो वहां संहारिणी के रूप में । क्योंकि संहारिणी साधना जनता के और इनके साथ तबतक एकसा व्यव- की योग्यता पाने के लिये इसका उपयोग किया हार करना पड़ेगा जबतक जनता से ये अलग न जाता है। अगर संहारिणी की योग्यता न आवे समझे जाने लगे। हां, इनको अलग करने के या उसका उपयोग न किया जा सके तो निष्फल लिये जनता को भिन्नता का शिक्षण दिया जा है ही। सकता है जिससे इनकी धूर्तता का जनता को प्रश्न-संहार से संहार शान्त नहीं होता पता लग जाये। वह प्रेम या प्रबोधिनी साधना से शान्त होता है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ ] मत्यामृत इसलिये प्रवेोधिनी साधना को ही हम अपना पेय प्रेमदर्शनी आदि का भी उपयोग करना चाहिये । क्यों न बनावें ? संहारिणी का त्याग करदें। ऐसी भावना रखना चाहिये ऐसा प्रयत्न भी करना उत्तर-प्रबोधनी-साधना ही हमारा ध्येय चाहिये कि कोई ऐसा व्यक्ति न रह जाय जिसके है । हमें उस युग को लाने की पूरी कोशिश लिये संहार की जरूरत हो। करना चाहिये जिसमें संहार की जरूरत ही भगवती की लोकसाधना का मार्ग ऐसा न हो। पर संहार की जरूरत रहने पर भी कठिन है कि कितनी ही सूचनाएं दी जॉय संहार को दूर हटा दिया जाय तो यह साधना समस्या बनी ही रहेगी। हां, जिसने सत्येश्वर का न होगी अंधेर होगा । हमारी कोशिश निरपराधी दर्शन पालिया है जो सदसद्विवेक के साथ विश्वबनने और बनाने की होना चाहिये, अपराधियों हित के मार्ग पर चल रहा है वह साधक सरको दंडमुक्त रखने की नहीं। इससे अन्धेर लता से सफल बन सकता है। फैलेग पापियों को निरंकुशतः मिलेग । हां, जहां बहुत से लोग केवल भावना के वश में प्रबोधनी का उपयोग है वहां हां उसीका प्रयोग होकर अपने अभ्यास या संस्कारों के अनुसार करना चाहिये। जहां तक बने संहारिणी से सत्यकी उपेक्षा करके साधना में जीवन लगा देते बचते रहें। हैं वे त्याग से महान बन कर भी साधक नहीं __ मनुष्य समाज में पशुता बिलकुल नष्ट हो बन पाते । इसलिये भगवती के साधक को जाय इसके लिये जन्मसे ही उसपर सुसंस्कार निष्पक्ष होकर सत्येश्वर की सेवा करना चाहिये डालना, अपना जीवन आदर्श रखना, शिक्षण और जिस तरफ सन्येश्वर का इशारा हो उसी देना आदि साधनाएं करना चाहिये, यथावसर तरफ बढ़कर साधना सफल बनाना चाहिये । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग आचार कांड [तीसरा अध्याय ] [ भगवती के अंग ] 1 जगत के सारे व्रतनियम यम ने आदि भगवती अहिंसा के अंग हैं इसी प्रकार सारे पाप अधर्म कुकार्य आदि पापिनी हिंसा के कार्य है । झूठ बोलना, चोरी करना, अपमान करना, माग्ना पीटना, वध करना आदि सभी हिंसाकार्य है जिसने भगवती की आराधना करली है वह पाप के भेद-प्रभेद समझे बिना निष्पाप जीवन बिता सकेगा परन्तु निष्पापता को रिक बनाने के लिये संयम और पाप के भेद-प्रभेद जानलेना जरूरी है। हिंसा पापिनी के मेदप्रभेद जानलेने से भगवती अहिंसा के मंदप्रभेद समझे जासकते है इसलिये पहिले हिंसा के या पाप के भेद बता दिये जाते हैं उसी के आधार से अहिंसा या संयम के भेद समझ लिये जायेंगे । हिंसा पापिनी की दो श्रेणियाँ हैं पाप और अनुपाप । ये श्रेणियाँ मन के विकार की दृष्टि से नहीं किन्तु उसके व्यावहारिक रूप की दृष्टि से हैं। हो सकता है कि अनुपाप पाप से बढ़जाय । परन्तु जिन पापों की पापता सरलता से समझ में आजाती है, मन्यसमाज के नियमों का भंग भी २८६ मालूम होता है, उन्हें पाप करते हैं पर जो अपने या दूसरों के दुःख का कारण तो हैं सामाजिक नियमों के ध्येय के नाशक भी हैं पर व्यक्तिगत अधिकार के भीतर हैं वे अनुपाप हैं, जैसे परिग्रह या पूँजीवाद | यह सामाजिक अर्थव्यवस्था के ध्येय को नष्ट करता है पर बाहर से सामाजिक नियम या कानून का भंग नहीं करता इसलिये यह अनुपा है । इसी प्रकार जो होना या अन्य इन्द्रियों का गुलाम होना भी अनुपाप है । हिंसा के भेद - पाप या हिंसा के मूल भेद तीन हैं । १ प्राणघात, २ अर्थघात, ३ । इन तीनों पापों से घात होता है इसलिये ये सब हिंसा पापिनी के भेद हैं । अर्थघात को चोरी कहते हैं, वन को झूट कहते हैं । विश्वासघात अर्थात में कारण है फिर भी उस का स्वतन्त्र स्थान ह । अर्थघात एक तरह का वास है और अमुक अंश में प्राणवात भी है फिर भी जीवन में उसका स्थान इतना महत्वपूर्ण है कि उस अलग बताने की जरूरत है । अनुपाप या उपपाप के चार भेद हैं 1 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७] सत्यामृत - १ दुर्भोग २ दुरर्जन, ३ अतिग्रह ४ अतिभोग। उपसंयम संयम का पूरक है, उपपाप कभी कभी इनका दुष्फल पाप से भी पाप का पूरक है, इसलिये इनका घनिष्ट संबंध बढ़जाता है फिर भी इन्हें अनुपाप या उपपाप भी है बल्कि उपसंयम संयम में, उपपाप पाप में कहते हैं क्योंकि इन में सामाजिक नियम के शामिल भी किया जा सकता है । जेसे दुर्भोग अनुसार मिले हुए व्यक्तिगत अधिकार का में प्राणघात की मुख्यता है, दुरर्जन में अर्थघात उल्लंघन नहीं होता। व्यवहार में भी ऐसे लोगों को की मुख्यता है, अतिग्रह, अतिभोग में भी अर्थधात पापी नहीं कहते। की मुख्यता है । इसीप्रकार सद्भोग में प्राणरक्षण की, सदर्जन आदि में ईमान की मुख्यता है । दुर्भोग का मतलब है अनुचित वस्तुओं का भोग करना जैसे शराब पीना आदि । दुर्जन का प्राणघात मतलब अनुचित तरीके से धनोपार्जन करना, ___ प्राणघात का अर्थ है शरीर इन्द्रिय और जैसे सट्टे से जुआ से व्यभिचार से पैसे कमाना । मन को चोट पहुँचाना, बन्धन में डालना या अतिग्रह का मतलब है सम्पत्ति का अधिक संग्रह अतिश्रम लेना । जैसे मारना पीटना (शरीर), वधिर करना । अतिभोग का अर्थ है मर्यादा से अधिक कर देना अन्धा कर देना (इन्द्रिय), निंदा करना विषय सेवन करना, ऐयाश हो जाना, इन्द्रियों __ अपमान करना तिरस्कार करना (मन) । इसी के गुलाम हो जाना। प्रकार कैद करना, बाँधकर रखना, बोलने न साधारण वेश्यासेवन दुर्भोग है, विवाहित देना, पागट कर देना, बहुत बोझ लादना, बहुत आदमी अगर वेश्यासेवन करता है तो दुर्भोग के समय तक काम लेना यह सब भी प्राणघात है। साथ विश्वासघात और अर्थघात भी है, इसलिये मार डालना , ग्वा जाना आदि प्राणवात तो काफी बड़ा पाप है, अगर बलात्कार करता है तो प्रगट ही है। दोग अर्थधात विश्वासघात और प्रागन, इस तकनी कभी पानी को दण्ड देना, प्रकार अनेक पाप मिले होने से पैशाचिक महाप, कैद करना, निंदा, अपमान, तिरस्कार करना , है। इन सब बातों का साफ़ साफ़ वर्णन आगे बेजिम्मेदार आदमी को, मूढ़ आदमी को बोलने किया जाएगा। न देना या अवसर ठीक न होने से बोलने न जैसे पापिनी-हिंसा के ये सात अंग बताये देना, आततायी को मार डालना, समाजरक्षण गये है, उसी तरह भगवती अहिंसा के भी सात या न्यायरक्षण अथीत् विश्व-सुख-वर्धन के लिये अंग हो । तीन संयम और चार असंयमा आवश्यक हो जाता है तो यह सब प्राणघात क्या संयम-- तन यम ये :--- १. प्राण- पाप है ? अगर यह पाप है तो निष्पाप रहकर रक्षण अर्थात् अधानत्रन २. ईम.न अर्थात् विश्व-मुग्यवर्धन हो ही नहीं सकता। अचौर्यबत, ३. विश्व मरण य, सखवत । उत्तर-जो घात विश्वसुखवर्धन की दृष्टि उपसंयम- चार उपसंगम-- १. सद्भोग, से किया जाता है उसमें घातक की जिम्मेदारी २. महर्जन, ३. निरनिग्रह और ४. निरतिभोग। इतनी नहीं रहती कि उसे पापी कह सकें। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग [ २८८ बल्कि वह विश्वसुख-वर्धन न्यायरक्षण आदि के मन-मुखदुःग्व अनुभव, प्रेम, द्वेष, भय, चिन्ता लिये होने के कारण संहारिणी-नोकसाधन है। उत्साह आदि वृत्तिवाला मन है । घात करने से ही किसी को पापी न इन्द्रिय- पदार्थ के गुण को प्रत्यक्ष करने कहना चाहिये । यह देखना चाहिये कि उसकी वाले ज्ञान-द्वार को इन्द्रिय कहते हैं। इंद्रियां जिम्मेदारी घास्य ( जिसका घात हुआ ) पर है पांच हैं. पन...र गर्म आदि का ज्ञान करनेवाली या घातक (जिसने घात किया ) पर है । अगर इन्द्रिय, जीम-- मीठा आदि स्वाद का ज्ञान सारी जिम्मेदारी घ.त्यपर हो तो घातक निर्दोष करनेवाली इंद्रिय, प्राण-सुगंध दुर्गध का ज्ञान हो सकता है। हो सकता है इसलिये कि घातक करने की इन्द्रिय, आंख. -रंग और आकार को का मनोभाव अगर विश्वमुग्ध-वन के अनुकूल ग्रहण करनेवाली इन्द्रिय, ५'-.. .: को ग्रहण है उसमें चिकित्सक वृत्ति है तो घातक निर्दोष का इंद्रिय । इन्द्रियों की शक्ति कम होना है अन्यथा जितने अंश में उसमें कपाय है उतने भी जीवन का कम होना है। अंश में वह दोषी है ही। हां, व्यवहार में उसे ही दोषी कहेंगे जिसके उपर घात की जिम्मेदारी बल- किसी भी साधन का उपयोग करने है । रावण मरकर भी दोपी रहा, म. राम मारकर में जो अंतिम सहायक है वह बल है । इसके भी निर्दोष रहे । क्योंकि इसमें जिम्मेदारी रावण द्वारा परिवर्तन कर सकते हैं और परिवर्तन को की थी । म. रामन रावण से द्वेष नहीं किया राक सकते है। था सिर्फ उसके पाप से दूर किया था इसलिये आहार- शरीर के लिये खुराक लेना वे पूण निर्दोष रहे । प्राण-घात के भेद-प्रभेदों आकार है । प्रतिसमय प्राणी कुछ न कुछ खुराक का समझ लेने से प्राणघात का अमान लेता ही रहता है। हवा पानी तथा और भी समझ में आ जायगा । अनेक तरह का भांजन प्रतिसमय प्राणी को लेना प्राणघात के भेद-भावन तीन तरह का पड़ता है। सबसे अधिक जरूरी आहार हवा होता है १ जीवनय न, २ तनघात, ३ मनधात का है इसलिये आहार प्राण में मोम की जीवनघात- जीवनघात उसे कहते है मुख्यता है । आहार का अर्थ मुंह से ग्रहण करना जिस में सब प्राणों का घात कर दिया जाता है. नहीं है मुँह से ग्रहण करना तो अमुक समय के जीवन नष्ट हो जाता है, अर्थात् मौत जीवन- लिये रुक भी जाता है मुंह ता सिर्फ वह द्वार है घात है । किसी प्राणी को मार डालना जीवन- जहाँ से वस्तु ग्रहण करने के स्थान ना पहुँचती घात करना है। है । पेट में पहुंचने पर पच पच कर जो हिस्सा शरीर में मिलता जाता है वही आहार है । इस प्राण- जिनके सहारे जीवन धारण किया प्रकार कोई न कोई वस्तु पतिसमय शरीर में जाय उन्हें प्राण कहते हैं। मिलती रहती है वही आहार है। जब यह क्रिया प्राणभेद--प्राण चार हैं १ मन २ इन्द्रिय बन्द हो जाती है तब मौत हो जाती है। या ३ बल, ४ आहार । जितने अंश में कम होती जाती है उतने अंश Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ ] सत्यामृत में जीवन की कमी समझना चाहिये । जायगा । यह तो प्राणघात के बाद का विचार जब इन्द्रिय मन बल और आहार चारों ही है पर जहां तक प्राणघात और अर्थघात की प्राण नष्ट हो जाते हैं तब जीवनधात अर्थात् क्रिया से सम्बन्ध है वहाँ तक उनका सीधा मौत हो जाती है। माधारणतः आहार और उस सम्बन्ध प्राण से और अर्थ से है । में भी बालोया के बन्द हो जाने पर मौत मनघात–मार्ग दृष्टि अध्याय में मानसिक मान ली जाती है पर बाहर से काम बन्द दुःख पांच ताह के कहे गये हैं उन में से सहहोने पर भी आहार होता रह सकता है। जब वेदन का सम्बन्ध तो मनघात से है नहीं, बाकी तक एक भी प्राण बाकी रहे तब तक जीवनधात चार भेदोंका सम्बन्ध हो सकता है। पर अधिकतर नहीं माना जाता। वे चारों दुःख दूसरे प्राणी के द्वारा किये गये तनपात-किसी प्राणीको किसी तरह का घातके बिना भी होते हैं जैसे प्रिय वस्तु का न शारीरिक कष्ट देना तनघत है। मिलना या बिछुड़ना आदि भाग्यदोष या प्रकृति. दृष्टिकाण्ड के तीसरे ( मार्गदृष्टि) अध्याय दोष से होते है । दूसरे के द्वारा किये भी जात में शारीरिक दुःखः तरह के बताये गये है पर उन में से अधिकांश अर्थवत में शामिल आघात, अनि , अविषय, रोग, रोध, और होते हैं। अतिश्रम । इनमें से एक या अनेक तरह का अपमान वगैरह से जो लाघव होता है वह पष्ट देना तनघात है। अवश्य मनघात है फिर भी अधिकांश लावय ___ यधपि अविषय रूप तनघात अर्थवान से प्राकृतिक कहा जा सकता है। भी हो सकता है पर उसका सम्बन्ध परम्परा का इस प्रकार मानसिक दुःखें। के भेद से मनहै। अवचन में शरीर को कष्ट पहुंचाने की घात का रूप ठीक नहीं समझा जा सकता मुख्यता नहीं होती। अर्थातक कुछ लेना इसलिये यहां सिर्फ मानसिक दुःख के वे ही रूप चाहता है शरीर को चोट पहुंचे या न पहुंचे इसकी पर्वाह नहीं करता। प्राणघातक को लेने बताये जाते हैं जिन का मनघात से सीधा और की मुख्यता नहीं है चोट पहुंचाने की मुख्यता साफ सम्बन्ध है। मनघात से बचने के लिये है। जितने अंश में चोट पहुंचाने की मरूपता जिन से बचना जरूरी है। है उतने अंश में प्राणवात ह जितने अंश में मनघात के मुरूपरूप दो है जो प्राणघात में कुछ लेने की मुख्यता है उतने अंश अर्थात शामिल किये जाते हैं-१ भय २ तिरस्कार । है। हा, प्राणघात का भी कुछ दूसरा लभ होता यद्यपि इन दोनों का उपयोग प्राणी की भलाई के है पर उसकी अपेक्षा तो प्रागघान का अ.! लिये भी किया जाता है पर यह विचार पीछे का रापन निश्चित किया गया। प्रागवात अगर है। प्राणी की भलाई के लिये किया जायगा तो पायाक्षण के लिये होता . वह भगवती की मायना हैअपने उचित स्वार्थ आयगा । भक्षण के लिये हो नो बग कहा रक्षण के लिये किया जायगा तो हिंसा होगी। इस ) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग न होगी, अनुचित स्वार्थ के लिय या दोषों को प्रगट करना निंदा है ! किया जायगा तो हिंसा होगी , इस यह प्रायः परोक्ष में की जाती है ! सुधार की प्रकार पीछे उमका विश्लेषण हो जायगा परन्तु दृष्टि से सच्चे दोषों का उल्लेख किया जाय तो इसे अभी तो यहां मनघात का विचार करना है। निंदा नई। कहने ! द्वेषबुद्धि से किसी भी तरह भयदान के नाना रूप है पर संक्षेप में के दाप का उल्लेख किया जाय तो यह निंदा है ! उसके दो रूप हैं- वचन स भयदान और तन तिरस्कार फि शब्दोंमें ही नहीं होता किंतु से भयदान । मैं तुम्हें मार डागा, लूट लूंगा, स्वर से भी होता है मुलाकृति से भी होता है। बदनाम कर दूंगा, खाना बन्द कर दूंगा, कम्वा भावव्यक्त करने के नानामपर उन रूपों की भोजन दंगा, जकड़ दूंगा अथवा तुम यो हो कीमत मन के भावों में है। जाओगे त्यों हो जाओगे आदिबाने बोलकर, दिख र जब से है तभी से प्राणघात का या अन्य संकेत से कहना वचन से भयदान है। पाप है । अर्थघात और विश्वसन से प्राणघात ___ मारना नहीं, पर मारने के लिए हाथ उठाना का इतिहास लम्बा है। यद्यपि कीट पतंगों में मारने दौटना, दांत सन १ पास करने के भी अवघातलमयर पाया जाता है पर प्रधालिये की जानेवाली क्रियाओं का प्रदर्शन क.ना नता प्राणघात की है । ब्यापक भी प्राणघात है। तन से भयदान है। ___ दुसरी बात यह है कि अर्थात विश्वमय इस प्रकार के भय से प्राणी के मन को की अपेक्षा प्राणघान की क्षतिपूर्ति कठिन है। चोट पहुंचती है, उसे कष्ट होता है इसटिये इसलिये भी यह मुख्य पाप है। भयदान मनघात है। भगवती की साधना शीर्षक अध्याय में दसरा मनघात है तिरस्कार । तिरम् शब्द व्यवहार पंचक का जो विवेचन किया गया है का अर्थ है परोक्ष, ओट में आदि । इसलिये उसके अनुसार प्राणघात या अन्य घातों की तिरस्कार शब्द का अर्थ हुआ सामने से हटाने कर्तव्यता अमित का निर्णय करना उचित की, ओट में करने की या नीचे करने की है, घत हो जाने से ही कोई पाप नहीं कहकोशिश करना । लाता है। तिरस्कार के अनेक रूप हैं, जैसे अविनय घातके तेरह भेद हैं-१ साधक २ वर्धक अपमान, निंदा आदि। ३ न्यायरक्षक ४ सहज ५ भाग्य ज, ६ भ्रमज, सागतजिस प्राणी को अपनी ओक्षा ७ आरम्भज, ८ स्वरक्षक, ९ प्रमादज १० जो स्थान प्राप्त है उसने कम देना या न देना अविवेकज, ११ बाधक १२ तक्षक १३ भक्षक। या उसका यथोचित प्रदर्शन न करनः अविनय इन में साधक, वर्धक और सादर घात है ! अपमान भी अविनय का एक रूप है पर तो नानी, की साधना के अंग है इसलिये कुछ अधिक मात्रा में है ! किसी के वास्तविक कर्तव्य में शामिल हैं। सहज, भाग्यज और भ्रमज्ञ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१ ] सत्यामृत पर मनुष्य का वश ही नहीं है इसलिये इनका सफाई की जरूरत रह जाती है इसलिये ये पापपुण्य के कर्तृत्व से कोई सम्बन्ध नहीं। यहां तेरह भेद किये गये हैं। अगर इन पांच भेदों में तोह तो सिर्फ इसलिये इनका उल्लेख किया गया है कि का समावेश करना हो तो इस तरह होगा । विश्वव्यापी घात को देखकर भगवती की साधना स्वाभाबिकी--सहज, भाग्यज, नमज । को कोई असम्भव न समझ बैठे इसलिये इन घातों के विषय में कुछ निर्णय कर दिया जाय । आत्मरक्षिणी- न्यायरक्षक, स्वरक्षक वर्धक आरम्भज और स्वरक्षक पर मनुष्य का वश तो पररक्षिणी- साधक, वर्धक, न्यायरक्षक । है पर पूरा नहीं, इसलिये इनके विषय में यथा- आरम्भजा----आरम्भन, स्वरक्षक । शक्य यत्नाचार किया जा मकता है। जहां तक संकल्पजा-प्रमादज, अविवेकज, बाधक यत्नाचार है वहां तक ये क्षन्तव्य हैं। प्रमादज तक्षक, भक्षक। अविवेकज बाधक तक्षक और भक्षक अवश्य पाप ___यहां भी कोई कोई भेद अपन फैल अनुहैं और उत्तरोचर अधिक पाप हैं। इस प्रकार ___सार अनेक भेदों में चले गये हैं। साधारणतः तेरह तरह के धानों का निर्णय हो जाता है। १ साधक- भगवती की प्रबोधनी साधना ___व्यवहार-पंचक में ये भेद इस प्रकार शामिल के लिये अपने को या आत्मीय जन को जो कष्ट किये जायेंगे। दिया जाता है वह साधक घत है । यद्यपि यह वर्धन-साधक, वर्धक, आरम्भज । वर्धक और न्यायरक्षक में शामिल हो जाता है रक्षण-साधक, न्यायरक्षक, आरम्भज, फिर भी इसमें दूसरों के घात के लिये स्थान नहीं है और व्यवहार में भी इस का साधनापन स्वरक्षक। विनिमय-स्वरक्षक, आरम्मन स्पष्ट है इसलिये इस को अलग भेद बनाया है। तक्षण नक्षक, प्रमादज, अभियान वर्धन या रक्षण के लिये जहाँ संहार कार्य कारी नहीं होता वहाँ उदाराशय संयमी जन भक्षण--भक्षक, प्रमाद ज, अविवेकज। साधक घात करके कल्याण करते हैं या अकल्याण सहज, भाग्यज और भ्रमज व्यवहार पंचक से बचते हैं कुछ उदाहरणों से यह बात साफ के विषय नहीं है। हो जायगी। कोई कोई भेद अपने फल के अनुसार दो एक आचार्य के किसी शिष्य ने अपराध दो भेदों में चले गये है। लिया और झूठ बोला, आचार्य ने समझ लिया दूसरी जगह ( कृष्णगन में हिंसा के कि यह झूठ बोलरहा है पर शिष्य किसी भी पांच भेद किये गये है १ स्वाभाविकी, २ आत्म- तरह झठ को स्वीकार नहीं करता । तब आचार्य रक्षिणी ३ पररक्षिी ४ आरम्भजा ५ संकल्पना। अपने को ही धिक्कार देते हैं कि मुझ में ही हिमा-अहिंसा (धान-अबात ) को समझने कोई दोष है तभी तो तुम मेरे सामने झूठ बोल में इनसे भी काम चल जाता है फिर भी कुछ सकते हो या अपराध कर सकते हो, इस प्रकार Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग आचार्य अपनी निंदा करके अपना धान करने हैं इसलिये यह वर्धक घात है। गुरु शिष्य के कदाचित् उपयम कर जाते हैं अथवा कोई दूसरा विकास के लिये कुछ प्रतारणा करता है कटसुसाधन छोड़ देते हैं तो यह सब काम है। वचन बोलता है तो यह बस्य की उन्नति के यह सम्झकर कि इसको समझाने का या लिये होने से वर्धक घात है। इसी प्रकार माता दंड देने का कोई अपर न होगा या बुरा असर पिता सन्तान की प्रतारणा करके जो उसकी होगा, उस की गलतियों के कष्ट को सहने जाना उन्नति के लिये प्रयत्न करते है यह भी वर्धक और उस से बचते रहने के लिये कष्ट सहना घात है। कोई महात्मा मम दिन के लिये अपने भी साधक घात है। प्राणों का बलिदान करता है तो यह भी वर्धक धात है, यह नहाया नही है। मेरा के ईप्रियजन है उस को किसी में आदमी ने सताया निसके साथ मेरा सम्बन्ध तो निकट प्रश्न... गार में मरी फैली हुई है जरूरत का है परं जो ऐसे मामलों में वह मेरी निष्पक्षना पर समझी जा रही है कि देवीके आगे एक मनुष्य विश्वास नहीं करता, इसलिये अपने प्रियजन का का बलिदान किया जाय तो मरी चली जायगी न्यायपक्ष का समर्थन करूं तो वह मुझे पक्षपाती इसके लिये कोई आदमी अपने प्राणों को चढ़ा ही समझता है, न्यायरक्षण का वास्तविक फल देता है तो इसे क्या कहा जाय ! अथवा वह कुछ नहीं होना, ऐसी हालत में उन से विशेष दूसरे किसी प्राणी का बलिदान करता है तो क्या कुछ न कहकर अपने प्रियजन काही डाँट ट- कहा जाय ! समार-मुख-गन इससे भले ही फटकार बनाना या अपने प्रियजन के घात का न हो पर उसका लक्ष्य यही है, भावना यही है समर्थन करना या चुप रह जाना भी और भावना के अनुसार ही पुण्यप होता है तब क्या इसेवक कहा जाय ! ___ मतलब यह कि अपना पक्ष न्याययुक्त होते उनर-श्रम और न्यायरक्षक घात भगवती हुए भी विश्वसुखवर्धन की दृष्टि से अपना घ.त की साधना है। भगवती का साधक इतना अविवेकी करना साधकघात है । नहीं होता कि वह मरी हटाने के लिये इस प्रकार . जीवन निरुपयोगी हो कर जब स्वपर प्राणिवध करे। जहां अविवेक है वहां भगवती की दुःखदायक हो जाय तब कपायरहित मनोवृत्ति से साधना नहीं है। इसलिये उस घात को वर्धक मौत का आलिंगन करना भी साधक घात है। नहीं कह सकते । वह अविवेकज घत है जो कि इस प्रकार साधक घात अनेक तरह का है। पाप है । यह तो हुआ अपने बलिदान के विषय में, २ वर्धक घात--जो घात विश्वकल्याण के दूसरे प्रणी के बलिदान के विषय में तो पापता लिये या घात्य के सुख की वृद्धि के लिये किया और बढ़ जाती है। क्योंकि इसमें निःस्वार्थत नहीं जाय वह वर्धक घात है । डाक्टर रोगी की शस्त्र- है जो तशकता पर आवरण डाल सके इसलिये चिकित्सा करता है, इससे रोगी को काफी तक यह तो तक्षक घात ही कहलाया, जो कि पूरा लीफ होती है पर है यह रोगी की भलाई के लिये पाप है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ ] सत्यामृत प्रश्न-जा प्रश्न-'प्राणिक्य से मरी हट जायगी' इस पहिले वह अपना, अपने बाल बच्चों या कुटुंबियों भ्रम के कारण अगर वह घात अविवेकज है तो का बलिदान करता जिससे सकुटुम्ब स्वर्ग में चिकित्सक भी अविवेकज घ.ती कहलायेगे । क्यों रहने को मिले । ऐसा नहीं करता इमसे मालूम कि औषध के भ्रम से या रोग के निदान के भ्रम होता है कि वह अपने को और दूसरों को धोखा से उनसे भी घात हो जाता है। देता है । इसलिये ऐसे बालदान में अविवेकज उत्तर-यह घत भ्रमज है । अविवेकज और तक्षक प्राणघात तो है ही साथ ही विश्वासअन्धश्रद्रा के आधार पर होता है और भ्रम में घात भी है। प्रयोग के समय आकस्मिक कारण से अजान प्रश्र-जो आदमी घर पर माम ग्वाते है कारी होती है । चिकित्सा के मूल में औषध और वध भी करते हैं वे धर्मस्थ न में भी अगर व रोग के सम्बन्ध के विषय में हमारा या उस करते हैं तो इसमें अविवेक क्या हुआ ? उनके विषय के आप्तजनका परीक्षित ज्ञान रहता है, अन्ध- लिये वह घात अबात का प्रश्न नहीं है किन्तु श्रद्धा में ऐसा परीक्षित ज्ञान नहीं होता । जैसे अपनी सम्पत्ति समाज को दे देने का भाव है । अमुक रोग पर अमुक दबाई काम करती है यह ईश्वर या खुदा के नाम पर बांट देने के भाव हैं बात परीक्षित है अब यह बात दूसरी है कि दवाई बाकि वे यह भी सोचते हैं कि सब लोग एकाध ठीक न बनी हो, खराब हो गई हो, ऋतु अनु- पश वध करके थोडा थोडा प्रसाद पा जाँय तो कूल न हो, या रोग का निदान ठीक न हो यह अच्छा बनिसत इसके कि सब लोग अलग २ इसलिये दवाई से हानि हो जाय पर उमा पशुबध करके बहुत प्राणियों की हत्या करें । उपयोगिता परीदित है इसलिये दवाई के उपयोग - अविवेक नहीं कहा जाता सिर्फ एक तरह का उत्तर- यहां सिर्फ साधारण मांसभक्षण का पाप है अविवेक नहीं । यद्यपि मांसभक्षण के भ्रम कहा जा सकता है। पारसे वे नहीं बच सकते। फिर भी जहां उन बलि से बीमारी हटने का ऐसा वैज्ञानिक का यह भाव है कि अनेक पशुवध राक कर एक परीक्षित प्रयोग नहीं होता इसलिये उसे अन्ध पशुवध रक्खा जाय वहां तो आंशिक रूप में श्रद्धा या अविवेक कहते हैं। भगवती की साधना भी है क्योंकि इससे जितना प्रश्न-एक आदमी का यह विश्वास है कि पशुवध रुका उतने अंश में जगत में सुखवृद्धि जो प्राणी देवके आगे मारा जाता है उसे स्वर्ग ही हुई। मिटता है इसलिये वह पशुबलि करता है इसे प्रश्न- प्रल्हाद ईश्वर का नाम लेता था, उस अविवेकज घात कहा जाय या तक्षक ! का पिता हिरण्यकशिपु सोचता था कि इस प्रकार . उत्तर--अविधेय. ते. यह है ही, साथ ही एक राजपुत्र ईश्वर के भजन में जिन्दगी खोदे तक्षक भी है क्योंकि इसके ममें छल या झूठ है। यह ठीक नहीं उसे तो चतुर और बलवान र उसका यह विश्वास होता कि देव के आगे शासक बनना चाहिये इसलिये उसने प्रल्हाद की मारा जाने वाला प्राणी स्वर्ग जाता है तो सब से प्रतारणा की क्या इसे वर्वक घात कह सकते Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग हैं ! यदि हां, तो हिन्दूधर्म रिलिज की अच्छे रास्ते चलावे और पुत्र को अधिकार है कि निन्दा क्यों करता है ? अगर पिता का रास्ता ठीक न मालूम हो तो पिता - प्रतारणा देने का अधिकार है उतनी उत्तर- निकी अगर यही मंशा होती तो उसकी निन्दा न की जाती उसने तो प्रतारणा विनय से सहन करे और अपने रास्ते चले। सा , की दृष्टि मे जिधर अच्छाई कारका प्रल्हाद का तक्षण ही किया था। उसने जो ईश्वर का नाम लेने की सख्त मनाई हांगी उधर निर्दोषता होगी। की थी और अपनी अज्ञा न मनी जाने पर प्रश्न- पिता पालक है इसलिये उसे अमुक उसे मार डालने तक के लिये तैयार हो गया था। अंश में प्रतारणा का अधिकार है पर पति-पत्नी इसमें सिंक अकार था । उसमें अगर प्रल्हाद आदि के मामले में कमा किया जाय ! अथवा के वर्धन का भाव होता तो वह ईश्वरभक्ति के किसी के मातापिता नासमझ और रूढ़ि के लिये अनुक समय देकर कहता कि बाकी समय गुलाम हो तो वह क्या करे वह उन्हें मार्ग पर तझे राजकाज में लगाना चाहिये। फिर अगर लाने के लिये कटुशब्द आदि के द्वारा प्राणघात असद न मानता तो हिरण्यकशिपु की मोदित करे तो क्या यह वर्धक घात : " ! प्रतारणा उचित कही जा सकती। पर इस कार्य उत्तर--वर्धन के लिये धान उतना ही करना के लिये प्राणनाश की प्रतारणा तो किसी तरह चाहिये जितना औचित्य और अधिकार के भीतर उचित नहीं कही जा सकती अधिक से अधिक हो । माताप्तिा हा । माता आदि गुरुजनों का अपमान वह इतना ही कह सकता था कि मैं ऐभे अयोग्य न करना चाहिये उन की गलनी सुधारना हो ता पुत्र का पालन नहीं कर सकता इसलिय अलग अवसर देखकर नम्रता से ही सूचित करना कर र णनःश तक के लिये तैयार चारिय। पतिपत्नी में तो मित्रता का व्यवहार ६। जाना हिरण्यकशि का तीन कर था। ही उचित है। अगर उनमें से किसी में विचार. इसलिये उसने जो घात किये वे तक्षक थे। विवेक की योग्यता अधिक है तो वह दसरे को जरा दृढ़ता से समझा सकता है पर एक दूसरे प्रश्न- रूढ़ि 1 उपासक है पुत्र सुधा- के जीवन सम्बन्धी उत्तरदायित्व से छुट्टी नहीं रक है इसलिये पिता उसकी ताड़ना करता है पा सकता । पत्नी मेरे विचारों के अनुसार नहीं वह सोचता है कि रूढ़ि पर चलाने से ही उस है इसलिये मैं उसके खाने कपड़े का प्रबन्ध न की वृद्धि होगी । इने क्या कहा जाय ! करूं, बीमारी में सेवा न करूं आदि बातें अनु उत्तर-रूढ़ि के नाम पर स्वच्छन्दगा दुरा- चित है यही बात पति के विस में पत्नी के चार आदि का विरोध भी किया जा सकता लिये है। इस प्रकार अपने कर्तव्य को पूरा और सुधार के नाम पर स्वच्छंदता का परिचय करते हुए अ.वयन नुसार अधिक से अधिक भी दिया जा सकता है इसलिये जिस ताफ जोर डाला जा सकता है पर एक दूसरे पर हाय विवेक हो उसी तरफ न्याय है । पिता को अधि- चलाना या मर्मभेदी आलियाँ आदि देना अनुचित कार है कि वह आने पेटेको अपनी समझके अनसार है। अपनी और उसकी भलाई के लिये सौम्य Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ ] सत्यामृत शब्दों तथा व्यवहार में तीन से तीव्र विरोध किया पसिनेवाले लोगों से इस राष्ट्रीय महाव्यक्ति में जा सकता है। तब यह घात वर्धक ही कह- महान् अन्तर है । व्यक्तित्व के लिये लड़ने झगड़ने लायगा। वाला सबका नाश करता है और सदा करता है प्रश्न-एक आदमी राष्ट्र की भलाइ के जबकि राष्ट्र के लिये झगड़नेवाला राष्ट्र की लिये अपना सर्वस्व लगा देता है, विलास वैभव सुखवृद्धि करता है। अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंग कभी आदि का भी त्याग कर देता है, यहां तक कि कभी आते हैं इसलिये इसकी तक्षकता घट जाती यश अपयश की भी पर्वाह नहीं करता व्यक्ति- ह और कादाचित्क हो जाती है । गत रागद्वेष भी किसी से नहीं है परन्तु राष्ट्र की इसी कांड के पहिले अध्याय में उदार पद भलाई के लिये दूसरे राष्ट्रों पर अत्याचार करने से नाम से सात पद बतलाये हैं । व्यक्तित्व के दिये नहीं चूकता, जिन्हें वह राष्ट्रविरोधी समझता है तक्षण करनेवाला परमस्वार्थ: या स्वार्थी है जब उनका नीतिअनीति का विचार किये बिना कि राष्ट्र के लिये तक्षण करनेवाला अक़दार है । दमन करता है, ऐसे निःस्वार्थ व्यक्ति को क्या इन दोनों में यह महान् अन्तर है । कहा जाय उसके द्वारा होनेवाला घात वर्धक है किसी घात को वर्धक ठहराते समय यह या तक्षक ! यदि तक्षक है तो अपने स्वार्थ के देखना चाहिये कि उससे अपने पराये का भेद लिये ऐसे अत्याचार करनेवाले में और इस महीं किये बिना विश्वकल्याण या अधिक से अधिक पुरुष में क्या अन्तर रहा ? सुख होता है या नहीं ! अगर होता है तो वह उत्तर-व्यक्तित्व की ओट हो या राष्ट्रीयता वर्धक घात है। की ओट हो, अगर कोई दूसरों पर अन्यान । ३ न्यापर सकारात--न्याय की रक्षा करने के करता है तो वह तक्षक है, पापी है । यह अपने लिये जो घात किया जाता है वह न्यायरक्षक लिये नहीं राष्ट्र के लिये कर रहा है इसलिये ___घात है। इससे भी भगवती की साधना होती विश्वकल्याण की हानि रुक नहीं जाती और है। जैसे न्यायाधीश अपराधी को दंड देता है, विश्वकल्याण को हानि पहुंचाने वाला वर्धक नहीं ___ या कोई भी व्यक्ति डाकू लम्पट आदि को दंड कहा जा सकता। हां, इतना विचार अवश्य किया जा सकता है कि अभी मामलों में देता है, यह सब न्यायरक्षक घात है। म. राम ने रावण का घात इसी तरह का किया था । वह कितना दोष है और आगे पीछे की परिस्थिति का कितना दोष है ! अगर परिस्थिति का पश्न-म. रामने तो अपनी इज्जत और पत्नी दोष न हो. सिर्फ राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा या राष्ट्र की रक्षा की थी इसलिये इसे स्वरक्षक क्यो की भूख बुझाने के लिये निरपराध ही किसी न कहा जाय । न्यायरक्षक क्यों कहा जाय ? राष्ट्र को सतावे तो यह तक्षक घात होगा, उचर-न्याय के साथ स्वार्थ की रक्षा होती हो पर स्वार्थ इतना प्रबल न हो कि न्याय की होइन होने पर भी अपने व्यक्तित्व के उपेक्षा कर सके तो उसे न्यायरक्षक घात ही लिय या व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये दुनिया को कहेंगे, स्वार्थरक्षक नहीं। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग - प्रश्न- एक प्रबल राष्ट्र ऐसा है जो किसी ४ सहज सहजपाल वह है जो हमारे किसी निबल राष्ट्र का घात नहीं करना चाहता पर विशेष प्रयत्न के बिना अनिच्छापूर्वक भी होता पारिस्थिति ऐसी है कि दूसरा प्रबल राष्ट्र निर्बल रहता है । जैसवमा आदि में होता है। राष्ट्रको हथयाकर पहिले राष्ट्र का घात करने शरीर में कोई कीटाणु पड़ गये और कोई वाला है ऐसी हालत में अपने बचाव के लिये औषध ली जिससे वे कीटाण मर गय. तो इसे उस छोटे राष्ट्र का घात करना स्वरक्षक बात भी नाज- कहेंगे। कहलाया या नहीं? ___ जो सूक्ष्म प्राणी देखने में नहीं आते उनका उत्तर-उस हालत में यह स्वरक्षक घात हो जाना भी महजचात है । जैस नहीं कहलायगा जब कि परिमिग- बाल जाने पर वह आदि में। छोटे किन्तु निर्दोष राष्ट्र की क्षतिपूर्ति कर दे। पानी में भी मार से अगोचर जो अन्यथा उसका तक्षक घात ही कहान मूक्ष्म प्राणी रहते हैं उनका बात हो जाना भी पश्न--एक वर्ग या राष्ट्र दूसरे वर्ग या राष्ट्र का है। पर जबर्दस्ती शासन करता है। शासन में साधारण चलने फिरने में भी जो पृथ्वी, अडंगा पैदा करने के लिये पीड़ित राष्ट्र का कोई जल, वायु के मूक्ष्म प्राणी मरते है वह सब व्यक्ति पीडक राष्ट्र के बयान को परेशान महजघात है। करता है कदाचित् जीवनघात भी करता है । सहजघात को प्राकृतिक भी कहते है कणों इस मामले में व्यक्तिगत वैर बिलकुल नहीं है कि इसकी जिम्मेदारी प्रकृति पर है मनुथ्यादि सिर्फ पीडक राष्ट्र के द्वारा होनेवाली जबर्दस्ती पर नहीं। यह व्यवहार पंचक का विषय नहीं को हटाने का भाव है तो इसे क्या कहा जाय ! है इसलिये व्यवहारपंचक के किसी भी भेद में उचर-यदि व्यक्तिगत द्वेष न हो तो यह इसे शामिल नहीं किया जाता । न्यायरक्षकघात कहा जा सकता है, पर इसमें ५ भाग्यज- जिसमें अकस्मात् ऐसे कारण विवेक की बड़ी जरूरत है । किसी भी कर्मचारी मिल जाते है कि जिस में न तो घातक का दोष का घात कर बैठना; अपनी इस उम्र नीति की होता है न घात्य का, पर घात हो जाता है। किसी भी तरह घोषणा न करना आदि अनुचित जैसे किसी स्थान पर सूचना करदी गई कि कोई है। मतलब यह कि विवेक के द्वारा यह निश्चय न आवे क्योंकि यहाँ बम बरसाने का अभ्यास करना चाहिये कि प्राणघात से वास्तव म अन्यायी किया जारहा है। पर कोई प्राणी पहरेवाले की शासन का ही घात हो, पेट भरने के लये किसी नजर में भी न आया, अपढ़ होने से वहाँ लगी तरह सरकारी मजूरी करनेवाले निरीह मनुष्यों का हुई सूचना न पढ़सका इस प्रकार उस जगह घात न हो। इस प्रकार विवेक और अकापामा पहुँच गया और बमवर्षा से उसका पात हो गया का खयाल रक्खा जायगा तो अत्याचारी शासन यह भाग्यज घात है। मतलब यह कि बचाने का या शासक को मिटाने के लिये किया गया प्राण- यत्न करने पर भी जब कोई अस्मिक घात हो घात न्यायरक्षक ही समझा जायगा । जाता है तब उसे भाग्यज धान कहते। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७ सत्यामृत ६ भ्रमज-प्रयत्न तो वर्धन या रक्षण का घात हो या न हो जगत में नहीं है जिसके किया जाता हो पर धोखे से हो जाय तक्षण, तो आधार से जीवन टिक सके, तीसरे वनस्पति का इसे भ्रमज घात कहेंगे । जैसे धोखे से गलत घात पशुपक्षी आदि के घात के समान नहीं दवा दे दी जाय, रोग का निदान ठीक न होने - हाता, वनस्पति की शाग्वा आदि काटने पर दूसरा से दवा कुछ की कुछ हो जाय , इसमें घातक शाखाएँ आजाती हैं बल्कि कभी कभी शाखा कुछ न कुछ भल कर जाता है इसलिये यह वगैरह काटना जरूरी हो जाता है, न काटा तो भ्रमज घात है । तक्षकघात इसलिये नहीं है कि झाड मुरझा जाता है नष्ट भी हो जाता है जैसे क का भाव तथा प्रयत्न वन या रक्षण के गुट ब आदि है। लिये होता है। इन तीनों कारणों से व्यवहार पंचक में __ ७ आरम्भज- व्यापार धंधा तथा घरू कामों वनस्पतेि का विचार नहीं किया जा सकता, हां, में जो प्राणिघात हो जाता है उसे आरम्भजघात अनावश्यक घात वनस्पति का भी नहीं होना कहते हैं। आरम्भजघात में संकल्पपूर्वक पाणि- चाहिये। घात नहीं किया जाता पर हो जाता है । जैसे साधारणतः वनस्पति का तक्षक घात भी आरखती में या रोटी आदि बनाने में। म्भज सम्झना चाहिये। उद्योग के नाम पर मछली पकड़ना या स्वाशक-अपने रक्षण के लिये या पशुवध करना आरम्भज घात नहीं है क्योंकि अपने तक्षण भक्षण की सम्भावना हा तो उसने इसमें प्राणिवध का संकल्प होता है जब कि बचने के लिये घात करना स्वरक्षक घात है । आरम्भ में प्रणिवर का संकल्प नहीं होता। जैसे रास्ते में पड़नेवाले जंगल में शेर रहता है ___ हल चलाते समय कोई बड़ासा प्राणी मर वह मिलने पर निरपराध ही घात कर सकता है जाय तो यह आरम्भज घात ही होगा जब कि तो उसका घात करके रास्ता साफ करना स्वरक्षक चुनचुन कर छोटे कीड़ों को खाना भक्षक घात घत है। इसी प्रकार मच्छर आदि का घात भी होगा। स्वरक्षक घात है। प्रश्न-अनाज के पौधों के साथ जो दूसरे सम्पर्क में आते ही घात करने का जिन पौधे उगते है जो अन्नके पौधों को नुकसान का स्वभाव है, जैसे बिच्छू, थोड़ा सा निमित्त पहुंचाते हैं उनका घात तो संकल्पपूर्वक किया मिलते ही तीन घात करना जिनका स्वभाव है, जाता है उसे आरम्भन घात कैसे कह सकते है ! जैसे सर्प, या भक्षण के लिये घात करना जिन उत्तर-बह एक तरह का स्वरक्षकघात है। का स्वभाव है जैसे शर, ऐसे प्राणियों से अपनी यह एक बात और ध्यान में रखना चाहिये रक्षा करने के लिये पहिले से सतर्क होना पड़ता कि वनस्पति का तक्षक भक्षक घात भी क्षन्तव्य है इस प्रयत्न में उनका घात करना पड़े तो यह है। क्योकि एक तो मनुष्यादि की अपेक्षा बन- खरक्षकघात होगा । सनि की चतन्यमात्रा बहुत कम है, दूसरे वन- ९पमादज-प्रमादज घात वह है जो भाति के सिवाय और कोई पदार्थ जिम में कम लापर्वाही से हो जाता है जैसे बिना देखे खिड़की Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग में से कोई चीज फेंकी और किसी रास्तागीर पर पड़ी अथवा गाड़ी आदि चढ़ाने में ऐसी लापर्बाही की कि किसी प्राणी को चोट पहुंची यह प्रादजातद्यपि एक तरह का तक्षक है पर अम्पमात्रा में है, तक्षक और इसकी भावना में इतना अन्तर है कि इसे अलग ही कहना ठीक है। हां, या भाग्य की तरह यह निर्दोष नहीं है। इसका करनेवाला अमुक अंश में अपराधी है, भले ही वह तक्षक के बराबर अप रात्री न हो । १० अविवेकानन्द के वश में होकर मनुष्य जो प्राणिघात करता है वह अधिवेशनात है । जैसे देवताओं को प्रसन्न करने के लिये पशुबलि करना आदि। अविवेकज धात का विशेष रूप वर्धकत के प्रकरण में भा गया है । - ११ चाधकघात स्वार्थवश अपना दोष ढँकने के लिये, दण्ड या प्रायश्चित से बचने के लिये, आत्मघात करना है। जैसे अपराधी सिद्ध होने पर दण्ड या बदनामी से बचने के लिये अपना सिर पीटने लगना, अपने को गाली देने लगना आदि। जहां कुछ निकटता का व्यवहार होता है प्रायः वहां ऐसा घात हुआ करता है। एक कुटुम्ब में रिश्तेदारों में, किसी संस्था में, पड़ोसियों में अचया साधारण परिचितों में विरोध या झगड़ा होने पर लोग इस तरह का बाधक घात करने लगते हैं । इसी उद्देश्य को लेकर कोई कोई लोग आत्महत्या ( अपना जीवनघात) भी कर जाते हैं। बाधक त एक तरह के सीन का परिणाम है यह एक तरह का भयंकर न्यायविद्रोह [ २९८ जगत की दुर्दशा इन बाधक म्याय में बाधक है, चोर जैसी दुर्व्यवस्था होगी वैसी घातकों से होती है क्योंकि ये होते हैं । पूनम में भी दूसरों के लिये अपना घात किया जाता है और में भी यही किया जाता है, फिर दोनों में अन्तर क्या रहा ! उत्तर- साधकान में घातक का पक्ष न्याययुक्त होता है और अन्य साधक दूसरों का अन्याय दूर करना चाहता है, सुधार करना चाहता है और बाधक अपने अन्याय का दमन नही होने देना चाहता । साधक में विनय और सुहै, बाधक में अकार, छड, कोन और उदण्डता है। साधक अन्यायको नम्रता से नष्ट करना चाहता है, बावक अपने अन्याय को उत्तेजन देना चाहता है और फिर भी दूसरों की समानुभूति पाने की ता करना चाहता है। एक आचार्य अपने शिष्यों की का प्रायश्चित्त खुद करता है इसलिये वह रस का व्यागकर रूक्षभोजन करने लगता है यह सापक है, एक शिष्य कोई गलती करता है या झूठ बोलता है और जब उसका यह दोष बत या जाता है तब क्रोध में आकर खाना बन्द कर देता है और कोई कष्ट उठाने लगता है जिससे दूसरे लोग उसे दोषी न समझे, उसे प्रायश्चित या दंड न उठाना पड़े तो यह बाधक है। यहाँ इस वञ्चक शिष्य और जमीन आसमान का तपस्वी आचार्य में अन्तर है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९९ ] सत्यामृत - -- - - - बाधक घात का परिणाम बहुत खराब होता सताना, धर्मस्थानों के सन्मान के नाम पर है, बाधक घाती का पतन होता है इसेर लोग अपने अहंकार का पोषण करने के लिये जबउसके सम्पर्क में रहना पसन्द नहीं करते इस दस्ती या छल से दूसरों की सुविधाएँ छीनना, प्रकार वह घृणित और दुष्ट हो जाता है। किसी की निर्दोष स्वतन्त्रता में हस्तक्षेप करना मौज शौक के लिये किसी के प्राण लेना पश्न- अपना जीवन जब बिलकुल निरुपयोगी (शिकार ) या सताना, आदि नाना तरह के हो जाय, अपने को भी शान्ति न हो और दूसरों घात तक्षक बात है। पर भी बोझ होता हो ऐसे अनिष्ट जीवन का शान्तिपूर्वक त्याग कर देना कौनसा घात है ! पश्न-शिकार को तक्षक घात क्या कहना वैदिक धर्म जैनधर्म में इस प्रकार समाधिमरण चाहिये।शिकार तो क्षत्रियों का व्यायाम है इस करनेवालों की प्रशंसा की गई है। .. के बिना वे युद्ध में क्या कर सकेंगे शिकार के उत्तर- साधारणतः मनुष्य को जीवन और बिना क्षत्रियत्व को खुराक न मिलेगी और क्षत्रिमरण की तरफ से निरपेक्ष रहना चाहिये । न यत्व नष्ट हो जायगा । दूसरे मनुष्य अपने को ता जीवन की तीन लालसा हो न जीवन के कुचल देगे। दुःखों से घबराकर मरण की चाह, और न मरण उत्तर. अब तो युद्ध के साधन ऐसे बदल का भय हो । वह विश्वकल्याण में लगा रहे उसके गये हैं कि शिकार करने से आज के युद्ध का लिये अधिक से अधिक जीने की कोशिश करे अभ्यास नहीं हो सकता उसके लिये वम और और अगर मौत आ जाय तो बिना किसी विशेष हवाई जहाजों की जरूरत है। इनकी अजमाइश क्षोभ के मरने के लिये तैयार रहे। हा, कम के लिये पशुहत्या की जरूरत नहीं है। दूसरी कभी ऐसा अवसर आ जाता है कि जीवन से बात यह है कि अन्य जड़ वस्तुओं के सम्बन्ध से विश्वकल्याण नहीं हो पाना, अपना जीवन जगत समान का भी अभ्यास किया जा सकता के लिये दुदही जमा है तो उस प्रकार का है -- किया जाता है तब व्यर्थ पशुहत्या क्यों समाधिमरण साधक घात बायका का जाय । नहीं। लेकिन इसमें कपारका गोडा मी अंश तीसरी बात यह है कि युद्ध की आवश्यकता सदा नहीं रहेगी जब तक मनुष्य जंगली है तभी १२ नःकया-- को पर्वाह किये बिना को मारना तक्षकघात तक ये युद्ध हैं, एक दिन ऐसा आयण जव सम": .. . मरे पर चढ़ाई मनुष्य सामूहिक रूप में इतना जंगली न रहेगा। करना, बड़ा कहनाने के लिये दूसरों को वह दिन आयगा -- अवश्य आयगा । जबतक वह कचाटना, .... इच्छा के बिना दिन नहीं आया है तब तक युद्ध करने की क्षमता किसी प्रजा पर शामन करना, धर्म या जाति के अवश्य रहना चाहिये पर उपर्युक्त दो कारणों से अभिमानवश किमी का अपमान करना या उनके दिये शिकार की जरूरत नहीं है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग प्रश्न- शिकार का रिवाज न होता तो जंगल शेर, बाघ, चीता आदि जंगली जानवरों से भरे होते, मनुष्य को खेती करना, आना जाना भी कटिन होता, खेत शूकरों और अन्य जानवरों ने खालिये होते । उत्तर- जिस समय आपके लिये शिकार करना जरूरी था उस समय वह स्वरक्षक घात था, तक्षक नहीं। आज भी जितने अशी मे शिकार जरूरी है उतने अंशो में वह स्वरक्षक है । पर शौक पूरा करने के लिये निराध प्राणियों की हत्या करना तक्षक घात है जो कि पूरी तरह पाप 1 तक्षक घात- विश्वकल्याण के विरुद्ध किसी प्राणी को खाजाना या उसके जीवन का और किमी तरह उपयोग करना भक्षक घात है । यों तो तक्षक और भक्षक एक ही श्रेणी के पाप हैं पर कहीं कहीं तक्षक की अपेक्षा भक्षक में अधिक पाप है। जैसे मनुष्य को मार डालना एक बात है पर मनुष्य को खाजाना दूसरी । इसी प्रकार ऐसे भी प्रसंग है जब भक्षण से तक्षण में अधिक पाप होता है बहुत आदमी मांस खाजाँयँगे पर करुई का काम न कर सके बहुत से मांसभक्षी तो पशुवध देख भी नहीं सकते सिर्फ अभ्यासवश मांस खाजाते हैं । इससे मालूम होता है कि भक्षण की अपेक्षा तक्षण में कहीं क्रूरता की अधिक जरूरत होती है। इस प्रकार कहीं तक्षण अधिक पाप है कहीं भक्षण, इसलिये दोनों को बराबर कहना चाहिये । भजन तो है इसलिये उसे तक्षण के समान क्यों कहा जाय उसे सहज पाप ही क्यों न कहा जाय ! [ ३०० उत्तर - जो भक्षण सहज है वह सहन घात में शामिल किया जायगा क्योंकि उसे प्राणी रोक नहीं सकता पर ऐसा भक्षण जो रोका जा सकता है वह भी जब किया जाता है तब सहज नहीं कहलाता। अपनी जीवनरक्षा के लिये अपने समान या अपने से अधिक चतन्य प्राणी को खा जाना तो मक्षण वात है ही साथ ही अपने से कुछ हीन चैतन्य जाति के प्राणी को खा जाना भी भक्षण पत है। इसलिये मनुष्य जो करता है व भक्षण बात है आरम्भज या सहज घात नहीं । प्रश्न- जैसे जीवन निर्वाह के लिये वनस्पति के सिवाय दूसरा साधन न होने से वनस्पतिभक्षण क्षम्य है उसी प्रकार जहां के लिये पति इतनी मात्रा में नहीं है कि वहां के आदमी गुजर कर सकें तो उनके लिये मांस भक्षण क्षम्य क्यों न माना जाय ! उत्तर-- काफी वनस्पतियाळे देश की अपेक्षा वहां के क्षण में कम पाप है यह शौक निथित है क्योंकि नहीं है, विवशता है, परन्तु दृष्टि से की हार और मांसाहार में जो जमीन आसमान का अन्तर है वह न भुलाना चाहिये । ' चलते फिरते प्राणियों की अपेक्षा वनस्पति की इतनी कम है कि उसे नगण्य कहा जा सकता है' यह बात तो है ही साथ ही एक बात और है कि वनस्पति के पुरे की बहुत कम होती है। अन्न के मौसमी झाड़ तो सूखने पर ही काटे जाते हैं । स्थायी वृक्षों के फल फूल अलग होने के लिये ही होते हैं, उन्हें अलग न करो तो झाड़ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत उन्हें स्वयं गिरा देते हैं, चलते फिरते प्राणियों के उत्तर-- यह भी भक्षक घात है इसलिये अंग न तो इस प्रकार कट कटकर गिरते हैं पाप है । हां यह बात अवश्य है कि सीधा मांस न कटने पर नये आते हैं। वृक्षों को नीचे से लेने की अपेक्षा मांस के द्वारा बनी हुई दवाइयों भी काटो तो फिर बढ़ते हैं बल्कि कोई कोई वृक्ष में कम पाप है क्योंकि इससे प्रत्यक्ष मांसभक्षण काटने से तीव्र गति से बढ़ते हैं जब कि पशु की आदत नहीं पड़ती, मांसभक्षण से आंशिक पक्षी आदि में यह बात नहीं होती। इसलिये ग्लानि बनी ही रहती है । बहुत से लोग मछली वनस्पत्याहार और मांसाहार बराबर नहीं समझा का तेल पी जाते हैं फिर भी मछली नहीं खा जा सकता, हां, मांसाहार वहां कम पाप कहा मकने फल यह होता है कि मछली का तेल पी जा सकता है जहां वनस्पति काफी न जाने पर भी मांसभक्षणा की आदत नहीं पड मिलती हो । पाती। हां, इस प्रकार कम पाच होने पर भी प्रश्न- जहां मंसाहार के बिना गुजर नहीं पाप अवश्य है इसलिये ऐसी दवाइयों का भी होती उस जगह के लोग क्या आत्महत्या करले ? न्या। करना उचित है । जहां निष्पाप जीवन बिताया नहीं जा सकता प्रश्न- अधिकांश बीमारियों से शरीर में वहां जिन्दा रहने गे क्या लाभ ! एक तरह के कीटाणु पैदा होते हैं चिकित्सा उत्तर- आत्महत्या करने की अपेक्षा वह करने से उन क! घात अवश्य होता है तो चिकित्सा देश छोड़ देना अच्छा, पर हो सकता है कि की जाय या नहीं। यह सम्भव न हो कदाचित् एकाध व्याक्ति को उत्तर- अवश्य की जाय । कीटाणु मारना सम्भव हो पर अभिनय को न हो इसलिये यह हमारा ध्येय नहीं है, रक्तशुद्धि या शरीरशुद्धि राजमार्ग नहीं है। माना या तभी उचित कही करना ध्येय है उस में अगर कीटाणु मरते हैं तो जा सकती है। मनुष्य को अपने निर्वाह के यह आरम्भज घात है, पाप नहीं है । बल्कि लिय दसरे भनष्यों . खर जाना पडता हो। कीटाणुओं का शरीर पर यह एक तरह का मी जगह निरकार र कर प्राण त्याग कर आक्रमण है, अक्रनगर... से रक्षा करना न्यायरक्षक देना चाहिये । पर जहां मनुष्य को उदरनिर्वाह घात है इसलिये यह और भी अधिक निष्पाप है। के दिन पशुगर ही करना पड़ता हो वहां आत्म- प्रश्न- गर्भ में बच्चा इस तरह फँसगया हो हत्या न करे सिर्फ कम से कम वध करने का कि बच्चे को बचाओ तो माँ को मारना पड़ता प्रयत्न करे ऐसी हालत में उसके लिये यह भक्षक है, मैं को बचाओ तो बच्चे को मारना पड़ता है बात न रह जायगा या बहुत कम रह जायगा, तो किसको मारा जाय या किसी को न मारा जाय ! यह आरम्भज घात बन जायगा । उत्तर-- किसी को न माराजाय तो दोनों प्रश्न- औषध के लिये जो कभी माम देते हैं या मर जायगे इसलिये एक का मारना जरूरी है देसी दवाइयां लेने है जिनमें पशु आदि का वध और वदर बर्थ का मारना। क्योंकि बच्चे की करना पड़ता है तो इसे क्या कहा जायगा ! अबका चैतन्य अधिक है। दूसरी बात Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग [ ३०२ यह है कि मां उपकारी है, उपकारी उपकार करते अभी तक सैनिक शक्ति का दुरुपयोग नहीं समय विपत्ति में फँसजाय तो उपकृत की अपेक्षा करता रहा है उस की सेना में भरती होने पर उपकारी की रक्षा करना न्याय है, इसलिये इसे सनिक युद्ध के पाप से निर्षित रह सकता है। न्यायरक्षक घात कह सकते हैं । ऐसी हालत में प्रश्न- असभ्य जातियों को सुधारने यह पाप न कहलाया। के लिये अगर उनसे युद्ध करना हो तो उसके प्रश्न-जब तक भगवती अहिंसा क साम्राज्य वि सेना में भरती होना पुण्य है या पाप! मान्य जगत् में स्थापित नहीं हुआ है तब तक उत्तर-सुधार के नाम पर अगर उन्हें हर एक राष्ट्र को आत्मरक्षा के लिये या अन्तर्रा- लूटना हो, उनकी मिहनत का फायदा उठाना स्ट्रीय न्यायरक्षा के लिये सेना तो रखना ही पड़ेगी हो तब तो पाप ही है परन्तु अगर उन लोगों में कोई आदमी उस सेना में भरती हो या, लटने अन्याय अत्याचार आदि फैले हों और उन्हें दूर गया तो उसके द्वारा होने वाले वात को करना हो तो पाप नी है। पाप किसे ! प्रश्न :दि दो आदमी ऐसी जगह पहुंच ___ उत्तर- लड़ाई के उद्देश्य और रीतिनीति के गये हैं ज; खाने के लिये कुछ भी मिल नहीं अनुसार उस की जिम्मेदारी लाइक सकत, दोनों का मरना निश्चितसा हो गया है इसपर है-सैनिक पर नहीं। हां, सनिक में : - लिये अगर उनमें से कोई एक दूसरे को मारकर क्रूरता आजाय, वैयक्तिक द्वेष आजाय, अहंकार खाजाय, इसप्रकार रास्ता तय करके पार पहुंच आजाय तो उतने अंश में वह अवश्य पापी है । जाय तो इसे लाभ ही कहना चाहिये। प्रश्न- क्या सैनिकों को न्यायिक उत्तर--कदाचित् किसी अवसर पर थोड़ासा बिलकुल न रखना चाम्यि, क्या वे जड़ पदार्थ हामहो सकता है पर स्थायीरूप में इतनी की तरह लड़ाई की जिम्मेदारी से बिलकुल मुक्त है ? हानि होगी कि इसे महापाप ही मानना पड़ेगा। उत्तर-बिन खास युद्ध में सहायता पहुंचाने के निम्नलिखित चार बुराइयों के कारण भी इस लिय जो सेना में भरती होते हैं उनपर तो युद्ध पथ का स्याग करना चहिय । के उद्देश्य आदि की पूरी निकरी है। अगर (क ) दोनों ही ए। दूसर को मारकर यद्ध अन्यायपूर्ण है, स.न.म्पाद को पोषण के स्वयं बचने की कोशिश करेंगे, इससे सम्भवतः यह तो उसके लिये भरती होने वाले सैनिक दोनों ही लड़कर मर जायेंगे। अथवा मरनेवाला पापी हैं. प. जो लोग सेना में स्थार्यारूप मारनेवाल को मृतकप्राय जरूर कर जायगा। से भरती होते हैं उन को सिर्फ इतना देख लेना (ख) संकट का आभास होते ही दोनों भित्र चाहिये कि सेना के सञ्चालको की नीति क्या मन ही मन एक दुसरे के शत्रु बन जं.येंगे है। किसी देश को गुलाम बनाने, अन्याय और जल्दी से दी एक दूसरे को मार डालने से शासन करनेवाले या महान राजा की के पयंत्र में लग जायगे । इसस जो कष्ट और सेना में भरती होने से सैनिक पर भी उसके अशान्ति हो वह उपेक्षणीय नहीं कही जा पाप की जिम्मेदारी है। साधारणतः जो शासक सकती । (ग) इस उतावली में प्रायः अनाव Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत श्यक हत्यायें भी हो जाया करेंगी, क्योंकि संभव प्रश्न- ऐसे अवसर पर अगर स्त्री, पत्र दास है कि वह विपत्ति इतनी बड़ी न हो जितनी कि आदि कोई व्यक्ति स्वेच्छासे आत्मसमर्पण करे तत्र उनने उतावली से समझली । (घ) इमसे जो तो उपर्युक्त दोष निकल जायेंगे ! मानसिक अधःपतन होगा, विश्वासघात आदि उत्तर- परन्तु ऐसी अवस्था में वे स्त्री, पुत्र, की वृद्धि होगी और समाज की मनोवृत्ति में जो या दाम इतने महान् उच्च और पूज्य हो जायेंगे बुरा परिवर्तन हो", : बहुत अधिक होगा। कि कोई भी व्यक्ति, जो उन के बलिदान पर प्रश्न...र के उदाहरण में हम दो मित्रों जीवित न कहना है, उनमें अधिक योग्य न को न लेकर दम्पति को तं. अमरक्षा के रह सकेगा। ऐसी : उनका बलि लेना लिय पुरुष के दूर बी का वध होना उचित दस लकड़ी की रआके लिये चन्दन जन्टाने है या नहीं ? पुरुष की अपेक्षा स्त्री के समान होगा। की योग्यता कम होती है। प्रश्न -- एक मनुष्य एसा है, जिस पर उन 20 में .छ भी अन्तर सेकड़े का जीवन या उन की उन्नति अवलम्बित नई है, बल्कि उसकी है। यह अगर अपनी पक्षाके लिये किसी साधारण मर र होने से परुष की मनुष्यका अनिकाय परिस्थिति में वध करे तो उस जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। इसलिये मित्र की का यह कार्य निदोष कहा जा सकता है नहीं ? अपेक्षा पति का " और अधिक हानि- उत्तर-इक ये चार बातों का विच र प्रद है । प र कार जो मैंने क, ख, करना चाहिये । (अ) मैं हजारों का अवलम्बन , गं, ध, नम्बर देकर आपत्तियों बतलाई हैं वे यहां इसका निर्णय यह स्वयं न को किन्तु वह को, भी ज्यों की त्यो लागू है। योग्यता की दृष्टि से जिसे अपने जीवन का बलिदान करना है । भी इसका न होता, क्योंकि यहां पशु- (आ) बलिदान सेवक होना चाहिये । (इ) 24 से निर्णय नहीं करना है, इस नौकर का भाव नहीं परन्तु समाजपाप करना । सुखानुभव रक्षाका भाव होना चाहिये । (ई) 'मेरा यह कार्य करने की जो शक्ति पुरुष में है स्त्री में उमसे आरक्षा के लिये है या नमः लिये इस कम नहीं है। समाज के लिये पुरुष जितना प्रकार के संदेह का विषय बनने से तथा दूसरे आवश्यक है खी उमस कम आवश्यक नहीं है। की बलि के ऊपर अपनी जीवन रक्षा होने से परिस्थिति के अन्तर सन २ कार्यक्षेत्र जुदा उमेरक पश्चात्ताप होना चाहिये। है, या ना ये शत बहुत कड़ी शत है, सूक्ष्म होने से . .. ये खी-पुरुष भी इनका पालन बहुत कठिन है। साथ ही ये नत्र :, "दन अपान, अंकगरीब आदि अपवाद के निर्णय के लिये हैं इसलिये अपने म. ... ... ... । अन्यथा तन तथा धनीति पर आघात होने की क., , ग, घ थाले उपयुक्त दीप बहत्त भयकर बहुत सम्भावना है । इसलिये बहुत सतर्कता के आप धारण कर लेंगे। साथ इस अपवादका पालन होना चाहिये । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग प्रश्न-प्रकृति जैसे पशुबन के आधार पर लगा कि अधातव्रत में किन किन घात को चुनाव करती है तथा इसी मार्ग से विकास भी स्थान है। पर इतना और समझना चाहिये होता है, धर्म में भी उसी नीति का अवलम्बन कि अधात व्रत में किसी किसी अधात को भी क्यों न किया जाय! स्थान नहीं है। जैसे घात होने से ही उत्तर---प्रकृति और धर्म के लक्ष्य में बहुत होजाता उसी प्रकार अघात होने से ही संयम हो जाता। कुछ अपात संयम रूप अन्तर है। विकाम ही नहीं होता, दुःख सं यम रूप है कछ संयम असंयम से रूप भी होता है । प्रकृति की दृष्टि में सुख और सम्बन्ध नहीं रखते । इस प्रकार अघात के भेदों दुःख में कोई अन्तर नहीं है। उसके लिये तो। को भी समझ लेने से प्राणरक्षण व्रत का पूरा रूप स्वर्ग भी विकास है, नरक भी विकास है। परन्तु ध्यान में आजायगा । अघात सात तरह का होता धर्म का सम्बन्ध सुख से है, वह स्वर्ग को उन्नति है।९प्रेमज,२ अशतिक, ३निरपेक्ष ४ कापटिक, और नरक को अवनति कहता है। प्रकृति की कसौटी को अगर धर्म भी अपना ले तो धर्म की : ५ स्वार्थज, ६ मोहज, ७ अविवेकज । १ कोई जमरत नहीं रह जाती है। क्योंकि प्रकृति प्रेमज--वि .वीतरागता, अकषायता तो आना काम अपने आप कर रही है, उसका आदि एक ही बात है इसके आधार से जो भूलमधार अगर धर्म नहीं करना चाहता तो अवात होता है उसे प्रेमज अघात कहते।। उसकी जरूरत क्या है ? विकास का अर्थ है प्रेम और मोह में जो अन्तर है वह आचार कांड बढना, धर्म प्रकृति के बढने को नहीं रोकता के दूसरे अध्याय में बता दिया गया है, इसलिये प्रेम किन्त प्रकृति की जो शक्ति नरक की तरफ के विषय में यहां विशेष नहीं कहाजाता । प्रेमज बढ़ने में खर्च होती है उसे वह स्वर्ग की तरफ ले अघात को बन्धुत्वज अधात भी कहते हैं। यही जाता है, सुख की तरफ ले जाता है। इसलिये अपात वास्तविक अधात है। प्रकृति की और धर्म की कसौटी में थोड़ा फरक है। २ अशक्तिक-मन में तो घात करने का १ प्राणरक्षण व्रत विचार है पर शक्ति न होने से घात नहीं किया जाता है यह अशक्तिक अघत है। बहुत से हो.. गणघात के तेरह भेदों को समय लेने पर ___ अपनी कमजोरी को प्रबोधनी टोकसाधना का प्राणरक्षण व्रत या अघातबत का रूप ध्यान में रूप दिया करते हैं पर उनकी बह लोकसाधना आजाता है । साधारणतः यह बात ध्यान में नहीं है अशक्तिक अधात है। रखना चाहिये कि प्राणरक्षणवती, यथायोग्य साधक वर्धक न्यायरक्षक घात करेगा, आरम्भज प्रश्न- कमजोरी के कारण रोनेधोने, हायस्वरक्षक में मर्यादा रक्खेगा, प्रमादज अविवेकज हाय करने, गाली देने आदि की अपेक्षा लोकन बाधक तक्षक भक्षक ये पांच घात न करेगा। साधना का रूप बनाना तो अच्छा ही है। इस प्रकार प्राणघात को लेकर प्राणरक्षण उत्तर--साधारणतः अच्छा है अधिकांश व्रत का रूप बनटदिया गया इसमे यह पता अवसरों पर काफी भी है। पर लोकसाधना नहीं Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ ] है । हां, मनसाधना हो अर्थात् अकषायवृत्ति हो तो लोकसाधना हो सकती है । खयाल रक्खो कि हो सकती है, होना जरूरी नहीं है क्योंकि लोकसाधना के लिये परिस्थिति के अनुसार फलाफलविवेक होना जरूरी है । लोकसाधना कहलाने के लिये निष्फलता के मार्ग में बिना विचारे दौड़ते जाना लोकसाधना नहीं है । सत्यामृत प्रश्न- निष्फलता के मार्ग से डरना क्यों चाहिये, फल की पर्वाह न करना तो कर्मयोग का चिन्ह है। डरना उत्तर- निष्फलता से कदापि न चाहिये किन्तु निष्फलता से न डरने का मतलब फलाफल का अधिवेक नहीं है । सफलता के मार्ग में जाते हुए भी अगर हम सफल नहीं हो सके और हमारा जीवन परा हो गया तो इसे असफलता का मार्ग नहीं कहते, मार्ग वह सफलता का ही कहलायेगा | कामास अपना साम्यवाद जीवन में सफल नहीं देख सके पर वह मार्ग असफलता का नहीं था । म. ईसा तथा अन्य महात्मा आदि भी जीवन सफल नहीं हो पाये थे तो भी उनका मार्ग सफलता का ही था। वे असफलता से निर्भय रहे और सफलता के मार्ग पर चले इसी से बे मनसापका जीवनसाधक के साथ लोकसाधक भी थे। प्रश्न- तब तो संहारिणी के स्थानपर प्रबो धिनी लोकसाधना का प्रयोग करनेवाला भी सुपथपर चाय क्योंकि कभी न कभी तो थोड़े बहुत अंशों में सफलता होगी ही । उत्तर- सफलता असफलता के मार्ग का निर्णय ध्येय के अनुसार होता है। एक आदमी का श्रेय है मानव समाज को अधिक से अधिक ईमानदार बनाना है, इसलिये यह आदर्शदर्शनी लोकसाधना करता है यह उचित है अगर जीवन भर वह सिर्फ एक आदमी को ही ईमानदार बनापाया अथवा अगर वह सिर्फ अपने को ही ईमानदार बनापाया तो भी हम कहेंगे कि वह सफलता के मार्ग पर था और अमुक अंशों में सफल हुआ । परन्तु मानलो उस आदमी से किसी ने कहा कि यहाँ गुंडे बदमाश बहुत आते हैं इसलिये तुम इस सती साध्वी नारी के सतीत्व की रक्षा करना, उसने उसके सतीत्व के रक्षण का भार अपने ऊपर लेलिया और जब गुंडे आये तब संहारिणी का उपयोग न करके वैफल्यदर्शनी और प्रेमदर्शनी आदि प्रबोधिनी लोकसाधनाओं का उपयोग करने लगा, गुंडों को यह सिखाने के लिये कि सतीत्व भंग करने में सच्चा सुख नहीं है उसने सतीत्व भंग करने दिया और जब गुंडे अत्यचार करके कुछ सीखे बिना ही चले गये तब सोचने लगा- 'अच्छा, आज तो इन्हें मैं कुछ नहीं सिखापाया कल फिर इन्हें इसी तरह सिखाऊंगा, कभी न कभी ये सीख ही जॉयगे, अगर मैं न सिखा पाऊंगा तो मेरी सन्तान सिखायेगी' यहाँ लोकसाधना असफल नहीं है असफलता के मार्ग में भी है । यह मूढ़ता है अविवेक है । ऐसे अवसर पर अशक्ति हो तो प्रबोधिनी लोकसाधना का ढोंग करने की अपेक्षा गाली देना चिल्लाना आदि संहारिणी साधना न होगी पर कुछ तो होगी, अच्छा । इससे इतना ही होगा कि काफी दंभ तो न होगा । इसीलिये चिल्लाने रोने धोने की अपेक्षा प्रबोधिनी लोकसाधना को मैंने साधारणतः अच्छा कहा है क्योंकि कभी कभी पाप के विरोध में चिल्लाना आदि अच्छा ही होता है । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग कमजोरी की ओट में प्रबोधिनी कमावनः सकती है। पर जब तक वह प्रेमज अधात नहीं का रूप दिखाना कभी कभी कुछ अच्छा भले ही बन जाता तब तक उसे संयम नहीं हो पर यह साधना नहीं है संयम नहीं है, बहुत कह सकते। से बहुत वह चतुराई है। कापटिक -- के लिये अपात का ३ निरपेक्ष-जिनके घात से हमारा कुछ मत- ढोंग करना कापटिक अघात है । अघात के लब नहीं निकलता उनका घात न करना निरपेक्ष ढोंग के कई कारण हो सकते है, कोई महान अघात है । एक आदमी को कौवे का मान सन्द धात कराना या अपनी लापर्वाही कायरता नहीं है इसलिये वह कौवे का शिकार नहीं करता आदि छिपाना अहंकार का पोषण करना यह निरपेक्ष अघात है, यह भी संयमरूप या आदि। प्राभार-गवत रूप नहीं है। से इस आशय से किसी योग्य चिकित्सा प्रश्न-एक पौराणिक कथा है कि एक भील में मुम प्राणियों के घात का बहाना बनाना कि को एक साधु ने दया धर्म का उपदेश दिया। अगर यह जिन्दा रहेगा तो अमक काम में बाधक भील का धंधा शिकार था इसलिये वह प्राणरक्षण होगा इसलिये जितनी जल्दी यह मरजाय उतना व्रत स्वीकार न कर सका पर साधु के करने से अच्छा । यहां उसे मार डालना लक्ष्य है पर सूक्ष्म उसने यह सोचकर कौवे का मांस छोड़ दिया कि प्राणियों के अबान का बहाना है यह कापटिक उसे कौवे का मांस पसन्द नहीं है। कथाकार ने अघात है। उस भील की तारीफ की और उसका फल भी अपने को पुजबाने के लिये, दूसरों को अच्छा बताया। जब यह संयमरूप नही हे तो धोखा देकर धन छूटने के लिये सक्ष्म अघातों को कथाकार ने भील का समर्थन क्यों किया ! जरूरत से ज्यादा महत्व देना भी कापटिक अघात उत्तर-कौवे के मांस का निरपेक्ष त्याग तो है। संयम नहीं था, पर भील को प्रतिज्ञा लेने की प्रश्न--किसी ने अमुक प्रकार का शान्तिमय आदत पड़ी, बन्धन ढीला ही क्यों न हो पर पवित्र जीवन बिताने का निश्चय किया हो इसलिये उसमें वह बँधा, यह तारीफ की बात है। और बह किसी के काम में न पडता हो अर्थी उप जब एक वैद्य ने दवामें कौवे का मांस बताया पर संन्यास योगी हो तो क्या उसके अघात को भी प्राणत्याग देने पर भी उसने उसे स्वीकार न कापटिक अघात कहा जायगा। किया तब वह निरपेक्ष अघात न रहा प्रेमज अचान उत्तर- सन्यास योगी में कपट नहीं होता बनगया इसलिये कथाकार ने भील का समर्थन उसका कोई अनुचित स्वार्थ नहीं होता इमलिये किया। उसमें कापटिक अघात नहीं माना जाता । अघात मनाय को संयम की तरफ झुकाने के लिये कापटिक है या प्रेमज इसका निर्णय उसके परिनिरपेक्ष अबात की भी प्रतिज्ञा दिलाई जाय तो णामों पर निर्भर है । कापटिक अघात असंसंयम की शिक्षणप्रणाली की दृष्टि से उचित हो यम है पाप है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७] मत्यामृत ५ म्वार्थज-शान करने में स्वार्थ का नाश जा सकती हैं। इसके अनुसार अन्नपान घरद्वार होता है इसलिये घात नहीं करना स्वार्थज अघात जमीन रुपया पैसा आदि के साथ यश भी अर्थ है है। एक कसाई भी अपनी दुधारू गाय को क्योंकि यह भी काम जीवार्थ का अंग है । अर्थ नहीं मारता, यह स्वार्थज अघात है। इस का शब्द का मतलब यहाँ ऐसा ही व्यापक है । यह संयम असंयम से कोई सम्बन्ध नहीं। यह विनिमय अर्थात भी दुःख का कारण है इसलिये यह भी व्यवहार है। हिंसा है और इस का त्याग अहिंसा है। ६ मोहज-मोह के कारण किसी का घात यहाँ भी इस बात का खयाल रखना चाहिये न करना मोहज अघात है । पशुपक्षी भी मोह के कि बाहरी अर्थघात से ही अर्थात का पाप न कारण अपनी सन्तान की रक्षा करते है। यह न होजायगा । उस में व्यवहाराञ्चक के अनुसार तो संयम है न असंयम । विचार करना होगा । अर्थात अगर वर्धन या ७ अविवेकज-अन्धश्रद्धा आदि के कारण। रक्षण के लिये किया जाय तो वह पाप न होगा, घात अघात की मात्रा का विचार न करके ऐसा विनिमय के लिए किया जाय तो क्षम्य होगा अधात करना जो अधिक घात पैदा कर जाय यह तक्षण भक्षण के लिये किया जाय तो पाप होगा। अभिषेकज अव.न है। जैसे-प्राणियात के डर से इस व्यवहारपंचक के साथ प्राणघात की द्वारीर की या घर की आवश्यक सकाई भी न करना तरह तेरह भेदों में भी अर्थघात का विवेचन किया । गंदकी से भले ही कई गुणी प्राणिहिसा होती रहे। जा सकता है । यद्यपि अर्थघ,त के पाप को इन मान प्रकार के अघातों में प्रेमज अघात । अच्छी तरह समझने के लिये वह विशेष उपयोगी ही वास्तविक अघात है संयमरूप है । अशक्तिक नहीं है फिर भी कुछ साधारण परिचय के लिये निरपेक्ष स्वार्थज मोहन का संयम से कोई सम्बन्ध उन तेरह भेदो में अर्थघात का विवेचन कर दिया नहीं पर इन्हें निंदनीय भी नहीं कह सकते। जाता है। अविवेक कुनिंदनीय है जब कि कापटिक १साधक-याग्रह आदि में सम्परि खर्च पुरी नाह मनाना है। करना कराना साधक अर्थधात है। इस प्रकार प्राणरक्षण व्रत घात अघात का २ वर्धक--दान वगैरह में सम्पचि खर्च समन्वय है जो कि विवेक के द्वारा किया जा- करके विश्वसुख की वृद्धि करना कराना । सकता है। ३ न्याय रक्षक-उचित दंड या प्रायश्चित्त २ ईमान या अचौर्यव्रत के रूप में सम्पत्ति लेना। प्रत्येक नाणी को प्राणों के बाद अगर सब ४ सहज-सहज प्राणघात की तरह सहज से अधिक महत्त्व की कोई चीज मालूम होती है अर्थात नहीं होता क्योंकि जैसे अपने जीवन को नो यह अर्थ अर्थात् धनादि है। अर्थ का मतलब टिकाये रखने के लिये दूसरे के प्राणों का प्राकृसिर्फ रुपया पैसा ही नहीं है किन्तु वे सब तिक नियम के अनुसार नाश करना पड़ता है चीजें हैं जो हमारे काम की हैं और चुराई वैसा अर्थघात नहीं करना पड़ता अर्थ व्यवस्था Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग [ ३०८ प्राकृतिक नहीं सामाजिकी इशिने सूक्ष्म अर्थधात ९ प्रमादज से किसी की चीन अर्थवात ही नहीं माना जाता है। जैसे मैंने अपने नष्ट कर देना आदि प्रमादज अर्थात है। सोने में काम लगाई उसकी बाहर १० प्रविषकन अन्धश्रद्धा आदि के कारण भी जा रही है और उपयोग दूसरे लोग भी अपनी या पराई सम्पत्ति इस प्रकार वर्च करना कर रहे है तो भी यह अर्थघात न कहलाया। जिससे मानव जीवन को कोई लाभ न हो और बाहर से मेरे बगीचे की गंध लेनेवाला चोर नही यह सम्पत्ति व्यर्थ जाय । जैसे अछे अछे खाद्य .. कहलाता है । इस प्रकार समाजने अगर कहीं पदार्थ धर्म के नामपर आगमें जला डालना आदि। चोरी टहराई ही हो तो वह सहजघात न कहलायगा, भक्षक कक्ष टायगा । 4हृदय के आकर्षण के लिये ५मायज--प्राणघात की तरह । अन्तर और वायुशुद्धि के लिये उपयोगी है। इतना ही है कि यहाँ बम आदि से प्राण-नाश मानने अंश में उपयोगी हो उतने है यहाँ धन-नाश है। अंश में करना चाहिये पर इन तीन बातों का ६ भ्रमज-भ्रम से सम्पत्ति का नाश हो- खयाल रखना चाहिये (१) खाद्य पदार्थ या अन्य जाना। कोशिश की जाय धनके अर्धन और रक्षण उपयोगी पदार्थ न जलाये जायें (२) जितना लिये, और हो जाय नाश तो यह भ्रज अचात जन्लाना वायशुद्धि के लिये उतना ही कहलायगा । अच्छा भोजन बनानक लिप कोशिश जलाया जाय (३) वायुशुद्धि र विक की किन्तु गल्ती से हो गया खराब। दुसरा कोई नुकसान न होजाय । अगर इन तीन आरम्भजायोचि, उद्योग तथा जीवन- बातों के अनसार होम ठीक न .:-मित्र निर्वाह के लिये होनेवाला दूसरों का अर्थनाश लोगों के के लिये ही उपयोगी आरम्भज अर्थधान है । अगर हम बाजार में कोई ते गथामाय शीघ्र दूसरे किसी टोगों का दूकान लगाते हैं तो अवश्य दूसरे कमरे के " किया जाय और होम -विषयक उनकी कुछ न कुछ ग्राहक खींचकर उनका अथंघात भावना बदली जाय । करते हैं पर इसके बिना चल भी नहीं सकता, ११ बाधक- स्वार्थवश अपना दीप ढंकने जीविका के क्षेत्र में इस प्रकार का अर्थघात के लिये, दाण्ड या प्रायश्चित्त से बचने के दिये स्वाभाविक है और भी उदाहरण मिल सकते। पैसा लुटाने लगना, चीज़ों की तोड़ में करने हैं। जैसेयों आदि से दुध लेना । लगना आदि बाधक अर्थधात है। म्वरक्षक-माने न्यायोचित रक्षण के दिये दुसरे का अर्थवान पर पड़े तो स्वरक्षक १२ नमक- अहंकार - देववश दूसरों की धात है। जैसे-कोई अपने धनबल से हमें लूटना सम्पत्ति नष्ट करना, यश नष्ट करना आदि तक्षक चाहता है या कोई सानयादी रद हमें अर्थबात है। अपनी जी ने सनः चलना है तो उसकी : :नि १३ भक्षक-चोर, डकैती आदि भक्षक का अपहरण करलेना स्वरक्षक अवधात है। अर्थघात है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९ ] अर्थात के तेरह भेद यहां संक्षेप में दिये गये हैं प्राणघात के तेरह भेदों के अनुसार इनका अच्छादुरापन समझ लेना चाहिये । पर atraहार में अर्थघात के पाप से बचने के लिये इतना विवेचन काफ़ी न होगा । अर्थघात के विचार का ख़ास मुद्दा यह है कि लोग चोरी से बचें । बहुत से आदमी चोरी से बचना चाहते हैं। पर कुछ चोरियों को चोरी नहीं समझते - साधारण व्यवहार ही समझते हैं। उन्हें चोरी के भेदप्रभेदों से अपनी चेरी मादम होजायगी और उस चोरी के दुष्परिणाम से भी परिचित होजायेंगे । सत्यामृत चोरी के भेद हमें दो तरह से करने होंगे एक तो चोरी के पदार्थ की दृष्टि से, दूसरे चोरी करनेके तरीके की दृष्टि से दोनों ही बातों में बहुत से लोगों को भ्रम होजाता है। कोई कोई लोग अमुक पदार्थ को चोरी को चोरी नहीं समझते कोई कोई अमुक तरीके को चोरी नहीं समझते । पर उनके न समझने से चोरी का परिणाम रुक नहीं जाता इसलिये दोनों दृधियों से चोरी के भेद समझना चाहिये और उनका त्याग करना चाहिये। वस्तुकी दृष्टि से चोरी या चोर के चार भेद है १- धनचोर, २- नामचोर, ३उपकारचोर, ४- उपयोग चोर । 1 इन चारों का अर्थ सरल है। किसी भौतिक वस्तु को चुरानेवाला धनचोर है। किसी का यश छीन लेनेवाला, दूसरे की कृति को अपनी कृति बनानेवाला नाम-चोर है। अपने ऊपर किये गये उपकार को स्वीकार न करने वाला अर्थात् कृतन्न व्यक्ति उपकारचोर है । किसी वस्तु को चुराया तो न जाय किन्तु उसका चोरी से उपयोग कर दिया जाय यह उपयोग चोरी है। जो उपयोग सर्वसाधारण के लिये खुला हुआ हो या ख़ास तौर से अपने लिये खुला हुआ हो, जैसे किसी के बगीचे में सैर करना आदि, इस से कोई उपयोगचोर नहीं कहलाता । चोरी के ढंग की दृष्टि से चोर के छः भेद हैं। १- छनचोर, २ नज़रचोर, ३ ठगचोर, उद्घाटकचोर, ५ बलात्चार, ६ घातकचार । ऊपर कही गई चार प्रकार की वस्तुओं की चोरी छः छः तरह से होती है इसलिये चोरी के या चोरों के चौबीस भेद होजाते हैं । पहिले धन के विषय में ही ये भेद लगाये जाते हैं । ५ १-धन का छन्नवोर वह है जो वास्तव में चोर तो है पर उसके चोरपन पर व्यावहारिक सुविधा का ऐसा आवरण पड़ जाता है उसे चोर नहीं कहाजापाता । पर कह भले ही न सकें लेकिन उससे हमारा दिल चौकन्ना रहता है । जैसे झूठा बहाना बनाकर भीख माँगना । यहाँ चोरी का रूप है पर उसके ऊपर व्यवहार का ऐसा आवरण पड़ा है कि ऐसी चोरी करनेवाले चोरों में नहीं गिने जाते या सहज ही आरोप से बचजाते हैं । उन चोर कई तरह के होते हैं (क) विनिमयचोर (ख) विभागचोर (ग) अनुज्ञा चोर (घ) भिक्षाचोर (ङ) कणग्राहकचोर (च) प्रमादचोर (छ) उरणचोर (ज) विस्मृतिचोर (झ) मौनचोर (ञ) शब्द पचोर आदि । [क] विनिमयचोर मूल्य पूरा लेना पर उसका बदला पूरा न देना अर्थात् जितना जैसा माल ठहराया है उतना वैसा माल न देना । माप तौल गडबड करना, धोखे से मिलावटी चीज़ देना आदि विनिमय चोरी है। इसी प्रकार मज़दूरी या नौकरी पर जाना पर मालिक की नज़र बचाकर काम न करना, जिस वेग से काम करना चाहिये उस वेग से न करना आदि भी विनिमय चोरी है । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग [ ३१० दावा चालू रहता है । बहुतसी संस्थाओं के वस्तुओं के विनिमय में या परिश्रम के विनिक में इतने ढीले हैं कि वह कम से मय में थोड़ी बहुत नाविकता हो ही जाती है। कम, अधिक से अधिक बनजाता है फिर भी काम का वेग एक सरीखा नहीं रहता, दो चार कम से कम का मिनिट के लिये हाथ ढीला पड़ जाना या रुक साधु संस्था के जाना स्वाभाविक है पर इस स्वाभाविकता की ओट में मुफ्तयोरी पिना, आलस्य छिपाना, लोभ मोह छिपाना चोरी है । ति के बहाने से वह अपना शाब्दिक बचाव कर जाता है पर दूसरे का नुकसान तो होता ही है उससे वह दुःखी भी होता इसलिये यह चोरी छन्न होने पर भी समाज के दु:ख आदि तो बढ़ाती ही है। दूकानदारों की धूर्तता से बचने के लिये ग्राहकों को चौकन्ना रहना पड़ता है। समय और शक्ति बर्बाद करना पड़ती है मज़दूरों के कामचोरपन से रक्षित रहने के लिये महँगे निरीक्षक रखना पड़ते हैं फिर भी कामचोर अपना चोरपन दिखाते ही हैं इसलिये असन्तोष रहता है। इससे मज़दूरों की या दूकानदार आदि की इज्जत जाती है ग्राहक या काम करानेवाले की हानि होने से द्वेष, खेद आदि बढ़ते हैं । इस प्रकार यह छन्न चोरी मानव समाज के बहुत कष्ट बढ़ाती है, अविश्वास और द्वेष बढ़ाती है, पारस्परिक सम्मान नष्ट करती है। इसके साथ विनिमय की दर भी गिरजाती है ग्राहक मूल्य कम देता है, मालिक मज़दूरी कम देता है। इस प्रकार विनिमय चोरों का अर्थलाभ नष्ट सा ही होजाता है पर सामूहिक रूपमें मनुष्य समाज में अशान्ति द्वेष अविश्वास आदि बढ़कर दुःख बढ़ जाता है । में यह बीमारी पाई जाती है या आजाती है । ऐसे आदमियों को उतनी ही मिरी लेना चाहिये जितनी वे बिना खेद के निभा सकें और फिर उसके बाजारू मूल्य से कम मूल्य लै तब तो उनकी साधुता या सेवकता है अन्यथा विनिमय चोरी है। अपने पहिले के जीवन से अधिक आराम कोमल, तनकमिजाजी बन जाना, छोटे से छोटे बहाने की ओट में अकर्मव्यता का पोषण करना आदि विनिमय चोरी के कारण है। इससे साधुता और सेवकता कलंकित होती है, हमारा जीवन बोझ बनता है, अपयश और तिरस्कार भी सहना पड़ता है, अंत में संस्था नष्ट या नष्टप्रायः होजाती है, हमारा पतन होता है और समाज को हानि होती है । किसी के संकोच का अनुचित लाभ उठाना भी विनिमय चोरी है, जैसे कोई जनपरिचान का मित्र आया और उससे साधारण ग्राहक से भी अधिक मूल्य लेलिया क्योंकि वह संकोच अधिक बात कह नहीं सकता यह विनिमय चोरी है । एकबार एक भाईने एक दुकानदार से कहा आज तो तुम्हारी काफी बिक्री हुई। दुकानदार ने उत्तर दिया । हुई तो मगर उससे क्या, कोई जान पहिचान का ग्राहक तो आया ही नहीं। इस प्रकार के संकोची विनम्र हैं । किसी के संकट का अनुचित उपयोग कर लेना भी विनिमय चोरी है । जैसे एक आदमी भूख तड़प रहा है, उसके पास पैसा है पर खाद्य पदार्थ नहीं है उसकी इस परिस्थितिको जो लोग साधुता की और सेवा की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेलेते हैं पर उसे पूरी तरह निभाते नहीं हैं वे भी विनिमयचोर हैं। यद्यपि साधुता के नामपर वे समाज से कम से कम लेते Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११ ] जानकर भोजन के बदले में मनमाना दाम वसूल करना । सत्यामृत प्रश्न--- अर्थशास का नियम है कि जब माल कम होता है और आवश्यकता अधिक होती है तब चीज का मूल्य बजाता है, इस नीति के अनुसार मौके पर अधिक मूल्य लेना अनुचित नहीं है। उसका उत्तर - अर्थशास्त्र के नियम के अनुसार बाज़ार में जो साधारण उतारचढाव होता है सम्बन्ध विनिमयचोरी से नहीं है विनिमयचोरी वहाँ है, जहाँ हम व्यक्तिविशेष की कठिनाई से अनुचित लाभ उठाते हैं। ऐसे अवसर पर अगर हम उसे कुछ न करें तो अनुचित लाभ उठाकर पाना चहिये । (ख) किचेर कोई चीज़ बाटने के लिये किसी आदमी में दी, वह सब को बाँटने लगा परने में उसके कुछ कुटुम्बी या मित्रजन बैठे थे उन्हें उसने काफी अधिक हिस्सा दिया, सुमी ऐसा ही किया, बाकी सबका थोड़ा थोड़ा दिया यह विभागचोरी है । इस प्रकार के बाँटने में थोड़ी बहुत हो हो जाती है पर उस सहज न्यूनाधिकता की ओट में मोहवश मनुष्य जो पक्षपात करजाता है अपमान द्वेष ईर्ष्या खेद आदि पैदा कर सहयोग के टुकड़े टुकड़े कर देता है। गृह कलह आदि के मूल में प्रायः यह विभागचोरी हुआ करती है, इसके इरान कार्य विदा होते हैं। एक बार इसी तरह एक का विच्छेद होगा। दो भाई थे। दोनों के एक एक पुत्र एक कर पर में अन आप एक भाई एक अनाद उस कर दोनों लड़कों को बाँटने बैठगये 1 लगा । दोनों लड़के उसके दोनों तरफ हँसिया से अमरुद के दो टुकड़े किये गये तो दाहिने हाथ में जो टुकड़ा आया वह कुछ बड़ा था और बायें हाथ का छोय, साधारणतः उसे दाहिने हाथ का टुकड़ा दाहिनी तरफ बैठे लड़के को और बायें हाथ का टुकड़ा बायीं तरफ बैठे लड़के को दे देना चाहिये था पर मुश्किल यह और बाईं तरफ उसका लड़का था इसलिये उसने हुई कि दाहिनी तरफ उसके भाई का लड़का था हाथ बदलकर दाहिने हाथ का बड़ा टुकड़ा बायें तरफ बैठे हुए अपने लड़के को दिया और बायें हाथ का छोटा टुकड़ा दाहिने तरफ बैठे हुए भतीजे को दिया। दूसरा भाई दूर पर खड़ा था उसकी नजर में यह घटना आगई तब उसने कहा, अब हमारे तुम्हारे बीच में भेदभाव का अपने को अलग अलग होजाना चाहिये, इस पाप घुस गया है इसलिये बटवारा करके अत्र प्रकार वे अलग हो गये । से अलग अलग होगये अन्यथा अविभक्त कुटुम्बों बड़ा भाई समझदार था इसलिये दोनों शान्ति में होता यह है कि ऐसी ऐसी बातें कोई मुँह से नहीं कहता उनका बदला दूसरे रूप से निकालने लगता है । इस प्रकार पक्षपात का इतना दौरदारा होजाता है न एक तरह की दर सी मचजाती है कि बाद में सिरफुटीबल और न्यायालय और अन्तमें एक दूसरे के भयंकर शत्रु वनके झगड़ों में उसका रूप दुनिया देखती है । कर उस कुटुम्ब के चिथड़े चिथड़े होते हैं । इस सबके मूल विभागचे है | प्रश्न- में पूर्णरूप समविभाजन नहीं हो सकता है। जो अधिक सेवा देता है या जो कुका मुख्य है, गुरुजन है, पूज्य है, Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग अथवा कुछ कारणों से जिसकी आवश्यकता भारी है। जहाँ ये नहीं है, प्रेम विनय सफाई बहुत है ऐसे व्यक्ति के माय विनर और मन और निर्भयता है वहां नहीं है। कुछ विशेष रियायत करना पड़ती है। अगर इसे (ग अनुवानोर की अनुज्ञा की पर्वाह विभाग कहा जाय तो घर का काम चलना न करके ये के नाम पर दूसरे की चीज़ मुश्किल हो जायगा। ले लेना अनुज्ञा चोरी है। उत्तर- यकायोग्य विभाजन का नाम की एक श्रीमान् जी जो जरूरत से ज्यादा नहीं है । जहाँ विकार है वहाँ इस प्रकार कंजस थ भोजन करने के बाद एक गरीब आदमी की विषमता किसी को न तो असह्य होती है न के यहां तुरंत पहुँचते और सरीता माँगकर तुरंत किसी के मन में विकार होता है, मौनरूप में सर्व- सुपारी खाजाते । दो चार दिन तो बेचारे गरीब सम्मति य म न करती है, ऐसी आदमीन सेटजी की कृपा समझी, सरलता समझी घटनाओं में विभा चोरी नहीं है । यहाँ तो पर सेटजी का यह क्रम चलता ही रहा। अन्तमें औचित्यका खयाल रखा जाता है, जिनका गरीब आदमी को बहाने करने पड़े और सेठ जी रक्खा जाता है। विभागचौरी में मोह की इतनी से सुपारी बचाये रखने के लिये ऐसा ही सतर्क प्रबलता रहती है कि वहाँ .... . विनय- होना पड़ा जैसे चोर से सुरक्षित रहने के लिये न अविनय का विवेक नहीं रहता। पड़ता है। अच्छी चीज़ है पर इतनी प्रश्न-बिग में अगर गरीबों को- दीन मात्रामें न होना चाहिये किस रा और उसे दुःटियों को अधिक दिया जाय तो इसे क्या बेतकल्लुफी से बचने के लिये प्रयत्न करना पड़े। विभागचोरी कहेंगे! नाक के नामपर किसी की चीज उसकी उत्तर-यहां चोरी हो भी सकती है और इच्छा के बिना लेलेना और उसे ऐसी स्थिति डालना जिससे वह मना न कर सके एक तरह नहीं भी। अगर मालिक से छिपाने का भाव नहीं की चोरी है। है और न यश या धन्यवाद लूटने का भाव है, बल्कि गरीबों का आशीर्वाद स्वद न लेकर मालिक प्रश्न-व्यवहार में नेता बटन ही है इस को दिया जाता है और इसके लिये कहा जाता चोरी क्यों कहना चाहिये ! बात बात में तकल्लुफ है कि इसमें हमारी क्या बड़ाई है, हम तो सिर्फ करने से तो मनुम अकारक नर बन जायगा। बाँटनेवाले हैं उपकार तो उसका है जो इस माल उतर-बार बार में तकल्लुफ करना अतिको बँटवाता है आदि, तो गरीबों के साथ पक्षपात वाद है और बिलकुल लकड़क होजाना भी करना पुण्य ही है। अगर दूसरे के मालपर यश अतिवाद है। काली निरलिया है। अगर हम घोड़े लूटने की इच्छा है, और यह कहा जाता है कि सेमी विवेक से काम लें तो हमें यह समझने में मालिक तो अधिक देना ही नहीं चाहता यह तो देर न लगेगी कि कितनी नाम दूसरे को मैं हूं जो तुम्हें अधिक देरहा है, तो यह विभाग- अच्छी लगरही है या वह प्रसन्नता से सहसकता चोरी है। जहाँ मोह, अभिमान और छल है, वहां है बस उत्तन, वेतका अनुज्ञाचोरी नहीं है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ ] सत्यामत पर जहाँ हमारे मनमें लोभ है, ठगने की वृत्ति है करना और उससे जीविका चलाना कणग्राही छिपाने की भावना है उतने अंश में चोरी है। चोरी है। बहुत से आदमी खरीददार या व्यापारी क्योंकि जिसकी चीज लीजाती है उसे करीब बनकर दुकानों पर जाते हैं, मुट्ठी-आधी मुट्ठी करीब वैसा ही कष्ट होता है जैसा चीज चुराये अनाज लेकर भाव वगैरह पूछते हैं और नमूने के जाने पर होता है। बहाने वह मुट्ठीभर अनाज रखलेते हैं इस प्रकार -भिक्षाचौर-- अकर्मण्यता आलस्य आदि बीसों दुकानों से काफी अनाज इकट्ठा करलेते हैं के कारण भिक्षा को एक जीविका बनालेना, वे कगन हीचौर है। झूठी जरूरत बताकर लोगों से धन माँगलेना च-प्रमादचोर-अपने प्रमाद से दूसरे के आदि भिक्षाचोरी है । जो भिक्षा विनिमय के धनको अनावश्यक खर्च करनेवाले या लापर्वाही सिद्धान्त पर खड़ी है या साधुता के लिये है वह से खर्च करनेवाले, रक्षण की जिम्मेदारी लेकर भी भिक्षाचोरी नहीं है। पुराने समय में ब्राह्मण वर्ग रक्षण न करनेवाले प्रमादचोर है। जब समाज को निःशुल्क विद्यादान करता अगर हमें कहीं का प्रबन्धक बनादिया जाय था और समाज से भिक्षा लेता था वह विनिमय और यह सोचकर कि अपना तो कुछ खर्च होता का एक तरीका था-भिक्षा नहीं । मन को नही हे मालिक की इच्छा बाइर मनचाहा खचे माध भी मिला लें तो भी यह एक तरह का करें तो हम प्रमादचार है। विनिमय होगा--मिशा नही । पर अपनी झूठी दोनता बताकर जो योनी से धन ऐंटते हैं वे भी प्रश्न-बग्में हम कैसे भी रहे पर बाहर तो भिरभिन मंग के लिये जो साध हमें सभ्यता के खयाल से कुछ उदारता का होते ये भी मिलावर हैं। गलियों में परिचय देना ही पड़ता है। प्रबन्धक बनने पर भी अन रखकर भिक्षा मावाने, अपने बच्चों को हम ऐसा ही काम करना पड़ता है। इसमें प्रमादअनाव कइयाकर मिक्षा भगवानेवटे, अंगभंग चोरी क्या हुई! कदोग करनेवाले आदि भिक्षाचोर है। उत्तर-घरकी बातमें हम जितने चाहें उतने ___मन बने कि निः जहाँ विनिमय के उदार बन सकते हैं पर दूसरे के खर्च की जिम्मेलिये है या साधुता पर खड़ी है, अथवा अयोग्यता दारी जब हमारे ऊपर हो तब हमें सतर्कता के आदि के कारण भिक्षा के सिवाय जीवन निर्व साथ कमसे कम खर्च करना चाहिये । हां, अवसर का कोई साधन नहीं रहगया है अथवा सब अवश्य देख देना चाहिये, साथ ही जो उस धन कोशिश करने पर भी नौकरी मजदुरी आदि का अनदीखनी है या हमसे ऊपरी अधिकारी न मिलती है जबकि वह सब तरह के परिश्रम है उसकी इच्छा का भी स्वयाल रखना चाहिये । करने को तैयार है, ऐसी हालत में भिक्षा माँगना भी कार्य को बिगाड़ना न चाहिये । समामिक्षाचोरी नहीं है अन्यथा निशाचोर रोह के अवसर पर साधारण उदारता आजाना (ड)-काणन ह चोर--नमूना देखने के बहाने एकबात है पर अपने बाप का क्या जाता है, ऐसा या और किसी बहाने कण कण-घोड़ा थोड़ा-इकट्ठ! समचकर भुखमरे के समानः उरे के समान एक Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवनी के अंग उड़ाऊ खाऊ ऐयाश आदमी के समान खर्च करने का उपयोग करके अपने को उ ने लगनः दूसरी वन है : यह प्रमादरी है। ऋण का हो) मान लिया कि - इसी प्रकार दूसरे की चीज उपयोग के लिये अमरः किम से कोई चीज ली और देते समय मिलने पर उसको लापर्वाही से नष्ट कर डालना कम दी और शब्दों से या व्यवहार से आदि भी दी है। उसे अपनी चीज के कि हमने तुम्हारी चीज ली थी सो देदी अब हम समान या उससे भी अधिक सतर्कता से सम्भाल- उऋण है । मोर से ... या प्रगट कर रखना चाहिये। प्रमाण न होने से कोई मुंहपर भले ही कुछ न प्रश्न पर कोई अपनी चीज के उपयोग कहे पर चोर से डरने की ताह ढरने नो लगता में भी प्रमादी हो लापर्वाह हो तो क्या उसे भी ही है इसलिये उऋणचोर भी चोर है। प्रमादार कहेंगे । परन्तु इसमें उसका अपराध (ज) विम्मनिचोर-अपने या कोई अतिथि तो कुछ भी नहीं है ? अदि कोई वस्तु भल गया हो तो अपने को याद उत्तर- थोड़े बहुत में प्रमाद हर एक + आनेपर भी याद न दिलाना वापिस करने का आदमी में होता है, इस साधारण प्रमाद से अबसर हान पर भी वापिस न करना, सोचना अधिक प्रमाद जिन मनुष्य में हो उसका कतय कि भल जाय ता अछा, यह चीज मेरे काम है कि दसर की चीज उपयोग के लिये उधार आयगी, यह कि है। इसमें भी दूसरे का न मांगे। अगर मांगे नोक का खयाल धन हरन की वृत्ति है। रक्खे । अगर किसी ऐसे आदमी से वह चीज (...'नचोर- मेरी चीज नहीं है पर लेना हो जिसके साथ निर्दिक व्यवहार उचित किसी ने भ्रमसे समझ लिया कि मेरी है और पूछा न होगा तो उसे चाहिये कि उससे कदापि उधार क्या आप की है ! में इस तरह चुप रहा कि वह न ले, खरीदकर ही उस चीज का उपयोग करे। ममझे मेरी है और अगर पोल खुले तो कह सकू कि अन्यथा वह प्रमादचोरी ही समझी जायगी क्यों मने कब कहा था कि मेरी है ! यह मौन चोरी है। कि उसका परिणाम चोरी के समान ही होता है। मानाने चोर-मेरी चीज न हो पर मेरी साधारण चोर की तरह प्रमादार से भी लोग समझ कर कोई पूछे ओर मैं म उन निम्न अपनी वस्तु छिपाने लगते हैं, सतर्कता के कारण मौके मौकपर दोनों अर्थ निकल सकें । मानिस चिन्तित रहते हैं उतने अंश में सहयोग से भी भित्रकी चीज को.अपनी कहना और सोच लेना बचते हैं और कुछ घृणा आदि भाव भी पैदा हो कि पोल खुलने पर कहदंगा कि मैंने ने तुर जाते हैं। चीज की रक्षा करने के लिये अपनी कहदी थी (छ) उऋगचोर-माम न चुकाकर या परा अथवा तुम्हें मैंने अपना ही समझा इसलिये ऋण न चुका कर अपने को उऋण मनवालेना या अपनी कहदी । व्यवहार में ऐस ऐसे कहना उऋणचोरी है । जैसे हमने किसी से ऋण- प्रसंग वास्तव में आते हैं, उनी: में अपना लिया किन्तु देनेवाला भूल गया उसकी विस्मृति सन सिमानदार है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५] सत्यामृत - इन भेदों से छनचोरी का विस्तृत रूप ठगों से बचने के लिये जरूरी यह है कि मनुष्य हमोर ध्यान में आजाता है। छनचोर और अन्य में हरामखोरी न हो। हरामखोरी नष्ट होने से चोरोंकी मनोवृत्ति में विशेष अन्तर नहीं होता, सिर्फ मनुष्य बहुत कुछ प्रलोभन विजयी बन जाता है शाब्दिक बचाव होता है जिसकी ओटमें छनचोर और प्रलोभन विजयी को ठग लोग मुश्किल से सहज ही में अपना चोरपन छिपा सकता है पर ठगपाते हैं । हां, ऐसे भी ठग हैं जो प्रलोभन इससे परिणाम में अन्तर नहीं होता । साधारण देकर नहीं लेकिन अपनी दयनीयता बताकर चोरी से व्यवहार में जो बुराई आती है वह छन्न लोगों को ठगते हैं, ये ऐसे दुष्ट ठग हैं कि इनकी चोरी से भी आनी है बल्कि कभी कभी साधारण चोरी नीचता बताने के लिये भाषा में शब्द नहीं है। एक प्रसिद्ध कथा है कि एक ठग पीड़ित से भी अधिक प्रतिक्रिया होती है । चोर को चोर । कह देने से मनका क्षोभ कुछ शान्त होनाता है __ और अपंग बनकर सड़क के किनारे पड़ रहा,इतनेमें पर छनचोर को चोर कहने का अवसर प्रायः वहाँ से एक घुड़सवार सज्जन निकला.। ठगने नहीं मिलता इसलिये भीतर ही भीतर क्षोभ काफी अपना दुःख रोकर उस सजन से सहायता चाही। सज्जन उतरा और उसकी सेवा-सुश्रुषा करने बढ़जाता है। लगा । इसबीच ठग मौका पाकर उठा और उस इस प्रकार की चेरिया प्रायः सभ्यता की के घोड़ेपर चढ़कर भागने लगा। सज्जनने उस ओट में हुआ करती हैं इससे सभ्यता कलंकित की धूनता देखकर उसे पुकारा और दूर से ही कहा होती है और उसके प्राण उड़जाते हैं इसलिये भाई तुम मुझे ठगकर जाते तो हो पर यह बात छन चोरी पर उपेक्षा कदापि न करना चाहिये । किसीसे कहना नहीं, क्योंकि इस घटना को २-भनका नज़रचौर वह है जो नजर सुनकर लोग पीड़ित निराश्रित अपंगों पर भी बचाकर अरक्षित या अरक्षित-सी पड़ी हुई चीज अरावतसा पड़ा हुइ चाज दया करना छोड़ देंगे। चुरा ले जाता है । किमी के बगीचे में से आम इस प्रकार ठगपन का समाज के नैतिक ही तोड़ लिये, बाहर पड़ी हुई चीज ही उठाली, जीवन पर बड़ा बुरा असर पड़ता है । ऐसे ठग कभी किसी बहाने से घर में जाने का अवसर व्यक्ति के ही अपराधी नहीं है किन्तु समाज के मिला तो वहां से कोई चीज चुराली इस प्रकार भी अपराधी हैं-मनुष्यमात्र के अपराधी हैं। ऐसे के साधारण चोरों को नज़रचोर कहते हैं । ये अपराधियों से बचने के लिये प्रलोभन विजयी चोर चीज चुराने में जबर्दस्ती नहीं करते तला होना भी व्यर्थ है, सतर्कता का थोड़ा बहुत वगैरह नहीं तोडते । पर चोरी का कोई साधारण योनि भी जो दयनीयता की ओट में अवसर मिल जाता है तो चीज चुरालेते हैं। ठगा करते हैं उन से किसी सहृदय व्यक्ति का ३-ठगचोर वे है जो अपनी धूर्तता से बचना कठिन ही है। ऐसे ठगोंपर सामाजिक लोगों को टगकर उनको प्रलोभन देकर धन हरण कोप उतरना चाहिये और उन्हें शिक्षण भी । करलेते हैं। बच्चों को निभाई आदि का प्रलोभन मिलना चाहिये । देकर आभूषण वगैरह टगने वाले आदि टगचोर हैं। पर टग को अधिक मीका लोभी और असं. टगने के अगणित तरीके हैं। इन सब तरह के यमी लोगों को लूटने में ही मिलता है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग - बम्बई की घटना है एक भोले आदमी सोने सोने की थापी के लोभ में सेठजी ने अंगूठी उतार की अंगठी पहिने जारहे थे। इतने में एक आदमी दी और पाकिट में जो रुपये आठ आने के रोता हुआ आया और बोटगरी मेरी एक थे वे भी दे दिये और आठ दस तोले की छोटी सी पोटली गिर गई है, क्या आपकी नज़र थप्पी लेकर जल्दी जल्दी कदम बढ़ाते हुए घर पड़ी है ! सेठजीने .ह.--न भाई मेरी नज़र पहुंचे । रातभर तो खुशी के मारे नींद न आई नहीं पड़ी, कितनी बड़ी थी वह पोटली ! वह पर दूसरे दिन जब पता लगा कि वह थप्पी बोला-ज़रा सी ही तो थी । साढ़े अठारह तोले की ताबें की है उस पर सिर्फ सोने का पानी चढ़ा दो डलियां थीं, चोखा सोना था, हाय, अब तो में इस प्रकार पचीस तीस रुपये में सिर्फ कुछ बेमौत मरा । इतना कहकर उसने बड़ा दुःख पैसों का निकम्मा माल मिला है तब समझे प्रगट किया । इतने में दूसरा आदमी आया और कि ठगमंडली ने उन्हें लूट लिया है। उसने कहा-क्या तुम्हारी पोटली ऐसी थी, पोटली इस में ठगों की बदमाशी तो है है. वे तो के वर्णन से सन्तुर होकर उसने कहा-हां, हां, महपान पर टगे जानेवाले की भी काफी ऐसी ही थी, क्या तुमने देखी है ! आगन्तुक ने गलती है। कहा-एक आदमीने वहां पड़ी हुई एक पोटली बहुत न टग चोर ऐसे होते हैं जो कमजोर और उठाई थी और वह उस रास्ते चलागया है। . भोले आदमियों का शिकार किया करते हैं वे जब बह आदमी चलागया तब आगन्तुक ने संयमी आदमी को भी ठग लेते है। जैसे एक सेठनी से कहा-चलो अपन उस आदमी को साजन को एक ठग मिला, ठग बूढा था और पकडे जोनोने की पोटली लेगया है, वास्तव में ऐसा मालूम होता था कि मानो कोई हकीम हो। वह उस तरफ नहीं इस तरफ़ गया है । वह बहथोडी देर सामने ही खड़ा रहा और गौर से ठग सेठजी को एक जगह लेगया जहां एक विहरे और शरीर की तरफ देखता रहा । फिर आदमी सोने की पोटली लिये हुए चला जारहा बोला-नम्हें यह बीमारी कैसे हुई ! उस सज्जन को था। उसे इनने पकड़ा और धमकाया, अन्त में बीमारी का पता न था, वे ठग की बातो मे आगये । यह तय हुआ कि सोने के तीन भाग करके ठग ने बातचीत से दस्त वगैरह की थोड़ी बहुत तीनों आदमी बाँटलें । पर जब पोटली खोली खराबी का पता मलिया और उस सज्जन से गई तो सोने की थप्पियाँ निकलीसि दो, अब कहा-माई, बीमारी छोटी हो या कई अभी ची चुपचाप कैसे बाँटा जाय इसलिये ठगने कहा- नहीं, तुम एक काम करो, मैं एक नमवः लिम्बा देख, एक थप्पी मैं लेता हूं, एक थप्पी इन सेटजी देता हं तुम बाजार में से दवाइया बाद कर दस को देता हूँ और इसके बदले में तुझे मैं अपनी पन्द्रह दिन उपयोग करोगे तो अवश्य लाभ होगा। दाई तोले की अंगूठी देता हूँ और ये सेठजी इतना कहकर एक निःस्वार्थ परोपकार की तरह तुझे अपनी अंगूठी और कुछ नम्दी देंगे। यह उसने दवाइयाँ नि: । सजनने ममः अदर कहकर उसने दाई तोले की उतारकर दे पा परे एक राया. बिन, पैसे के ही नुसन्या लिखा दी और सेठजी से कहा, आप भी दे दीजिये। दिया। पर नुसखे में एक दवाई ऐसी थी जिसका Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ ] मत्यामृत नाम बिलकुल कल्पित था जो किसी दुकान पर कर देना आदि छल हैं । साधुवेषी ठग जितने मिल ही नहीं सकती थी। वह मिली उस ठगके चमत्कार दिखला सकते हैं उससे अधिक चमत्कार साथीदार की दुकान पर । उसने संकेत के अनु- तो जादु के खिलाड़ी दिखला सकते हैं और उस सार काफ़ी दाम वसूल किये, नुसखा तो निःसार से भी अधिक और महान् चमत्कार भौतिक था पर दोनों ठगों को काफी दाम मिलगये । वह विज्ञान के विद्वान् दिखला सकते हैं, दिखलाते हैं। दुकानदार और हकीम दोनों ही ठगचोर निकले। इस प्रकार योग या चमत्कार के नाम पर कदापि धर्म और अतिशयों के नामपर भी बहत से भुलावे में न आना चाहिये । आदमी ठगचोरी किया करते हैं । साधुवेषी लोग खैर, लोग इतने समझदार हों या न हों पर अपने दल बनाकर और अपने ठगदल के कुछ जो लोग लोगों के इस भोलेपन का उपयोग आदमियों को भक्त बनाकर जनता को लटा करते हैं। करके लोगों को लूटते हैं वे ठगचोर हैं । ठगचोर एकबार साधुवेषी ठगों का एक दल गाँव हज़ारों तरह के हैं इनके भंडाफोड़ के लिये सबको गाँव घूमा करता था, दलके कुछ आदमी पहिले यथाशक्य प्रयत्न करना चाहिये । आजाते थे और बच्चों में ऐसी मिठाइयाँ बाँटा ४- उद्घाटकचोर- वह है जो यथाश य करते थे जिससे दस्तकी बीमारी होजाती थी। रक्षा में रखी हुई वस्तु को चुरा ले जाता है। बादमें जब गाँववाले चिन्तित होते तो वे कहते ताला तोड़कर, दरवाजा तोकड़र, दीवार में छेद कि अमुक योगीवर की सेवा करो, तुम्हारी बीमारी करके, छप्पर फोड़कर आदि अनेक तरह से दूर होजायगी। गांववाले टगगुरु की सेवा करते, चोरी करनेवाले चोर उद्घाटकचोर हैं, ये पहिले भेंट चढ़ाते तब मिशाइयों में यह दस्तावर चीज़ तीनों तरह के चोरों से अधिक अपराधी हैं मिलाना बन्दकर दिया जाता, लोग समझते योगीश्वर अधिक दंडनीय या अधिक शिक्षणीय हैं। के प्रताप से बीमारी चली गई । इस प्रकार वह ५-चलातचोर- वे हैं जो रक्षण के टगमंडली लोगों से स्वब पूजा कराती, भेंट लेती। साधनों की ही नहीं किन्तु रक्षणबल की अवहे ऐसे ठगों से बचने के लिये मुख्य उपाय लना करके भी धन छीन लेते हैं | जैसे मेरे यही है कि लोग इस प्रकार के अवैज्ञानिक हाथ से कोई चीज़ छुड़ाकर लेजाय, मैं अपनी चमत्कारों से पिंड छुड़ालें । वे समझें कि महान से चीज़ को बचाने के लिये जितनी ताकत लगाऊँ महान् मनुष्य, फिर वह ईश्वर का अवतार ही उससे भी अधिक ताकत लगाकर चीज़ चुराकर क्यों न कहलाता हो पैग़म्बर तीर्थकर योगीश्वर आदि लेजाय यह सब बलात् चोरी है। यह उद्घाटकचोरी कोई भी क्यों न हो प्रकृतिके नियम के विरुद्ध से भी बड़ी चोरी है। कुछ नहीं कर सकता । इस प्रकार के चमत्कार ६- घातकचोर- वे हैं जो धन लूटने के जादू के खेल हैं जिस में हाथ की सफाई है लिये मालिक का या रक्षक का घात तक करते अंधकार या अज्ञान से दूसरों को मुलाना है और हैं। डाकू लोग इसी तरह के होते हैं । साम्राज्यकुछ नहीं है। योग के बल से मुद्दों को जिन्टाना, बादी शासक भी इसी कक्षा में आते हैं। किसी धन दूना चौगुना कर देना, खारे पानी का मीठा देश को जीतकर बिना किसी अपराध के उसका Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१८ भगवती के अंग धन लूटनेवाले घातकचोर ही हैं। प्रश्न--निमयनारी नो छन अर्थात् टैंकी इस प्रकार धनचौर छः तरह के होते हैं। हुई चोरी है, नाम के लुटारुओं को मार को प्रश्न-कोई किसी को पत्नी का हरण करले कहना चाहिये ! तो वह धनचोर कहलायगा कि नहीं ! यदि उनर--यह लूट किसी की ओटमें हो नहीं तो पत्नी-हग्ण पाप न रहा; यदि हाँ, तो तो छनचोरी है अन्यथा नहरको टगचोरी आदि पत्नी की गिनती भी धन में हो गई। है। जैसे किसी ने बचन तो दिया कि मैं यों उत्तर- इस दृष्टि से पतिक लिये पत्नी धन करूँगा स्यों करूँगा, इतना दान दूंगा ऐसी मदद ही है और पत्नी के लिये पति धन । जो चीज करूँगा आदि । उनके वचनों पर विश्वास करके अपने उपयोग के लिये है और दी ली जासकती उनका और दूसरों का उत्साह बढ़ाने के लिये है वही धन है । पति पत्नी सन्तान आदि सभी उनकी काफी तारीफ़ कर दी गई, इस प्रकार वचन धन हो सकते हैं इसलिये इन को राने देनेवाले भाईने तारीफ तो लूट ट पर पीछे से घर धनचोर कहलायगा। बाहर की अडचने तर वचन पूरा न किया, नामचोर-नामचोर भी तरह के होते या वचन भल ही गये, उपेक्षा करदी, तो यह है। यश आदर सत्कार आदि सब नाम ही है। छनचारी कहलाई। लोग धनकी तरह नाम भी चुराते हैं। नामकी प्रश्न-रेसे अवसर आते हैं जब हम समझते इच्छा हरएक को होती है और पेट भर जाने पर है कि हम ऐसा काम कर सकेंगे इसलिये इसके मनुष्य सबसे अधिक नाम के लिये ही प्रयत्न करता अनुसार घोषणा कर देते हैं पर पीछे से परिस्थिति है । ऐसी हालत में कभी कभी नाम का मूल्य ऐसी बदल जाती है कि हम इच्छा रखते हुए भी धन से भी बढ़जाता है । नामचोर धनचोर की वचन पुरा नहीं कर पाते तो इसमें विनिमय चोरी तरह किसी को स्थूल हानि नहीं पहुँचाते परन्तु क्या हुई ! मानसिक कष्ट इतना अधिक पहुँचाते हैं कि नाम- उत्तर-सचमुच में यदि परिस्थिति प्रतिकूल चोर धनचोरों के समान ही निन्दनीय हैं। हो गई हो तो विनिमयचोरी नहीं होती पर छन्न धनचोरों के जैसे अनेक भेद हैं उसी प्रतिकूलता का बहाना हो तो चोरी होती है और तरह छन्न नामचोरों के भी हैं। बहाना होने के कारण यह छन चोरी है। यहाँ (क)-विनिमय-कम मूल्यकी सेवा आदि देना यह बात भी ख़याल रखना चाहिये कि अपने और किसी बहाने से अधिक मल्य का यश आदर बचन का मूल्य घट न जावे। सद्भावना व्यक्त पूजा पद आदि ले लेने की कोशिश करना नाम की करो, उत्साह बढ़ाओ, र ऐसा वचन मन दोलित विनिमयचोग है। यह विनिमयचोरी अधिकांश के पाटन करने का तुम्हारा निभय नहीं है और मनुष्य किया करते हैं पर चोरों से भरे हुए जगत न तारीफ़ लूटने के लिये ही सद्भाव क को । में अन्त में सभी चोरों को परस्थर में लुट जाना अपया विनिमयचोरी होगी। पड़ता है इसलिये लूटा हा यश अंत में मूलका प्रश्न-हमने किसी काम का या दान का भी यश लेकर नष्ट ही होजाता है। वचन दिया, यश भी मिल गया पर पीछे से Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत मालूम हुआ कि बह काम खराब है या इतना चाहिये । मानलो किसी जलसे की रिपोर्ट हमें उपयोगी नहीं है इसलिये हमने वचन का पालन कहीं भेजना है उसमें मैं अपने को अधिक नहीं किया तो इस में ऐसा क्या अनुचित हुआ महत्त्व दे दूं, अधिक तारीफ़ कर दें, अधिक जगह कि विनिमयचोरी मानी जाय ! घेरलू और दूसरों को गौण कर दूँ, भुला दूं तो उत्तर-चोरी तो इसलिये है कि मूल्य दिया यह विभागचोरी होगी । जल्सा में किस आदमी नहीं और यश लेलिया । हाँ, वह काम खराब हो का क्या स्थान है उस की सेवा कितनी है आदि और उसकी खराबी छिपाकर हम से वचन बातों का विचार करके रिपोर्ट तैयार करना लेलिया गया हो और उस वचन को पूरा करने चाहिये अन्यथा विभागचोरी हो जायगी। से दुनिया की बुराई होने की संभावना हो तो इसी प्रकार आदर, सन्माम आदि में भी बचत का पालन न करना ही उचित है । पर विभागचोरी होती है, जैसे फोटो खिंचवाने के यह याद रखना चाहिये कि अपनी कायरता लिये कुछ आदमी बैठे और वहाँ क्रम का भी अनुदारता या स्वार्थ-परता छिपाने के लिये दूसरों विचार किया गया पर चपलता आदि से मर्यादा को खराब कहा जायगा तो यह विनिमयचोरी से ऊँचा स्थान अपने लिये लेलेना, मर्यादा का ही न रहेगी घातकचोरी (डकैती) भी हो भंग करके अपने गले में अपने मित्रों से फूल जायगी। अगर खराबी है पर बह हम से छिपाई माला आदि डलवा लेना आदि नाम की नहीं गई थी तो जहाँ तक बन सके वचन पूरा विभागचोरी है करना चाहिये । अगर खराबी न हो तब तो किसी प्रदर्शन को सजाने का अपने हाथ अधिक से अधिक कष्ट सहकर भी वचन पूरा में अधिकार हो और अपनी भी चीज़ प्रदर्शन में करना चाहिये । अगर सब कुछ करके भी बचन हो तो सजाने, रखने आदि में पक्षपात करना पूरा न किया जासके तो जिस रूप से यश लटा आदि भी विभागचोरी है। था उसी रूप से बहू क्षमायाचनापूर्वक बापिस प्रश्न- अपने घर में अपनी चीज़ को महत्त्व करना चाहिये । अर्थात् उसी रूप से यह घोषणा देना ही पड़ता है मानलो किसी संस्था में प्रदर्शन करना चाहिये कि दुर्भाग्य से मैं वचन पूरा नहीं भरा गया है तो यह बात ठीक है कि उस संस्था कर पा रहा हूँ। ऐसी हालत में विनिमयचोरी के विज्ञापन के लिये वहाँ की चीजों को अधिक नहोगी। महत्त्व दिया जाय, किसी विद्यापीट में उत्सव हो (ख-मिचोर- यश, मानप्रतिष्ठा आदि तो कुलगुरु का सन्मान रहेगा ही, भले ही वह का जहाँ विभाजन करना हो वहाँ अपने लिये उत्सब कुलगुरु की देखरेख में हो। या जिनमे अपने को मोह हो उन के लिये मर्यादा उत्तर-- ऐसा करने में कोई हानि नहीं है से अधिक हिस्सा ले टेना विभागचोरी है। धन बल्कि उचित भी है पर इस की ओट में जो की अपेक्षा या आदि के विभाजन में न्यूनाधिका दूसरों का अपमान और पक्षपातवश अपना रहती ही है इसलिये उस में समता का नहीं अधिक सन्मान करलिया जाता है वह बुरा है। उचित अनुचित का ही विचार किया जाना छन्न चोरी में कोई ओट तो मिल जाती है पर Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग [ ३२० शब्दों की ओट मिल जाने पर भी दिल के पाप हो या किसी दुनिनके अहंकार को अबहेलना प्रय नहीं छिपते इसलिये छन्न चोरी निःसार नो करना हो तो क्या अनमोरी होगी ! है ही, सार ही ईष्या द्वेष घृणा आदि बढ़ाने- उनर .... ऐसी हालत में तो जो दुरयाली होने से अपना और पराया काफी नुकसान भिमानी है, हमारे आत्मगौरव की रक्षा नहीं करता करती है। वही अनुज्ञाचोर है। प्रश्न अपने को तीर्थकर पैगम्बर आदि सार यह है कि कोई मकर: विनय या घोषित करना बिभागोर है या नहीं? शिष्टाचार के का कहनसके और उसकी . उत्तर- जिसने तीर्थ की स्थापना की वह इस सजनता का उपयोग उसके यश सन्मान नीर्थकर है, घोषित करे या न करे वह विभागचोर आदि को कम करने या नष्ट करने में किया जाय नहीं । करीब यही बात पैगम्बर के लिये है । जो और प्रदर्शित यह किया जाय कि इसमें उसकी सत्य का पैगाम लाया मा पुरुष अनुज्ञा है, अनुमति है नया अनाचार है। पैगम्बर है । पर इस में मख्यता जनहित की होना (घ) नर-मति मांगने से नाम नहीं चाहिये । दूसरों के व्यक्तित्व को अवहेलना और अपने मिलता फिर भी कुछ लोग मोहवश इसकी भी व्यक्तित्व का मिपामाईन विना- है। मिक्षा मांगते है । किसी तरह हमारा नाम आप महान बन जाने पर कोई सार्थक महान विशेषण नरामेछाप दीजिये आदि नामकी भिक्षालग ही जाता है पर महान कहलाने के लिये नाम चोरी है। जनहित के लिये आवश्यक हो तो बात के पीछे महान विशेषण लगाना विमान है। दमरी यह भिक्षा ही नहीं है और कही भिक्षा वह निरर्थक और हास्यास्पद ही नहीं है बाकी का रूप धारण भी करले तो भी यह तबतक मुद की भी नाशक है। भित्र नहीं है जब तक जनहित के लिये या (ग) अनुज्ञाचर --- चेतक की बहाने किसी न्याय के लिये आवश्यक है। का सन्मान यश आदि छीनलेना अनु. है। (ङ) र ... कुछ करते धरते तुम किसी सन्माननीय व्यक्ति के यहां जाओ और नहीं है सिनाम बढ़ाने के लिय सहयोग का शिष्टाचार भूलकर उसकी कुसौंपर जा बैठो उसको ढोंग करते है वे कमाइकोर है । ये बिना एक साधारण व्यक्ति की तरह सम्बोधित करे पैसे की हरएक सभा सदस्य बन ... न कि तुम्हारे और उसके भीतरी और बाहरी जिज्ञासा हो, न कर देने का भाव हो फिर भी व्यक्तित्व को देखते हुए अनुचित है. तो संकोच अपने नाम की गिनती कराने के लिये सब जगह वह कुछ कहे या न कहे, पर तुम अनुज्ञा- पहुँचेंगे, बिना समझे ही हरएक का समर्थन करेंगे चोर होजाओगे । इस अनुज्ञ चोरी से बचने के या विरोध करेगे। जो कर्मठ है, हर जगह कुछ न टेये शिष्टाचार के नियम बनाये जाते हैं। पर कुछ कर सकते। ऐसे लोगे के भवन में भी कोरे- नियमों से नियन्त्रण नहीं है:--मीर ऐसी बहुमुखी प्रवृत्तियाँ देखी जाती है पर यह संगम ही चाहिये। कर्मठबा न होने पर भी सिर्फ नाम के लिये जो प्रश्न - अपने आत्मगौरव की रक्षा करना अपना सब जगह प्रदर्शन करते है और दूसरों Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ ] का कुछ बोझ ही बढ़ाते हैं वे कणग्राहक चोर हैं जिज्ञासा से जाय, समय काटने के लिये न जाय, बिना कुछ किये दूसरों के यश में हिस्सा न बटाय तो कणग्राहकचोरी नहीं है । मत्यामृत (च) प्रमादचार - किसी के नाम के उचित प्रकाशन में लापर्वाही करनेवाला प्रमादचार है । यों तो सबकी जिम्मेदारी कौन लेसकता है पर जहां किसी सम्बन्ध से हमारे ऊपर दूसरे के नामप्रकाशन की जिम्मेदारी आगई वहां लापर्वाही नहीं करना चाहिये । और न किसी के अपयश का निरर्थक प्रसार करना चाहिये । दूसरे के यशअपयश विपय अपनी जिम्मेदारी न सम्हालना प्रमादचोरी है / (छ) उऋण चोर - थोड़े यश की ओट में किसी का बड़ा यश छिपाजाना उऋण है। जैस म. महावीर या म. बुद्ध का परिचय देते समय उनका तीर्थंकरत्व छिपाकर सिर्फ यह कहना कि ये अच्छे राजकुमार हैं। किसी खास बात का ही ही परिचय देने का अवसर हो तो बात दूसरी है क्योंकि मनमें छल हो स्वार्थ हो तभी उऋणचोरी होती है। खास बात के परिचय में छळ आदि नहीं कहा जासकता । एक (ज) विस्मृतिचोर - दूसरे का यश भ्रमवश अपने को मिल गया हो और दूसरा उसे लेना भूल गया हो या उपेक्षा की हो तो उसे अपनाये रहना विस्मृतिचोरी है। जैसे मानलो मैं साधारण चित्रकार हूँ मेरे यहाँ कोई चतुर चित्रकार आया उसके पास उसीके बनाये हुए बहुत से चित्र थे उनमें से एक वह भूल गया। मैंने उसका चित्र इस आशय से अपने कमरे में लौंग लिया कि लोग बिना कहे और बिना पूछे ही उसका कती मुझे समझेंगे । इस प्रकार एक के भूले हुए यश का मैंने अपने यश के समान उपयोग कर लिया इससे मैं विस्मृतिचोर हो गया । (झ) मौनचोर - ऊपर की घटना में चित्र के बनाने वाले का नाम पूछे जाने पर इस तरह मौन साधाजाय कि वह अपने को ही कर्ता समझे, यह मौन चोरी है। दूसरे का वश अपनाने में मौन का उपयोग करने वाला मौनचोर है। 1 (ञ) शब्द पचोर - दूसरे के यश छिपाने में दुहरी भाषा का उपयोग करनेवाला शब्दश्लेचोर है। जैसे - यह एक ऐसे आदमी का बनाया है जो अमुक गांव में रहता है अमुक जाति का है आदि ऐसे विशेषण दिये जायँ जो अपने में और उस चित्रके बनानेवाल में समान हों परन्तु पूछनेवाले का ध्यान उसकी तरफ न जाय सिर्फ अपनी तरफ जाय इस प्रकार दुहरे अर्थ के शब्द बोलकर दूसरों का यश लेलेना चोरी है । इस प्रकार नाम की छन्नचोरी भी अनेक तरह की है । २ नज़रचोर - दूसरे की नज़र बचाकर दूसरे का यश आदर सत्कार लेलेना नाम की नज़र चोरी है। जैसे मालिक के न होने पर किसी से कहना यहाँ का मालिक मैं हूँ । झूठ मूठ ही कहना अमुक का रचयिता, संस्थापक मैं हूँ । इसी प्रकार किसी कर्तृत्व में झूठा साँझा बताना आदि भी नजर चोरी है। न्यायालय विद्यालय आदि संस्थाओं में अधिकारी न होते हुए भी ऐसे आसन पर इस आशय से बैठना जिससे लोग न्यायाधीश अध्यापक प्रमुख आदि समझे यह भी नजर चोरी है । इसीप्रकार किसी के विचारों को अपने विचार Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग कहकर यश आदि छूटना भी नाम की नज़र चोरी है । प्रश्न- विचारों का ठेका कहाँ तक लिया ना सकता है ? विचारों का आदान-प्रदान जगत में ऐसा होता रहता है कि यह कहना कि ये अमुक के विचार हैं, कठिन है । बहुत से विचार तो की सम्पत्ति हो जाते हैं, यह भी होता कि इनको सबसे विचार मालूम नहीं पहले किनने प्रगट किया ! तब मनुष्य चोरी से कहाँतक बच सकता है ? उर- जिस प्रकार नदी आदि सर्व साधारण की सम्पत्ति होने से उस में से पानी लेना चोरी नहीं है उसी प्रकार जो विचार साधारण जनता की सम्पत्ति बन गये हैं जिनके विषय में कोई दूसरा व्यक्ति दावा नहीं कर सकता कि ये मेरे मौलिक विचार हैं उन्हें हम अपनी मौलिकता की छाप लगाये बिना प्रगट करें तां चोरी नहीं है। यह भी हो सकता है कि कोई विचार हमारा मौलिक विचार ही हो हमने दूसरों से न लिया हो उसे मौलिक मानकर भी प्रगट करना चोरी नहीं है । पर कल्पना करो हमने किसी की पुस्तकका अध्ययन किया उसकी बातें हमें अच्छी लगी फिर इस प्रकार की इच्छा पूर्वक, कि कोई यह न समझे कि मैं ये विचार उस पुस्तक के बोल रहा हूँ, उस पुस्तक के विचार प्रगट करना चोरी है । मुख्य बात मन की है । मन में चोरी है तो चोरी है अन्यथा ऐसे बहुत से अवसर आते हैं जहाँ दूसरों के विचार प्रगट करने में दूसरों का उल्लेख करना अनावश्यक होता है । जैसे 1 १- जो विचार अपौरुषेय होगये है अर्थात् जिनके कर्ता का पता नहीं है उनका [ ३२२ उपयोग जैसे चकिया जा सकता है सिर्फ अपने नामकी छाप न लगाना चाहिये । २- कुछ विचार अमुक व्यक्ति के नाम से इतने गये हैं कि उनका कर्ता कोई हमें नहीं मानता। वे विचार शास्त्रीय विचार बन गये हैं जैसे गुरुवाकर्षण का सिद्धान्त, पृथ्वी को गोल और चलती हुई मानने का सिद्धान्त आदि । (३) ऐसी जगह जहाँ हमें कोई विचारक के रूप में नहीं देखता, जहाँपर चाहे शाख की बातें कहो चाहे अपने मौलिक विचार को श्रोता सब को शास्त्रीय बातें ही समझते हैं वहाँ किसी का नाम लिये बिना दूसरे के विचार प्रगट करना चोरी नहीं है। इत्यादि अनेक अवसर ऐसे हो सकते हैं जहाँ नाम लेने की ज़रूरत नहीं है। पर जहाँ श्रोता का मन जिज्ञासा कर सकता हो कि ये किसके विचार हैं वहाँ नाम लेना जरूरी है, जहाँ मूल विचारक का नाम लेनेसे विचारों का मूल्य चढ़ना हो वहाँ भी नाम लेना जरूरी है। मतलब यह है कि दूसरों का कर्तव्य जानबूझकर न छिपाना चाहिये, न उस पर अपने कर्तृत्व की छाप लगाना चाहिये। ऐसा किया जायगा तो यह चोरी हो जायगी। दूसरे की रचना को अपने नाम से प्रकाशित करना भी नज़रचोरी है । ३ उगचोर - नाम यश आदर आदि लूटने या छीनने के लिये ऐसी चालें चलना जिससे दूसरों को लाभ न हो या हानि हो या लाभ से हानि अधिक हो पर अपने को यश आदि मिल जाय । जैसे साधु वेप लेकर, दूसरों को कल्पित Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ] भय बताकर अपने को योगी अवतार आदि कहना इस प्रकार अपनी पूजा कराने के लिये जगत को ठगना ठगचोरी है । सत्यामृत किसी आदमी से प्रेम का व्यवहार रखना और उसके साधारण रहस्यों या उद्गारों को दूसरों के सामने ऐसी चतुराई से रखना कि वह और हम प्रशंसित हो जाँय यह भी ठगचोरी है। धन की ठगचोरी के समान नाम की ठगचोरी के भी असंख्य प्रकार हैं। ४ उद्घाटकचोर - किसी न किसी अंश में सुरक्षित रक्खी हुई दूसरे के यश नाम आदि बढ़ानेवाली चीज को चुराकर उसके सहारे अपना नाम फैलाना उद्घाटकचोरी है। जैसे किसी की रचना --जो कि हस्तलिखित है-- चुराकर अपने नाम से प्रकाशित कर देना। किसी के किये गये आविष्कार को चुरालेना। किसी के भाव लेकर पहिले ही उन्हें अपने नाम से प्रकाशित कर देना आदि । यह सब उद्घाटकचोरी है । 1 ५ बलात् चोर - किसी की कृति को जबर्दस्ती चुराना, मूल रचयिता उसे प्रकाशित न कर पाये इसके पहले खुद अपने नाम से प्रकाशित करना और मूल रचयिता के प्रकाशन में बाधा डालना आदि चलतू चोरी है । जबर्दस्ती दूसरे का यश आदि छीनना चोरी है। 1 ६ घातक चोर - दूसरे के यश सम्मान आदि छीनने के लिये उसे मारना उस की झूठी निन्दा करना आदि घातकचोरी है । उपकार उपकारचोर - यद्यपि नामचोरों चोरों का वर्णन हो जाता है फिर भी संक्षेप में उनका कुछ दिग्दर्शन कर दिया जाता है। धनचोरों के प्रकरण में शंका समाधान किया गया उससे इस प्रकरण की भी शंकाओंका समाधान हो जायगा । (क) विनिमयचोरी -- प्रत्युपकार कम करके भी यह बताना कि हमने पूरा बदला चुका दिया । तुम हमारा यह काम करदो मैं तुम्हारा वह करता हूं। ऐसी शर्त होने पर अपनी तरफ से पूरा काम न करना विनिमयचोरी है । (ख) विभागचोर -- अधिक उपकारी का कम उपकार मानना और कम का ज्यादा मानना । जैसे मातापिता सासससुर और गुरु आदि के उपकारों को इसलिये गौण करदेना कि सुव्यवस्था मामूली शिष्टाचार आदि उपकारों को अधिक लिये वे कुछ अंकुश रखते हैं और दूसरों के महत्व देना क्योंकि संघर्षण न होने से वे अंकुश नहीं रखते सिर्फ मीठी बातें करते हैं । (ग) अनुज्ञा चोरी - उपकार के बदले में धन्यवाद आदि न देना, उचित होनेपर भी बेनकफी के नामपर न देना अनुज्ञा चोरों है । लज्जा आदि के कारण धम्मवाद न देसके, घनिष्टता के कारण धन्यवाद न दे तो बात दूसरी है। पर उचित धनिष्टता भी न हो, लज्जा का भी कारण न हो होगी । बेतकल्लुफी का अतिवाद हो तो अनुज्ञाचे रा (घ) भिक्षाचोरी उपकार की आवश्यकता न होने पर भी आलस्यादि के कारण उपकार की भिक्षा माँगना निक्षाचोरी है। जैसे पानी खींचने की तातक रखने पर भी आलस्य या लज्जा के कारण किसी से कहना जरा पानी खींच दीजिये मुझ से खिंचता नहीं है । दे या विनिमय के सिद्धान्त के अनुसार जहां शक्ति न हो, या शिष्टतावश कोई खींच किसी से सेवा लेना अनुचित न हो, या एक ही काम करने में एक को कम कठिनाई हो और Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग [३२४ मुझे अधिक कठिनाई हो, हम किसी दुसरे काममें तुम्हारा ऋण चुका दिया। आदि । लगे हों इसीलिये किसी से कहा गया हो, अपने (ज) विविधोर-किसने हमारा कोई उपकार पद आदि के कारण किसी से कोई काम कराना किया पर कुछ समय बाद वह हमें और हमारे पर शिष्टता के प्रतिकूल न हो तो भिक्ष दोरी नहीं किये गये उपकार को भल गया । मिलने पर हमने होती । जैसे अपने में पानी खींचने की ताकत हो उसे पहिचाना पर उसने हमें नाम तब तो भी हम पुत्र से शिष्य से नौकर से पानी के इस आशा से हमने भी न पहिचानने का डोल लिये कह सकते हैं । हम ट्रेन में बैठे हों और किया कि उसका उपकार हमें न मानना पड़े। पानी लाने में ट्रेन छूटने का डर हो तो बाहर के (4) मौनचोर--न उपकारी भला हो न उपकृत आदमी से कह सकते है। मतलब यह कि योग्य पर मिलनेपर और अवसर आजाने पर भी कृतज्ञता निमित्त होना चाहिये नहीं तो भिक्षाचोरी हो प्रगट न करना अनि जानसकर मौन रह जाना। जायगी। (ञ) दिनार-ऊपर के ही प्रकरण में (ङ) कगम ही चोरी- देखू तुम कैसा मौन न रहकर ऐसे शब्दोंमें उपकार मानना जिन करते हो, जरा कर के तो दिवाओ। उसने दिया की वाक्यरचना, व्यङ्ग-स्वर आदि के कारण उपहमने कहा-अच्छा ठीक है, जरूरत होने पर हम कार का अस्वीकार भी अर्थ निकलता हो । जैसे तुम्हें बुलायेगे । इस तरह बढ़तों से काम के नमने आपके उसकारों से तो मैं लद गया हूं, इस वाक्य देखे और पूरा कग लिया पर उपकार किसी का को ऐसी भावभंगी से कहना जिससे वह बात न माना यह कणग्राहीघोरी है। एक बार एक या तो हंसी में उड़जाय या उसका उल्टा ही अर्थ भाई बोले-हमने अभुक गाँव में अपना मकान पूरा होजाय यह सन्द पोर है। बना लिया और लोहेका मनों सामान वहां पहुचाया नज़रचार-परोक्ष में किसी के उपकार पर न तो भाड़े में एक पैसा दिया न किसी का को स्वीकार न करनेवर नजरचोर है। वह अहसानमन्द हुआ। उस गाँव की तरफ कोई उपकारी की नजर बनाकर उपकार अस्वीकार माड़ी जाती होती तो उस में दो चार सेर लोहे करता है। की पोटली रख देता और कहता उस गाँव में ३ ठगनोर-उकार कराके दम्भ, छल आदि सड़क पर तुम्हें हमारा आदमी मिलेगा उसका यह से अपनी उपकृतता किमानेवरः। जैसे एक मा नाम है उसे देदेना । इस तरह थोड़ा थोड़ा न तो कोई समाजसेवा करता है न उसके प्रति करके सामान पहुंचा दिया। यह कणग्राही चोरी किया गया उपकार नमाजमय के लिये किर भी वेष, सम्प्रदाय आदि की दुहाई देकर और (च) प्रमादचोर--लापर्वाही से किसी को धन्य अन्धश्रद्धागम्य बातों के नामर छाट करके उपकार बाद न देना आदि प्रमादचोरी है। स्वीकार नहीं करता, वह ठगचोर है। (छ) उऋणचोर--पूरा ऋण न चुका कर यह ४ उद्घाटकचोर--उपकार के उत्सर को घोपित करना कि चुका दिया । जैसे माँ बाप को नष्ट करने के लिये जो दिसा रहा है वह बुढ़ापे में खाना न देकर यह कहना कि हमने उद्धाटक चोर है । बहुत से मनुष्य किसी से उप Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ ] सत्यामृत गुन हो भने किन होते रहते हैं और सोचते परस्पर उपयोग की कोई बात तय हुई हो तो इस रहते हैं कि ऐसा कोई अवसर मिले जब इसका बहाने दूसरे की अच्छी चौज का उपयोग करना उपकारीपन छीन लिया जाय । इसलिये वे ऐसी और अपनी खराब चीज उपयोग के लिये देना घटना या घटनाओं की ताक में रहते हैं जिनको विनिम्मर है। हां, अगर अपने पास अच्छी आकार मिद किया जासके । बस उनके द्वारा चीज न हो और हमने यह बात सूचित-मी कर वे पुराने उपकारों को लूट लेते है। दी हो तो यह अत दूसरी है। ___ ५ बन्लानचोर--- से उपकार को (ख) विभागचोर- किसी चीज का उपअस्वीकार करने वाला बटाचार २ . योग करने में बटवारा करना हो तो उसमें अनु६ घातकचोर-अपनी उपकृतता छिपाने के चित पक्षपात करना विभागचोरी है। दो उप घात करने, उसकी निन्दा (ग) अनुज्ञा चोर - बेतकल्लुफी के बहाने करनेवाला और उसके उपकार को अपकार सिद्ध किसी की चीज का उपयोग कर लेना · अनुज्ञाकरने वाला घातकचेर है। ___चोरी है । बहुत से आदमियों की यह आदत उपयोगचोर-धनचोर और उपयोग चोर रहती है कि वे अपनी चीज सुरक्षित रखते हैं एक सरीख अन्तर इतना ही है कि धनचौर में और दूसरे की चीज उसकी अनुज्ञा के बिना वस्तु ही लेलीजाती है जब कि उपयोगचोर में उपयोग करते हैं। मालिक संकोचवश कुछ कह सिर्फ उस बस्त का उपयोग किया जाता है नहीं सकता, पर वह मन ही मन ऐसा डरने उनालय धन चोर की अपेक्षा न लगता है जैसे चोर से डरता हो । इसीलिये आंशिकचोरी है। फिर भी चोरी अवश्य है। अपनी चीज को छिपाने का प्रयत्न करता है । कहीं मानी तो होती है पर उपयोगचोरी किस चीज़ का उपयोग करन, अनुज्ञात है नहीं होती । एक सार्वजनिक वाचि में किसी और किस चीज़ का उपयोग करना अनुज्ञात नहीं बेच का उपयोग करलेना चोरी नहीं है पर बेंच है इसका विचार करने रहना चाहिये। परिस्थिनिलेना चोरी है । परिस्थिति आदि का विचार वश कहीं भ्रम होसकता है पर सूचना मिलते ही करके यह देखना चाहिये कि जिस चीज का उसके पालन करने पर चोरी नहीं होती, पर हम उपयोर कर रहे हैं उसके मालिक की इच्छा बरसी बातें तो ऐसी होती है जिनको हम अच्छी हमें उपयोग करने देने की है या नही! यदि हो तरह समझ सकते हैं पर जानबूझकर दूसरे को दे यर करने में चोरी नहीं है याद नहीं है कोचमें डालने है या उसके संकेतोंकी नासमझी ने योग करना चोरी है भले ही वह संकोच के नामपर उपेक्षा करते हैं। उपेक्षा भय आदि के कारण कह सके या न हम किसी जगह बैठे हैं, पानी बरस रहा है कह सके। और धनचौर के समान ने पेशाब को विभी जगह जाना है हमने पास में के भी मंद पभेद होते हैं उनकः , संक्षेप में रक्खे हुए किसी के छत्ते का उपयोग करलिया र्शन कर दिया " । और मे का लेसा सुरक्षित रखदिया तो अनुज्ञानवयर-एक दूसरे में नाक चोरी नहीं हुई पर हम किसी के आदने विछाने Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग के कपड़ों का उपयोग कर ले तो अनुगनी कि यह हमें उपकृत या ऋणी न मानले अपनी होजायगी । हां, मालिक स्वेच्छा से अनुमति दे मामूची नीजका कुछ उपयोग करादेना मगर मेक इसर। है। हां, यह सोचकर कि हमने तो इनकी चीजों हमने किसी की चीज का उपयोग किया का बहुत उपयोग किया है थोड़ा बहुत उपयोग उसका मालिक सं सा कुछ कह न सका पर ये हमारी चीजों का करलें तो कुछ तो ऋण चुके-- उसने उसे दूसरे दिन दूसरी जगह कुछ इस दंग उपयोग करने देना उत्रण चोरी नहीं है। से सुरक्षित रख दिया कि जिससे किसी का ध्यान (ज) की भली हुई चीज न जाय पर हमने हूँढकर फिर भी उसी की चीज इसलिये याद न दिलाना कि कुछ दिन काम लेने का उपयोग किया यह स्पष्ट ही अनुर है। के बाद याद दिलाई जायगी कुछ दिन इसमे धनिष्ट प्रेम के खास स्वास अवसरों को छोड़ कुछ काम तो ले लें, यह विस्मृति चारी है। कर मातमालिक की प्रसन्नतापूर्वक दी माधारणतः यह नियम रखना चाहिये कि हुई अनुज्ञा के बिना किसी की चीज का उपयोग अपने यहा भी चीज का उपयोग न किया न करना चाहिये और न अपनी ही तरफ से जाय वह ज्या की त्यों सुरक्षित रवी जाय । धनिष्ट प्रेमका दावा करके प्रेमके बहाने इस तरह हां, कोई मामली चीज हो, अथवा उपयोग करने की उपयोग चारी छिपाना चाहिये। में उसके खराब होने का डर न हो तो बात (घ) भिक्षाचोर हर समय आवश्यक होने पर दुसरी है। है कि नहीं इसका पता भी और खरीदने की आर्थिक शक्ति होने पर भी तो अपने भावों से ही लग सकता है पर बाह्यचीज न खरीदना या घर में रहने पर भी अपनी क्रिया से भी यह बात नहीं छिपतः । छनचार चीज का उपयोग न करना किन्तु लोभवश कोई हाने से कोई बहाना जरूर बना सकता है पर बहाना बनाकर दूसरे की चीज का माँगकर उप. इससे उसका दुष्प्रभाव नहीं रुकता । योग करना भिक्षाचोरी है । आवश्यकतावश उप- (झ) मानचोर- मौन का ऐसा उपयोग योग के लिये एक दूसरे से चीजें माँगना ही करना जिसमें उपयोगचोरी करते हुए भी उसके पड़ती हैं पर जहां इस व्यवहार की ओट में लोभ आरोप से बचे रह । जैसे हम किसी ट्रामगाड़ी है छल है वहां यह चोरी ही है। में बैठे, गाड़ी में भीड़ है इसलिये - (ङ) कणग्राहीचोर- नमूने के रूपमें कई जगह ध्यान नहीं रख सका कि कितने टिकिट लिम से चीजें मांगना, थोड़ा बहुत उपयोग करके नापसन्द किसने नहीं लिया- वह पूछता अाल.. ' कहकर वापिस करदेना इस प्रकार दूसरों टिकिट ! टिकिट : विकिः । पर यह सोचकी चीज़से अच्छा लाभ उठाना कणग्राही चोरी है। कर कि कोई पूछेगा तो कह देंगे कि हमारा ध्यान (च) प्रमादचोर--सरे की चीज का लापर्वाही नहीं था, हम मैन बारा करासे उपयोग करना प्रमादचोरी है। चारी है । मौन की आट में हम मुक्त में ही (छ) उऋणचोर--किसी की अच्छी चीज का ट्राम का उपयोग कर लेना चाहते हैं। विशाल उपयोग कर लेने के बाद इस इच्छा से (अ) शब्दरूपचार--सरा वाक्यों Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ ] मत्यामत - से चोरी ने सदोषोर है । जैस क्या चोरी है और क्या चोरी नहीं है इसका किसी चीज का काफी उपयोग कर लिया जाय निर्णय पूर्वोक्त वर्णन से होजाता है उसके अनुसार और फिर कहा जाय कि आपकी चीज का कुछ जो कुछ चोरी सिद्ध हो उसका अधिक से अधिक उपयोग कर लिया है । कुछ और काफी में स्याग करना चाहिये । चोर शायद चोरी को सस्ता विभाजक रेखा न होने से यहाँ शब्दश्लेष के रूप सौदा समझते होंगे। पर यह सब से महँगा सौदा में वाक्य का प्रयोग किया गया। है। चोरी करनेवाले चैन से न तो खासकते हैं २ नज़रचार-- नजर बचाकर किसी की न बैठ सकते हैं, इज्जत नष्ट करते हैं, लज्जित चीज का उपयोग कर लेनेवाला । जैसे बिना होना पड़ता है इत्यादि नाना कष्ट हैं । खुद चोरी टिकिट रेल में यात्रा करनेवाला आदि। करते समय मनुष्य को जो मानसिक और शारी ३ठगचोर-चोखा देकर किसी की रिक कष्ट उठाना पड़ता है वह मिहनत मजूरी के चीज का उपयोग करनेवाला । जैसे किसी तागे- कष्ट से कारी ज्यादा है। . वाले से कहा- भाई, अमुक जगह से एक सवारी छनचोरी आदि में भी हम जितना पाते हैं लाना है ले आओ। इसप्रकार तागे में बैठकर उससे कई गुणा सन्मान आदि नष्ट कर देते हैं। सवारी लेने के बहाने किसी जगह जाना और ___ सब मिलाकर उनका सौदा महँगा ही रहता है । कह देना कि यहाँ को तयारी नहीं है तुम चले जाओ। झूठमूठ बीमार लँगड़ा आदि बनकर एकबार एक भाईने मुझसे पूछा-फाउन्टेन किसी की गाड़ी का उपयोग कर लेना आदि।। पेन की स्याही की दावात आप कितने में लाते ४ उद्घाटकचोर- ताला बगैरह तोड़ न हैं ! मैने कहा चार आने में । वे बोले-मैं काफी कर किसी की चीज निकाल लेना और उसका सस्ते में निवट जाता हूं । मैंने पूछा-सो कैसे ? उपयोग करके छोड़ देना। बोले-कभी इसके यहां से स्याही भर लेता हूं कभी ५ बलातचोर---- जबर्दस्ती किसी की उसके यहां से इस तरह काम चल जाता है। चीन का उपयोग कर लेनेवाला । बेगार आदि मैंने कहा-इतना महगा सौदा करने की इस श्रेणी में आ जाती है। ६ घातकचार--- मारपीटकर भी किसी वे जरा चकित होकर बोले- क्या मुफ्त में की चीज का उपयोग करनेवाला । बेगार में कहीं भी कोई चीज मँहगी होती है ! । कहीं बालक चोरी का रूप देखा जाता है। मैंने कहा बहुत मंहगी। आप आधे पैसे की इन चौबीस प्रकार के अधातों को त्याग कर स्याही मुफ्त में जहां से लेते हैं वहां सैकड़ों रुपयों देने से मनुष्य अंचयिती या ईमानदार का का गौरव दे आते हैं और साथ ही कल के लिये चार पैसे के लाभका द्वार भी बन्द कर आते हैं। प्राणधान के समान अर्थात में भी व्यवहार साथ ही स्याही खलास होनेपर दाता ढूँढने में पञ्चक आदि का विचार होता है जिसका विवे- और स्याही लेने को मनिका जमाने में जो समय चन पहिले किया गया है । इसलिये तक्षण भक्षण शक्ति बर्बाद होती होगी उसकी कीमत भी आधे रूप अर्थधात ही चोरी है, वन रक्षण चोरी नहीं है। पैसे ऊपर से जरूर ज्यादा होगी । और उतनी हिम्मत मुझमें नहीं है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग दर न लिख सकनेका नुकसान भी कुछ कम न विश्वहित को दूसरे शब्दों से की हम होगा। इस प्रकार इतना घाटा उठाकर आप मफ्त सल कह सकते हैं। ल म उसीसे करते हैं की स्याही का सौदा करते हैं, आपकी हिम्मत तो जिससे हमें कुछ द्वेष होता है, जुदाई का भाव गजब की है! होता है, प्रम नहीं होना । लिये असल्य भेदअन्य सचेरियों के विषय में भी कम भाव मे.. है -- सस्य प्रेम " है मी तरह का बहुत कुछ कहा जा सकता इसलिय सत्यवत को हम प्रेम का या भगवती है। नजर चोरी आदि में येहानियां तोही का अङ्ग कहते है। साथ ही राजदंड आदि की भी परेशानी है। : सहयोग पर टिका हुआ है इस प्रकार चोर का जीवन महान दःखी जीवन और मइयांग विश्वास पर टिका हुआ है। है। नामचोर आदि में भी इसी तरह का घाटा जितन अंशभे हम विश्वासका पान करते है उतने और दृाग्य है। अशर्म सहयोग का नाश करते हैं: मोदी इसके अतिरिक्त चोरी से जीवन में जो सुरक्षित रखने के लिये विश्वास का सुरक्षित अशान्ति होती है अविश्वास बढ़ता है, सहयोग रखना सत्य है और विश्वामयात अमत्य है। और प्रेम नष्ट होता है उससे . in: जसा णानः व्यवहार में ऐसा समझा जाता नरक बनजाता है उसका कोई ठिकाना है ! चार है कि जो वस्तु जैसी है उसका वैसा ही कहना से चीज का उत्पादन तो होता है जब समी में सत्य है, क्योंकि इससे मनुष्य का विश्वास कायम वृत्त आजायी तो मनुष्य कितने दिन जियेगा ! रहता है । इसमें सन्देह नहीं कि प्रकार अर्थ इस प्रकार यह वैयक्तिक दृष्टि से और सामहिक और शब्दकी एकता सत्य है पर अर्थ का दृष्टिसे अत्यन्त दुःखप्रद है। सिौ. ही नहीं है य भी है। ईमानदार के जीवन में बड़ी शक्ति और 3-1 में शब्द के अर्थ तीन तरह के निर्भयता रहती है । उनका दिल और मस्तक माने गय है-१ अभिधा २ लक्षणा और ३ व्याना। उंचा रहता है वह बिनयी होता है पर उममें और अभिम भी अनेक तरह की होती है। उनमें दीनता नहीं होती । अगर वह विरवादी हे तो मुख्य और प्रकरण संगत अर्थ कौनसा है इस बात उसे ऐसा मालूम होता है मानो वह ईश्वर के का अच्छी तरह विचार करके किसी वाक्य का भरक्षण में है जब कि चार ईश्वर की पूजा करते अर्थ समझना चाहिये फिर शब्द और अर्थ की दुए भी उसके नामसे काँप उठता है । ईमानदारी एकता देखना चाहिये। स्वयं एक सुख है दूसरेको भी सुख देनेवाली है। अभिधा के सांकेतिक अर्थ को इस प्रकार विश्व प्रयाण के लिये यह बहुत उप- अनार अभिधा है । जैसे , मनुष्य योगी है। आदि शब्दों का मकन अमुक अमुक प्राणियों में ३ सत्यव्रत किया गया है इसलिये घोड़ा आदि शब्दों से सत्य का अर्थ यहां भगवान सत्य नहीं है उनउन जानवरों के बतानेवाली अभिधा है। ऐसे रोमी भाषा का प्रयोग करना है जिससे अर्थ को अभिधेय अर्थ कहते हैं। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ ] मत्यामृत अभिधा के भी अनेक भेद है । कोई एक पर चढ़ने में होशियार थे । कुम्भकर्ण छः छः घर का भी नाथ न हो पर उसे पुकारने के लिये महीने सोता था अर्थात छः छः महीने तक घर जगन्नाथ कहना यह भी अमिधा है, हृदय की मेंहीबाना-पीना आलस्य में पड़ा रहता था, छ: भाक्ति दिखलाने के लिये पत्थर की मर्ति को छ: महीने घर से बाहर न निकलता था न गजभगवान कहना यह भी अभिधा है। काल मेद या सभा में जाता था। परिस्थिति भेद गौण करके पुराने राजा को राजा मनुष्य कर दिया है, पुराने जमाने में कहना यह भी अभिधा है। चमकनेवरी को बिजली और भी अधिक था इसलिये भाषा में भी वह कहना, चञ्चलता के कारण चवटा कहना यह अलंकारों को पसन्द करता था, श्रोताओं की इस भी अभिधा है अभिधा अनेक तरह की है। शब्द प्यास को बुझाने के लिये वक्ता, लेखक, कवि का अर्थ लगाते समय जहाँ जिस अभिधा का अलंकारों का खूब प्रयोग करने थे । पर कुछ प्रयोग है वहाँ वही अभिधा समझना चाहिये। समय बाद भोलेपन के कारण लोग उन अर्थी २ लक्षणा-अभिधेय अर्थ जहाँ संगत या का लक्ष्यता भल गये, उन्हें अभिधय समझने सल न हो वहाँ उससे सम्बद्ध दुसरा अर्थ ग्रहण लगे, इसका फल यह हुआ कि पुगनी कथाएँ करना लक्षणा है । जैसे 'नगर दौड़ा आया' इस धर्मशास्त्र और इतिहास से हटकर गपाड़ा में गिनी बाक्य में नगर का अर्थ नारचित्रमा है क्योंकि जाने लगा पर इसमें मूल कथाकारों की भल नगर (घर सड़क आदि) दौड नहीं सकता। नहा है किंतु लक्षण। और अभिधा का भेद न सरा अर्थ लेने में इतना तो देखना ही पड़ता है समझने वाले या समझकर भी वहां काम में न कि अभिधेय अर्थ से उसका कछ संबंध या ला सकनेवाले भोले पाठकों और अनुयायियों की नही। कुछ न कुछ संबंध - समानता - संयोग भल है । इसलिये सत्यासत्य का निर्णय करते आदि अवश्य होना चाहिये जैसा कि नगरवासियों समय हमें अभिधा और लक्षणा का भेद न भूल का संबंध नगर में है। जाना चाहिये। ३ व्यञ्जना-जहाँ अभिधा और लक्षणा से इन्द्र के अमी थीं-नका लक्षणा- परा अर्थ न निकलता हो वहाँ उससे भी अधिक रूप अर्थ है-वह चारों तरफ अपनी नजा अर्थ का ज्ञान कराने वाली व्यञ्जना है। जैसे रखता था या उसके खुफिया विभाग में हजार किसी ने कहा-संध्या हो गई, तो अभिधा का अर्थ आदमी थे आदि । सहस्रबाहु के हजार हाथ थे, तो जल्दी समझ में आगया पर यह बान इस समय इसका असर अर्थ यह कि उसके हाथों में किस बात को समझाने के लिये कही गई है यह हजार हाथों का या बहुत हायों का बल था। समझ में न आया । यह समझा देना व्यञ्जना का कि वर्णनों में प्रायः लक्षणा का उपयोग काम है कि सम्स्या हो इसलिये प्रार्थना को किया जाता है । मोन का सिर हाथी सरीखा चलो, या दीपक जन्मओ अदि । धर्मशास्त्र में था, इसका अर्थ के उन्म मिर बड़ा था। जो कवार दी जाती है उनकः अमन्दी अर्थ व्यञ्जना हनुमान बन्दर थे अर्थात् उछलने-कूदने और पेड़ों मे मतम होता है । कथाओं का व्यंग्य अर्थ ही Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग देखना चाहिये और अर्थ की अपेक्षा सत्य राम-रामण असत्य का निर्णय करना चाहिये । की कथा शूटी है या सच्ची इससे कोई मतलब नहीं, क्योंकि उस कथा का मुख्य अर्थ यह है कि राम की तरह बनो, रावण की तरह मत बनो । यह अर्थ जब तक झूठा नहीं है तब तक यह कथा झूठी नहीं है। वचन की सका विचार करते समय यह देख लेना चाहिये कि उसका मत्यर्थ क्या है ? अभिधा है लक्षण है या व्यञ्जना 13: अगर अभिधा है तो अभिया अगर सो उस वचन को सत्य कहो अन्यथा झूठ कहो । इतिहास, विज्ञान, दर्शन, आदि में अभिधेय अर्थ की मुख्यता रहती है इसलिये यहाँ सत्यासत्य का निर्णय इसी अपेक्षा मे करना चाहिये। सत्यवादी का कर्तव्य है कि वह इनके प्रकरण में अयि अर्थ की दृष्टि से जान बुझकर झुट न बोले । जहाँ लक्षण हो वहाँ उसीकी अपेक्षा में सत्यासत्य का निर्णय करना चाहिये। इस अपेक्ष। से नगर का दौड़ना भी सत्य है, मुख को चन्द्र कहना भी सत्य है, हनुमान को बन्दर कहना भी सत्य है पर अगर लक्षणा को अभिधा समझ लिया जाय अर्थात् हनुमान को सचमुच बन्दर समझ लिया जाय, मुख को सचमुच चन्द्र समझ लिया जाय, जैन कर बीच में बैठकर चारों तरफ देख देखकर व्याख्यान देते थे इसलिये उन्हें चतुर्मुख कहा गया अब इसीसे उनके चारों तरफ मुख मान लिये जायें, शुद्ध रक्त को दूध की उपनदी सो उसे दूध ही मान जाय, तो अ है क्योंकि वहां लक्षणा की जगह अभिधा का प्रयोग किया गया है । कविता, चित्र, विशेष उपयोग होता है। [ ३३० आदि में लक्षणा का जहाँ व्या व्यंग्य अर्थ देखकर ही करना ने सदाचार, सत्यासत्य का निर्णय चाहिये। जैसे किसी आदि धर्महै, आत्मा है, पर शास्त्रीय उपदेश लोक है, स्वर्ग नरक है। इन वाक्यों का अभिधेय अर्थ के लिये मुख्य है परन्तु धर्मशास्त्र के लिये वह गौण है। धर्मशास्त्र का मुख्य अर्थ व्यञ्जना से मालूम होगा कि ईश्वरादि है इसलिये हमें पाप से बचना चाहिये, जीवन के के क्षुद्र में अपने की न भुलाना चाहिये आदि । यह व्यंग्यार्थ सत्य है इसलिये ईश्वरादि अभिधा की दृष्टि से कैसे भी हो धर्मशास्त्र उन्हें सत्य कहेगा । इसी प्रकार कथा अभिनेय अर्थ की दृष्टि से कैसी भी हो पर व्यंग्यार्थ राम की तरह बनना चाहिये आदि की अपेक्षा सत्य ही है। प्रश्न नहीं अनिया या क्षणा दो में से कोई एक रहे वह व्यक्त अर्थ आ सकता है, अगर अभय और लक्ष्य दोनों में से एक भी अर्थ न होगा तो व्य किन आधार पर खड़े होंगे ! में अमिषा या उत्तर- हरएक वाक्य क्षणा रहती है, मेद इतना ही होता है कि कहीं इनमें सचाई होती है कहीं नहीं होती, सां देखना यही चाहिये कि जो मुख्य अर्थ है उसमें सचाई है या नहीं। हो है कि अभिय या लक्ष्य अर्थ असत्य हो किंतु व्यंग्य अर्थ ठीक होऔरी हो तो यह वाक्य सत्य | सत्य असत्यका निर्णय Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३१ ] मन्यामत मुख्य अर्थ की अपेक्षा करना चाहिये । फिर भी कारिकता जहाँ साफ हो वहाँ इस प्रकार के प्रयोग जहाँ तक बन सके अभिधेय अर्थ में सचाई लाने उचित ही है । बल्कि आकर्षक होने के कारण की कोशिश करना जरूरी है, जिसका अभिधेय कभी कभी इनकी उपयोगिता बढ़ जाती है । फिर और व्यंग्य दोनों सत्य है बही वाक्य पूरा भी कभी कभी भ्रम होने की सम्भावना है इसलिये इसे उभयसत्य नहीं कहा बहुसत्य कहा । लक्षणा वाक्यों में यही भेद समझना चाहिये । अभिधा आदि की दृष्टि से वाक्यों के ९ भेद होते है- १. यस य. २. बहुसत्य, ३. उप- ३ उपमान मत्य वह है कि जहाँ कोइ मन्य मान सत्य, ४. उपमान सत्य, ५. वस्तु सत्य, बात समझाने के लिये दृष्टान्त या कहानी वगैरह ६. पापसत्य, ७. न्यायक असत्य, ८. वस्तु कही जाय, यह कहानी आदि कल्पित या अर्धअसत्य, ९. उभय असत्य। कल्पित हो पर हो वैसी ही जैसी कि घटनाएँ हुआ करती हैं। अन्न कृतिक, या अघटित घटनाएँ १ उभयमन्य वह है जिसका शब्दार्थ भी । उनमें न हो। इस प्रकार ठीक उपमान द्वारा सत्य है उससे जो कर्तव्य अर्थ प्रगट होता है वह एक सचाई प्रगट करना उपमान सत्य है। भी सत्य है। जैसे सम्य और अहिंसा का पालन करने से मनुष्य महात्मा बन जाता है। इस वाक्य ४ उपमानक सत्य यह है जिसमें कर्तव्य शब्द भी सत्य है और इसलिये सबको तो सच्चा ही बताया जाता है पर उसके लिये जो सत्य अहिंसा का पालन करना चाहिये' यह कहानियों का चित्रण किया जाता है वह अघाटत कर्तव्यार्थ भी सत्य है इसलिये यह वाक्य उभय- या अप्राकृतिक होता है । उपमान की अपेक्षा सत्य कोटि का है। यह कुछ खराब है इसलिये इसे उपमानक कहा २ बहुसत्य वह है जिसमें अभिधा अर्थ न है। भून-शाच आदि की कहानियाँ अथवा हो टक्षणा अर्थ हो और वह माय हे साथ ही उससे ऐसी ही अमृतादि रसपूर्ण शिक्षाप्रद कथाएँ उप मानक सत्य है । जो कर्तव्य निकलता हो वह भी सत्य हो। जैसेनरोगोदीकः सिंहासन मिल जावे सबको मनभाया। ५ वस्तुसत्य यह है जिसमें किसी वस्तुका या घटना का ठीक ठीक परिचय दिया जाता है। निःपक्ष जगत पर बाजाये तेरेही अश्चल ५.५: जिसमें कर्तव्य के निर्देश का भाव नहीं रहता या यहाँ भगवती अहिंसा की गोदी और उसके स्वल्प रहता है। एतिहानिक, वैज्ञानिक दार्शनिक आदि ग्रंथों में तथा समाचारपत्रों के समाचारों में अश्वल में रूपक है, क्योंकि भगवती अहिंसा कोई इस प्रक र मनुःया कर धारण करने वाली महिला इसी सत्य की मुख्यता है। नहीं है पर इस अलंकार वाक्य से अहिंसा की करनेवाले तो वस्तुसत्य से भी कुछ न कुछ महत्ता, माता की तरह कल्याणकारकतः आदि कर्तव्य का ज्ञान कर लेते पर वक्ता का मुख्य अनेक बातें जल्दी समझ में अ.न. है इसलिये यही उद्देश जहाँ वस्तुका या. घटना का रूप बतलाता भानकारिक वाक्य प्रयोग किया गया है। आलं- है वहाँ और उतने अंश में वह वस्तु सत्य है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग [३३२ ६-फलमत्य . - जिसका अभिधेय अर्थ से कम करना फल सत्य क्षन्तव्य है, असत्य हो, पर फल या प्रयोजन सत्य बाकी उभयसस्प बसत्य पान २ बस्तुमाय को अर्थ न्यापरक्षक, मनोकर या विश्वसुख उपादेश । के अनुकूल सुखकर हो, वह फलसल्य है । इन नव भेदों में कल्याण का विचार किया जैसे-- अत्याचार से किसी की रक्षा करने के लिये पादै पर इस में दृष्टि अभिधा क्षणा असत्य बोलना, लघुता न होने पर भी अभिमान और व्यन्जना की है। इमलिये अभिषा आदि दूर करने के लिये अपनी लघुता बताना आदि। की दृष्टिसे इन नत्र भेदों के दूसरे नाम इस प्रकार ७. पापमन्य यह है जिस में घटना की होगे - दृष्टिमे तो सचाई है की १-उभयसत्य- ......... पापमय मिलती है जैसे चोरी सिखाने के लिय सफल चार की कहानियों कहना आदि । यह घटना सत्य है पर होने से पाप सत्य है। ८-चम्नुभमन्य- जिस घटना से सन्देश कुछ न मिलता हो पर जिसका वर्णन अमात्य हो । स-सा र दृष्टिसे ही कोई टन समाचार कहना या इतिहास वगैरह कर गलत लिख जाना। इन नामों से अर्थ स्पष्ट हो जाता है । ९-उभयत्रमन्यः- वह है जिसमे घटनः याच्यवाचक भी असत्य है और उससे जो कर्तव्य के प्रेरणा की या शब्द और मिलती है या फल मिलता है वह भी अमत्य है। अर्थ की मुख्यता से थे जो नव भेद बतलाये गये भनयमा है उनपर विचार करके मनुष्य को उभयअसल्य है। दूसरो को सत्यत्रत टगने आदि के लिये जो झूठ पोला जाता है वह पालना चाहिये । पर यह भूलना न चाहिये कि बोलना सिर्फ शब्दों से नहीं होता-वृदय के भी उभयमल है। इन नव भेदों से पता लग सकता है कि कहाँ कहाँ किस किस अर्थ की भाव जिम जिस द्वार से बाहर निकलते हैं उस मुख्यता है और उसका प्रयोग किस प्रकार उस द्वार से भावों का निकालना भाषा ही है। करना चाहिये। इसलिये हमने यह कहा और वह कहा इत्यादि सभा में पापसत्य हेय है, में कहने से ही आने भावों का पता दूसरों को दोनों हेय हैं। उनमान का प्रयोग कम नहीं लगता और न केवल शब्दों से ही दूसरों के भाव जाने जा सकते हैं। हमारा बोलना * ३३१ पृष्ठ पर नव भेदों के नाम और कम कहाँ तक सत्य है या दूसरा आदमी कहाँ तक कुष्ठ गलत छप गये हैं। ठांक श्रम के अनुसार- हाहै-यह जानने के लिये हमें भाषा ६-फलसत्य पाना चाहिये । या रक्षक अस-य निकार ...... फलसत्य शामिल के सभी द्वारा से जांच करना देगी और जब - - Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत सभी द्वारों से एक ही भाव दिखाई देगा तभी जैसा स्वर हो वैसा अर्थ बन जाता है। शब्द से हमारी सचाई सिद्ध होगी। स्वर का मूल्य अधिक है क्योंकि शब्द की अपेक्षा भाषाद्वार- भाषा के पांच द्वार है मनुष्य स्वर पर अंकुश कम रखता है . या रख १. शब्द, २. स्वर, ३. चेष्टा, ४. आकृति पाता है-इसलिये उसके भीतरी भाव शीघ्र प्रकट और ५. कृति अर्थात् परिणाम या फल । हो जाते हैं। अपने मन के भाव शब्द द्वारा तो प्रगट ३---कभी कभी मनुष्य शब्द और स्वर किये जाते हैं परन्तु शब्द का ऊँचा नीचा स्वर, पर अंकुश रखकर अपने मनोभावों से उल्टे भाव शरीर की चेष्टाएँ, मुम्ब की आकृति और उनके प्रगट कर जाता है पर उसकी चेष्टाएँ उसके भावों के प्रदर्शन करने का परिणाम, इससे भी को प्रगट कर जाती है। जैसे कोई मनके भाव मालूम होते है। आदमी बिना किसी उत्तेजना के कह रहा है१-शब्द से मकान तीन तरह काम आपस द्वेष नहीं करता, मैं भला चाहता है: होता है उच्चरित, लिग्वित, सांकेतित । मख से पर अपने हाथों की मुट्टियाँ इस तरह दबा रहा बोला गया शब्द उच्चरित शब्द है। नागरी फारसी है माना वह मुट्टी में दबाकर पीस डालना चाहता आदिलिपियों में लिखा गया शब्द लिखित शब्द है। है । इस प्रकार उसकी चष्ट! उसके भावों को बता तार आदि में जो संकेत कर लिये जाते है. अंडे रही है। एक आदमी निर्भयता की बातें करता तथा रंगों से संकेत करके जो शब्द समझ लिये है स्वर भी ऐसा ही रखता है पर भागने की या जाते है वह सारित है । मनोभाव समझने छिपने की चेष्टा करता है तो यहाँ भी असली लिये उच्चरित शब्द उपयोगी है क्योंकि उससे के मनोभाव चष्टा ही प्रगट करती है। साधारणतः स्वर चेटा आकृति का भी पूरा सहयोग मिटता शब्द और स्वर से चेष्टा बलबान है। है इतना लिखिन सांकेतित आदि में नहीं मिल ४-शब्द, स्वर, चष्टा-इन तीनों से बलवान है मुखाकृति । हम किसी से कहते हैं-बड़ी खुशी २-स्वरसे भी भावों का पता लगता है और की बात है आपने मेरे दोष बताये इसके लिये मैं इसके द्वारा शब्दों की जाँच की जाती है। क्या धन्यवाद देता हूँ। यहां स्वर कोमल है हाथ जोड़कर कहा की अपेक्षा किस स्वर में कहा, इसका मूल्य नम्रता भी प्रगट की गई है पर. नाक की अधिक होता है । प्रेम के स्वर में कभी कभी सिकुड़न ने, ओठों की विकृत बनावट ने और माताएँ बच्चों को गाली देकर भी दुलारती है पर आंखों की उग्रता ने टीक. इससे उल्टा भाव प्रगट उन गालियों से बच्चे खुश ही होते हैं। इसलिये कर दिया है जिसे प्रगट करनेवाला भी ठीक ठीक जहाँ शब्द से कोई बात कही गई है वहाँ स्वर नहीं समझ पाया है। शब्द स्वर चेष्टा पर अंकुश भी उसके अनुकत होना चाहिये या कासे का रखने की अपेक्षा मुखाकृति पर अंकुश रखना उनके विरुद्ध न होना चाहिये अगर स्वर शब्दों कठिन है इसलिये नष्ट क.ले तीनों से बलवान के द्वारा प्रगट किये गये भावों के विरुद्ध हो तो अधिक प्रामाणिक है। सन्द का अच्छा या बुरा अर्थ नाहै, ५-दाद, स्वर, चेष्टा और मुखाकृति से बल Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग बान है पति या परिणाम तुमने कोईभीकैसा भी स्वर रहा हो, चेष्टा और मुखाकृति भी कैसी ही रही हो पर अगर कृति इनसे उल्टी है तो वही उल्टा अर्थ वास्तव मे सच्चा है | एक मी उत्तेजित होकर बेटे को खूब गाली देती है कझखाने न लुंगी एंडा लेकर भगाने की या घर से निकालने की चेष्टा करती है ह भी क्रोध मे नमतमा गया है पर कुछ मिनिटो के बाद ही रोटी खिलाने के लिये बेटे को डीफिरती है और रोटी खिनी है तो उसका यह कार्य या परिणाम उसकी चांगे नपाओं [शब्द स्वर, चेष्टा, मुखाकृति ] को जीतकर उनपर अप्रामाणिकता की छाप मार जाता है। एक भाई बड़ी नम्रता से पेश आते हैं, हाथ जोड़ते हैं, सेना करने की उत्सुकता दिखाते हैं पर समर्थ होने पर भी मौके पर काम नहीं आते तो उनकी शब्दादि भाषा की अपेक्षा यह पान अधिक प्रामाणिक हैं। एकबार एक प्रसिद्ध श्रीमान् से मैं मिलने गया, शब्द स्वर चेष्टा और मुख कृति से उनने खूब आदर व्यक्त किया, बोले- शाम का भोजन आपको मेरे यहां करना पड़ेगा। मैंने कहामुझे तो जाना है । वे बोले-कोई बात नहीं, एक ट्रेन पीछे सही, कुछ बात करेंगे। मैं ठीक चार बजे आपके स्थान पर मोटर भेज दूंगा । मैं उन्हीं की धर्मशाला में ठहरा था अनुरोध भी उनने जरूरत से ज्यादा किया था, पर चार बजे के बदले ६ || बज गये ठंड के दिन थे इसलिये भोजन का समय ही निकल गया पर गाड़ी न आई, लाचार होकर सात बजे की गाड़ी से में भूखा ही वहां से रवाना हो गया । इस परिणाम भाषा ने उनकी चारों भाषाओं का मूल्य कौड़ी भर न रक्खा। हो सकता है कि | ३३४ गये गये हो पि t उसके .5 उनकी की अनुसार उनके भूलने की बात पर विश्वास करने की जरूरत नहीं है ] फिर भी उनके वचन का अर्थ उनके कार्य से ही निश्चित हुआ । शब्द और अर्थ का कसा सम्बन्ध है और किससे कैसा अर्थ समझना चाहिये ! दूसरे के सत्यव्रत को हम समझ सकें, अपने सत्य को समझा सकें, दूसरे के असत्य के भ्रम में न आयें. इसके लिये उपर्युक्त भाषाहार तथा अभिधा आदि का वर्णन किया गया है। इसके बाद संयम की दृष्टि से अर्थात् भगवती अहिंसा की दृष्टि से हमें सत पर विचार करना है । भगवती अहिंसा का अंग है इसलिये सत्यासत्य का निर्णय हमें लोकहित की दृष्टि से करना चाहिये। कौनसा वचन सत्य है और -इसकी कसौटी लोकहित अर्थात् ही कहा जा सकता है । इसलिये कभी कभी असत्य भी सत्य हो जाता है और सत्य भी असत्य हो जाता है। जैसे- हिंसा भी अहिंसा है और अहिंसा भी हिंसा है - इसी तरह सत्य असत्य के विषय में भी समझना चाहिये । इस विषय में भी को कसोटी बनाना चाहिये। वर्धन रक्षण और विनिमय के लिये जे वचन कहे जायचे सत्य है, के लिये जो कहे जॉय है। सत्य और ससत्य के समझने में सुविधा हो इसलिये सत्य और तथ्य का अन्तर ध्यान में रखना जरूरी है। जो विश्वहित की दृष्टि से उचित हो ठीक हो उसे सत्य कहते हैं, जो घटना या वस्तुस्थिति की दृष्टि से ठीक हो उसे Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्यामृत - - - तथ्य कहते हैं । सर: तथ्य और सत्य यह भी मायक-अश्य है। दोनों मिले रहे यही अच्छा है पर अपवाद रूपमें प्रश्न--अनिन्दा आदि साधना ही हो ऐसा कभी तथ्य भी असत्य हो जाता है, कभी अतथ्य नियम नहीं है। कभी कभी यह इस तरह की भी सत्य हो जाता है। जाती है कि जिससे असंयम ही प्रगट होता है फिर भी हिसा जिस प्रकार अनिवार्य है गपचार में बाधा ही पड़ती है तो क्या आत्मउस प्रकार अनिवार्य नहीं है। कुछ कुछ निन्दा होने से ही यह मारक-अनथ्य हो जायगा। प्राणवध हमारे लिये जैसा अनिवार्य है वैसा । अश्य भाषण अनिवार्य नहीं है। प्राण उत्तर--अनिन्दः आदि के अनेक मतलब बिलकुल न हो और हम एकाध दिन जीवित हो सकते है। एक आदमी इसलिये आत्मनिन्दा करता है जिससे मेग पाप छिपा रहे और जो रह यह असंभव है पर हम मौन रहकर या शिक्षा मुझे दी जाने वाली है-वह न. दी जाय अतध्यमापण किये बिना जीवित रह सकते हैं। मेरा पाप सुरक्षित रहे, ऐसा आदमी साधकइसलिये हिंसामें जैसी शान बना है वैसी अतथ्य अतथ्यभाषी नो-यापक अयापी होगा। भाषण में नहीं है। इमी प्रकार अपनी तारीफ कराने के लिये ही जो फिर भी अतथ्यभाषण जीवन में रहता है मनिन्दा आदि करता हो वह भक्षक-अतथ्यऔर बड़े बड़े महात्माओं में भी रहता है। पर हर । भाषी है। पर जो शिष्टाचार के लिय या विनय तरह का अभाग पुण्य नहीं कहा जा सकता। के लिये आत्मनिन्दा करता है वह साधक है। है । इसन्दिये जैसे प्राणाय न विचारतभेदों में इस विषय में किमी का आशय समझना कुछ रियाघारह विश्वासघात या माग कठिन तो है पर बहुत कठिन नहीं है। आशय का भी करना चाहिये । उनमें से कौन के अनुसार काका भेद समझना चाहिये। कौनसा : कितना उपयोगी है या क्षन्तव्य है और कौन कौनसा स्यागने योग्य है प्रश्न.... बहुत से संत कह गये हैं कि मुझ इगका पता ला जायगा। समान कोई पापी नहीं है, मैं सबसे बड़ा खल हूँ १.साधक अनद... विनय आदि के दुष्ट हूँ आदि । ये बात वे इसलिये कह गये। कारण अपनी झूठ। निन्दा करना या निस्वार्थ कि उनने अपने मानसिक पापों का अनभत्र विनय से दूसरे की प्रशंसा में परिमित अतथ्य किया था - अपनी दुष्टता को समझा था। उनने भाषण करना -अमर है। इससे प्रेम अपनी समझ से अतथ्य भाषण नहीं किया था. बढ़ता है, अहंकार द्वेष आदि नष्ट होता है। पर यह भी निश्चित है कि वे दुष्ट पापी आदि प्रकार व्यवहार-शुद्धि अनेनी होती है नहीं थे और सबसे बड़े दुष्ट तो कदापि नहीं थे इसीलिये यामा- है। दुनिया का तो उन्हें अध्यापक कैसे कह सक्ने है ! काम न बिगड़े, दूसरों को ३ष्ट न हो इसलिये उत्तर-- वे साधक तो है ही और उनके आने ऊपर आये हुये संकट और वेदनाएँ प्रगट उद्गार साधकता के हो सूचक है, भले ही वे न करने के लिये अतथ्य ना करना पड़े तथ्यरूप हों या अतध्यरूप । उनके उद्दार Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग [ ३३६ उत्कट आमनिरीक्षण के सूचक है। उनने जो आई हुई जानकर हाथ जोड़कर देवी को शान्न जो अपने मनमें पाप देखा है वह तो मनुष्य करने लगे । देवी ने कहा-में जगदम्बा हूँ-जगत मात्र में होता है, साधारण जनें। में उससे बहुत की अम्बा, समझ : में मनुष्यों की अम्बा है तो अधिक होता है पर साधारण लोग अज्ञान और पशुओं की भी अम्बा है, पर तुम मेरे ही बेटों असंयम के कारण उसे पार ही नहीं समझते, न को मेरे ही सामने काटकर चढ़ाते हो ! तुम्हार अनुभव करते है, पर सन्त लोग सूक्ष्मदा बेटी को काटकर अगर कोई तुम्हें चढ़ाये तो नम्हें और संयमी या मोमिन होते हैं, इसलिये वे अपने कैसा लगे ! वैसा ही मुझे लगता है इसन्टिय में माधारण मानसिक विकारों को भी देखते है इस मन्दिर से चली गई। और उन्हें हटाने के लिये तड़पते हैं। यही देवी की बात से लोग घबराये । उनने कहानड़पन वे खुदा या ईश्वर के सामने या दनिया के सामने मां, तुम जैसा कढोगी मा ही होगा पर तुम पेश करते.हे । पर वास्तव में वे अपने को सब लौट आओ। से बड़ा पापी नहीं समझते हैं और समझते भी देवी ने कहा-बस एक शर्त पर में लोट हों तो होते नहीं है, इसलिये आमशुद्धि के लिये सकता हूं कि कल से तुम लोग यहां पशुबन्ति उनका यह अ पना है-पर साधक न किया करो। अनभ्यभाषण है। लोगों ने मंजर किया और पशुबलि बन्द हो सक- भाग से मनुष्य असत्य- गई । इसमें सन्देह नहीं कि इस प्रकार झुट बोलने बादी नहीं कहलाता। याना की दृष्टि से से लोगों का धर्म और पशुओं का मुख बढ़ा, यह फलसत्य भाषा है। परन्तु कभी कभी ऐसे अतथ्य हानिकर भी होते २ वर्धक--अतथ्य-वरित या विश्वहित है। न होने पर इसकी प्रतिक्रिया भी के अविरुद्ध परहित करने के लिये जो अतध्य हो सकती । साथ ही परस्पर में विश्वास भी भाषण किया जाता है वह वर्धक-अतथ्य। कम होता है। दमका निद दृष्टान्त देना कठिन है क्योंकि प्रश्न-- अगर कोई अपराधी प्राणदंड या एक जगह जो वर्धक है दूसरी जगह वह वर्धक अन्य पंड पानेवाला हो, पर हमारे झूट बोलने से नहीं रहता। अतथ्य अविश्वास पैदा करके हित बह बच सकता है। तो उसे बचाना मुम्बवर्धक होने की अपेक्षा अहित ही अधिक कर जाता है। से वर्धक अतय कि नहीं! फिर भी इसकी उपयोगिना है । जैसे-एक बार की उत्तर-- नहीं, क्योंकि यह एक घटना है कि एक जैनी भाई देवी के आगे होने- होने से अधिक दुःख पैदा करेगा । र, वाली पशुबलि रोकना चाहते थे पर उन्हें विश्वास जो अभी गाय सा मालूम होता है संकट टल जाने था कि समझाने बुझाने से लोग मानेंगे पर शेर हो जायगा । तुम्हारे सामने विनीत नहीं इसलिये उनने रात में देवी की मृत्ति छिपा दी रहने पर भी वह दूसरों के सामने गर्जेगा कि और दिन में देवी का भाव खलने लगे । लोग हमने अंक की हत्या भी की, पर किसीने मूर्ति न देखकर और उनके शरीर में देवी को मेरा क्या कर लिया ! कदाचित् वह न भी गर्ने Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ ] सत्यामृत - पर हत्या आदि प्राणदंड के योग्य अपराध को कुछ समय बाद झूठे प्रलोभन बेअसर भी हो जाते हैं। निष्फल देखकर दूसरों के दिल से हत्या का डर अतथ्य किसी भी क्षेत्र में हो कुछ समय बाद निकल जायगा । इसलिये दंड व्यवम्मा में गड़बड़ी वह बेअसर होजाता है या इतना बेअसर होजाता पैदा करना वर्षकअनध्य नहीं है । इसमें है जितना बेअसर प्राणघात या अर्थघात नहीं अगर तुम्हारा वार्य नहीं है तो अनिये कहे, होता इसलिये अहिंसा के अपवादों की अपेक्षा अर को बचाने में अगर तुम्हारा स्वार्थ है तथ्य के अपवादों का उपयोग कम ही करना चाहिये। तो भक्षक या तक्षक है। ३ न्यायरक्षक-अतथ्य-न्यायकी रक्षा के प्रश्न-- मानलो एक अपराध ऐसा है जिसे लिये, अत्याचार से बचने बचाने के लिये जो सरकारी कानून अपराध मानता है पर वास्तव म अतथ्य भाषा किया जाता है वह न्यायरक्षकवह अपराध नहीं है। सरकार का अन्याय अतथ्य है। अतथ्य की खराबियाँ तो इसमें भी हैं रोकने के लिये वह किया गया है तो ऐसे इसलिये जहां तक बने इसका भी प्रयोग कम करना अपराधी को छिपाने में वर्ध अनय है या नहीं। चाहिये, पर ऐसे प्रसंग आ सकते हैं जब हमें उत्तर-- सरकारी कानून से मनुष्यता का रक्षक, अतथ्य बोलना पड़ता है। इसके लिये कानून बड़ा है इसलिये निस्वार्थ या निःपक्ष एकाध उदाहरण देना उपयोगी होगा। रीति से मनुष्यता के कानून की रक्षा के लिये एक सती के पीछे गुंडे पड़े हैं और वह सरकारी कानून की कमी अवहेलना करना पड़े ऐसी जगह छिप गई है या ऐसे रास्ते चली गई है तो यह उचित है । उस हालत में अ. .. जिसका हमें पता है । गुंडे हमसे पूछते हैं तो करना पड़े तो वह अर्थक अभय कहटागगा। उस समय हमारा कर्तव्य तो यह है कि हम झूठ हाँ, अतथ्य से जो हानि होनी है वह यहाँ भी न बोलकर अहिंसा से या हिंसा से उन गुंडों हो सकती है। को रोक लें । पर मानलो अपनी अशक्ति या विप___ यद्यपि आज मानव समाज इस परिस्थिति में रीत परिस्थिति के कारण हम उन्हें नहीं रोक नहीं है कि वर्षमय का बहिष्कार करके भी सकते, उनको भुलाने के सिवाय दूसरा कोई मार्ग उसके द्वारा होनेवाला वर्धन दूसरे उपाय से कर उस नारीकी रक्षा का नहीं है तो उसकी रक्षा के सके फिर भी प्रत्येक मनुष्य का यह कय लिये हम झूठ भी बोल सकते हैं-यह न्यायरक्षक होना चाहिये कि इस अतथ्य के बिना वर्धन करने अतध्य होगा। की कोशिश करे । इतने पर भी वर्धन के दिये प्रश्न-अहम मौन रहं या ऐसा गड़बड़ अनिवार्य हो उठे तो अमन पग क्षन्तव्य है। उत्तर दें कि शब्दों से झूट बोलना न कहलाव पर हां, यह बात अवश्य है कि जमाना ऐसा आता उनको कुछ समझ में न आवे तो कैसा ! जाता है कि इस अनथ्य का उपयोग कम । का उपयोग कम उत्तर--अन्नध्यभाषण की अपेक्षा यह मार्ग ही हो । जैसे झूठे प्रलोभनों से बच्चों को पढ़ने कुछ अच्छा है। पर देखना यह चाहिये कि मौन ने इन वरना आदि अत्र कम पसन्द किया रहने से गंडे कुछ समझ तो नहीं जाते ? कभी है की इससे हानि बहुत होती है और कभी मौन भी भापा का काम कर जाता है । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग - प्रश्न- इस मार्ग को कुछ अच्छा क्यों कहना ५ भाग्यज - जिस प्रकार भाग्य से प्राणचाहिये ! छल से मौन रखना या गड़बड़ बोलना घात बतलाया गया अर्थात बतलाया गया, उस भी तो अतध्य भाषण हुआ। प्रकार , " नहीं होनागिर भी प्राकृतिक उत्तर-- कुछ रट तो अवश्य हुआ पर कारणा सकुछ का कुछ मुनाई दिया जाया निस्वार्थता होने से आरन न के लिय होने से यह पापठल महा । साथ ही प्रगट रूपने नाम भाग्यज :....कह सकते है इस झट बोलने मे इसमें इतना लाभ अवश्य है कि म किसी का देर नहीं है। अमुक आदमी मुंह से झट नहीं बोटता इमलिये ६मत से या और किसी कारण मंड के शब्दों की या साफ शब्द की कामन से भ्रम हो जाय और उस भ्रम से अतथ्य भाषण बढ़ जाती है इसलिये उतने अंशों में हो जाय तो यह भ्रमज है। इसमें भी प्रकार भी कम होता है। अपराधी नहीं कहा जा सकता। हो, भ्रम न हो न-- डाकुओ से अपने धनकी रक्षा और उसे भ्रम कहा जाय और अपने अतथ्य करने में झूठ बोला जाय तो कैसा ! सती की रक्षा भाषण को भ्रमन कहकर पापफल से बचा के समान इसमें निस्वार्थता नहीं है ! जाय तो यह तक्षक होगा। यह पूरा पाप है । इसी उत्तर-- निस्वार्थता नहीं है पर अन्याय का प्रकार कपाय वेग के कारण भ्रम हो जाय तो विरोध अवश्य है क्योकि डाकुओं का काम भी पाप है । जैसे-एक आदमी हमारा शत्रु है मापूर्ण है इसलिये डाकुओं से असत्य हमारे मन में उससे घृणा द्वेष आदि है, उसने बोला जाय तो यह न्यायक अनम होने से कोई बात महज भाव से कही पर हम उसका क्षन्तव्य होगा। पर इसमें भी कोई सन्देह नहीं सहज अर्थ नहीं लगाते, ऐसा अर्थ लगाते है जिससे कि यह सतीत्वरक्षण आदि पर कर उसकी निदा हो, और उस भाव का प्रकाशन अतध्य-भाषण के बराबर क्षन्तव्य नहीं है क्योकि करते है तो यह भ्रमजान होगा इसमें मुख्यता स्वार्थ की है। आदर्श तो यहां भी तक्षक : होगा। तध्यभाषण ही है, पर परिस्थिति अनुकूल न जैसे एक संयुक्त कुटुम्ब में कुछ चीज खाने हो तो अतथ्य-भाषण किया जा सकता है वह के लिये आई, कुटुम्ब का कोई आदमी वह चीज क्षन्तव्य होगा। टेने लगा, कुटुम्ब के मुखिया ने उससे कहा थोड़ी ४ सहज- सहज हिंसा की तरह सहज थोड़ी चीज दूसरों को देना है इसलिये कुछ अतथ्य भाषण नहीं होता । हिंसा तो बिना बची रहने दना । यह मृरना इसलिये थी कि प्रयत्न के भी हो जाती है पर अतथ्य भ. पण लेनेवाला मर्यादित उपयोग करे, पर कुटुम्ब के इस प्रकार बिना प्रयत्न के नहीं होता । बिना मुखिया से था उसे द्वेष, इसलिये उसने ऐसा अर्थ प्रयत्न के अगर की आवाज निकाली भी जाय लगाया कि ये हमें कुछ लेने ही नहीं देन्ग चाहत, तो उसका सम्बन्ध-विधान से नहीं होता पद पद पर अपमान करना चाहते हैं। इसलिये इसलिये उभे अतथ्य-भाषण नहीं कह सकते। उसे बदनाम करने के लिये बह इस तरह चिल्लाया Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३९] सत्यामृत जिससे मेहमान सुन सकें कि मुझे क्या जरूरत और फिर चौदह आने में सौदा हो सकेगा, पर है मैं तो मेहमानों के लिये ले जाता हूँ उनका उतने में तो सौदा किया नहीं जा सकता इसलिये सन्मान करने में भी आपको बुरा लगता है तो हमने अठारह आना दाम बताया, उसने चौदह जाने दीजिये, यह पड़ी है, अथवा इस तरह आना कहा अन्त में कुछ हम घटे कुछ वह बढ़ा, चिल्लाया कि मुझे क्या करना है मैं तो अमुक एक रुपया में सौदा जम गया । यह अतध्य बीमार को यह चीज दे रहा हूँ, मैं तो इसीसे भर भाषण आरम्भज है । जरूरी तो यही है कि पेट रोटी भी नहीं खाता भूखा रहता हूँ। उसके दूकानदार एक बात की दूकान बनाले पर कभी चिल्लाने से मेहमान तथा अन्य रोगी आदि ने कभी ऐसा होता है कि एक बात की दूकान चल मुखिया को मनही मन बुरा समझ लिया, निन्दा नहीं पाती । एक बात की दुकान में न ज्यादा न की, कदाचित् द्वेष भी पैदा हो गया । कम, ऐसा नियत मुनाफा रक्खा जा सकता है पर देखने में यह भ्रमज अतथ्य भाषण हुआ है जब दूकानदाग में प्रतियोगिता होती है तो वे कोई चीज नियन मुनाफे से कम मुनाफा लेकर या मुनाफा क्योंकि चिल्लानेवाले ने भ्रम से कुछ का कुछ न लेकर बेचते हैं और दूसरी चीजमें अधिक मुनाफा समझ लिया है पर वास्तव में यह भ्रमज नहीं है। ले लेते हैं, इस प्रकार टोटल बराबर कर लेते हैं पर भ्रमज तो वहाँ कहा जायगा जहां इन्द्रिय या बुद्धि या ज्ञान संस्कार के कारण कोई भ्रम होगा, कषाय इसमें एक बातवाला दूकानदार मारा जाता है इसलिये कुछ दिन बाद वह भी अनेक बात में के कारण जो भ्रम होता है बह तक्षक अतथ्य सौदा करने लगता है। हाँ, दुकान असाधारण भाषण है। इसमें जो उग्र कषाय भाव है इसका जो बाहिरी जगत पर परिणाम होता है, एक हो या दुकानदार में बहुत दिनों तक घाटा सहने मनुष्य की सरलता का जिस निर्दयता से उपयोग की ताकत हो तो एकबात की दुकान जमजाती है, अथवा किसी जगह व्यापारियों में प्रतियोगिता किया जाता है उसको देखते हुए यह बहुत ही नहीं होती तो वहाँ भी एकबात की दूकान नांव अतथ्यभाषण है महिला उग्र पाप है। इसलिये भ्रमज अतथ्य भाषण का विचार बौद्धिक सहज ही में जम सकती है । पर इन कठिनाइयों को कोई हल न कर सके और अनेक बात में कारणों को देखकर करना चाहिये द्वेषादि वृत्तियों सौदा पक्का करे तो यह आरम्भज से पैदा होनेवाला भ्रम, भ्रम नहीं है तक्षण आदि अतथ्य कहलायगा। पर मानलो ऐसा ग्राहक अपनी दुकान ७ आरम्भज-अनभ्य- र आदि में पर आया जो आपसे साधारण ग्राहक की तरह जो अतथ्यभाषण जरूरीसा हो जाता है और बार बार भाव न करेगा, आप जो कहेंगे वही जिसमें किसी को ठगने की वृत्ति नहीं रहती सिर्फ मान लेगा तो उसको साधारण ग्राहक की तरह उचित लाभ लेने और उचित रहस्य छिपाने की भाव बताना और साधारण ग्राहक से अधिक यत्ति रहती है वह आरम्भज-अतथ्य है । जैसे- मुनाफा लेकर सौदा देना भक्षकअतथ्य है किमी ग्राहक को एक रुपये में सौदा देना है पर बल्कि अमुक अंश में चोरी है । ऐसे विश्वस्त हम एक रुपया कहेंगे तो वह बारह आना कहेगा ग्राहकों से एकबात की दुकान की तरह साधारण । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग मुनाफा ही देना चाहिये | बल्कि अगर ज्यादा दाम बोला गया हो तो उसके दाम वापिस करना चाहिये या कम लेना चाहिये । इसी तरह जब कोई हमसे यह कहे कि अमुक चीज़ पर इतने प्रतिशत सुनाकर आप चीज दें और आप उसके को मंजूर कर लेत फिर जूट बोकर उसे ठगनान चाहिये अन्यथा यह हो जायगान रखेगा। प्रश्न- बहुत से मनुष्य बिना किसी द्वेष के छोटी छोटी बातों में झूठ बोला करते हैं पन्द्रह मिनट की कह जायेंगे और एक घंटे मे आयेंगे अमुक समय पर आने को कह जायेंगे और घंटे भर बाद आयेंगे--इसमें बहुत हानि होती है । यह है तो आरम्भज, पर, आरम्भज के समान जरूरी नहीं मालूम होता । उत्तर - यह आरम्भज नहीं, प्रमादन है । आरम्भज को क्षन्तव्य मानना चाहिये, पर इस प्रमादज को क्षन्तव्य मानना पड़ता है। वास्तव में यह अपराध है । समय की पावन्दी का हरएक आदमी को खयाल रखना चाहिये । कोई आकस्मिक संकट आ जाय या बहुत जरूरी काम आ जाय और समय की पाबन्दी न हो सके तो बात दूसरी है पर उसके लिये कारण बनाकर अपनी आलोचना अवश्य करना चाहिये और कारण के महत्व के अनुसार पश्चात्ताप भी प्रगट करना चाहिये । हमने अमुक समय दिया है इसका खयाल रखना चाहिये और उसके पालन की चिन्ता करते रहना चाहिये, थोड़ा बहुत त्रास सहकर भी उसका पालन करना चाहिये । पी या प्रमाद बिलकुल न हो, कोशिश पूरी हो, फिर भी अगर समय की पाबन्दी न हो • सके तो यह आरम्भज - अवश्य होगा | अगर ठीक कारण न हो तो प्रमादज होगा । [ ३४० ८ स्वरचक तथ्य कोई आदमी अपने को धोका देना चाहता हो ये धोखे से बचने के लिये हमें अतथ्य बोलना पड़े तो यह होगा । पर यह स्वरक्षक न्यायके विरुद्ध न होना चाहिये। एक तरह से यहवार क्ष में का अंश है, पर न्यायरविचार गौण हे कदाचित् नहीं है जबकि इसमें स्वार्थ का विचार है। न्यायरक्षक में न्याय के लिये प्रवृत्ति है स्वरक्षक में स्वार्थ के लिये प्रवृत्ति है का स्थान इससे ऊंचा है । अपना रहस्य छिपाने के लिये कभी कभी जो जननका करना पड़ता है वह भी अन | वह न्यायरक्षक के लिये ही न हो पर न्याय के विरुद्ध न हो । जहाँ तक हो सके से भी बचना चाहिये, जो भी तथ्य से जीतना चाहिये | अय से अनध्य को जीतना क्षन्तव्य तो है पर अतथ्य से जो आती है उसमें हानि होती ही है । ९ प्रमाइज अय-से जो मनुष्य असत्य बोलता है वह प्रमाद असल्य 1 समय की पाबन्दी न करना असत्य से व्यावहारिक जीवन में सबको बहुत असुविधा झेलना पड़ती है इसलिये इस अतथ्य का भी त्याग करना चाहिये । १० अविवेकज अतथ्य-अन्धश्रद्धा अविचारकता आदि के कारण मनुष्य जो झूठ बोलना है वह अविजय है । ११ बाधक अतथ्य - ऐसा अतथ्य जो साधक सा मालूम हो, पर चला गया हो न्याय में बाधा डालने के लिये, वह है । इसका Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१] भत्यामृत विवेचन साधक-अतथ्य के विवेचन में किया गया इससे प्रेम और आत्मीयता बढ़ती है । इतिहास विज्ञान है । यह अतथ्य गहरा पाप है। आदि में इसी की अधिक से अधिक आवश्यकता है। १२ तक्षक अतथ्य-ऐसा झूठ बोलना २ शोधक तथ्य-दूसरे व्यक्ति के या. समाज जिससे दूसरों के दिल को चोट पहुँचती हो, उसकी के दोप इस मतलब से कहना कि ये दूर हो जाय, झूठी निन्दा होती हो, पर अपना कोई स्वार्थ सिद्ध न निन्दा का भाव मनमें न हो, सुधार का भाव मनमें होता हो। अपना कोई लाभ हो या न हो पर बहुत से हो तो यह शोधकतथ्य है । समाज सुधारक आदि आदमियों को ईर्ष्या अहंकार आदि के कारण इसमें को यह शोधक-17 बहुत कहना पड़ता है । खूब मजा आता है कि दूसरे की झूठी निन्दा की इसी आशय से पिता पुत्रके, गुरु शिष्यके दोष जाय, दूसरे के दिल को झूठी बात कहकर चोट बताता है, शोधक तथ्य अप्रिय तो हो जाता है पर पहुँचाई जाय आदि । यह अतध्य पूरा पाप है। उसके मूल में सद्भावना और हितैषिता रहती है । १३ भक्षक अतथ्य - स्वार्थवश झूठ बोलना, प्रश्न-अगर कोई मनुष्य बदमाश है, धूर्त है, इन अनयभेदों का अच्छाबुरापन प्राणघात के समाज को ठगता है, अथवा अपनी अज्ञानता या समान है । उसपर विचार करके अतथ्य का नासमझी के कारण समाज को कुराह में ले जाता न्याग करना चाहिये। है या समाज की हानि करता है तो उसके कार्यों इन भेदों के विवेचन से इतना पता लग की निन्दा करना पड़ती है या विरोध करना जाता है कि अतथ्य वचन छोड़ने योग्य होने पर पड़ता है; विरोध में उस व्यक्ति के सुधार की भी कोई कोई अतथ्य वचन अच्छे हैं। इसलिये भावना गौण हो जाती है पर समाज के रक्षण या साधारणतः तथ्य और सत्य का साहचर्य होने पर सुधार की भावना रहती है तो इसे क्या कहा जाय ? भी कभी कभी और कहीं कहीं अतथ्य भी सत्य उत्तर- इसे शोधक-तथ्य कहना चाहिये हो जाता है । इसी प्रकार यह भी खयाल में क्योंकि इसमें अगर व्यक्ति की निन्दा भी है रखना चाहिये कि कहीं कहीं और कभी कभी तो समाज के हित के लिये है। हां, व्यक्ति यमी अमन्य हो जाता है। की निन्दा करने के लिये समाजहित की यहाँ माय-भाषण के कुछ भेद कर दिये दुहाई दी जाती हो, समाजहित का बहाना जाते है जिससे तथ्य की सत्यासत्यता जानने में बनाया जाता हो तो यह निन्दक-तथ्य होगा । और व्यवहार करने में सुभीता हो। अगर निन्दा झूठी हुई तब तो यह तथ्य ही १-शुद्ध, २-शोरक, ३-प्रमादज, ४-राह- न कहलाया यह तो तक्षक या भक्षक अतथ्य स्विक, ५-निन्दक, ६ पापोतेक। बन गया । शोधकतथ्य तभी होगा जब अपनी १ शुद्ध नथ्य-जिसमें भलाई-बुराई का विशेष बात ईमानदारी से ज्यों की त्यों कही जायगी, विचार नहीं है, तथ्य को अधिक से अधिक हित- एक तरह की निष्पक्षता होगी, व्यक्तिगत विरोध कारी मानकर कह दिया जाता है, बोलचाल में होगा पर निन्दा झूठी न होगी, एक व्यक्ति का माधारण लोग जिसे मुख्य रूपमें सत्य मानते हैं वह विरोध बहुत से व्यक्तियों के अहित को दूर शुखमय है। इसे विश्वासवर्धक भी कह सकते हैं। करने वाला होगा । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग [ ३४२ हां, एक बातका और भी खयाल रखना क.. . ख- हिनाहित, गवान चाहिये कि जब हम समान की शुद्ध दृष्टि का परापन । से किसी व्याक्ति का विरोध भी करें तो यह क- किसी बात को करने की जिम्मेदारी देख लें कि विरोधी की भल नासमझी के कारण हमार ऊपर कितनी है--उसका म्यया-ट रक्खे।. हुई है या न्याय देताना आदि असंयम के जिम्मेदारी या - भी दो तरह कारण । अगर नासमझी से हुई हो तब हमें ___ का होता है एक तो नियोजित दूसरा सहज । , उसके व्यक्तित्य को पूरी तरह मक्षित रखना नियोजित अनः तो यह है जिसमें हम चाहिये और इस बात की पूरी कोशिश करनामी समाचार का कहने के लिये नियुक्त किये चाहिये कि विरोध के कारण उसक चित न या हो जाते हैं। गुप्तचर, ..... सम्मान या उचित स्वार्थ को यक नर पर ममालक. निरीक्षक (इन्स्पेक्टर) आदि इसी अगर यह माइम हो कि विरोधी व्यक्ति स्वयक तरह के उत्तरदायी है। सहज उन्म : कारण समाज को कुराह पर ले जा रहा है तो यह है कि जिससे हम प्रेम, अनुराग या मोह के उसके व्यक्तित्व आदि के विषय में उदासीन । या में होकर बिना किसी प्रेरणा के घर का रहकर या व्यक्तित्व आदि की पर्वाह किये बिना समाचार उधर कह देने है। उसके मत का ईमानदारी और नि:पक्षता में विरोध करना चाहिये । यह सोचकन महज उस में जो प्रेम, अनुराग या मंद रहता है वह तीन तरह का होता हैबहलाया। १--उन्मोन, २--मूटप्रेम और :- । ___३ प्रमादज तथ्य-- किसी बात को ज्यों जिसका समाचार कहा जाता है यह मूल है, का त्यों तो कहना, पर कहने की उपयोनि जिसको समाचार कहा जाता है वह पात्र है। का विचार न रखना प्रमादजतथ्य है | कहा जाता है कि किसी किसी के पेट में बात नहीं उभयप्रेम में हम ऐसा ही सम.च.र इधर से उधर पचती, वह बिना स्वार्थ के या द्वेष के इधर की कहते हैं जिससे हम दोनों की भलाई समझते बात उधर या उधर की बात इधर कह देता है। है, इस बात का खयाल रखते है कि दोनों में से उसमें द्वेष नहीं होता कि जिससे उसे चुगल- किसी को बुरा न लगे किसी का भी अप्रिय खोर या निन्दक कहा जा सके, उसमें सिर्फ काम न हो, दोनों को प्रसन्नता हो । एक तरह का अविवेक या लापर्वाही होती है। मूलप्रेम से हम ऐसा ही समाचार कहते हैं पर यह लापर्वाही होती है बहुत भयंकर, कभी जिससे मूल का हित समझते हैं, समाचार कहने कभी इससे बड़े बड़े अनर्थ हो जाते हैं। से मूल को प्रसन्नता होगी ऐसा खयाल करते हैं। इसलिये बात को पचाने की अधिक से अधिक जैसे उसने कोई तारीफ काम किया हो उसमें शक्ति हमारे भीतर होना चाहिये । अगर कभी कोई गुण हो तो उसका प्रचार करना आदि । कहीं ऐसी बात का जिकर करना भी हो तो इसमें पात्र की अपेक्षा मल से प्रेम अधिक इन तीन बातों का विचार कर लेना चाहिये। होता है। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ सत्यामृत पात्र-प्रेम से हम ऐसा समाचार कहते है जो पात्र को प्रिय या आवश्यक माह होता है, मलको प्रिय होगा या न होगा इसका विचार नहीं करते, इसमें मूल की अपेक्षा पात्र से प्रेम अधिक होता है। सहज उत्तर में जहाँ तक उभयप्रेमी बना जाय यहाँ तक अच्छा है। इस प्रकार तथ्य बोलने पहिली विचारसय उना की है । ख- दूसरी बात हिताहित की है। ऐसी श्रीनर से उधर कहो जिससे दुनिया को कुछ लाभ पहुँचता हो या हानि की अपेक्षा लाभ अधिक होता हो । ग- तीसरी बात है--बान का पुरापन | अधूरा तथ्य कभी कभी झूट से भी भयंकर होता है इसलिये जो बात कहो वह ऐसी कहो जिससे उसके जरूरी जरूरी सभी पहलु प्रगट हो जॉय | सुननेवाले को कोई भ्रम पैदा न हो जय । जैसे मानो मैंने किसी आदमी के विषय में कहा कि उसकी यहाँ जरूरत नहीं है क्यों कि यहाँ तो किसी तरह काम चलता ही है पर अमुक जगह बहुत जरूरत है इसलिये उसको वहाँ ही रहना चाहिये । तुमने उस आदमी से जाकर कह दिया कि वे (मैं) कहते थे कि तुम्हारी ( उसकी ) वहाँ जरूरत नहीं है। पूरी बात न कही कि क्यों जरूरत नहीं है ! उसने समझा कि मुझे नालायक समझा जा रहा है । इससे उसके मन में क्षोभ हुआ, और आदि। यह बात के अधूरेपन का फल था। बात के अधूरेपन से कभी कभी बड़े बड़े अनर्थ हो जाया करते हैं । इन तीनों बातो का विचार करके उधर समाचार ले जाना या पहुँचाना चाहिये अन्यथा चुप रहना चाहिये बात ने की आद डालना चाहिये, नहीं तो यह प्रमादज तथ्य होगा जो कि बहुत हानिकर है । ४ रायिक तथ्य - किसी के न्यायोचित गुप्त रहस्य को जानझकर करना राहस्थिकतथ्य है जोकि अनुचित है इसलिये असत्य है । में भी रहस्य की बात प्रगट हो जाती है पर उसमें प्रसाद या लापर्वाही की मुख्यता है | राहस्थिक में द्वेष या कपाय की मुख्यता है । प्रश्न- अगर दूर के दुराचार का भंडाफोड़ न किया जाय तो जगत में पाप का तांडव होने लगे पर राहास्थिक अतथ्य को आप अस या अनुचित कहते हैं, तब दुराचारियों से समाज की रक्षा कैसे की जाय ! उत्तर- न्यायोचित रहस्य को प्रगट करने की मनाई है जो गुम रहस्य अनुचित है, जिसके अप्रगट रहने में जगन की हानि अथवा अन्याय या पाप के फैलने की आशंका है या उसी के पतन की आशंका है-वह रहस्य प्रगट किया जा सकता | अगर कोई डाकुओं का दल कहीं आक्रमण करने की तैयारी कर रहा है और हमें इस बात का पता है तो वह रहस्य प्रगट कर देना और डाँकुओ को असफल बना देना उचित है। कोई आदमी जाली सिक्के या नोट बनाकर जनता को परेशान करता है तो उसका रहस्य प्रगट कर देना भी उचित है। कोई आदमी चुपचाप की या परहल्या की चोरी करने की या व्यभिचार करने की तैयारी कर रहा है तो उसका वह रहस्य खोल देना और उसके पाप बना देना उचित है। इस प्रकार को दृष्टिसे रहस्य खोला जा सकता है 1 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के अंग ३४४ प्रश्न--देश में ऐसे भी साधु हुए हैं जो निन्दक तथ्य है। पापियों के रहस्य के विषय में भी मौन रखते थे बहुत से लोग अपनी निन्दकता छिपाने के बिलकुल वीतराग थे, उनका कार्य हितकर था या लिये कहने ... किसी की आपसी अहितकर ! नहीं करते साफ बात कहते हैं किसी को बुरा लगे उना- लोग भगवती की विशेष साधना तो भले ही लो आदि । पर ऐसे लोगों को याद करते हैं या जिनकी सेवाएं विशेष क्षेत्र में रखना चाहिये कि का चापलसी से के कारण परिमित हैं या जिनके सिर पर कोई विरोध है इसका अर्थ निट से महयोग नहीं एक जिम्मेदारी एसी है कि अगर वे साधारण मार्ग है । स्पष्टवादी होने के लिये इस बात का विचार से चलें तो वे अपनी .. न कर सकेंगे, जारी है कि तुम्हारा वक्तव्य जनहित के लिये उनको अपना जीवन विशेष रूपमे मयदिन बनाना जरूरी हो या उस आदमी के हित के दिन पड़ता है। अगर टाकू भी उनके ऊपर विश्वास हा जिसके विषय में तुम स्पष्टवादी बने हो। कर सके कि ये हमारा भी रहस्य दुनिया में प्रगट अपना बहमन बघारने के लिये और इसके लिये न करेंगे तो डाकुओं के मन में यह श्रद्धा किसी दूसरों के मामली दोषों को बढा बढ़ा कर कहने दिन उन मुनियों के द्वारा डाकुओं का कल्याण के लिये नह।। करा सकती है। इसलिये वीतरागता का वह र किसी व्यक्ति के या समाज के सुधार के भी किसी किसी के लिये कभी कभी उपयोगी हो लिये जो जाती है वह सकता है। पर यहां तो रहस्य प्रगट न करने शोधक तध्य है। शोधक तथ्य सत्य है वालों का विचार नहीं करना है किन्न रहस्य निन्दक तथ्य असत्य है। प्रगट करनेवाले का यह विचार करना है पापोचेजक म बात कहना जो कि कोई आदमी निस्वार्थ भाव से या घटना की दृष्टि से तो समान होती हो पर न्याय की रक्षा के लिये किसी का रहस्य प्रगट उसका पमित्र अर्थात् कन्यापन हो कर दे तो वह कैसा है। जो भगवती की जैसे-चारी जवा आदि से कोई आदमी धनी बन विशेष साधना के लिये पापियों का भी रहस्य गया तो इसका इस दंग से उल्लेख करना कि वह प्रगट नहीं करते उनका विचार साधना के अनुसार मालूम हो तो यह बात सेनेजर किया जाना चाहिये। राहस्यिक तथ्य के विषय में तथ्य है इससे पाप को उत्तेजना मिलती है। तो यह मान, सईये कि परिस्थिति आदि के अनु- प्रश्न-जगत में अगर पापा सार पापियों का रहस्य प्रगट न करना क्षन्तव्य हो देकर सफल होता है तो उसका उल्लेलम्ब न करने सकता है। से कैसे चलेगा ! हमारे आँख बन्द कर लेने से निन्दकन...बान में सचाई हो पर उसके जैसे दुनिया मिट नहीं जाती उसी प्रकार पाप की कहने का मतलब न तो सचाई हो, न विश्व- सफलता का उल्लेख न करने से पार की सफलता अ. , किन्तु दूसरे को नीचा दिखाना, मिट न जायगी। पाप इस प्रकार सफर क्या होता एक ढंग से अपने घमंड की पजा करना हो वह है इसका पता लगाने के लिये कम से कम पाप Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ ] की सफलता का उल्लेख जरूरी है। उत्तर- प की वह सफलता क्यों होती है। और उसे कैसे रोका जा सकता है इत्यादि विचार के लिये पाप की सफलता सूचक घटनाओं का उल्लेख पाक तय नहीं है क्योंकि इससे पाप को उत्तेजना नहीं मिलती। इसमें तो पाप की उस सफलता को रोकने के लिये उनका उपाय ढूँढ़ने के लिये इशारा किया जाता है । सत्यामृत प्रश्न- घटना का परिणाम कुछ भी हो पर समाचार पत्र आदि का काम है कि वे घटना को ज्यों का त्यों प्रकाश में लायें। हो सकता है कि जिससे हम बुरा परिणाम समझते हों उससे अच्छा परिणाम निकले । उत्तर- समाचार पत्रों का सम्बन्ध जहां तक समाचारों से है वहां तक उन्हें शुद्ध तथ्य ही प्रगट करना चाहिये। जब वे उपदेशक के रूप में काम करें तब उन्हें खयाल रखना चाहिये कि उनका तथ्य शोधक हो पापोत्तेजक तथ्य नहीं । प्रश्न- बहुत से विद्वानों का मत है कि कला कला के लिये है। इसलिये वे अपने कथा साहित्य में परिणाम पर विचार नहीं करते वस्तुस्थिति पर विचार करते हैं । उनका कहना है कि दुनिया मेंस की ही विजय नहीं होती असत्य की भी होती है नाकिता के विषय में उपेक्षा क्यों करें और एक निश्चित लकीर पर ही चल कर पाठकों की उत्सुकता पहिले नष्ट करके मजा किरकिरा क्यों करदें ? हम सत्यासत्य की पर्वाह किये बिना कला की ही उपासना क्यों न करें ! उत्तर- सय पर जगत स्थिर है इसलिये का को स्थिर रहने के लिये सत्य के यहां स्थान न होगा ऐसी बात नहीं है । कला को विकला विरुद्ध जाने की कोई जरूरत नहीं है, नाना 1 भी न चाहिये । वास्तविकता सुखान्त ही नहीं है दुःखान्त भी है । इसलिये कलाकार को सुखान्त की तरह दुःखान्त का भी चित्रण करना चाहिये । पर सुखान्त हो या दुःखान्त दोनों में ही सत्य रह सकता है रहता है । पुण्य का फल सुख और पाप का फल दु:ख, दोनों में सत्य है । कलाकार पाप या पुण्य किसी को भी नायक बनाकर दुःखान्त या सुखान्त कथा लिख सकता है। दोनों में कला के लिये स्थान है दोनों में ही सत्य हैं । I प्रश्न - पुण्य का फल सुख बताना और पाप का फल दुःख बताना, दोनों एक ही बात है । पर जीवन में तो पुण्यात्मा भी दुःखी और पापी भी सुखी देखे जाते हैं - इस तथ्य पर कलाकार क्यों उपेक्षा करे और कलाकार यदि उपेक्षा भी कर जाय तो पाठक के मन का समाधान कैसे हो, तथ्य पर प्रकाश न डालने के कारण क्या वह साहित्य पर विश्वास करना न छोड़ देगा ! उत्तर - पुण्य या पाप किसी काम का नाम नहीं है जो काम जनहित या विश्वहित के लिये उपयोगी है वह पुण्य है, जो इसके विरुद्ध है वह पाप है। जिसे हमने पुण्य कहा है उससे अगर दुःख मिलता है तो यह सोचना चाहिये कि ऐसा हुआ क्यों ? सुखकर ही तो पुण्य है फिर पुण्य दुःखान्त कैसे हुआ ! यहां अवश्य ही ऐसी बात मिलेगी जिसके विषय में हमें भ्रम हुआ है ? अधिकतर होता यह है कि जब सदाचार साथ में विवेक नहीं होता तब भावना अच्छी होने पर भी समझदारी न होने से पुण्य भी दुःखद जाता है, अर्थात् जो कार्य साधारण रूप में जनहित के लिये है, वह देशकाल का विचार न करने से अहित के लिये हो जाता है । पुण्य को Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवनी के अंग खान्त बताने का मतलब यह है कि विवेकडीन जिसके पाप को मुम्ल्यता देना है उसको नायक ण्य की निरर्थकता बताई जाय, अथवा समाज रिवाज कम है। होना भी चाहिये। की उस विग्रेकर पर प्रकाश डाला जाय ३-इस श्रेणी में उन लोगों के चरित्र आते लिने पनि के पुण्य को निष्फल बना दिया है। है जो थे तो पुण्यामा, पर उस पुण्य के अनुरूप समाज की विवेकानन या व्यक्ति की विवेक- जिनमें मान्य क्षेत्र काल भाव का विवेक नता ही पुण्य की निमालय में कारण है । नहीं था इसलिये उनका पुण्य सफल नहीं हुआ। ठखक अगर इसकी तरफ इशारा करता है, इसके उनने भगवान सब को पाये बिना भगवती अहिंसा लेये चरित्रचित्रण में एक धर्मात्मा का बलिदान को पाने की चेष्टा की इसलिये उनका जीवन कग देता है तो यह दुःखान्त चित्रण भी दुःस्वान्त हुआ। इसमें उन राजपूत वीरों की कहासत्य है। नियाँ आ सकती है जिनने ईमानदारी और बहा१ पुष्पप्रधान सुखान्त दरी से प्राण दिये पर अहंकारवश संगठन न कर २ पापप्रधान , दुःखान्त मके या अन्यायी का भी पक्ष ले बैठे। ३ व्यकिटोपनबान पुण्य चरित्र , 2- में उनके चरित्र आते हैं जिनने ४ पाप ,, सुग्वान्त किये तो पाप है पर उनमें कुछ ऐसे गुण रहे हैं जो ५ समारोन निकाशित दाबान्त उन्हें जीवन में मार सके हैं । उद दाग ६ समाजदेाषप्रधान व्यक्तिपाप सखान्त अपने या अपनी जाति के स्वार्थ के लिये साम्राज्य ७ पुण्यप्रधान चरित्र दुःखान्त निर्माण करना एक पाप है पर इस पाप में ८ पाप प्रधान , सुखान्त सफल होने वालों के गुर से दुनिया ९ प्रकृतिप्रधान , दुःखान्त का साहित्य भरा पड़ा है। उनमें साम्राज्य बनाने १० प्रकृति प्रधान, सुखान्त बाले महापुरुषों के बारता र कसहि१-इसमें नायक के पुण्य का सफल प्णुता अभिनव सत्य सदाचार अपी-दिखाई देते उत्कर्ष बताया जाता है, उसके पाप तथा समान हैं उन्हीं से उनका जीवन सफल रहता है लेखक के पाप गौण रहते हैं या इतने कमजोर रहते हैं का जोर भी इन्हीं गुणों की तरफ होता है । इसकि नायक के पुण्य से पराजित होकर निष्फल लिये इन्हें सुखान्त बनाने में भी कुछ विशेष नि जाते हैं । म. राम की कथा, पांडवों का जीवन नहीं है बल्कि बहुत कुछ लाभ भी है। आदि इसी तरह के हैं । भारतवर्ष में अधिकांश ५-इस श्रेणी में ऐसे महापुरुषों के चरित्र पुराने चरित्र इसी श्रेणी में आते हैं। आते है जो पूर्ण पुण्यात्मा अर्थात भगवान सत्य २-इसमें व्यक्ति के गुण गौण रहते हैं पाप की और भगवती अहिमा के लाडले थे विवेकी भी मुख्यता होती है और पाप सफल होकर चरित्र थे सदाचारी भी थे, फिर भी जिनका जीवन को दुःखान्त बनाता है। शिशुपालवध, कीचक- सुखान्त नहीं हुआ । जैसे महामाईमः । महात्मा वध, जयद्रयवध, आदि इसी श्रेणी के हैं। इस ईसा का जीवन महान था, पवित्र था, विवेकपूर्ण प्रकार के चरित्र कुछ कम ही लिखे जाते हैं क्योंकि था, फिर भी अपने जीवन में वे कोई सफलता Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ ] न देख पाये । इसमें उनका नहीं समाज का अपराध था ऐसे महात्माओं के दुःखान्त चरित्र में समाज के दोषों पर ही मुख्यता से प्रकाश डाला है जाता 1 सत्यामृत इस वर्ग में महात्मा ईसा सरखे महान् व्यक्ति ही आते हैं सो बात नहीं है किन्तु समाज की चक्की में पिन-पिसकर जिन जिन छोटे बड़े व्यक्तियों का बलिदान हो जाता है वे सब आते हैं, उनकी उस विषय में निरपराधता ही पुण्य है जिसकी निष्फलता के कारण उनका चरित्र पांचवें वर्ग में आ जाता है । समाज के अत्याचार से पीड़ित कोई विधवा आत्महत्या करले तो इस समाजदोष का प्रदर्शन भी इसी वर्ग में आ सकता है। इस वर्ग में समाजदोष की मुख्यता 1 ६ - इस वर्ग में वे चरित्र जाते हैं जो समाज के दोष के कारण पापपूर्ण होनेपर भी सुखान्त होते हैं । यह भी सकता है कि उस सुखान्तता का कारण व्यक्ति के कोई असाधारण गुण हो । सो अगर उन गुणों पर प्रकाश डालने का लेखक का विचार हो तो वह चौथे वर्ग का अर्थात् व्यक्तिगुणप्रधान पापचरित्र कहलायेगा । पर अगर लेखक का विचार व्यक्ति के गुण दिखाने का नहीं है, उसके तो इ पाप ही दिखाना चाहता है फिर भी जगत की घटनाओं को देखकर उस पाप को सुखान्त बताता है तो इस जगह उसे समाज के किसी दोष पर प्रकाश ढाउना चाहिये जिससे पाप भी सुखान्त हो सके । पाप कहते ही उसे हैं जो विश्व में सुख की अपेक्षा दुःख अधिक बढ़ानेवाला जो कार्य पाप है वह आगे पीछे विवर्धन करने बाला तो होगा ही, फिर भी स्कूल रूपमें जो बह सुखान्त मालूम हुआ उनका कारण ढूँढ़कर बताना लेखक का काम है जिससे सुखान्त दिखनेवाला पाप दुनिया से दूर हो | दुराचारी, ढोंगी, दुःस्वार्थी, धर्मगुरु, नेता आदि समाज की छाती पर तागड़धिन्ना करते हुए भी सफल देखे जाते हैं वे अपने ही समान अन्य स्वार्थियों को इकट्ठा कर लेते हैं इस पाप की पीढ़ियाँ तक सुखान्त देखी जाती हैं पर दूसरी तरफ इनसे समाज की हानि देखी जाती है इसका कारण होता है - समाज का अविवेक, अपरीक्षकता आदि । इसकी तरफ ध्यान दिलाने से पापी जीवन को सुखान्त दिखाने में भी बुराई नहीं है । इन छ वर्गों के कथानक ऐसे हैं कि इनमें से किसी भी वर्ग का कथानक लेखक चुन सकता है फिर भी सत्य का विरोधी नहीं होता । जो लोग तथ्य को मुख्यता देना चाहते हों और दुःखान्त लिखना ही पसन्द करते हों और भले आदमियों को भी दुःखान्त चित्रित करना चाहते हों वे भी तीसरे व्यक्तिदोषप्रधान पुण्यचरित्र और पांचवें समाजदोषप्रधान व्यक्ति पुण्य वर्ग के चरित्र लिख सकते हैं इनमें तथ्य का भी निर्वाह है और सत्य का भी इनको पापोत्तेजक तथ्य नहीं कह सकते । कला कला के लिये है, येह कहने वालों को इन छः वर्गों में अपनी कला का विहार कराने के के लिये इतनी गुंजायश है कि उनकी कला किसी की पर्वाह किये बिना काफी विहार कर सकती | कला की स्वतन्त्रना में भी बाधा न आयगी न तथ्य का विरोध होगा न सत्य का । आगे के जो वर्ग हैं उनमें से सातवें आठवें वर्ग का उपयोग किसी लेखक को न करना चाहिये, वे पापोत्तेजक हैं, और तथ्यहीन भी हैं। नव दसवें वर्ग भी पापोत्तेजक हो Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगानी अंग - सकते हैं पर उनमें पाप की पर्वाह नहीं है, अपवा समाज का कोई ऐसा दोष हो जिसस वह कथाकार या प्र कार का विषय नहीं है। समाज के लिये दु:खकर कार्य भी व्यक्ति के यह तो इतिहासमा निक निकालिये सुखकर रूप में मफल बन जाता है, तो ७-किसी पुण्य को दुःखान्त बताया इम समाजदोष की तरफ ध्यान दिलाने से यह जाय पर उस दुःख का कारण न तो व्यक्ति का छट्टे वर्ग का हो जायगा पन्त न तो समाज दोष बताया जायन '. यह सानीं श्रणी का दोष बताया जायन व्यक्ति के गुण की तरफ है जो कि सत्य हान भी है और तथ्यहीन भी है। इशारा किया जाय और फिर पाप को सुखान्त य .. ३' जीवन भी जगत् में दःखान्त बनाया जाय नी यह नेक है असत्य है देख जाता है पर वह सामूहिक रूप में मुखान और अतथ्य भी है । सामूहिक रूपसे जो सुखसे होताहे यह बात न भरना चाहिये। अगर अधिक दुःख दे वही तो पाप है इस पापको वह सामूक रूप में सुखान्त नदी तो उसके सुखान्त बताना नप और सत्य दोनों का विद्रोह मूल में कोई काम किन चाहिये जिसमें करना है। वह वर्ग अका। अगर काई मामा ९-१०- , घटनाए. सुखान्त जिक दोष नहीं है तो व्यक्तिगत दोयना भी होती है और दुःखान्त भी। एक आदमी चाहिये जिससे सीमर वर्ग में आ जाय। मामा- धर्मात्मा था पर मकान पर बिजली गिरी इससे जिक या व्यक्तिगत कार भी दोष न और दबकर मर गया; एक आदमी पापी था, भूकम्प पण्य जीवन दुःखान्त हो जाय -यह बात तय हुआ जमीन फटी उस मे वह नीचे गया पर हीन है और सत्यहीन तो है ही। इस प्रकार के दूसरे ही क्षण दुसरा कम्प आया वह आदमी चित्रण मन को पृण्य से लार्वाह बनाकर अन्त नीचे से उछलकर फिर ऊपर आगया, बच गया, में नजर देते है। के नाम पर इस प्रकार माधवर मुखान्त दुःखान्त घटनाएँ भी इ.का चित्रण नहीं किया जा सकता । वास्तव इतिहास लेखक या समाचारबाहकों के विषय है। में ये स्वाभाविक है भी नहीं। कथाकार को इन का उपयोग सन्देश देने के ८-पाप को सुखप्रद चित्रित करना टियन करना चाहिये और अगर भोले लोगों के आठवाँ वर्ग है। यह भी सातवे वर्ग की साह दिल पर प्रभाव डालने के लिये करना भी पडे तथ्याविरुद्ध और समविरद है। जीवन में पापी तो इस प्रकार करन! चाहिये कि पहिले या दुसरे का जीवन भी मुक देखा जाता है उसके वर्ग में उन्हें शामिल किया जासके । भीतर सामूहिक दुःख रहता है। इसलिये सामूहिक इस प्रकार चरित्रनित्रा के लिये दस वर्ग रूप में वह दुःखान्त ही कहा जा सकता है। बनाकर विवेचन करने से ने तथ्य का अथवा उस व्यक्ति में कोई गुण ऐसा जबर्दस्त वास्तविक रूप समझ में ने होता है जिससे उस का जीवन सुखान्त हो से बचने के लिये कला की हत्या करना पड़ेगी जाता उ नकी तरफ अगर ध्यान दिलाया या तथ्य पर उपेक्षा करना पड़ेगी । जाय तो वह चित्रा वर्ग का हो जायगा। को नष्ट करना पड़ेगा ऐसी कोई बात नहीं है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४९] सत्यामृत प्रारम्भ के छः वर्ग में रहने से साहित्य सत्य तथ्य जीवनमें जब संयम का प्रवेश होता है तब वह कलापूर्ण और स्वभाषिक बनजाता है। किसी एक ही रूप में दिखाई नहीं देता, वह इस प्रकार नाना तरह के अतथ्य और नाना सब तरफ़ से दिखाई देता है । यह हो. सकता तरह के तथ्य का विवेचन करने से पता लगजाता है कि कोई शक्ति के अनुसार कम ज्यादा संयम का है कि कहां किस रूप में कितना सत्य है । सत्य पालन करे पर यह नहीं हो सकता कि अमुक अन आखिर भगवती अहिंसा का एक अंग है अंग का पालन करे अमुक का नहीं। किसी इसलिये विश्वहित ही उसकी कसौटी है। किसी बीमारी के प्रगट होने का द्वार एकाध ही संसारहित है प्राण तेरा यम नियम सब अंग हैं। होता है पर बीमारी सर्वांगपूर्ण होती है, उसका यहाँ भगवती अहिंसा के तीन ही अंग फल मौत आदि भी सर्वांगपूर्ण होता है । इसी बतलाये गये हैं १-अहिंसा अर्थात् प्राणघातत्याग प्रकार असंयम भी सागपूर्ण है। अब यह बात २-अचौर्य अर्थात् अर्थघात त्याग ३-सत्य अर्थात दूसरी है कि किसी का असंयम प्राणघातरूप विश्वासघात त्याग । इसके सिवाय भी कर्तव्य में प्रगट होता है किसी का अर्थघात या विश्वाकर्म है जो उपांग हैं इसलिये इन अंगों में ही सघात के रूप में । प्रगट होने के द्वार के भेद समाजाते हैं। ब्रह्मचर्य अपरिग्रह आदि संयम के से असंयम में तरतमता नहीं होती । जो लोग अन्य अंगों का भी विवेचन किया जाता है पर अकेला सत्य आदि का व्रत लेते हैं वे संयमी विश्वकल्याण की दृष्टि से विचार किया जाय तो नहीं हैं संयम के एकाध बाहरी रूप के अभ्यासी वे उपसंयम ही मालूम होते हैं । ब्रम्हचर्य वास्तव हैं । हाँ, संयम में विश्वहित की दृष्टि से तरतमता में सद्भोग है और अपरिग्रह वास्तव में निरतिग्रह होती है उस दृष्टि से संयमी जीवन में तरतमता है। ये मूल संयम नहीं हैं संयम के साधक या बताई जासकती है और अंगों और उपांगों में अंग होने से उपसंयम है। भी तरतमता है। फिर भी देश काल के अनुसार संयम और साधारणतः यही उचित है कि मनुष्य पाप का इच्छानुसार विभाग करके विवेचन किया उपांगों की अपेक्षा अंगों को पाने की पहिले जा सकता है । भगवती के अंग दो या चार या चेष्टा करे । पर इसका यह मतलब नहीं है कि पांच भी किये जा सकते हैं यह सिर्फ समझाने मनुष्य णप से नहीं बच सकता तो अनुपापों की की शैली है। सीमा न रक्खे छोटा से छोटा अनुमगार भी अगर मैंने जो भगवती के तीन ही अंग किये हैं हम रोक सके तो भी अच्छा है विश्वहित में कुछ और बाकी को उपांग बनाया है इसका एक न कुछ सहायता मिलेगी ही, भले ही इतने से कारण यह भी है कि अंग और उपांग का जैसा हम संयमी न कहला सकें। जो मनुष्य दंभ के कम ज्यादा महत्त्व है वैसा ही मेरे बताये हुए बिना, लालसा के बिना, थोड़ा-मा भी विश्वहित भगवती के अंगों और उपांगों का है। करता है वह भी निरर्थक नहीं जाता। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकारकांड-लौथा अध्याय [भगवती के उपांग] चार उपांग सी उपयोगिता न रहे । बोलचाल में कहीं कहीं तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में उपांगकमंद भोग शब्द का अर्थ श्री पुरुष का लैङ्गिक विषयबतादिये गये है और उनी अध्याय के अंत में मेवन किया जाता है। साहित्य में और बोलचाल अग उपांगों की तरतमता बता दी गई। उप. म भोग शब्द काम के अर्थ में भी आताहै। उस संयम चार हैं १-सद्भोग, २-मदर्जन. ३-निर- आदमी ने जवानीभर खूब भोग भोगे अर्थात् हर तिग्रह, ४-निरतिभोग । इस तरह उपसंयम के तरह का वैषयिक सुख लूटा । पर यहाँ भोग विरोधी उपपाप भी चार है-१ दग २ दर्जन शब्द का अर्थ इससे भी कुछ व्यापक है। काम ३ अतिग्रह ४ अतिभोग । यद्यपि ये चारों उप से जो प्रसनद मिलता है वह तो भोगहेही पाप पाप में शामिल हैं फिर भी पाप और उप- पर माद भी भोग है। इस प्रकार स्वाद पाप में तरतमता है और वह तरतमता सामा- का आनन्द भी भोग है पेट भरने का आनन्द भी जिक दृष्टि से है । पाप नैतिक नियम और भोग है । इस प्रकार काफी व्यापक अर्थ में भोग सामाजिक मर्यादा के प्राण और शरीर दोनों को शब्द का उपयोग किया जा रहा है। इसके नष्ट करदेता है जब कि उपपाप बाहरसे मर्यादा अनुमार दिन के लिये उपयोगी किसी भी वस्तु की कुछ रक्षा करता है प्राण नष्ट करके भी बह का उपयोग कर लेना भोग है। शरीर को बचाये रखता है । उपपाप से हानि भोग कोई गप नहीं है। जहाँ तक वे अपने कम होती है ऐसा नियम तो नहीं है पर आघात को सुख देते हैं और दूसरों को दुःख नहीं देते सीधा न होने से हानि कम मालूम होती है। वहाँ तक इनका नर उपयोग करना सामाजिक नियमों का सीधा उल्लंघन न होने से चाहिये । भोग का त्याग वहीं पुण्य है जहाँ वह उपपापी को पापी नहीं कहते । विश्वसुखवर्धन के लिये उपयोगी हो जाय । सद्भोग निरर्थक ही भोगों का त्याग करना कोई मर या भोग शब्द के कई अर्थ हैं । पहिले काम कर्तव्य नहीं है। के चार भेदों में भोग नाम का पहिन्छ। भेद आया प्रश्न- पुराने जमाने में बड़े बड़े महात्माओने, है जिसका अर्थ था किसी चीज़ का ऐसा उपयोग जैसे म. महावीर म. युद्ध दिने गृहल्याग किया करना जिससे दूसरे बार अपने लिये उसकी था, उपयःम अदि किये थे, अधिक से अधिक Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१ ] सन्यामत - भोगों का त्याग किया था क्या वह सब पुण्य मनुष्य सुखी रह सके । नहीं था। __ एक बात और है। किसी को कला में उत्तर- वह पुण्य था क्योंकि उनने उतना आनन्द मिलता है, किसी को एकान्तमय -सादगी ही त्याग किया था जितना त्याग जरूरी था। में, किसी को किसी और चीज में, यह सब उनने विश्वकल्याण के लिये जो दोकमान अपनी अपनी रुचि की बात है, अचिकर होने का कार्य किया था उसके लिये उस समय से अगर हम किसी चीज का त्याग कर देते हैं तो गृहत्याग जरूरी था, बहुत पसलिंगगुता की इसे संयम नहीं कहते । संयम तो उसे कहते हैं कि आवश्यकता थी उनका अभ्यास भी करना था, जो रुचिकर भी हो परसराम या विश्वशिष्यों में ऐयाशी न आजाय इसके लिये खुद सुखवर्धन की दृष्टि से उसका त्याग किया जाय । आदर्श बनकर बताना था इसलिये उनने अनेक इमलिये रुचिकर होने पर भी दुर्भोग का त्याग तरह के कष्ट उठाये । जरूरत न होने पर तो करना चाहिये । सोग अगर अरुचिकर हो तो दोनों ने ही बहुत सी तपस्याओं का त्याग कर दिया उसका त्याग हो ही जायगा पर वह संयम न था। म. बुद्ध ने तो मध्यममार्ग का प्रचार करके कहलायगा । रुचिकर सद्भोग के त्याग करने की अनुचित देहदंड का त्याग कर ही दिया था जरूरत नहीं है। और म. महावीर ने भी केवलहान पाने के बाद कभी कभी रुचिकर सद्भोग के त्याग की बहुतसी बाह्य तपस्याओं का त्याग कर दिया था। भी जरूरत हो जाती है। महात्मा लोग जनहित ब्रह्मचर्य आदि तो उन्हें जरूरी ही था इसलिये के लिये गृहत्याग करते हैं, बड़ी बड़ी आमदनी रवा था। बाड़ते हैं, न छोड़ते हैं, जेलों में जाते हैं, हाँ, जो लोग उपयोनिता को देखकर त्याग यह सब साधारण संयम नहीं है किन्तु विशेष नहीं करते त्यागी कहलाने के लिये त्याग करते संयम है अर्थात तप है । तर भी सया का एक है, किसी अबसर की तैयारी करना भी जिनका अंश कहा जा सकता है पर उसमें एक बड़ा लक्ष्य नहीं है, अनावश्यक गंदगी रखते हैं, परिश्रम अन्तर यह है कि उसंम संयम के एक ही अंश से जी चुराते हैं और अनावश्यक कष्ट सहते है पर बहुत अधिक जोर डाला जाता है। बाकी वह सब व्यर्थ है । सद्भोग के त्याग करने की अंशोसे तप में बहुत कम सम्बन्ध रहता है । उन जरूरत नहीं है या अमुक अंश में किसी साधना अंशों में बह असंयनी भी हो सकता है। स्वतंत्रता के लिये त्याग करने की जरूरत है। त्याग करना के लिये जेल में जानेवाला बहादुर अगर निस्वार्थ चाहिये दुर्भोग का। हो तो हम उसे तपस्वी कहेंगे। पर यह हो कला का व्यसन न हो किन्तु कलाप्रियता सकता है कि वह अपने आन्दोलन के विषय में हो, परिमित शृङ्गार हो, स्वच्छता हो, कम खर्च गई नदार होकर भी ईवन में अन्य अवसर में स्वास्थ्यवर्धक स्वादिष्ट भोजन हो, इस प्रकार अनिवारी विवाद चरमर आदि हो। के भोग का त्याग न करना चाहिये । हाँ, सहि- इसलिये हम उसे नमस्त्री कहकर भी संयनी नहीं ष्णुता जमी है जिसमे इनके अभाव में भी कह सकते । साधारण तप और संयम एक दूसरे Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के उपांग [३५२ के अनुकूल हैं पर अनुकत होने पर भी उनके व्यभिचार की चार श्रेणियाँ हैंएक साथ रहने का नियम नहीं है। साधारण १. या न. २-असार रीति से तपस्वी असंयमी भी हो सकता है और गमन, : - मा . मान । संयमी अतपस्वी भी हो सकता है। वही मन बलात्कार आदि में व्यभिचार की मुख्यता हो यह शोभा की बात है। नहीं है हिंसा की मुख्यना है , वह एक तरह की इसमे इतना पता लगता है कि संयम के डकैती भी है इसलिये यह व्यभिचार से कई लिये दुर्भोग का ही त्याग जरूरी है सद्भोग का गुणा अधिक और दूसरी तरह का महरार है। त्याग नहीं । इसलिये सद्भोग उपसंयम है। उपपास से वह इतना अधिक और भिन्न है कि जनहित के लिये सद्भोग का ग्याग करना पड़े उपपाप के प्रकरण में उसका विचार भी नहीं तो वह तप है। किया जाता है। यह नो मनुष्यवध के समान यहाँ सद्भोग और दुर्भाग का विचार संयम बल्कि कुछ अंशों में उससे भी अधिक है। । की दृष्टि से ही करना है। जिससे हिंसा होती -सीमन मारामान भी उपपाप हो, द्वेष बढ़ता हो, द का भान न रहता नहीं है क्योंकि काफी बड़ी भारी चोरी है और हो, सामाजिक सुव्यवस्था भंग होती हो वह दुर्भोग बड़ा भारी असत्य है । वह अर्धघात और विश्वासहै, इससे उल्टा सद्भोग है। घात होने से पाप है। उपपाप के सद्भोग अगणित है इसलिये उन को गिनाने प्रकरण में उसका उल्लेख सिर्फ इसलिये किया जरूरत नहीं है। मख्य मख्य दोगों से जाना है कि वह व्यभिचार नामक उपापक मनुष्य बचा रहे तो इतना हाने से ही वह सोगी जाति का पाप है। कहा जा सकता है । इसलिये यहाँ खास बाम व्यभिचार, चोरी और विधामका में शामिल दुर्भोगों का विचार कर लिया जाता है। हो जाता है इसलिये उसे अलग गिनाने की एक बात और है, दुर्भोग का निर्णय भी जरूरत नहीं है अ५. 3. महत्ता चोरी और देशकाल के अनुसार होता है, या कम से कम किसी विश्वासघात से कम नहीं है बल्कि यह सामाजिक कार्य की दुर्भोगता देश काल के अनुसार काफी व्यवस्था और कौटुबिक जीवन को इस तरह घटती बढ़ती है। जैसे-मनमम हिंदुस्थान में बर्बाद करता है कि चोरी और झूठ का पाप भी दोग है बधि हिमा है जब कि ध्रुव प्रदेशों के इसके आगे फीका है। आसपास जहा बनस्पति दुर्लभ है वहां दुर्भग पिछले तीन मनिवार ही वास्तव में नहीं है या स्वरूप है। दुर्भोग भी बहुत से हैं पर उपपाप है। उनमें से मुख्य मुख्य के नाम यहां दिये जाते हैं। २- असम का अर्थ है जिनका १-व्यभिचार, २-नकम, ३-मान विवाह न हुआ हो या जो विधुर या विधवा हो ..१ व्यभिचार-- अपने पति या अपनी पनी उनमें सार कामसेवन होना। अगर उनमें से के सिवाय किमी पुरुष या खी से कामसेवन कोई भी एक विवाहित है तो वह व्यभिचार उपकरना व्यनिचार है। नही रह जनकिर अपने सहचर के साथ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ ] सत्यामत विकास और चोरी होने से पाप हो जाता आती है। विधुर जैसे एक दिन परपुरुष है लेकिन विवाह के बाद वही स्वपुरुष हो जाता है प्रश्न... ही पापी है या खुद और व्यभिचार का दृषण नहीं लगता उसी प्रकार अविवाहित होने पर विवाहिन के साथ कामसेवन विधवा भी एक दर-की है लेकिन उसके साथ करनेवाला भी पापी है। विवाह करने के बाद उसमें परस्त्रीपन नहीं रहता। उत्तर - दोनों विवाहित है तो दोनों पापी विधवा को परखी न कहिये क्योंकि है ही, पर अगर दो में से एक विवादित है तो जब पर ही नहीं तब परस्त्री कहाँ रही ? परन्तु भी दोन पापी है कयाकि दूसरे के सहचर के जो स्त्री तलाक दे चुकी है वह तो परस्त्री ही है साथ कामसेवन करना भी दूसरे के साथ विश्वास उसका पति जिन्दा है तब उस के साथ विवाह धात या चोरी करना है। हां, अगर किसी को करनेवाला व्यभिचारी कहाजायगा या नहीं? दूसरे के विवाहित होने का पता न हो तो वह उत्तर- तलाक अच्छी चीज नहीं है तलाक पापी नहीं कहा जायगा। कम से कम हो या बिलकुल न हो यह बहुत प्रश्न-वित्रा के साथ विवाह कर लिया अच्छा है । पर अगर हो जाय तो उस के साथ जाय तो इसे उपपाप कहा जाय या न कहा शादी करने वाला व्यभिचारी नहीं है । क्योंकि जाय! एक दिन जो पति था वह तो अवश्य जिन्दा है उत्तर- भिक माह तो पाप है ही नहीं, पर उस स्त्री की अपेक्षा उसका पतित्व जिन्दा साथ ही उपाप भी नहीं है। किसी का विवाह नहीं है। इसलिये वह स्त्री अब बिपत्रकेस्मान दुआ और उमरिया ! साथी मर चुका हे विवाह योग्य है। यही बात पुरुष के लिये है। न उस रिमणि हि के लिये वैसी ही हो विश्वाविवाह आदि प्रश्नी पर जो विचार जाती है जैसी उसी उम्र के कुमार या कुमारी की, मकि क्य-जितका शिकार हो रहा है करना पड़ता है उसका कारण यह है कि नर कुमारी हो या विधया उनमें होना । और नारी में अनारक या अन्यायपूर्ण विषमता आगई है। एक युग ऐसा निकल गया है जब में इसमें विश्वासघात है न चोरी। नारी सम्पचि के समान समझी जाती थी और प्रश्न- क्या विधवा के साथ संबंध करन में ऐसे भी दार्दिन गुजर चुके हैं जबकि पति के ज्यभिचार का दोष नहीं लगता ! यदि लगता है मरने पर उस की पनियाँ भी उस की लाश के ता बन्न -वित्र : में वह दोष कहां चला जायगा! साथ स्वाहा कर दी जाती थीं। वे क्रूर दिन तो उत्तर- बिना विवाह के तो कुमारी के निकल गये पर उनका अतर आज भी बना साथ संबंध करने में भी व्यभिचार का दोष है. हुआ है । नानाननाव जैना चाहिये वैसा पर विवाह के द्वारा जैसे कुमारीपन वसीमन अभी नहीं आपाया है । इसलिये विधुर का विवाह बदल जाता है. उभी प्रकार विवाह के दामन ई विधवः के विवाह में नई नई विषयापन भी स्वसीपन में बदल जाता । पर आपत्तियः गबई की जानी हैं। मामाजिक सुव्यपनका विचार करने से भी यही बात ध्यान में स्था या नर और नारी दोनों के हित की दृष्टि Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के उपांग 1३५४ - से जो उचित मालूम हो यह करना चाहिये जाती है उ अभागिनी करना चाहिय कर भी लेकिन पुरुष महान है और नारी हीन है इस जब तक उनके जीवन में कोई दूसरे पाप न हो दृष्टि से नारी को दुःखी करने की या उस के तब तक उन्हें याति के कारण पापिनी नहीं दुःख दूर करने में बाधा डालने की चटन का मते उन्ध उपाधिनः क मत है क्योंकि करना चाहिये। ___ के विषय में दाट-कार सम्बन्ध काटेती है। विवाहित है। में विस्तार से कहा गया है उममे समझ में यद्यपि विवाहिन परुष क माथ सम्बन्ध रखने आजाता है कि और बालीना को पापिनी ना चाहिये फिर भी में व्यभिचार की दृष्टि से कोई अन्तर नही ह म अन्य खियों का मनन अपराध मकतः । इस प्रकार उपाय नहीं उतनावमा का नहीं, क्योंकि ममान ने है । विवाह न करके विधवा या कमारी के म जिस नि की उसे ... है .. विधुर या कुमार का सम्बन्ध होना पाप है। सिया ...... के भेद पर जोर . .. ३- असहचर गमन से हन्टका उपपाप गया और इसको बनाने में भी वेश्यागमन । वेश्यागमन से जो अनेक दोष आ जाते या की कठिनाई है। यह . . ही इस हैं वह अलग बात है पर एक अमहनर अनि इंग की है कि समाज उन्हें इस तरह का भेद विवाह की सुविधा न मिलने पर वेश्यागमन कर करने के लिए विवश नहीं कर सकती कि तो यह उपपाप होगा। हां विवाहित ति. विवाहिनी को तुम अपने यहां न . अगर वेश्यागमन करे तो यह पाप होगा क्योंकि उनके ऊपर इस विवेक काटी जाय इस में चोरी अर्थात् अर्थघात और ये साफ है। है । विवाहित व्यक्ति का वेश्यागमन एक महान वृति अशी है या बुरी! अ नी मे उपपाय क्यों कहा जाय ! यदि प्रश्न- असहचर पुरुष वेश्यागामी हानी बरीत समाज ने इसके लिये अनुमति क्यों दी। उपपापी है पर स्वयं वेश्या क्या है ? प.पिनी या वृत्ति अछी तो नहीं है पर उपपापिनी ? उचर-वेक्ष्या पापिनी हो सकती है, होती उसकी अनुमति देना पड़ी है जिन पुरुषों का भी है, पर वेश्या अपने प्रेम से पापिनी विवाह नहीं हो पाया है वे अपनी याना नहीं है, क्योंकि समाज के द्वारा हुईया को शान्त करने लिये अन्य बिया पर नजर न अनुमोदित की हुई उम पर है । इस डाले इसलिये वेश्याओं की रचना कई है अगर में सन्देह नहीं कि जीवन का दु यजीवन वेश्याएँ. लियो की शीलरक्षा है और पाप के सारे द्वार ..., खुले .... हुए हैं कि अधिकांश वेश्याएँ उनमें खुले पिना , अगर पुरुषों में ऐसा उन्माद न होता जो नहीं रहपाती । जो वेश्यावृति के नाम अकरण कराना है, तो बेश्याओं की जरूरत Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५] सत्यामृत नहीं थी अथवा विवाह बन्धन काफी शिथिल खैर, बात यह है कि वेश्या--संस्था होना और क्षणिक होते तो भी इसे वेश्याओं की जरू- समाज के लिये शोभा की बात तो नहीं है सुख रत न होती पर विवाह की शिथिलता से कौटु- शान्ति की दृष्टि से भी यह आदर्श व्यवस्था नहीं म्बिकता नष्ट हो जाती इसलिये लिह-बन्धन की कही जा सकती, पर शोभा की हो या अशोभा दृढ़ता तो अनावश्यक है । अब तो यही कहा की, आदर्श हो या अनादर्श, जब तक समाज जा सकता है कि कामे माद जैसा शिथिल होता इस जमरन को पूरा करने का कोई दूसरा अच्छा जायगा उसी प्रकार वेश्याओं की जरूरत कम रास्ता नहीं निकाल पाया है और कानून के होती जायगी। द्वारा उसने वेश्या वृत्ति का समर्थन किया है तब समाज में वेश्याएं न रहें यह सब से अच्छी तक वेश्या अपनी वृत्ति के कारण पापिनी नहीं बात है पर इस अच्छे की अच्छाई तभी ठीक कही जा सकती। जब समाज में वेश्याओं की जरूरत न रहे । बेश्या को अपकिन कहा है क्योंकि जिस प्रायः सभी युवक युवतियां विवाहित हों, अविवा उद्देश को लेकर वेयः-संस्था को समाज के द्वारा हित अर्थात् असहचर हों तो वयस्क लोग हों या अनुमति मिली थी उस उद्देश का दुरुपयोग वेश्याओं कोई खास तरह के माधक तोगार के द्वारा होता है । वे विवाहित पुरुषों को भी अमरतन होगी। अपने सम्पर्क में लेती हैं इस प्रकार दाम्पत्य को प्रश्न-असहचर पुरुषों के लिये तो वेश्यामों धक्का पहुंचाती हैं । इस दृष्टि से समाज को की जरूरत हुई पर असहचर नारियों को वेश्या वेश्याओं की जरूरत नहीं है । विवाहित पुरुष तो सरीखी किसी पुरुष संस्था की जरूरत क्यों नहीं येया-मेवन से पूरे व्यभिचारी बनते ही है पर हुई ! अगर बिना किसी ऐसी संस्था के असहचर जीविकः की ओट में वेश्याएँ भी व्यभिचारिणी नारियो का काम चल गया तो असहचर पुरुषों बनती है, इसदिने वेश्या को उपपापिन, कहा का काम क्यों नहीं चल सकता ! है । उसके लिये यह ममा जानुमोदित पाप है, उसकी जीविका ऐसी है कि विवाहित सम्पर्क से उत्तर-नर और नारी की शरीर रचना नया बचना उस के लिये कुछ कठिनसा है इसलिये उसके आधार से बनी हुई मनोवृत्ति के कारण इसे उपपाप कहा गया है । अगर कोई वेश्या यह नारी उस प्रकार आक्रमणशीटा नहीं है जैसा प्रतिज्ञा लेले कि मैं विवाहित पुरुष को अपने पुरुष है । इस विषय में नारीको पुरुष के आक्रमण ___ सम्पर्क में न आने दंगी तो वह शीलवती कही से बचाने की जितनी जरूरत है उतनी पुरुष को जा सकती है । इस प्रकार व्यभिचारहीन वेश्यानारी के आक्रमण से बचाने की नहीं है । मूल न उनकी जीविका ही कहलायगी, पाप या कारण तो यही है जिससे असहचर नारी के लिये उपपाप नहीं । हो सकता है कि कोई विवाहित बझ्या सरीखी किसी संस्था के बनाने की जरूरत उसे धोखा हे जाय पर उसे जानबूझकर आँख नहीं पड़ी। दूसरा कारण सामाजिक है । आर्थिक बन्द न करना चाहिये यथाशक्ति सच्चे दिल से सूत्र पुरुष के हाथ में होने से नारी ऐसी या जाँच करलेना चाहिये तब उसका कोई अपराध न का उपयोग नहीं कर सकती थी। होगा वह शीलवती कहला सकेगी। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के उपांग [ ३५६ खर, वेश्या भी शीलवती हो सकती : नही है, जिम्मेदारी से भागना हे, और समाज की । पूर्ण करने के कारण समाज में इसमे दृग्ववृद्धि होती है इसलिये यह कुछ शीलवती बेदया को भी नहीं कह पाप अवश्य है और साध्येि इमे उपपाप कहा है। सकते पर पुरुष उपपापी अवश्य है, क्योंकि प्रश्न- बहुजन्य को उपचाप कहा जाय उसका वेश्यामेवन ममा जडित के कारण नहीं है, या नहीं ! असंयम के कारण है । शीलवनी के मिवाय अन्य उत्तर- ययाभिचार सम्बन्धी उपाय वेश्याएं ::::- है और जिमबी ने .. " का निर्णय , परिस्थिति के अनुसार ही के लिये नहीं जनहित के लिये नी किन्तु विषय- किया जाना चाहिये किन्तु जब विवशता के तष्णा को खराब देने के लिये कार कारण कोई राई समाज में घुमजाती है तब किया हो वह पापिनी है उमका व्यभिचार उप- ........: होने पर भी धर्म उस बुराई का पाप नहीं कहा जा सकता, वह पाप है । अगर चुपन हिंमा अहिंसा के अधार पर करता सार , बने तो उपपाप है। है। इसलिये बहुपक्षीय उपपाप है। पहिली पक्षी ?- अनमिन ....." का अर्थ है विना के प्रति वद विश्वासकान है। शादी किये हुए किमी को पति या पत्नी बनाना। जड़ी तक मुझे मालूम है यहां तक इम शादी अमुक विधिम होना चाहिये मी या प्रश्न से सम्बन्ध रखने की दृष्टि से दाम्पत्य बात नहीं है पर एमां का घपण अवश्य करनाम्या तीन तरह की है १- अभिन्न दाम्पत्य चाहिये जिससे समाज के आगे दाम्पत्य के व जन में एक पति और एक पनी होती है । यही कार प्रमाणित हो सके । मनमुटाव होने पर मावस्या उत्तम है ।२- .:. जहाँ किसी के आपत्ति में पड़ने पर दोनों में कोई अनेक माई एक स्त्री के साथ शादी करलेते है। या न कह सके कि हमारा इसका क्या रिश्ता ! भारतवर्ष विषय में प्रसिद्ध यह हमारा विवाहित पति या विवाहित पर्व नीतिब्बत में यह प्रथा रही है और आज भी है । अनगिन साहचर्य में अर्थात् किसी प्री ! यह अनुचित है फिर भी इमे उपाय नहीं को या पुरुष को रखैल बनाने में दाम्पत्य की कह सकते क्योंकि इस मे बहुपर्धा,स्व सरीम्बा रिसे भागने की चेष्टा करने का ... · नही किया जाता। है। जब तक देने मे अधिक लेना हुआ तब तक स म सब भाई या अनेक भाई मिलकर टीक, जब प्रतिसेवा करने का अवसर आया तब एक साथ एक नारी की चुनते हैं, नारी इस कार्य भगा दिया यह ल है इसलिये जब तक दापत्य में किसी पुरुष के साथ नहीं करती के पूरे बन्धन को दोनों स्वीकार न करे त तक इसलिये यह उपाय भी नहीं है फिर भी यह उनका सम्बन्ध एक तरह का व्यभिचार ही है। अभी प्रथा नहीं है क्योंकि इससे बहुतसी बिया हां, उस समय उन दोनों की रग है पतिहीन रह जायेंगा साथ ही इससे नारी के कार किसी तीसरे के अधिकार को धक्का नहीं लगता भी बढ़ सकते हैं, उचित परिमाण में प्रेम का इसलिये इसे न कहा । पर इस में परी .. .. नहीं हो सकता। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७] सत्यामत इससे भी खगत्र प्रथा बहुपत्नीत्व की है। कठिनाई बहुपत्नीत्व में भी है इसलिये कानून के इस में वहिली पत्नी का अधिकार छीना जाता है द्वारा या तो दोनों अनुमोदित हो या दोनों त्याज्य कुछ विवाद भी किया जाता है। समाजानु- हो। मादिन हाने से और थोड़े बहुत अंशों में कभी आदर्श और अधिक से अधिक व्यवहार्य तो आवश्यक भी होने से इसे पाप नहीं कहा फिर अभिन्न दाम्पत्य है जिसमें एक ही पत्नी और एक भी इसे उपपाप अवश्य कहना चाहिये । और इस ही पति रहता है पर अपवाद के रूपमें अगर प्रथा को नष्ट करना चाहिये । कभी इस नियम को शिथिल करना पड़े तो बहुप्रश्न- दो सखियाँ अगर एक ही पुरुष को पत्नीत्र और बहुपतित्र दोनों को जगह मिलना चाहती हे दोनों में परस्पर गाद प्रेम भी हो दोनों चाहिये जिससे नाव को धक्का न इस बात पर रजामन्द हो कि वे उस पुरुष के लगे। साथ ही यः नियम रखना चाहिये कि एक साथ शादी करके मिलकर हैं, इस प्रकार दोनों ही साथ बहुत पति या बहुत पन्नियाँ बनाई जाय की एक साथ उस पुरुष के साथ शादी हो जाय एक विवाह के बाद दूसरा विवाह करके बहुत तो इसे उपपाप कहा जाय या नहीं ! पनि या बहुत पत्नी न बनाई जाँय क्योकि इसस उत्तर--इस हालत में यह उपपाप न रहेगा। पहिले पति या पहिली पत्नी के साथ एक तरह इस की बुराई बहुपतित्व के बराबर रह जायगी। का निधन होना है । अगर पहिले पति या अगर दोनों की उस पुरुप के साथ शादी न पहिली पनी से स्वीकृति भी ली जाय तो भी वह होने के कारण जीवन में कोई दुःखान्त घटना स्वीकृति शुद्ध नहीं होती उसमें किसी न किसी होने की सम्भवना हो तो दोनों को माथ ही तरह का दबाव पड़ता है । शादी का पहिये । पर यह भी खयाल रखना प्रभ- आर दो में से किसी एक में ऐसी उचित है कि जैसे दो सखियों का किसी एक दृष्टता हो कि दाम्पत्य निभ ही न सकता हो या पुरुष पर आसक्त होना सम्भव है उसी प्रकार कोई एक ऐसा बीमार पड़ गया हो कि वर्षों दो मित्रों का एक ही नारी पर आसक्तचना या जीवन भर दमन्य सुविधा उससे न मिल सम्भव है इसलिये अगर दोनों मित्र रजामन्द हो सकती हो तो ऐसी हालत में क्या किया जाय ! जाय और वह स्त्री भी रजामन्द हो जाये तो उत्तर--- शब्द का दुरुपयोग न किया दोनों को एक साथ इसके साथ शादी कर लेना जाय फिर अगर सचमुच दाम्पत्य को अशक्य कर चाहिये इसलिये प्राधिक बहुपत्नीत्व की तरह देनेवाली दष्टता हो तो तलाक दे देना चाहिये । अपय कि बहुपतित्व भी कानून से अनुमोदित पर बीमारी के कारण तलाक देना उचित नहीं होने चाहिये, दोन। मित्र प्रतिस्पर्धी बनकर एक जहां तक हो बीमार को निभाना चाहिये । हां, दमो क ना करें इस की अपेक्षा बहुपतित्व को अगर बीमारी असाध्य हो बहुत लम्बे समय के क्यों न अपनाले ! लिये हो, कोदाल जाकर बनन' हो, और इस मे सन्देह नहीं कि जीवन के अन्त तक अपनी जवानी का प्रारम्भ हो, ये चारों बातें हो बहुपतिथ का मुम्बमय रहना कठिन है पर यह तो बीमारी की सेवा और वर निह का उचित्र Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवताकउपाग प्रबन्ध करके दम दिइ करना चाहिये । ऐसी जहां अभी :: ..... ही नहीं हुई है, जम बीमारी के लिये खास कानन या सामाजिक नियम उमएकान्त द्वीप में ..... ... ... नही है, ऐसे होना चाहिये जिसमे नव दम्पति पुराने बीमार अवसर पर कम से या एक माय बड़पनिय बहकी सेवा के लिये जिम्मेदार हों। पत्नीत्व मबचल सकता है। उमममय सामाजिक ___टीक तो यही है कि बीमारी के कारण नियमों में चिपटे रह कर मर न करना चाहिये, तलाक न हो पर ऊपर की चार बातें कट्टो हो और न ऐसे उदाहरण में यलमान ... ..... और तलाक का अवसर आ जा५ नो मन का में शिथिटना जाना चाहिये। प्रबन्ध होने पर तलाक दिया जा सके । यह ..: विवाह संस्था है वहीं व्यभिचार नियम स्त्री आर रुपनर नियतकमा सम्बन्धी पाप या उपाय में बनने की जरूरत प्रश्न - सम्मान की नंबरमा हो है; अगर विवाह की प्रथा न हो तो वहां शील या वनमान दाम्पत्य मान होने की आसान व्यभिचार का विचार कैसे होग ! कहा जाता तो बहुपति व कार की अनुमति दी है कि पुराने युग में विवाह होता ही नहीं था जब या तलाक की अनुमति दी जाय। जिमको जिसके साथ रहना होगा श रहना या उचर-----देने की नदी जाय । मकवाना होता था चला जाता था। इस अवस्था को गोद लेकर शिशुपान या अपमानापमय कहे या पुण्यमय ! सेवा में दोनों अपना जनन अकाद। उत्तर-उन्मुक्त जीवन की अपेक्षा विवाहित सन्तान के लिये दाम्पत्य की कित करतानचन समाज के लिय अधिक ... है। अनुचित है। . : आने जाने की सामाजिक स्वतन्त्रता प्रश्न -दम्पति के मन्तानहीन होने से क्या होने पर दाम्पत्य जीवन चिन्तामय और अविश्वाममनुष्य-जाति का क्षय न हो जायगा ! भय हो जाता है इसलिये यह उचर--संसार के आदम्पति अगर मन्नान- समाज में अगर विवाह की प्रथा नहो और हीन होंगे तो भी मनुष्य जाति का क्षय ना उन्मुक व्यवहार चलता हो तो कहने के लिये सकता, उसे क्षय-मार्ग पर जानेवाली भी नही व्यभिचार का उपचाप या पाप न रहेगा और कह सकते क्योंकि शेष दम्पति अपनी मन्नान व्यक्तिको उपमापन पर : म : मे जनसंख्या सुरक्षित रख सकते हैं। सन्दता क! : : अवश्य होगा । बुराई को प्रश्न-ई ऐसा द्वीप हो जहां मनुष्य की कोई नाम दिया जाय या न दिया जाय, अग्र वस्ती न हो वहां कोई जहाज भटक कर पहंच यह है तो उसका दुष्फल होता ही है । इसलिये जाय जिसमें एक पुरुष और स्त्रियां होsi सन्तान- विवाह संस्था होयानोपर दाम्पत्य को अधिक बद्धि के लिये एक पुरुष के साथ अनेकवियों से अधिक स्थिर पवित्र छटरहित विश्वस्त बनाने का विवाह उचित होगा या अनुचित ? की जरूरत है। कम से कम इतना तो नाही उचर--मनाक के लिये इस प्रश्न के उत्तर चाहिये कि सन्तान का उत्तरदायित्व दोनों उटावें। का कुछ उपयोग नहीं है यह तो वहां की बात है . अगर सन्तान के . ." की जिम्मेदारी Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५९ ] भत्यामृत राष्ट्र अपने हाथ में लेले, इसी प्रकार प्रमति वगैरह इसालय दुध रक्त की तरह अभक्ष्य नहीं है, इसकी व्यवस्था भी राष्ट्र अर्थात् सरकार कर लिये दूध पीना प्राणघात में शामिल न होगा । और विवाह की प्रथा उठा दी जाय तो व्यभिचार व लिया जाता है जानवर के पालन पोषण के कहने लायक किसी दोष को जगह न रह जायगी बदले में, इसलिये वह अर्थधात भी नहीं है। हां फिर भी विवाह में जो शान्ति है उतनी न मिटेगी निर्दयता से दध निकाला जाय, बछड़े को न यों तो कुछ गुण दोष दोनों तरफ रहेंगे पर गुणों दिया जाय तो अवश्य इस में पाप है । पारणतः का टोटल लिग के पक्ष में ही अधिक दबदमाग नहीं है। उपादान कारणों की एकता से भक्ष्य अभक्ष्य खैर, इस प्रकरण का सार यह है कि यभि- का सम्बन्ध नहीं है उसका सम्बन्ध हे प्राणिया चार के पाप से तो मनुष्य को बचना ही चाहिये बात अचात म । रक्त में वन हेता है दूध में वह तो पुरा विश्वासकार और चोरी है साथ ही नहीं होता इमलिय रक्त अभक्ष्य है, दुध भक्ष्य है। व्यभिचार के उपपाप, if वेश्यागमन प्रश्न-. जानवंग के बालों का उपयोग अप्रमाणित सहचर गमन से भी बचना चाहिये। करना या मानी का उपयोग करना दुभाग ह या नहीं ! ये दुर्भोग हैं इसलिये उपपाप है । उना : ऊन का उपयोग दुर्भोग २--मान-नाण- दुर्भोग है मांसभक्षण। नहीं है, परन्तु जो बाल प्राणियों को मारकर किसी चलते फिरते प्राणी के शरीर का भक्षण निकाले जात हो उनका उपयोग करना दुर्भोग है । मांस भक्षण है। पुराने समय में वनस्पतियों के इमी न मान का उपयोग करना मी दोंग है शरीर को भी मांस आदि शब्द से कहते थे । क्योकि वर भी प्राणियों को मारकर निकाला आम आदि की गुठली को अस्थि, उसके दल को मांस उसके रेशों को सिरा, छाल को त्वम् ( स्वक् तो आज भी कहते हैं ) कहते थे कहीं कहीं प्रश्न- यह तो पूरा प्राणघात है इसे दुर्भोग साधारण भोजन को भी मांस कहा है। पर या कम पाहा ! पाप कहना चाहिये न कि उपपाप । वनस्पति शार को नहीं किन्तु पशु पक्षी आदि उत्तर- प्राणघात में जो करता है वह दुग चलते फिरते प्राणियों के शरीर से मतलब है। म नहीं है। बहुत से लोगो को दुर्भोग के कारण भोजन के लिये इन के मांस हड्डी चमडा नस का पता भी नहीं रहता । मोती पहिनने वाले खून का उपयोग न करना चाहिये। बहुत में व्यक्ति नहीं समझते कि मोती में किस प्रश्न- दूध भी शरीर का भाग है और प्रकार प्राणिहत्या होती है। उसकी तरफ ध्यान उसमें प्रायः वे ही तत्व हैं जो स्युन में है तब दूध दिये बिना माती कस्तुरी आदि चीजों का उपयोग भी भोजन के काम में न लेना चाहिये। हुआ करता है। दूसरी बात यह है कि अपने उकार--दृश्य शरीर का ऐमा भाग है जिसे आप मरने पर भी मोती आदि प्राणी में से निक निकालना ही पढ़ना है उसके निकलने से कष्ट जा सकते है इनलिये भी लोग उन का उपयोग नहीं होना न दाहिर की खास हानि होती है, करते हैं। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवनी के उपांग मोती आदि दुर्भोग अवश्य है इनका उपयाग ........: क्षन्तव्य है, यद्यपि क्षन्तव्य होच न करना चाहिये फिर भी मरीम्बा भी इस उपाप में गिनना पडेगा। दुर्भोग नहीं है। मा में इसकी अपेक्षाभी चीज जब बाजार में मनोवृति अधिक पिन होती है।। होती है और खरीदने वाले अधिक होते हैं । प्रकृतिने मनुष्य को मांस-भक्षी नहीं बनाया है। वामहंगी दी जाती है। माद के लिये म मांस-भक्षी प्राणियों के दान और नव जैम होते स्वानेवाले अधिक इसलिंग पड़ा मांस महंगा है वैसे मनुष्य के नहीं होने । मनस्यती बन्दर परन्तु यदि आपकी बात मानकर लोग मांस खा की तरह है। मनध्यने अपनी पति छोड दें नो काम किम काम जायगा वह सस का दुरुपयोग करक. ....... को अपना लिया हो जायगा ! मम्ता होने पर क्या आप मा है। इसमे एक तरह की ना जाना है। भक्षण का उपपाप करेंगे। मनुष्य में बुद्धि जितनी अधिक है उतनी उत्तर -- याद ..... न हो कि अधिक सम्ख-दुसरो की शक्ति नहीं है अथवा विवश के कारण पेट भरने का विचार हो अधिक होने पर भी बहुत अधिक नहीं है. ....... उत्पार है। यही कारण है। में ... दामपत्य, कलाना, दर के प्रकरण में उसका उल्लेख किया गया। भय, उल्लाम आदि सब बात कय करीव माय जिन देशों में अन्न की कमी है वहां भी मां मर्गवीं पाई जाती है, उनके प्राण हमारी क्षण उपाय है। बाद के लिये लेलें यह कामी निर्दयता कही के दोष को मनुष्य क्या की जामकती है। जहां पूरा अन्न नहीं होता वही मनुष्य मांस प्रश्न- बहुत से लोग स्वाद के लिये माम- बाये तो क्या खाये ! यहाँ उसे उपपापी भी। भक्षण नहीं करते पेट भरने के लिये मांसभक्षण करना चाहिये। करते हैं? क्या यह उनकी मिद यता है ? अथवा उकार ...... म दुःखवृद्धि होती क्या यह क्षम्य नहीं है। इमटिये बह किसी न किसी अमापन उत्तर-30 सरीखे मुल्क में मामखाना ही. परिस्थिति ने उसे विवश किया है इस स्वाद के लिये ही है, यहां अन्न इतना सस्ता है उसे पापीन कहा जाप उपपानी कहा जाय इस किमांस मछली आदि के लिये उससे की गणे हीरियायत होमकती है। सर्प के मुंह में। दाम खर्च करना पढते हैं इसलिये जो लोग यहां है इसमें उसका कोई अपराध नहीं, फिर मांस खाने है वे पेट भरने के लिये खाते हैं यह दःखबर्धक होने से वह माग जाता है, शेर । नहीं कहा जा सकता । जिन देशों में अन्न की खाता है इसमें उसका कोई अपराध नहीं, वि अपेक्षा मांस महंगा है वहां .....: उपपाप हार होने से यह मारणीय है ।। नहीं है पाप है, हिंसा अधील प्राणघान है। जहां कोई कार्य दुःखद है तो उसे बुराई में गि मांस अन्न से सस्ता है, वहां यह उपपाय । पडेगा भले ही परिस्थिति के अनुसार हम जहां अन्न करीब करीब मिलता ही नहीं है, वहां पाप या उपपाप कुछ भी करें ! Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्यामत प्रश्न- सहज भाग्यज भ्रमज प्राणघात मांसभक्षण का प्रचार अगर इसलाम का उद्देश ऐसे बताये गये हैं जिन्हें पण्यपाप का विषय नहीं होता तो हज वगैरह के समय अधिक से अधिक यहा गया । जहां अन्न कम होता है वहाँ मांस- मांस खाने की बात कही जाती न कि मांस खाना भक्षण को भी महजघात क्यों न कह दिया जाय? बिलकुल बन्द किया जाता । इससे मालूम होता उत्तर-स्वास लेने आदि में जो प्राणघात है कि इसलाम ने भी अहिंसा को बढ़ाया है, होता हे वह सहजघात हे उसमें मनुष्य को इच्छा- यथासाध्य हिंसा को घटाया है। पूर्वक कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता वह सोते में हां, यह अवश्य है कि परिस्थिति के अनुभी होता है। मनगरेमान: है। वह इच्छा- सार जितनी हिंसा रोकी जा सकती थी उतनी पूर्वक होता है । भक्षणघात के प्रकरण में इस रोकी गई, अति करने से प्रतिक्रिया न हो जाय विश्य में कुछ कहा गया है यह देखना चाहिये। इसलिये कुछ विधान रखना पड़ा । इस प्रकार उस प्रश्न-मनन को उपपाप भी क्यों कहा, परिस्थिति के अनुसार निरतिवादी विधान बनाया उसे तो पाप ही कहना चाहिये ! उरलान का दसरा नाम मानवधर्म ऐसे भी मजहब है जिनने मांसभक्षण के शाख है, इसमें विश्वहित का पूरा खयाल रखा विषय में कुछ नहीं किया। उनके सामने समाज मया है फिर भी उसके व्यवहार्य रूप पर विचार की दूसरी समस्याएँ इतनी प्रबल थीं वे इस तरफ करते समय मानवहित पर विशेष दृष्टि रक्सी गई धान नहीं दे सके इसलिये हम उन्हें हिमा-प्रचाहै। निश्चीिन की दृष्टि से मांसभक्षा पाप है पर रक नहीं कह सकते । परिस्थिति के अनुसार मानव की विवशता देखकर कोई मजहब सब सचाइयों को दनिया के मानवहित की दृष्टि से कहीं कहीं इसे क्षन्तव्य भी आगे पेश नहीं कर सकता । उसके विधान देश मानलिया जाता है इसलिये इसे उपपाप कहा गया काल के अनुसार बनते हैं या उन्हीं पर जोर है इसलिये दुर्भोग के प्रकरण में इसका उल्लेव डाला जाता है । पूर्ण सत्य को दिखाने की ताकत किया गया है। किसी में नहीं है, इसलिये किसी मजहब में कोई प्रश्न-जिन धर्मों ने मांसभक्षण का प्रचर बात रह जाती है, किसी में कोई बात विशेष किया है या समर्थन किया है उन्हें आप धर्म कैसे रूपमें आ जाती हैं, पर इसीलिये धर्म-समभाव का कह सकेंगे? और धर्मसमभाव कैसे रख सकेंगे। विरोध नहीं किया जा सकता. न उसे अव्यवहार्य जैसे इसलाम में आप भक्ति कैसे रख सकते हैं। बताया जा सकता है क्योंकि सभी धर्म कल्याण ____उत्तर--धर्म मांस का प्रचार नहीं करता, की दृष्टि से समाज को आगे बढ़ानेवाले होते हैं । इसलाम ने भी मांसभक्षण का प्रचार नहीं किया प्रश्न-पर, धनों में मांसभक्षण की उत्तेजना बल्कि उसने तो मांसभक्षण रोका है. प्राणिवध के न सही, मांसभक्षण को दोंग करना भी ठीक निर्दय तरीकों को बन्द कि , किसी प्र.जीक है पर दुर्भोग तो यह इमीलिये है कि इसमें प्राणितड़पाकर मारने की मनाई की है, हज बगैरह करते बर होता है परन्तु अगर प्राणी अपने आप मर समय मांस स्वाना आदि बिलकुन्ट बन्द कर दिया है। जाय तो उसके मांस-भक्षण में क्या पार है ! Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीक उपांग [३६२ - उत्तर--यों दिखने में तो कोई पाप नहीं भेद-रेखा इतनी पीदी जाती है कि अंडा मालूम होता पर जनसमाज के बानेवाला पक्षी बने के लिये तैयार हो जाता है, लिये व्यवहार्य नहीं है। म. बुद्ध ने इस बात की फिर यह अब भी निकलने लगता है कि बेहोश अनुमति दी थी पर इससे मारे गये पशु का मांस पशु को मारकर खाने में क्या दोष है भक्षण न रुका। जनता का ध्यान उत्पत्ति की उस समय वह भी अंडे के समान है । तरफ मुश्किल से जाता है। खाने समय मरं या इस प्रकार बेहोश करके मारने की प्रथा में सब तरह मारे गये का भेद उसके ध्यान में नहीं आता। की हत्या आ जायगी । कहा य जायगा कि चीज एकवार मांस का स्वाद आ जाने पर और मृत- नं एक ही है पति पाई कि पीछे खाई। जिस मांस दुर्लभ होने पर लोग नाना तरीकों से प्राणियों प्रकार हम भ्रम-हत्या की हत्या कर सकते है को मारने लगते हैं और उनके तरीके एम उममें मनुष्य-वध मे कम यार होने पर भी उसे निर्दय अर्थात् होत कि उममहत्या की श्रेणी मने उसी प्रकार अंडे के कमाई का काम कर .: मालूम होता है। नभनी पक्षी के नाम का अंगी में लेना चाहिये। स्वास रोक कर तड़पा तडकर मारना, गरम मप्रकार स्थान में माधारण माममाण पानी में उबालना आदि निर्दयता क क य मन-स कम दोष होने पर भी मॉम के समान उसका मांसभक्षण के नाम पर किये जानते है इमलिय मा त्याग करना चाहिये। 'मांस के लिये पशुओं को न माग जाय' म -मद्यपान- मवान का मतलब नियम के लिये हर तरह के माम का म्यान होना नशीली चीजी से है, शराब अफीम आदि चीजे चाहिये। इस में शामिल है। नशे में मनुष्य अपव्यय करता प्रश्न-कहीं कहीं अपने आप मरे जानवर है घर और समाज की पूरी नहीबरन के मांस खाने की मनाई है पर मारे गये मांन साथ ही भान न रहने से दूसरों का अपमान खाने की मनाई नहीं है इसका क्या कारण है ! कर बैठता है या सता डालता है, इस प्रकार उत्तर--यह भेद स्वास्थ्य की दृष्टि से किया नशा करने से अपनी और समाज को काफी गया है, हिंसा अहिंसा की दृष्टि से नहीं। आने हानि होती है। आप मरे हुर जानवर में अधिकतर कोई न कोई शराबी लोगों के घर उजड़ जाते है, पानी बीमारी रहती है इसलिये उसका मांस भी विशेष और बच्चे की दुर्दशा हो जाती है, किसी का पै.मारी पैदा कर सकता है। उस पर विश्वास नहीं रहता, इलादि में प्रश्न अंडे का सेवन मासमक्षम है कि नहीं! मगपान दुर्भोग है, हर एक आदमी को इसका उत्तर--मृतमांस के विषय में जो बात कही त्याग करना चाहिये। गई है उसका कुछ भाग अंडों के बारे में भी कहा जो लोग भग आदि का नशा करत हे जा सकता है । अंडा पक्षी का शरीर है उसमें भी एक तरह के शगयी है। प्राण है इसीलिये उसमें प्रगति होती है, जीवन के प्रश्न- भंग के नशे में अच्छे अच्छे विचार इतने चिन्ह देख लेन पर अंडा और पक्षी की सूझते हैं कुछ लोग तो भंग पाकर ही अच्छा Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३ ] साहित्य निर्माण कर गये है। कुछ ने शराब का भी उपयोग किया है, तब इसे दुर्भाग क्यों कहा जाय, ! इस के अतिरिक्त एक बात यह भी है कि जो देश बहुत ठंडे हैं वहाँ शराब स्वास्थ्य के लिये भी आवश्यक है, थोड़ी मात्रा में पीने से नशा भी नहीं आता । कभी कभी दवा के लिये भी शराब की जरूरत होती है या दवा में मिलाना पड़ती है। इस सब कारणों से मद्यपान को दुर्भोग क्यों कहा जाय ! भत्यामुत उत्तर - मब किसी चीज का नाम नहीं है एक ही चीज देश काल पात्र के भेद से मद्य या अमय हो सकती है। बुराई है नशे में । इसलिये अगर दबा में मच का मिश्रण हुआ हो तो उस मपान में दोष नहीं है। ठंडे देशों में अगर कोई मय स्वास्थ्य के लिये आवश्यक हो और वहाँ नशा न लाता हो तो वह भी मद्यपान नहीं है । निर्माण आदि के विषय में भी ऐसी ही कुछ बात कही जा सकती है पर साथ ही यह भी समझना चाहिये कि लेखन आदि के लिये शराब की आवश्यकता मालूम होना वास्तविक नहीं है, नशेबाजी का दुष्ीणाम है। नशीली चीजों यह भी एक खराबी है कि जीवन की सहज शक्तियों को वे इस प्रकार पचा जाती है कि उन के बिना सहज शक्तियों का अस्तित्व भी मालूम नहीं होता, ऐसा मालूम होने लगता है कि हमारी विचारता एकाग्रता हमारी नहीं है भंग या शराब की दी हुई है। पर बात ऐसी नहीं है आज तक हजारों तीर्थंकर पैगम्बर अवतार दार्शनिक वैज्ञानिक कवि आदि हुए हैं उनमें हजार में नवसौ निन्यानवे को विचार और भावना के लिये नशे की नहीं हई । पका को हुई तो इसका कारण यही कहा जा सकता है कि उसे वह दुसन पहिले से लगा था । दुर्व्यसन से लाभ तो कुछ होता नहीं है किन्तु स्वाभाविक शक्तियाँ इस तरह कुंठित हो जाती हैं कि नशे के बिना वे स्वाभाविक काम नहीं कर पानी । इसलिये साहित्य आदि के लिये नशे की आदत डालना दुर्भाग ही है। यदि इसका थोड़ा बहुत उपयोग हो भी, तो भी इसका त्याग ही करना चाहिये क्योंकि इससे विक शक्ति का नाश ही होता है । कृत्रिम गति के लिये मानविक गति का नाश करना पालकी में बैठने के लिये अपने पैर कटा डालने के समान हैं । प्रश्न--दुःख भुगतने के लिये बहुत से आदमी नशा करने लगते हैं, दुःख कम करना तो धर्म है ऐसे आदमियों के लिये नशा भी चिकित्सा क्यों न समझी जाय ! उत्तर आत्महत्या दुःख से छूटने का ठीक उपाय नहीं है उसी प्रकार नशा दुःख भुलाने का ठीक उपाय नहीं है । जीवन को नाटक समझकर दुःख को भुलाना या उसको सहजाना ही ठीक उपाय है नशा से तो मनुष्य अपने दुःख बढ़ा लेता है उनको दूर करने में शिथिल हो जाता है कभी कभी वे अनेक कुकृत्य भी कर जाता है, सहिष्णुता नष्ट हो जानी है इस प्रकार लाभ की अपेक्षा हानि कई गुणी होती है, लाभ क्षणिक होता है और हानि स्थायी होती है, इसलिये नशा चिकित्सा नहीं है न इसे अपनाना चाहिये । दुर्भोग और भी कहे जा सकते हैं, ऐसे खेल देना जिससे मनोवृत्ति दूषित होती हो आदि भी पर ऐसे दुर्भागों का व्रतरूप में निन्त्र करना कठिन है, इसलिये ऐसे दुर्भागों की गिनती यहां नहीं की जाती है। जो मोटे Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवनी के उशंग मोटे दर्भोग हैं उनका यहाँ उल्लेम्ब किया गया है। चोरी करता है। जैसे एक बार में संपनीक भोपाल इन दुर्भागों का त्याग करने में सद्भोग अपने आप मेंशन पर उत्तरा, जब शहर में जाने लगा तब अजाता है। दुर्भागों से बचे रहना सद्भाग नाम यहां एक सिराही ने मेरी गटी बुलवाकर देखी, का उपसंयम है। उममें चार-पाच नाले के चांदी के बिछुए थे । वह २ मदर्जन बोलाइन पर टेक्स दो । पर उसके एक अधिसदर्जन का मनायब हैमी कि ये पुराने है और इन . कारी को माना .. जिससे अपनी उदरन्ति भी हो और दूसरे को की पसी के है तो उसने कहा जान दो, : , भी लाभ हो अर्थात हमने जो कुछ किया है उस नहीं लिया जाता शिकार हाय में जाना देखकर मिपाकी .. साहिब, इस पर टेक्म देना के बदले में कुछ दिया हो, और नसिकता को चाहिये । अफसर साधारण था, उसने , .... शक्का न लगा ई. । इससे उल्टा दुरजन उसका तुम जानी कगे। बा सिपाही मुझे वहां से काफी त्याग करना चाहिये। दर एक चौकी पर लगया और बोला यही बैठो ___ यहाँ सिर्फ उन दुरजनों से मतलब बडे आफीमर अन है 3 टेक्स देना । बह न सम्झे जाते । यो तो चीन भी दरगन चला गया और उसके स्थान पर दूसरा सिपाही पर यह प सलिये उपायक प्रकरण में सामने उR पा .तमारे आफीसर क उसका उल्लेख किया जाता। कोई कोई काम आयंगे ! बोला सुबह आठ बजे । मैने कहा तब ऐसे हैं जो दुरजन से मालूम काते है पर बास्तब तक क्या यह बैठा रहूंगा ! टेक्स लेना हो तो में ये है चोरी, जैसे लांच लना आदि। स्टेशनर ला नहीं तो मैं जाना हूँ। य: बोला-बह __ लांच लेनेवाले कई तरह के होते है किसी सिपाही तुम्हे मेरे पहरे में कर गया है मैं कैसे किसी को नजरचोर और किसी सी जाने दूं! फिर कुछ नरम -200, बलात् चोर कह सकते हैं। क्यों इस झंझट मे पड़ते है ! चार पैसे देकर छुट्टी होजिये । नेशन पर में पड़ी को तांगे में छोड़ एक लाँच तो ऐसी होती है जिस में लांच आया था उसकी चिन्ता के कारण मुझे चार देने वाला और नाँच लेने वाला दोनों ही चौर से देने पडे । इस में भोपाल सरकार का तो काटने क्योंकि वे असली मालिक की चोरी करने नकमान न हुआ के मन है। रेल के भामान के किराये में सामान कम पर टेक्स नहीं था पर उस को परेशान बताना और दो रुपये के बदले में डेढ़ रुपये देना करके चार पैसे लेलिये। यह बलात् चोरी है। इसे और कम रुपये की रसीद लेना इस में दोनों ही उपपाप नहीं कह सकते औ र पाप कहना कम्पनी के चोर है, यह दुरर्जन उपचाप नही चाहिये । मनुष्य को अन्याय से विवश करके किन नया पाप है। जब कोई रिशवत देता हो तो यः रो । __ कभी कभी रिशवत लेनेवाला ही चोर होता रवे स्टेशनों पर में ऐसी चोरियों है देनेवाटा नहीं, लेनेवाला देनेवाले की बलात् बहुत हुआ करती है ये शासन और समाज का Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलंक है । रिश्वतखोरी पूरी चोरी है, पाप है, दुरर्जन के अनेक भेद हो सकते हैं, समझने उपपाप नहीं। इस मफेद उकेती कहना चाहिये। के लिये छः भेद यहां किये जाते हैं । १-पाप मी प्रकार कम तौलना, अधिक कीमत की जायका २-उन्ट जीविका ३--जूवा, ४-सट्टा चीज में कम कीमत की चीज मिलाकर बेचना, ५-भिक्षा, ६-व्याज, एक मालका भाव करके उसके बदले दूसरा सस्ता १-पापजीविका-ऐसी जीविका को पापमाल देदेना आदि भी चोरी है पाप है। दुरर्जन के जीविका कहते हैं जो पाप पर अवलम्बित है, प्रकरण में इन चोरियों से मतलब नहीं है क्योंकि जिससे दूसरों का पतन होता है प्राणिघात होता ये सब पाप है उपपाप नहीं। है या ओर भी किसी न किसी प्रकार का दुःख९ सामना दुरर्जन उपपाप वह है जिस में लेनेवाल वर्धन होता है । जवा और सट्टा भी पाप जीविका और देनेवाले की अनुमति होने पर भी या तो है पर इन दोनों को अलग बताने की जरूरत इसलिये है कि जवा तो जीविकारूप में प्रसिद्ध विनिमय के मूल सिद्धान्तों का भंग है, जैसे जुआ नहीं है और सट्टा को बहुत से लोग शुद्ध व्यापार आदि, अथवा अपने या दूसरों के जीवन का पतन समझते है। इन दोनों की दुर्जनता पर जोर देने है जैसे बेश्यावृत्ति आदि । जूआ आदि के नियम को लिये इन्हें अन्टग बतलाया है। छल जीविका को दोनों पक्षों को मंजूर होते हैं पर इससे लेन देन भी पाप-जीविका कह सकते हैं परन्तु स्पष्टता के का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता। लिये उमे भी अलग बताया, इस प्रकार पाप-जीविका लेन देन का व्यवहार किसी न किमी सेवा का अर्थ जरा संकुचित सा हो गया है । के आधार पर खड़ा हुआ है । मनुष्य जब किसी ऐसी कामोद्दीपक दवाइयों का व्यापार जिनसे को कोई मुविधा देता है, मुख देता है, तब उसे लोगों के चरित्र और स्वास्थ्य का नाश होता हो उसके बदले में कुछ लेने का हक है। एक वेश्या की जीविका (अगर वह शीलवती न हो), यद्वान ज्ञान देता है एक सिपाही रक्षण देता है, आदि प.पजीविकार हैं। बहुतसी जीविकाएँ एक व्यापारी दर से चीज मँगाकर समय पर हाजिर साधारणतः बुरी नहीं होती पर बुरे उद्देश से पापकरता है, एक अनाज आदि पैदा करता है एक शुद्र जीविका बन जाती हैं । जैसे किसी देश को किमी नाह की परिचर्य है, इस प्रकार हर अफीमची बनाने के लिये उस देश में अफीमका एक आदमी किसी न किसी तरह का परिश्रम व्यापार करना, दुमरे देशी पर आक्रमण करने के 1 और दसरे को पचाना है उसके लिये विषैली गैस आदि बनाना इत्यादि। बदले में उसे रुपया पैसा आदि दिया जाता है। प्रश्न-खती ने हिंसा होती है इसीलिये इसे श्री इस तरह का परिश्रम नहीं करता न लाभ पाप-जीविका कहा जाय या नहीं? पहुंचाता है फिर भी रूपया पैसा आदि लेता है उत्तर-नहीं, क्योंकि अगर खेती न की जाय तो उसकी आमदनी कानून से या समाज से अनुमो- तो मनुष्य मांस-भक्षण करेगा, खेती से एक बड़ा देन ही क्यों न हो यह दुर्जन है। पाप रुकता है इसलिये यह पुण्यजीविका है ! Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की. उपांग ३६६ - - अन्न साना अगर पाप नहीं है तो ग्वती करना तो खेल का मआ है। जाला रहे तो क्या जादु भी पाप नहीं है। के बल दिम्बाना , है ! २रजीवित धंधा करना जिममें मा.... को छल कह देने पर भाषा आदि की ओट में दूसरों को ठगा जाता हो। बदला नही रहता, गद के खिलाड़ी यह का जैसे किमी ने हमारे यहां से जो बार देते हैं या :::: यह बात घोषित रहती है शीशियं खरीदेगा उसे एम. बड़ी इनाम दे जायगी कि इन खलों में हाथ की सफाई आदि है । तुम्हारी जो एकसा टाइम देती है। खरीदने पर वह घडी दृष्टि या वृद्धि को भुला सकने की योग्यता दिखा इनाम देदी जिसके काटे एक ही जगह बने रहने का मन है, यलन देन में कोटल है, ना चलता नहीं है, एक एक पैन में द नहीं करने। कर बच्चे जिससे खेला करत । एकमा टाइम एक आदमी बनकर तुम्हें धोखा देने का अर्थ न चलना है, यह जनता नहीं दे जाता है तो वह चोर है ली है, पर एक समझती, इस प्रकार शब्दों के छल से धोखा देकर बहुरूपिया : बनकर तुम्हें भुलावा दे धंधा करना है । सूचना जब ऐसे जाता है और फिर इनाम मांगता है तो यह न शब्दों में या ऐसी भाषा म दी गती है जिस चोरीईन :: :: है। एक आदमी साधुसाधारण लोग नहीं समझते ता उनकी इस ना- बेधी बनकर लोगों को ठगे तो हम उसे छलजीवी समझी से लाभ उठाने के उद्देश से जो छल किया ___ या पाप कहेंगे पर बहुरूपिया बनकर भुला सके जाता है वह छतमीविका है । सीधी भाषा में भी तो उस छलजीवी न करेंगे । उसे भुलाते समय छल किया जाता है, जैसे किसी ने विज्ञापन लाम न उठाना चाहिये। निकाला- खटमल मारने का अमोघ उपाय बनाने जैसे एक, बहुरूपिया साधुवेष बनाकर रास्ते में की कीमत सिर्फ आठ किसी ने आट आना देकर उपाय पृछा से लिखा दिया खटमल बट गया । वहा से गजा निकला, राजाने उसे देखकर एक चिमटी से पकड़िये और एकलकती मात्र समझ कर नमस्कार किया, आर का भट के तखते पर रखकर छोटी सी हथोडी से कुचल देना चाहा लोकन साधुन - ..माधुआ दीजिये । उपाय तो सचमुच अमोब रहा. पर को धन पैसे से क्या मतलब, मुझदो हाथ जार ग्राहक को न ते ऐसे अमोघ उपाय की जरूरत मुट्ठी भर सो ईश्वर की दया से सब थी न वह ऐसा समझा था, दिन भी जगह मिल जाताहे में सपना ? इस मर्म को समझता था और ग्राहकों को धोखा राजा माधु की निस्पृहता में बहुत खुश हुआ देने के लिये उसने ऐसा विज्ञापन निकाला था। और प्रणाम करक और माधु का मत बनकर यह छलजीविका है। ज्योतिष आदि की ओर चला गया । जो ठगते हैं उनकी बइ जीविका भी : बिहै। कुछ दूर पहुंचा सब यह साधु प्रश्न-जन वगैरह के खेल मनोरंजन के अपना साधु वेष उतार कर राजा के पास गया लिए जरूरी होते हैं उनमें छल न किया जाय और इनाम मांगने लगा कहा कि मैं Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। राजाने ... - इनाम तुम्हें अभी मिल जया खेटने वालों की दुर्दशा के उदाहरण मकना है उससे अधिक मैं तुम्हारे सामने चहा बहत से मिलते हैं। जूवा ने युधिष्ठिर की दर्दशा आया था कर वह तुमन लिया क्यों नही ! बहुरू. की, नारीत्र का अपमान कराया, कौरवों में प्रया ने कहा-में अपनी कला दिखाकर ईमानदारी उन्माद भरा, अन्त में महाभारत में उनका भी की रोटी चाहता है . धोखा देकर लजीवी नई नाश हुआ --- यह मत्र प्रसिद्ध ही है। आज भी बनना चाहता । हर गांव और हर मुहल्ले में जुवाड़ियों की दुर्दशा जादक ग्विलाहीक विषय में भी यही बाया नमने मिन्टन है। उनका व्यापार हा कही जा सकती है। जाद का खिलारी रुपये का जाता है, व घाकी चीजे और पत्नी के आभूपण दो रुपया बना देता है पर इसके लिये वह किसी आदि भी जूवा पर चढ़ा देते है, बेचारी पनि से रुपये नहीं ठगता व तो अपना इनाम या नहीं देना चाहती तो उसे मारने-पीटने हैटिकिट के पैसे ही लेता है इसलिये छलजीवी नहीं इस प्रकार एक तरह का जंगलीपन और देशलाहै। छल करने की कला दिखाकर एक कलाकार नियत उनपर जाती है। उनका कोटाम्बक कोहसियत से जीविका करना छलजीविका नहीं जीवन नरक बन जाता है। झूठ बोलने की और है किन्तु जीविका में छल करना और छल से धीरे धीरे चोरी करने की आदत पड़ जाती है, रुपये टग लेन बर्ग बिका है । नकली साधु जीत में ऐसा उन्माद आ जाता है कि वह अपने स ब चोर भी है पर बदरुपिया न तो दमदान र को मुश्किल से सुरक्षित रख पाता चोर नलजीवी। है, नशबाजी आदि का व्यसन भी लग जाता है। ३.जवा-- अनिमय का आधार न अगर जुवा खेलने वाला व्यक्ति अच्छा से नो काई सेवा हो, न कोई उपयोगी अच्छा संयमी भी हो तो भी समय की बरबादी, चीज, किन्तु किसी कृत्रिम या अकृत्रिम पैसों की हानियाँ, मुफ्तखोरी और काफी समय घटना के आधार पर देन-लेन की शर्त करना तक चिन्ता और व्याकुलता होती ही है । पर पा। जहाँ देन-लेन न हो सिर्फ मने विन्द जुवाड़ियों में ऐसे संयमी कम ही होते हैं, अधिके लिये जीत-हार हो वहाँ जूवा नहीं है। कौड़ी कांश की ऐसी ही दुर्दशा होती है जैसी कि फेकना, पासा फेकना, तास' के अनेक खेल, ऊपर बताई जा चुकी है। इसलिये जूवा खराब चूड़ी फेकना, धुड़दौड की शर्तबन्दी, लाटरी आदि से खराब दुरर्जन है। धर्म तो इसे रोकता ही है जया के खेल है। जूबा में न तो कोई उपयोगी साथ ही समाज और राज्य को भी इसकी रोक चीज पैदा होती है न ब्यापार की तरह इधर करना चाहिए । जो राज्य घुड-दौड़ की शर्त और से उधर जाकर लोगों को मिलने में सहूलियत लाटरी की अनुमति देते हैं वे जूवा का प्रचार होती है, व्यर्थ होमपति र उपर दी है, करके जनता का नाश करते हैं। जावटने काही न शक्ति बर्बाद प्रश्न-धुड-दौर तो अच्छी बात है इससे समकाबील एक तस की मुफ्त- स्वास्थ्य और सैनिकता का विकास होता है, का कबरीमला है। देखने वाले का मनेबिनेद होता है। इसके । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के उपांग ३६८ - प्रबन्ध में जो खर्च होता है उसके लिये दर्शकों पालन किया जाना है. मोलाटी के प्रबन्धक से टिकिट के पैसे लिय जीप तो क्या बुगः उपानही रहने, और लाटग भरने वालों के उनः' मा बनिहरादर्शक मन में संस्थाको मदद देने की मन्यता है नो लिये टिकिट लगाओ को इनाम भी उनका उपाय भी आधे से अधिक दर हो जाता दो, पर दर्शकों में सेना स्टोर अमुक पाने का है। पर अब यही है कि संस्था को मदद देने जीन र दाव लगाने हैं बदजनदा के लिये भी इसका उपयोग न किया जाय, अन्यथा न खलना चाहिये। इसकी ओट में जब के बहुत से कप घर बना लेंगे। में था ! दुगों को बात से लोग रुपये पैसे बिछाकर उसमें मिर्फ एक एक करया जाना और एक अदम चूड़ी फेंककर फंसाने की अंधा करते हैं यह पूरा ध बान बनकर मुखी हो जाता है। जूबा तो है ही, साथ ही जनता को ठगन भी है। उत्तर में और हाल कोई कोई लोग पानी के अफ डिम्पी कागज सब में मुफ्तबाग की वृत्ति पैदा होती है, सभी की चिन्दियां नितारे यह भी जवा और विना परिश्रम के पैदा करना चाहते हैं, यह वृत्ति ठगाई है इनके अहेब ले और खिलाड़ी दोनों जुवाड़ी किसी भी मनष्य के लिये कलंक की बात है। है । जवे के सैकड़ों रूप है उन सबका त्याग फिर इससे न तो समाज को काल सम्पत्ति मिलती करना चाहिये । समाज को कुछ उचित संवा है न ब्यापार के समान एक जगह से दमरी जगह देना और उसके बदले में जीवन निर्वाह के लिये चीज जाती है जिससे किसी चीज को पाने की कल लेना यही उचित है। जूना अनेक लोगों को सुविधा मिले । कोई उपयोगी चीज अनों की जड़ तथा मुफ्तम्बारी है। पैदा की जाय या लोगों के पास पहुंचाई जाय ४ मट्टा भी एक प्रकार का जूवा है पर इसी के बदले में किसी का पैसा लेने का अधिकार से व्यापार का का ऐसा रूप मिल गया है या है, लाटरी में ये दोनों बाते नहीं है इसलिये या उसमें व्यापार का ऐसा मिश्रण हो गया है कि दुरर्जन है। जबाफमा चिन्ता व्याकरता उमे जूगा से अलग करके कहना पड़ता है। भी होती है इसलिये इसका समायश जबा में वास्तव में जूना के साथ इसमें बहुत समानता है। ही करना चाहिये। जिम प्रकार जूना में चार नगरः या अनिप्रश्न लाटरी डालकर अगर किसी संस्था को चिता है करीब करीब उसी प्रकार सहे में भी मदद दी जाय तो क्या बुराई है! है। जूवा में जिस प्रकार न तो कोई चीज पैदा उन्रक में दो तरह के उपापी है की जाती है नन बनाई जाती है, इसी एक तो वे जो लाटी खोलते और उसनका प्रकार सट्टे में भी है । सट्टे में चीज जहां की ले लेते है, मेरे वे जो लाटरी काय भा करत पड़ी रहती है, इस प्रकार सट्टः और जूवा में इकदम धनवान हो जाना चाहते है। अगर किसी दोनों सानतार हैं। योग्य संस्था को मदद देने के लि। लाटरी माई साथ ही एक तीसरी समानता यह है कि जाती है और ना के साथ उसका जैसे जूया में एक पक्ष की हार पर दूसरे पक्ष Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६९ ) सत्यामृत की जीत निर्भर है उसी प्रकार सहा में भी कुछ लगता हूं महल बनवा लेता हूं थोडा लांच घूर लोगों की हार पर कुछ लोगों की जीत निर्भर है। के रूप में धर्म संस्थाओं को, मन्दिर मसजिदों के जब कोई एकाध व्यक्ति सट्टे में लखों करोडों देकर पूजा और यश भी खरीद लेता हूं, सिः कमाता है तब दसेर सकडों सटोरिये कंगाल हो पीटने के लिये दूसरा पक्ष रह जाता है। लाखे जाते हैं । बहुतों को कंगालियत पर किसी एक कमाने में मैंने दुनिया की क्या भलाई की और सटोरिये का श्रीमान होना निर्भर है। इस प्रकार खोने में मैंने क्या पाप किया जिसका दंड यह की मफ्तखोरी और आर्थिक हत्या जूवे में ही मिला, इसका कोई उत्तर नहीं है । इसलिये सट्टा व्यापार में नहीं। मुफ्तखोरी है जूवा है, सभ्य शब्दो मे उमे आर्थिक व्यापार में दोनों पक्षों का फायदा होता है। युद्ध कहा जा सकता है व्यापार नहीं। एक आदमी बड़े शहर से कोई चीज खरीदकर प्रश्र-जब सट्टा कानून से जाय न हो और छोटे शहर में कः नफा लेकर चता है तो उसका दूसरे लोग इसके द्वारा श्रीमान् बन गये हों तो फायदा तो है हनीय ग्राहक का भी फायदा अपने में योग्यता होते हुए भी उसका उपयोग है क्योंकि बड़े शहर में जाने की उसकी परेशानी क्यों न किया जाय ! बच जाती है। उत्तर- व्यभिचार से अगर कोई वेश्या इसी प्रकार एक आदमी बरसात के पहिले धनवान हो गई हो तो भी अन्य सुन्दरियों के लिये अनाज खरीदकर सुरक्षित रखता है और बरसात वेश्या-जीवन अनुकरणीय न होगा, क्योंकि इससे में या बरसात के बाद कुछ नफा लेकर बेंचता है बहुत-सी स्त्रियों को घृणित, जीवन विताना तो उसका लाभ है और ग्राहक का भी लाभ है पड़ता है और सैकड़ों घरों की तबाही होती है, क्योंकि उसे समय पर जरूरत के अनुसार चीज यही हाल सट्टे का है। दूसरी बात यह है कि भिजाती है अन्यथा वह बरसात में खेड़े में सट्टे में जीतने का दावा बहुत कम लोग कर सकते अनाज लेने कहा जाता है इस प्रकार व्यापार है, बड़े बड़े होश्या' सटोरिये भी अन्त में भिखदोनों की सुविधा के लिये होता है, दुकानदार मंगे या दिवालिये होने देखे गये हैं । इसलिये सद्दे और ग्राइक दोनों ही अपनी अपनी दृष्टि से का द्वंदयुद्ध खेलना किसी को भी लाभदायक उसने न उठाते हैं पर सट्टे में दोनों ही एक नहीं है। मानलो कि सैकड़ों आदमियों की हत्या दसो को इर.ना चाहते हैं। मैंने तुमसे हजार करके उनकी हड्डियों से एक आदमी ने अपना द, मट का है या अभी इस दुनिया महल बनवा लिया तो क्या यह दूसरों को अनुमें है या नहीं मुझे नहीं मान, माल की मुझे करणीय होगा ! मनुष्य अगर ईट-चून का उत्पादन जरूरत नहीं है, दान मैंने उतने ही दिये है जितने न करके मनुष्य-हत्या करे और उनकी हड्डियों से से भाव अगर घट जाय तो उसका घाटा चुकाया मकान बनावे तो एक न एक दिन उस हडियो जा सके। आगे यदि भाव घटा तो डिपाजिट का के महलबाले की भी हड्डियाँ किसी दूसरे के महल रुपया देकर सिर पीट लेता हूं भाव अगर बढ़ा बनने में लग जायगी सामूहिक रूप में उस समाज हो मुफ्त में हजारों खानों देकर मोटरे दौड़ाने का नाश होगा । ऐसी जंगली जातियाँ हैं जिनमें Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य हस्या करके उनकी खोपड़ियों का संग्रह चाहता है पर मजदूरी से बद इतना नहीं कम करनेवाले बड़े आदी समझे जाते हैं, उन बड़े सकता कि वह किसी उचित संस्था को कुछ आदमियों को देखकर दूसरे भी बड़े आदमी अच्छी सी रकम दे सके इसलिये वह सट्टा करता बनने की कोशिश करते हैं, इस कोशिश में है, अगर हार जाता है न कोई बात नहीं, अगर बरतने मारे जाते हैं, कुछ बड़े आदमी बनते जीत जाता है नास्था को निहाल कर देता है है पर सामूहिक कामें उन समाज का नाश क्या ऐसे सटोरिये को आप उध्यानी बग! ही हो रहा है। मटे बाट समाज की भी यही उना .... और यह भी कगा कि दशा होती है। दान का यह रास्ता भी ठीक नहीं है और इसमें प्रश्न- देखा तो यह जाता है कि जिन सफलता की आशा भी बहुत कम है। शहरा मटाना है उन शहरों में प्रान्तों में पहिली बात तो यह है कि सट्टा पनेपान या लोग बन भी अधिक होता है जब कि जहां का निश्चित मार्ग नहीं है, सौ में पंचनामा सट्टा नहीं होता वही गरीबी बहत रहती है। और पांच बनते हैं, हम पंचानवे में से न उतर-- 2.2 में बहत से जानबर कटे पांच में से हैं यह आशा ही अपाशा है। होते हैं इसका यह मतलब नहीं है कि कमाई- दूसरी बात यह कि अगर कभी जीत भी खानी से जानवरों की संख्या बनी है, मट्टा से गये मो तुरंत ही यह आशा होती है कि आगे धनवान बनने की बात भी ऐसी ही है। और जी-गे अभी इतने से क्या होता है ! इस बात यह है कि जिन शहरों का तृष्णा का अंत शायद है और एक दिन पिर ब्यापार से सम्बन्ध होता है या जो जब सबब जाता है तब ऑग्य खुलती है। देश के द्वार बने होते हैं या जो उद्योग केन्द्र तीसरी बात यह कि तुम किसलिये सट्टा होते हैं उन में सम्पत्ति अधिक होती है और करते हो यह दुनिया नहीं देखती, दुनिया यह चारों ओर से आती हुई उस सम्पत्ति के नशे में देग्वती है कि बड़े बड़े भले मानस भी सट्टा करते वहाँ सट्टे के भी केन्द्र बन जाते है । धन सटे से है इसलिये सट्टा बुरा नहीं है इस प्रकार सट ! पर पैदा नहीं होता है पर उयेोग आदि के कारण प्रतिष्ठा की अप लगती है। जो धन एकत्रित हुआ वह सट्टा रूपी यज्ञकुंड में चौथी बात यह कि जो संस्थाएं - स्वाहा होने लगता है। की कमाई का दान लेती है ये सट्टा आदि का सट्टा से ज। किसी तरह का उत्पादन नही विरोध करने में असमर्थ मी हो जाती ये किस होता, विभाजन नही होता, तब मम्पत्ति बढ़ेगी मुंह से विरोध करें। वे चाहती तो सदाचार कैसे ! राष्ट्र का या जनता का लाभ होगा कैसे! और सुख की वृद्धि, पर उनसे मिलता है हाँ, सौ मिटकर किसी एक का लाभ हो सकतानी आदि को उत्तेजन । है, पर निन्यानवे का यह घाटा देश का दुर्भाग्य पांचवी भ किन मी एक ही कहा जा सकता है। प्रकार का लेनदेन है । मनुष्य पूजा प्रश्न- नीजिये एक सददान करना प्रतिष्ठा , पास Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्यामृत - धन है उनके लिये पूजा प्रतिष्ठा आदि की कीमत पहिले की अपेक्षा दूसरा अच्छा ही है। परन्तु धन से अधिक है इसलिये दान देकर वे जो कुछ इसके दान करने से भी पापजीविका का पाप पाते हैं वह उनकी अपेक्षा घोट का व्यापार नहीं नष्ट नहीं होगा क्योंकि दुरर्जन से समाज को जो है । एमी हालत में दान देने से सट्टे का पाप हानि उठाना पड़ती है उसका असर सारी सम्पत्ति धुल नहीं सकता। किसी ने धन पाकर जमीन दान करके भी नहीं जा सकता। जायदाद खरीदी किसी ने प्रतिष्ठा खर दी। यदि एक अदनी ने एक करोड़ रुपया सट्ट जमीन जायदाद खरीदने से सट्टे का पाप धु-ट से कमाया और मान लो एक करोड़ ही उसने दान नहीं सकता तो प्रतिष्टा खरीदने से भी धुल नहीं कर दिया तो भी समाज को इनमें लाभ की अपेक्षा सकता। हानि अधिक है । लाभ इतना कि शायद एक प्रश्न- उसके मन में प्रतिष्ठा खरीदने विद्यापीठ तथा कुछ और संस्थाएँ खडी है. कर का भाव न हो तो क्या बुराई है ! कदाचित् वह लोगों को जीविका मिली समाज में कुछ पंडिताई गुप्त-दान करे, तब तो प्रतिष्ठा का दोष नहीं लगाया बही, परन्तु एक करोड़ के लाभ से जो दूसर जा सकता। हजारों गृहस्थ उजड़ गये और उनके आश्रितों - उत्तर- उक्त पांच में से चार दोष रहेंग, को जो धक्का लगा वह हानि कम नहीं है, साथ इससे निदोषता नहीं आ जाती, बल्कि अधिक ही दूसरे लाखो व्यक्तियों में जो मुफ्तखोरी की सम्भावना तो यही है कि वह इन पांच दोषों के बासना जगी मुफ्तखोरी के धंधे की तरफ जो साथ एक छट्ठा दोष और ळगाले, उसके मन लाखो व्यक्ति झुक गये -इस स्थायी हानि का तो घमंड आ जाय कि मे प्रतिष्ठा नहीं चाहता । ऐसे कुछ ठिकाना ही नहीं है । शिक्षा संस्थाएँ ज्ञान गुप्त दानियों की कमी नहीं है जो कहते हैं कि बढ़ायेंगी परन्तु उसके मूल में जिस किसी तरह से हमने इतना गुप्त दान किया पर किसी को नहीं पैसा पैदा करके जीवन को सफल और यशस्वी मालूम, ये किलीन मालम होने की बात अधिक बनाने का जो बीज पड गया है वह विद्या का सदुपसे अधिक जगह मालून कराते हैं । म्बर, कुछ भी योग न होने दगा । उनके आगे ईमान और श्रमहो पर प्रतिष्ठा न खरीदने का भाव हो तो भी शीलता का आदर्श न आ सकेगा किन्तु लूट करके सट्टे को उत्तजन न देना चाहिये। भी धनवान बनने की महत्ता ही आयेगी। इस प्रश्न-सट्टे को उत्तेजन न देना चाहिये पर प्रकार लाभ कम और हानि अधिक रहेगी। हां, किसी ने सट्टे में रुया पैदा कर लिया और पाप जीविका के बाद पापोपयोग करने की अपेक्षा अब वह किसी धर्मकार्य में लगाना चाहता है धर्मोपयोग करना अच्छा ही है। तो अच्छा करता है या बुरा ! प्रश्न- आदमी पाक: नहीं छोड़ उनर-मद या और किसी करविका सकता (जैसे एक आदनी सट्टा नहीं छोड़ सकता से पैसा पर ले. एक आदमी किसी बरे का एक वेश्या अपना धंधा ना छोड़ मकती) पर में- दुर्व्यसन में -पसा करना है इसरा अच्छे उनकी यह इच्छा अवश्य है कि आमदनी का कार्य में लगाता है-विवेकपूर्वक दान करता है - तो अधिक से अधिक भाग किसी अच्छे कार्य में खर्च Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के हो, तो उनका दान लेना चाहिये या नहीं ! बर्दि न लिया जाय तो उस पैसे का कहीं न कहीं दुरुपयोग होगा और लिया जाय तो धन की प्रतिष्ठा होगी इससे नीति गोग बनेगी कदाचित अपने के मार्ग में सन्तोष के साथ आगे बढ़ेंगे। तब क्या किया जाय ! उदान के देना चाहिये, साथ ही इस तरह जो सम्पर्क बड़े उसका उपयोग दानी से छोटाने में करना चाहिये। धनकी प्रतिष्ठा न होने पाये इसके लिये इन बाती का खयाल रखना चाहिये। १ मौका आने पर यह बताना कि ईमानदारी की कमाई का एक पैसा रुपये से भी अधिक कीमती है। के २ असर अने पर यह बताने की कोशिश करना किसे हम जितनी दानि कर चुके हैं उसकी पूर्ति चांगुना दान करने पर भी नहीं होगी । और अगर दान न किया जाय तब तो उस दानि का ठिकाना ही क्या है ! ३- यह बताना कि दान देकर जितनी यशप्रतिष्ठा की उतने दान का बदला तो मिल गया जितनी प्रतिष्ठा कम कोगे उनने अंश में सच्चा दाना इसलिये का अधिक से अधिक प्रायश्चित्त करो प्रतिष्ठा खरीदकर प्रायवित्त का परिमाण कम न करो । ४- दानी को थोड़ा बहुत आदर देना जरूरी हो तो देना चाहिये पर ऐसा यश न देना चाहिये जिससे वह या जगत् अनुकरे के त्यागी की अपेक्षा का करके दान करनेवाला अच्छा, ऐसे दान की अपेक्षा संयम शुद्ध सेवा आदि की इज्जत कमन होना चाहिये । * जनहित या धर्म के लिये दान वाली इन बातों का पथावाक्य या परिस्थिति के अनुसार श्री पान कर पाता है पर साधारण जनता इस विषय में पूरा न्याय कर सकती है। जनता क किसी दानी की जन उतनी करना चाहिये य उसे उतना ही यश देना चाहिये जितना उसके का पवित्रता और दान के मुख्य अनुसार ठीक हो । चोरी म બા વિના ચા के द्वारा ला पैदा करनेवाला और अपने पापको निये दान के नाम से इधर उबर कुछ दुक बिकुल प्रशसनीय नहीं है। के छिपाने के लिये नहीं किन्तु किसी कार्य को अच्छाई समझकर दान देनेवाला पानी कुछ और दयनीय है । छोड कर पाप के प्रायश्वित के रूपमें दान देनेव का प्रशंसनीय और आदरणीय है । है; में न पड़कर दान करनेवाला पूर्ण प्रशंसनीय है। हमे यह बात सदा ध्यान में रखना चाहिये कि जीवन में सफलता की कसौटी धन नहीं, विश्वकल्याण दे । के द्वारा इम ने लाखों कमाये और हजारों या लाखों दान दिन तो से लाखे, कमाने में जगत् का जी अकल्याण हुआ है वह करोड़ों के दान से पूर नहीं हो सकता । अपथ्य करके मनुष्य जितना बीमार हो सकता है उस से कई गुणा पथ्य भी उतना स्वस्थ नहीं कर पाता। एक रुये की कमाई का दोष रुपये क दान से भी नहीं घुख सकता | इसलिये पह ध्यान में रखना चाहिये कि कुछ पैसे कमाकर दान न देनेवाला या कम दान देनेवाला इस Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत व्यक्ति उस व्यक्ति से श्रेष्ठ है जो अपजीविकः दुरर्जन है । साधुता के नाम पर अगर कोई मिक्षा से रुपया कमा कर दानवीर बना हुआ है। ऐसे मांग रहा हो तो यह देखना चाहिये कि यह कोदानवीर को हम दाति या प्रभारी नसी जनसेवा कर रहा है। जनसेवा का कोई कह सकते हैं पर पुण्यात्मा अनुकरण ६ आदरणीय कार्य न कर रहा हो तो वह भिक्षा मांगने का नहीं कर सकते। अधिकारी नहीं है। मरहम लगाने के लिये जमे छुरी मारना कभी कभी किसीकी जनसेवा दिखाई नहीं देती ठीक नहीं, उसी प्रकार दान देने के लिये पाप- तो यह देखना चाहिये कि इसने साधुता के लिये जीविका ठीक नहीं, हां, छुरी लग जाने पर उम त्याग क्या किया है। म. महावीर ने साधुजीकी पट्टी करना चाहिये उसी प्रकार पापजीविका वन के प्रारम्भ के बारह वर्ष तक कोई जनसेवा करने पर सम्पत्ति दान में लगा देना चाहिये, फिर नहीं की, जनसेवा की साधना की पर वह लोगों भी करी न मारने से जो आराम रहता है वह छुरी को दिखाई नहीं दे सकती थी तब वे अपने मारकर मरहम लगाने पर भी नहीं होता। इसी प्रकार त्याग के बल पर भिक्षा मांगने के अधिकारी थे । जीविका न करने से जो स्थपरकल्याण अगर किसी का त्याग न दिखता हो तो वह पापजीविक करके दान देने पर भी नहीं है इसन्निये न पत्रिका में जयः सट्टा आदि-का उसमें जनसेना की साधना दिखना चाहिये । दिखना त्यागही श्रेष्ठ जरूरी न हे ज़रूरी है होना, पर होने की ओट में सभी मुफ्तखोर अपनी मुफ्तखोरी छिपा सकते हैं ५-भिक्षा-मिक्षा भी एक दुरर्जन है इसलिये दिखने पर कुछ जोर दिया गया है । हां, क्योंकि इस से मनुष्य दूसरों के जीवन का बोझ दिखने का यह मतलब नहीं है कि वा घर उसके बन जाते हैं उनके भीतर मुफ्तखोरी आ जाती विज्ञापन टंगे हों और उसकी सेवा के गीत गाने है दीनता आ जाती है, इस प्रकार वे अपना कल्याण का नाश करने हैं और इसरों के कल्या को सैकड़ों व्यक्ति अपनी शक्ति लगा रहे हों, ण का भी नाश करते हैं। दिखने का मतलब यह है कि उसकी साधना का या सेवा का कुछ क्रियात्मक रूप हो। हर एक आदमी को चाहिये कि वह समाज को कुछ दे और उस के बदले में रीटी कपड़ा इस प्रकार साधुजीवन की कुछ श्रेणियाँ आदि ले, मुफ्त में किसी से कुछ लेना मनुष्यता बन जाती है १-जनसेवा त्याग और साधना दिख रही है। ___हां, कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनका भिक्षा २-जनसेवा और साधना दिख रही है। न दर्जन नही, स्याग है । एक वैभवशाली वैभव ३-त्याग और साधना दिख रही है। स्या का जनमत्री भिक्षुक बन जाता है उसकी ४- साधना दिख रही है। भिक्षा दुरजन नहीं है । पर एक आलसी अकर्म इसी प्रकार जनमेव, आदि के होने के विषय ज्य आदमी गरस बरस मधुक वेष लेकर में भी समक्ष लेना चाहिये । इन मब को मिक्षा भिक्षा मांगने लगता है न उनकः भिक्षा माँगना लेने का अधिकार है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के उग पर जिनमें जनसेवा आदि दिख तो रही है। पर वास्तव में वे हैं नहीं, उन्हें भिक्षा माँगने का अधिकार नहीं है । जैसे एक आदमी उपवास करता है और भी अनेक तरह के कष्टों का प्रदर्शन करता है पर उसकी यह साधना जनसेवा के लिये नहीं है अपनी पूजा प्रतिष्ठा के लिये है तो वह साधु नहीं है उसे भिक्षा मांगने का अधिकार नहीं है। उसका भिक्षा माँगना दुर्जन है। जिनने जीवन भर काफी सेवा की है पर अब वृद्धावस्था में शरीर और मन सेवा करने के लायक नहीं रहा है, सरकारी प्रबन्ध ऐसा नहीं है. कि उन्हें खाने मिले, सन्तान अथवा बन्धुबान्धव भी ऐसे नहीं है कि पालन पोषण करें तो उन्हें भिक्षा मांगने का अधिकार है। कोशिश तो यही होना चाहिये कि वे जहां तक बन सके मिक्षा न मांगे पर मांगना पड़े तो वे क्षन्तव्य 1 जो बात वृद्धों के विषय में कही गई है वही अनाथ बच्चों के विषय में भी कही जा सकती है पर उनके विषय में यह ख्याल रखना चाहिये कि वे कहीं दूसरों के प्रतिनिधि तो नहीं हैं। देखा गया है कि बहुत से लोग बच्चों से मिक्षा मँगवाते हैं और मुफ्त में खाते हैं। बहुत से बच्चे काम कर सकते हैं पर भिक्षा मांगते मांगते उनमें ऐसी मुफ्तखोरी जाती है कि काम करने के नाम से डरते हैं। ऐसे बच्चों भिक्षा मांगने का अधिकार नहीं है। जो काम कर मकते हैं उन्हें काम करके ही जीविका करना चाहिये । प्रश्न- देश में बेकारी इतनी अधिक हो कि किसी आदमी का कोशिश करने पर भी काम न मिलता हो तो वह क्या करे ! भिक्षा मांगे या भूखों मर जाय ! ३७२ तर कभी भिक्षा मांगने की अपेक्षा भूखों मर जाना भी अच्छा हो सकता है पर यह सब समय अच्छा नहीं है न हर एक आदमी ऐसा कार्य कर सकता है इसलिये मिक्षा मांग सकता है, पर उसके मांगने का तरीक ऐसा होना चाहिये कि जिससे व न बन जाय न समझा जाय । वह भिक्षा मांगने के पहिले कुछ काम मांगने के लिये जाय अगर कोई काम न दे तो भिक्षा मांगले, पर भिक्षा मिटने पर कुछ काम कर दे । कुछ काम न हो तो दरवाजे पर झाड़ तो लगा ही सकता है। अगर मामला उसके घर कुछ काम न हो, तो आम लोगों की सेवा कर सकता है। गांवों और नगरों में साफ़ सफाई का काम ही इतना और ऐसा होता है कि कोई भी आदमी कर सकता है। हर एक घर में कुछ ऐसे काम होते है जो ईमानदार आदमी से सरलता से कराये जा सकते हैं। मतलब यह कि मनुष्य बेकार हो गया हो और भिक्षा मांगने के सिवाय और ठीक उपाय उसके पास न हो तो कुछ समय तक मिक्षा मांग सकता है पर उसे अकर्मण्य न बनना चाहिये किसी न किसी तरह र की या समाज की सेवा उसे कर देना चाहिये और यहाँ तक करने की चेष्टा करना चाहिये कि उसकी मेवा की बाजारू कीमत मिक्षा की चीज के बराबर हो जाय । फिर भी ऐसी भिक्षा को चान बनाना चाहिये, काम ढूंढ़ने की कोशिश करते ही रहना चाहिये, ऐसी हालत में बेकार आदमी का भिक्षा मांगना दुरर्जन न होगा। कुछ लोग किसी अंधे लूले लंगड़े को पकड़ कर उसके लिये भिक्षा माँगने का धंधा करने Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५ ] सत्यामृत लगते हैं उनका भिक्षा माँगना भी मुफ्तखोरी है भाट थी, इसलिये दीनान जी हाथी से उतरे और दुर्जन हैं। भिक्षुकों में खड़े हो गये, सेठ हाथ जोड़ कर प्रश्न--वर्ण व्यवस्था के युग में ब्राह्मण प्रायः । बोला-अन्नदाता, आप यह क्या करते हैं ? दीवान भिक्षा मांगकर अपना निर्वाह करता था यह व्यवस्था ने कहा-मेरी जाति भाट है इसलिय में अपना हक समाज ने ही नियत कर दी थी, जब यह दुरर्जन मांगता हूं । दीवान के इस जाति प्रेम से सभी है तब समाज ने ऐसी व्यवस्था क्यों की ! को प्रसन्नता हुई । क्या आप इसे दुरर्जन कहेंगे ? उत्ता-वर्णव्यवस्था के युग में ब्राह्मण और उत्तर--दीवान में जातिप्रेम था और इतना शूद्र के लिये जो भिक्षा माँगने की व्यवस्था की अधिक था कि उसने नम्रता का उत्कट रूप गई थी वह दुर्जन रूप नहीं थी । वह तो विनि- धारण कर लिया और प्रशंसा पाई, यह सब ठीक मय अर्थात् लेन देन का एक तरीका था । ब्राह्मण था पर इसको ठीक होने का कारण दीवान का समाज की बौद्धिक-सेवा विना वेतन के करता था जाति-प्रेम और विनय है दुरजेन नई रर्जन नहीं । वास्तव में समाज उसके बदले में भिक्षा देता था। यह अर्जन के लिये दीवान ने भिक्षा मांगी भी नहीं विनिमय का एक ढंग हुआ दुरर्जन नहीं । इसी थी इसलिये वह अजनरूप ही नहीं थी फिर दुरर्जन तरह बहुत से शूद्रों की सेवाओं के बदले में भी तो क्या होती ! पर अगर उसने अर्जन की दृष्टि भिक्षा के तरीके से विनिमय किया जाता था। से एसा किया हो तो दुरर्जन ही कहा जायगा हां, वर्णव्यवस्था के नष्ट हो जाने पर और क्योंकि भिक्षा का उसे कोई अधिकार नहीं था । नौकरी आदि आजीविका के कार्य में लग जाने अगर वहां के लोगों ने इस तत्त्व को समझा होता पर जो भिक्षा आदि लेते हैं वे अवश्य दुर्जन तो यह घटना कुछ और लम्बी होती । दूसरे दिन करते हैं । जो ब्राह्मण अध्यापक हैं वेतन लेते हैं लोग उसके यहां गये होते और उनने कहा होताया और कोई ऐसा धंधा करते हैं जिसमें उनको सरकार, आप ने कल जातिप्रेम और नम्रता का जीविका मिलती है फिर भी ब्राह्मणत्व के नाते जो परिचय दिया है वह आप सरीखे महापुरुषों भिक्षावृत्ति भी करते हैं वे दुरर्जन करते हैं। के योग्य है पर इस कार्य में जो धर्म का भंग हुआ, जब वर्णव्यवस्था नहीं रही तब उसके आश्रित आशा है उसकी आप रक्षा करेंगे। भिक्षावृत्ति भी न रहना चाहिये । दीवान कहता-धर्मभंग हुआ हो तो मैं प्रश्न-आज ब्राह्मण को नौकरी लगी है इस- अवश्य प्रायश्चित्त करूंगा कृपाकर आप बतलावें । लिये भिक्षावृत्ति वह छोड़ रहा है कल नौकरी लोग कहते-मनुष्य को किसी एक ही वर्ण छट जाय तो क्या करे । भिक्षा मांगने का पुस्तैनी की आजीविका करना चाहिये अगर कोई आदमी धंधा छोडने में कभी न कभी संकट आ सकता वेतन लेकर कोई जीविका करता है और जीविका है इसलिये क्यों न वह हर हालत में भिक्षा मांगे? सम्बन्धी अपने जातीय अधिकार के अनुसार भिक्षा एक बार एक रियासत के दीवान हाथी पर चदे आदि मैं गत: है तब दो में से उसे किसी एक जीविका चले जाते थे रास्ते में एक सेठ के यहां भाटों को का त्याग करना पड़ता है । इसलिये कल आपने कपड़ा दिया जा रहा था, दीवान की जाति भी भिक्षा मांगी उसके लिये आपको दीवानगिरी Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के उपांग की आमदनी छोड़ना पड़ेगी। दीवानगिरी छाड़ना तर के लिये घातक है । . दीवान कह कहना बिलकुल ठीक है मैंने बाल भिक्षा मांगी थी इसलिये कल की आमदनी छोड़ देता हूं। लेग कहते ब्रह्मणों और शुद्रों को जो भिक्षा आदि दी जाती है यह किसी एक दिन की सेवा का बदला नहीं होता वह प्रायः साल भर की सेवा का बदला होता है, अब आप जैसा उचित समझें करें। दीवान कहता- ठीक है, मैं अपनी साल भर की आमदनी भेंट करता हूं, अन्यथा मुझ दुर्जन काष लगेगा | घटना अगर इस तरह हो तो दर्जन के अहरण हो सकता है, साथ ही जातिप्रेम और नम्रता आदि का परिचय मिल सकता है। दोष रह गई दूसरी आजीविका छूटने पर पहिली वाक करने की बात, सो इसमें पहिली बात तो यह है कि यदि मनुष्य पहिली निका छोड़कर सुधार दूसरी आजीविका कर रहा है तो इसका मतलब यह ह कि वर्ण व्यवस्था का बन्धन इट गया है, ऐसी हालत में फिर भिक्षाश्रित जीविका करने की ज़रूरत नहीं है, अगर हमें और समाज को, दोनों को उस कार्य की आता मालूम होती है तो जिसदिन से हम वह कार्य करेंगे उसीदिन मे हम भिक्षा के अधिकारी हो जायेंगे । फिर न हमें भिक्षा लेने में संकोच होगा न समाज को भिक्षा देने में । असल में भिक्षा न मिल सकने की अड़चन वहीं उपस्थित होती हैं जहां समाज की कोई सेवा तो की नहीं जाती किन्तु जाति की दुहाई देकर [ ३७६ मुफ्त में भिक्षा मांगी जाती है। ऐसी जगह था के अनुसार मिक्षा मिलती रहती है और एक दो चार भिक्षा न जहाँ प्रथा बन्द हुई कि फिर उसे भिक्षा नीति इस प्रकार मुफ्त की मिक्षा चन्द्र है। जाय में बुरा ! मानने की ज़रूरत नहीं है यह अच्छा ही मानना चाहिये | सेवा करने पर तो कभी भी भिक्षा का प्रारम्भ हो सकता है। भिक्षा मांगने से ही पुश्तैनी धंधा नहीं हो जाता, होता है तब यह सेवा मी दी जाय जिसके बदले में भिक्षा मांगी गई है । वह सेवा न करना पुश्तैनी धंध छोड़ देना न की भिक्षा छोड़ देना । एक करने लगे पुश्तैनी धंधा शुरू होगया और मिक्षा का भी अधिकार हो गया । इस , मुख्य बात यह है कि मनुष्य को मुफ्तखोर कभी न बनना चाहिये, भिक्षा माँगना हो तो विनिमय के आधार पर माँगना चाहिये अन्यथा दुरंजन होगा | ६-ट्ठा दुरर्जन अधिक ब्याज है, ब्याजकी दुर्जनता का कारण पर्याप्त है, इस पूरी तरह रोकना कठिन है साथ ही अमुक अंश में इसे आवश्यक या क्षन्तव्य मानना पड़ता है। निरतिवाद की नीति से काम लिया जाय तभी ब्याज के ऊपर अंकुश रक्खा जा सकता है। ख़ैर, अंकुश रक्खा जाय या न रक्खा जाय पर इसमें जो मूल सिद्धान्त का भंग हुआ है उसपर विचार कर लेना चाहिये जिससे ब्याज की दुर्जनता मालूम हो । समाज रचना के मूल में यह बात पड़ी हुई है. कि एक दूसरे की सेवा करके परस्पर में अधिक से अधिक सुविधा दी जाय । एक आदमी हर बात में न तो होश्यार हो सकता है न वह सारे Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ ] स-यामृत काम कर ही सकता है कि दूसरे से काम न उसका कारण यह है कि तुम मौके पर अपनी लिया जाय इसलिये लोगों ने अपनी अपनी पुरानी सेवा का बदला लेसकों, न कि इसलिये कि योग्यता के अनुसार एक एक काम करके भी तुम सेवा लेने का अधिकार तो ज्यों का त्यों सुर - अपनी सब ज़रूरतों को पूरा करने का तरीका क्षित रक्खो और बीच में मुफ्त में सेवा लेते रहो । निकाला। यही कारण है कि ब्याज एक तरह का दुरर्जन है । पर न तो सबकी सेवाओं का मूल्य एक फिर भी साधारण ब्याज को हम दरर्जन सरीखा था और न सब एक सरीखे परिश्रमी थे नहीं कह सकते। जब तक पूंजी में पैदा करने की इसलिये उनकी सेवाओं में कमीबेशी होना शक्ति है तब तक ब्याज की प्रथा को नहीं रोका स्वभाविक था, इसलिये उसका बदलाभी कम जा सकता, अधिक ब्याज ही रोका जा सकता है । ज्यादा मिलना उचित था। जिसकी जितनी सेवा एक गरीब दुकानदार जितनी योग्यता और उसको उतना बदला । पर एक ही समय में सारा मेहनत से जितना रुपया पैदा करता है उससे बदला लिया नहीं जाता वह तो ज़रूरत के कई गुणा रुपया, एका पंजीपति दुकानदार, परिअनुसार ही लिया जाता है। पर जब ज़रूरत हो चय और योग्रता कुट कन होने पर भी पैदा कर तब कौन याद रक्ख, कोई क्या बताकर सिद्ध सकता है । इस प्रकार जब तक समाज में पूंजोकरे कि हमने इतनी सेवा की है इसलिये इतना पतित्व है और पूंजा में धनको पैदा करने की बदला मिलना चाहिये, इस के लिये धन की सामर्थ्य है तब तक ब्याज भी रहेगा, उसे मिटाने कल्पना हुई, सेवा के बदले में धान्य या सोना के लिय निति दी अर्थ-नीत का प्रयोग होना चांदी दिया जाने लगा और सोने चांदी के बदले चाहिये जिसमें पूंजीवाद को गुंजायश न रहे और में सेवा या कामकी चीजें मिलने लगीं। धनसम्पत्ति सरकार की तरफ से हर एक को पूंजी निल सके। और कुछ नहीं वह एक प्रकार की हुंडी है जा पर जब तक ऐसा निरतिवादी समाज नहीं है तब अपने पारिश्रमिक के बदले में समाज स सेवा लेने तक अधिक ब्याज को अवश्य रोकना चाहिये । के लिये दी गई है । उस हुंडी का उसी रूप में अधिक ब्याज को रोकने के लिये कुछ तो सरउपयोग होना चाहिये। कार को, कुछ व्यक्ति को सुधार और संयम सेवा के बदले में सेवा लेना यह विनिमय का से काम लेना ज़रूरी है । इसके लिये कम से कम मूल सिद्धान्त है । व्याज में इस मूल सिद्धान्त का इन दो बातों की विशेष आवश्यकता है । पालन नहीं होता । हमारे पास अगर सौ रुपये हैं अधिक ब्याज गैर काननी समझा जाय तो इसका मतलब यह है कि तुम्हारी उतनी सेवा जैसे सरकारी बैंक लोगों को जितने ब्याज पर समाज पर नत्रण है, वह सौ रुपया देकर तुम रुपया देते हैं उससे अधिक ब्याज कोई न ले यह सेवा देने का मौ रुपमा लिने के बदले सो । जो व्याज लेते हो वह तो मुफ्त में लेते हो। २-ऋण चुकाना अनिवार्य समझा जाय । समाज ने तम्हें रुपया रखने की जो अनुमति दी ऋणी ऋण चुकाने के लिये जीवन भर उत्तरदायी Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के उपांग , और उसके बाद उ नका जो उन्ना ३ निरतिग्रह धिकारी बने उस लिई सूचना कर दी जाय। धन सम्पत्ति का अधिक संग्रह न करना सांहकारी जिन्न जाखम में डागी व्याज नितिग्रह है। अतिग्रह भी एक उपपाप है क्यों कि उतना ही अधिक होगा । इसलिये कोशिश यह इसमे दुनिया में गरीबी फेलती है और धन के पाले होना चाहिये कि न तो कानूनी आई में साहु बहत से पाप और अनर्थ हुआ करते हैं । कारी डब जाय, न अपनी इच्छा ना दुहाई देकर प्रश्न - किसी आदमी ने कानून और समाजके कोई मनमाना ब्याज ले सके । हां, साहुकारी नियमों के भीतर रहकर धन कमाया हो और वह किसी को न देना चाहे न खर्च करना चाहे वह का अधिकांश कार्य सरकारी बैंकों के हाथ में उसे अपने पास ही रखना चाहे ते। इसमें क्या हो, यह अच्छा है। दोप है जिससे आप अतिग्रह को उपपाप कहते हैं । खर, सामाजिक व्यवस्था सी भी हो अधिक उत्तर - मनुष्य जन्मसे नंगा आता है और ब्याज न लेना चाहिये । अधिक ज लेना ना खाली जाता है । जीवन-निर्वाह के लिये दुनिया की दौलत का हिस्सा उसे मिलता है। किसी दुर्जन का त्याग करके मन्म्य का दर्जन को अधिक हिस्सा लेने का हक नहीं है, जो ही करना चाहिये। किसी तरह धन कमानेसे लेता है वह एक तरह से चोरी करता है। अगर जीवन की सफरता नहीं होती, धन इस तरह किसी के पास अधिक हिस्ता दिखाई देता है कमाना चाहिये जिससे हमारा भी लाभ हो और और उसका यह मालिक कहता है तो दुनिया भी लाभ हो । मुट्ठीनर आट तो मनष्; उसके दो कारण होना चहिये । एक तो यह जिन्दा रह सकता है और इसके लिए दर्शन कि समाज सेवा के लिये वह चीज आवश्यक हो, की ज़रूरत नहीं है, तब क्यों मनुष्ा दुरर्जन करे। र जैसे एक विद्वान के पास हजार रूपये की पुस्तके दुरर्जन में हम दुनरों को पीसते हैं और दृमः ।। हैं इतनी पुस्तमें या इतने मूल्य की अन्य चीजें बहुतों के पास न होगी फिर भी यह संग्रः आंतहमें पीसते हैं। दूसरे पचास आदमियों को पीसने से संग्रह नहीं है क्योंकि वह धनी कहलाने के लिये हमें उतना सुख नहीं मिलसकता जितना दुःख है । दूसरा कारण यह हो सकता है कि मेरी सेवा अपने को थोड़े रूपमें पिसवा डालनेसे। इसलिए हम अधिक कीमती हो और उसका बदला आया हा हमरो की रक्षा करें, दूसरे हमारी रक्षा करें, सब इसलिये धन रुक रहा हो । कुछ समय तक चैन से रहें ऐसी ही नीति होना चाहिये । दुरर्जन यह रुकावट क्षम्य हो सकती है । इन दो कारणों से आर्थिक जगत में जो हाय हाय मचती है के सिवाय अगर मनुष्य धन संग्रह करता है तो उससे दुनियामें वैभव के बढ़नेपर भी कंगालियत अन्याय करता है। तुमने अगर सेवा अधिक की और अशान्ति दिखाई देती है। अगर दुरर्जन है तो इसके बदले में अधिक सेवा लेलो पर न हो तो इतने वैभव में जगत इतना अच्छा हो दूसरों की खुराक दबाकर बैठ जाने का तुम्हें कोई कि कंगाली दिखाई भी न दे। अधिकार नहीं है । एक कुटुम्ब में बहुत स भाई Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७९ ] रहते हैं अपनी अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करते हैं योग्यता और सेवा के अनुसार उनका सन्मान भी होता है और उसी के अनुसार उनकी प्रतिसेवा भी होती है, इतना होने पर भी कुटुम्ब के प्रत्येक आदमी को कुटुम्ब की आर्थिक परिस्थिति के अनुरूप भरपेट भोजन और वस्त्रादि मिलते हैं । जैसा यह कुटुम्ब के लिये है सत्यामृत । उसी प्रकार समाज के लिये भी है अतिसंग्रह करते हैं वे समाज के इस मूल तत्त्व का नाश करते हैं, वे समाज के अन्य सदस्यों को कंगाल बनाते हैं । जो लोग प्रश्न - खाद्य सामग्री या उपयोग की सामग्री का संग्रह करना बुरा है पर सोना चांदी नोट आदि के संग्रह करने में क्या बुराई है ? उत्तर-सामग्री के जो साधन हैं उनका संग्रह करना या सामग्री का संग्रह करना एक ही बात है । क्योंकि रुपया नोट आदि का संग्रह करने से वे दूसरों को नहीं मिल पाते इसलिये बेकारी और गरीबी बढ़ती है। इससे समाज का विकास भी रुकता है । हमारे पास जो रुपया हैं वह अगर 1 हम किसी काम में लगा दें जिसने मज़दूरों को मज़दूरी मिले तो उन मज़दूरों की मिहनत से समाज में कोई 3 कोई चीज़ तैयार होगी ही। शिक्षक की मिहनत से ज्ञान का प्रसार होगा, कलाविदों की मिहनत से कला का विकास होगा या कला से लोग लाभ उठवेंगे इत्यादि कोई न कोई काम होगा ही । संग्रह करने से वह धन तिजोड़ी में पड़ा पड़ा मड़ेगा, बेकारी के कारण दूसरे भूखों मरेंगे, विनिमय कम होने से एक दूसरे का उपकार कम होगा साधन सामग्री भी कम तैयार ोगी इसलिये अतिग्रह न करना चाहिये । प्रश्न- अतिग्रह की मर्यादा क्या ? यों तो सौ पचास रुपया अतिग्रह कहे जा सकते हैं यों लाखों रुपये भी अतिग्रह नहीं कहे जा सकते | तब अतिग्रह किसे कहा जाय? क्या सबके लिये अतिग्रह एक सरीखा होगा? उत्तर नीचे लिखी संपत्तिको रखना अतिग्रह न कहलायेगा | [१] जीवन के लिये जो चीजें कम से कम जरुरी हैं उन्हें अतिग्रह नहीं कहते जैसे भरपेट रोटी पानी, रहने के लिये साधारण घर, पहिरने के लिये साधारण कपड़े, आदि । २] जीवन निर्वाह की सामग्री पाने के लिये जो ज़रूरी सामान हो उसका रखना भी अतिग्रह नहीं है । जैसे खेती के औजार तथा मज़दूरी के औजार आदि । [३] देश की साम्पत्तिक हात जैसी हो और आमदनी का जा औनत हो उतने हिस्स तक सम्पत्ति रखना अतिग्रह नहीं है। 1 | ४ ] अगर कोई विशेष सेवा करता हो और उस सेवा के लिये विशेष साधनों की ज़रूरत हो तो उनका रखना भी अतिग्रह न कहलायगा । जैसे एक डाक्टर को या एक वैज्ञानिक को हज़ारों रुपये के आजार रखन पड़े एक साहित्यिक को या इतिहास शोधक को एक पुस्तकालय रखना पड़े आदि । साधकता की दृष्टि से ही इसे अतिग्रह न कहेंगे । अगर वह संग्रह की या अपनापन साबित करने की दृष्टिसे रक्खेगा तो अतिग्रह होयग । [५] एक आदमी इसलिये धनसंग्रह कर रहा है कि भविष्य में वह समाज की ऐसी सेवा करना चाहता है जिसके बदले में समाज उसे जीवन निर्वाह के लिये कुछ न देना चाहेगा और Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i भगवती के उपांग शायद कुछ समय तक सेवा भी पसन्द न करेगा, अपने अज्ञान के कारण उसका विरोध भी करेगा जैसा म. सुकरात आदि का किया गया था तो वह उस समय के लिये कुछ संग्रह करना चाहे तो वह अतिग्रह न कहलायगा । (३) अपनी परिस्थिति के अनुरूप सन्तान के पालन पोषण के लिये धन रखना भी अतिग्रह नहीं है। हां, सन्तान ज़िन्दगी भर चैन से खाती रहे और उसे कुछ न करना पड़े इस आशय से संग्रह करना या उतनी सम्पत्ति संग्रह करना अतिप्रद है । अतिग्रह की इन मर्यादाओं को समझ कर अतिग्रह का त्याग करके मनुष्य को निरतिग्रह का पालन करना चाहिये । प्रश्न- अगर अतिमह न हों तो संसार का 'विकास रुक जाय, दुनिया में न तो कोई गरीब रहे न अमीर । गरीबों का न रहना तो ठीक है पर अमीरों के न रहने से बड़ी हानि होगी । अभी तो ज़रूरत पर अमीरों से दान में हजारों लाखों मिल जाते हैं पर जब अमीर न रहेंगे तब कौन देगा ! फिर कहां से ये शिक्षण संस्थाएं चलेंगी ? कहां से धर्मशालाएँ बनेंगी ? कहां से मुफ्ती औषधालय खुलेंगे ? कुछ भी तो न हो सकेगा। वर्षा के पानी का अगर जलाशयों में अतिसंग्रह न हो पाय, ब जगह फैल जाय तो बरसात के बाद लोगों को पानी मिलना असम्भव हो जाय, इसलिये जल के समान धन का अतिसंग्रह भी ज़रूरी मालूम होता है । उत्तर - पृथ्वी पर जो जलाशय दिखाई देते हैं, वे इसीलिये बन सके हैं कि वर्षा का पानी छोटे छोटे हजारों लाखों श्रोत के रूपमें धरातल के नीचे बह रहा है इन्हीं छोटे छोटे श्रोतों के पुण्य [ ३८० से हमारे कुएं और तालाब आबाद हैं। अगर ये श्रोत न होते, उनका पानी भी किसी एक जगह संग्रहांत हो गया होता तो आज जलचरों के सिवाय दूसरे प्राणी दिखाई भी न देते । कुएं तालाब वगैरह अतिसंग्रह के परिणाम नहीं किन्तु अतिसंग्रह के अभाव के परिणाम हैं। कुएं तालाब सरीखे सार्वजनिक संग्रह अतिग्रह के अभाव में समाज में बनाये जा सकेंगे, बनाये जाते हैं । लाखों और करोड़ो का ख़र्च करनेवाली सरकार कैसे बन जाती है ! एक एक किसान की मुट्टी के दाने लेकर ही तो इतनी बड़ी सरकार बनती है। सरकार को जाने दीजिये, ऐसे ऐसे मन्दिर आदि धर्मस्थान है जहां यात्री लोग पैसा पैसा चढ़ाते हैं और इसी के बल पर उनके पोस लाखों की सम्पत्ति है, आज अमीर लाखों देते हैं पर इस इकतरफ़ी अमीरी की बदौलत करोड़ों गरीब ऐसे भी बन जाते हैं जो एक एक पैसा नहीं दे पाते, वे अगर दे पाते तो लाखों से ज्यादा दे डालते । और लाखों के लाख पैसों का जो मूल्य है वह एक के लाख रुपयों का नहीं है, क्योंकि एक अमीर के पास रुपये लाख हो सकते हैं पर दिल तो एक ही हो सकता है, इसलिये लाख रुपयों के साथ एक ही दिल आयेगा से भी सम्भवतः अहंकार और महत्त्वाकांक्षा यशालिप्सा आदि से सना हुआ, जब कि लाख पैसों के साथ लाख दिल आयेंगे, और आयेंगे भक्ति श्रद्धा से सने हुए । लाख दिलों की कीमत लाख रुपयों से कई गुणी है । इसलिये यह सोचना कि अतिग्रह के अभाव में सार्वजनिक सेवा के लिए धन न मिलेगा, भूल है । दूसरी बात यह है कि सार्वजनिक सेवा सरकार का काम है । अतिग्रह के अभाव में न Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१] सत्यामृत जो किसी देश में विदेशी सरकार रह सकती है न को जन्म देता है एक देश को दूसरे देशका जीवादियों की सरकार रह सकती है जिससे सरकार गुलाम बनाता है, एक तरफ़ शैतानियत और के स्वार्थ और जनता के स्वार्थ जुदे जुदे हों। जब दूसरी तरफ वानियत पैदा करता है, जिन सरकारें सच्ची सरकारें हो जायगी तब सार्वजनिक मनुष्यों से व्यक्तिगत कोई वैर नहीं होता, जिन में सेवा के लिए धन की कमी न रहेगी, शिक्षण- कोई बुराई नहीं होती उनसे भी वैर कराता है, संस्थाएँ बनवाना, यात्रियों के ठहरने का प्रबन्ध बड़े बड़े युद्धों को जन्म देता है। गुलाम देश तो करना, बीमारों का इलाज करना सरकार का पिसते. ही है पर उनको गुलाम बनाने वाले काम हो जायगा। ।। अतिग्रही देश भी परस्पर लड़कर अपना नाश तीसरी बात यह है कि जन-सेवा के बहुत करते हैं । इस तरह कई तरफ़ से मनुष्य जातिका से कार्य तो इसलिए खड़े हो गये हैं कि अतिग्रह और मनुष्यता का संहार होता है । अतिग्र: के के कारण धन का बटवारा ठीक ठीक ठीक नहीं त्याग से जो संसार स्वर्ग बन सकता है अतिग्रह हो पाता। नहीं तो सभी लोग अपनी चिकित्सा से वह नरक बन जाता है । हर एक आदमी, शिक्षण आदि का प्रबन्ध कर सकेंगे । भिखारी हर एक कीम और हर एक मुल्क अगर अतिग्रह न रहेंगे कि किसी अमीर को मुट्टी मुट्ठी अन्न का त्याग करके कुछ सन्तोषी बने, खुद खाये और बाटने की तकलीफ उठाना पड़े । दानियों का दूसरों को भी खाने दे तो सभी .मनुष्य मजे में रह मिलना समाज की शोभा नहीं है, भखि लेने- सकते हैं और निराकुलता तथा प्रेम के कारण वालों का न मिलना समाज की शोभा है। कई गुणा आनन्द उठासकते हैं, इस हालत में दान तो. एक आद्धर्म है जो अतिग्रह के पाप अगर थोड़ा भी हिस्सा मिले तो भी मनुष्य बहुत के प्रायश्चित के रूपमें करना ज़रूरी बन गया सुखी हो सकेगा । और सच पूछा जाय तो अतिहै। दान की रकमों की अधिकांश सामग्री तो बीच ग्रह से कुछ अधिक हिस्सा मिलता है पर उसके के दलालों के हाथ ही पड़ती है। जो भिखारियों पीछे जो संघर्ष आदि हो जाता है उस संघर्ष को मिलती है उससे ज्यादा दाना का अहंकार में वह अधिक हिस्सा ब्याज दरब्याज सहित बढ़ता है और भिखारियों में दीनता बढ़ती है। नष्ट होजाता है। निरतिग्रह के पुण्य के आगे दान का पुण्य पहाड़ हर एक बुराई के मूल में मोह और अभिमान होता के आगे राई बराबर ही है। निरतिग्रह से एक है। अतिसंग्रह के मूल में भी येही हैं। पर कैसे तो दान रुकेगा नहीं, अगर रुक भी जाय तो निरर्थक हैं ये ! इसका मनुष्य विचार नहीं करता उस से समाज का विकास न रुकेगा। है। अपने कुटुम्बियों आदि का पालन पोषण ____ अतिग्रह व्यक्तिगत भी होता है और करना एक बात है पर उन्हें अयोग्य और आलसी सामाजिक भी होता है । सामाजिक के भी नाना बनाने के लिये उनका नैतिक पतन करने के रूप हैं, जातीय, अजातीय, वर्गीय, प्रान्तीय लिये अतिसंग्रह करना अनुचित है। ... राष्ट्रीय आदि । इस अतिग्रह से मानव समाज दूसरा कारण है अभिमान । पर अमिमान से क्या नरक बन जाता है । राष्ट्रीय अतिग्रह साम्राज्यवाद हम बड़प्पन पाते हैं ! घृणा और वैर के सिवाय हमें Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवता के उपाग क्या मिलता है ? इस प्रकार मोह और अभिमान में वह चीज़ अनुचित नहीं होती सिर्फ उसकी निःसार हैं। मात्रा विधार न रहने से वह अनुचित हो र रह गया यह कि हम अतिसंग्रह करके आराम करें जाती है । उदाहरण के लिये दाम्पत्य जीवन में सो पहिली बात तो यह है कि आराम करने के खराबी नहीं है. पर अगर इसमें रतिकर्म का इतना लिये हमें खर्च ही करना पडंगा, संग्रह करने से उपयोग किया जाय कि स्वास्थ्य खराब हो जाय काम न चलेगा, पर दूसरी बात यह है कि तो यह अतिभोग है। इसी तरह खान पान की मिहनत करने पर भी जरूरी आराम तो मिल ही बात है । ऐसी विलासिता जिमसे मनुष्य अपने सकता है दिनभर मजदरी करनेवाला मजदर रात आवश्यक कर्तव्य पर न कर सके, स्वाद-लोलपता भर जो आराम कर सकता है वैसा आराम से ऋणग्रस्त हो जाय आदि अतिभोग हैं। नाचआरामतलबों को कहाँ मिलता है, उनकी तो बीमारी गान में ज्यादा समय लगाना, नाटक, सिनेमा सारा आराम खा जाती है। प्रकृति की रचना अधिक देखना भी अतिभोग है। ही ऐसी है कि इस शरीर को व्यवस्थित और किसको अतिभोग कहा जाय किसको न नीरोग रखने के लिये कुछ न कुछ श्रम लेना कहा जाय इसका विचार विना अपेक्षा के नहीं ज़रूरी है। इसीलिये अतिसंग्रहियों को नाना हो सकता । एक के लिये जो अतिभोग है दूसरे तरह के व्यायाम करना पड़ते हैं इसके लिये भी के लिये वही निरतिभोग भी हो सकता है। इसपैसा खर्च करना पड़ता है। इसकी अपेक्षा यह कहीं लिये इस विषय में कुछ सूचनाएँ ही दी जा सकती हैं जिनके अनुसार अपनी अपनी योग्यता और अच्छा है कि ऐसी मजदूरी की जाय जिससे कुछ कमाई हो। और जब कमाई कराने परिस्थिति के अनुसार अतिभोग और निरतिभोग का विचार किया जा सके। - ...' वाली मजदरी हमें और हमारी सन्तान को जरूरी है तब अतिसंग्रह किसलिये। इस प्रकार विचार १-जो भोग शरीर-स्थिति के लिये अनिवार्य करने से पता लगेगा कि झूठे अभिमान के सिवाय । 4 न हो फिर भी विषय-लोलुपता के कारण ऋण अतिसंग्रह का और कोई कारण नहीं है । पर यह लेकर भी उसका उपयोग किया जाय तो यह ' अतिभोग है । । अभिमान भी निःसार है। ... ऋण लेकर विवाह आदिमें अधिक खर्च करना __ अतिसंग्रह यद्यपि उपपाप है पर यह अनेक आदि भी इस सूचना के अनुसार अतिभोग हैं। पापों का बीज है इसलिये अतिसंग्रह का त्याग . २-इतनी अधिक चीज़ों का उपभोग - करना चाहिये और अतिसंग्रह को गौरव की दृष्टि करना कि उसी में बहुतसा समय शक्ति और धन से न देखना चाहिये । लग जाय, किसी के यहां अतिथि बन कर जायें निरतिभोग तो अतिथि-सत्कार के साधन जुटाते जुटाते वह अतिभोग का त्याग करना निरतिभोग है । परेशान हो जाय, इत्यादि अतिभोग हैं। दर्भोग में तो हम जिस चीज़ का उपयोग करते प्रश्न-क्या अतिभोग के त्याग के लिये हर हैं वह चीज़ ही अनुचित होती है पर अतिभोग एक मनुष्य यह प्रतिज्ञा लेले कि मैं सिर्फ अमुक Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८३ ] सत्यामृत अमुक चीजें ही खाऊंगा या सिर्फ अमुक चीज़ों है पर अमुक चीज़ अतिपरिणाम में खाने से मनुष्य का ही उपयोग करूंगा, अथवा यह प्रतिज्ञा लेले निश्चित बीमार पड़ते हैं पर व्यसन होने से नहीं कि अमुक अमुक चीजें न खाऊंगा ! इस प्रकार छोड़ सकते । ऐसी चीजों का त्याग करना चाहिये । की प्रतिज्ञाएँ लेने से इतना लाभ अवश्य होगा कि इन सचनाओं से अतिभोग समझा जासकेगा उसका ध्यान बहुत चीजों में न जायगा किसी और उसके त्याग से निरतिभोगका पालन हो जायगा । को उसके लिये विशेष आयोजन भी न करना पड़ेगा। निरतिभोग अपनी ऐहिक भलाई के लिये भी उचर-इस प्रकार की प्रतिज्ञाएँ व्यर्थ हैं। आवश्यक है साथ ही इसमे दूसरों की भी रक्षा त्याग सिर्फ उन्हीं चीज़ों का करना चाहिये जो होती है । निरतिभोग से जो चीज़ बचेगी वह दुर्भोग हैं, या अस्वास्थ्यकर हैं या अत्यन्त अरु दूसरों के काम में आयगी । समाज में ऐसे बहुत चिकर हैं । बाकी दूसरी चीज़ों के खाने न खान से प्राणी हैं जो अपना हिस्मा नहीं पा पात निरकी प्रतिज्ञा करने से बहुत आरम्भ बढ़ता है, लोगों तिभोग स हम उनके लिये कुछ हिस्सा छोड़ते हैं की परेशानी बढ़ती है। जो चीज़ तुम नहीं खाते इसलिये निरतिभोग को उपसंयम कहा है। वही घर में है इसलिये दूसरी चीज को ढूँढने, लाने, बनाने में बहुत कष्ट होता है और हानि संयम का तो मनुष्य को पालन करना ही होती है । इसलिये सब से अच्छी बात यह है कि चाहिये पर इन उपसंयमों पर भी उपेक्षा न मौके पर जो मिल जाय वही ले लीजाय दुर्भोग, करना चाहिये । इनके बिना स्वपरकल्याण अस्वास्थ्यकर, अरुचिकर की बात दूसरी है। काफी अधूरा रहेगा। कभी कभी सामाजिक दृष्टि से कोई कोई उपसंयम संयम के समान ज़रूरी ३-इतना भोग किया जाय कि जीवन निर्वाह हो जाता है संयम के समान उसका महत्त्व बढ़ के बदले में उचित सेवा भी न दी जा सके। जाता है. संयम के भंग से उसका भंग अधिक जैसे बहुत से लोग रागरंग में समय बिताते रहते दष्फल पैदा करता है। उँगलियों के कट जान है बैठे बैठे पुरुखों की कमाई खाते हैं या दूसरों पर जैसे हाथ पैर का उपयाग बहुत कम रह के भरोसे गुज़र करते हैं। जाता है उसी प्रकार उपसंयम के नष्ट होने पर : ४-ऐसा भोग करना कि अस्वाभाविक रूपमें संयम का उपयोग भी कम हो जाता है, इसलिये स्वास्थ्य खराब हो जाय । साधारणतः मनुष्य कभी उपसंयम प्राप्त करने के लिए भी अधिक से • कभी अस्वस्थ होजाया करता है वह बात दूसरी अधिक काशिश करना चाहिये । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती के उपांग आचार कांड ( पांचवाँ अध्याय ) [विशेष साधना--तप ] भगवती अहिंसा का स्वरूप, उसकी साधना उसके अंग और उपांगों का वर्णन कर देने पर आचार के विषय में काफी ज्ञान हो जाता है । फिर भी एक बात ऐसी है जिसकी ज़रूरत हर तरह की उन्नति में पड़ती है, वह है तप । स्वपरकल्याण के लिये जो विशेष साधना की जाती है वह तप है। तप के द्वारा पार का असर दूर किया जाता है और पुण्य पैदा किया जाता है । तप भगवती की विशेष साधना है । .. यों तो दूसरों का अकल्याण करने के लिये या दूसरों के अकल्याण की पर्वाह न करके अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये भी तप किया जाता है और वह अमुक अंश में सफल भी होता है परन्तु यह कुतप है क्योंकि इसमें भगवती अहिंसा का आशीर्वाद नहीं है । एक चोर को चोरी करने में कितना तप करना पड़ता है । वह जगता है सँम्भल सँम्भल कर पैर उठता है सतर्कता और श्रम दोनों से काम लेता है । तपस्वी की बहुत सी बातें चोर पाई जाती हैं फिर भी वह तपस्वी नहीं है क्योंकि उसके कार्य में भगवती अहिंसा का आशीर्वाद नहीं है, वह विश्व कल्याण के अनुरूप नहीं है । [ ३८४ जो विशेष साधना विश्वकल्याण के अनुकूल न हो वह बाहर से तप सरीखी भले ही मालूम हो पर वह कुतप है 1 तप पांच तरह के हैं १ - ज्ञानचर्या २ --प्रायवित्त ३ - विनय ४ -- परिचर्या ५-- परिषह । धर्म के दो अंग हैं, दृष्टि और आचार | सरल शब्दों में कहा जाय तो समझना और पालन करना । इन दोनों अंगों में तप की आवश्यकता है । इन पांच प्रकार के तपों की दोनों अंगों में उपयोगिता है । 1 तप के विषय में उपयोगिता या सार्थकता का अवश्य ख़याल रखना चाहिये । परिषह के नाम पर व्यर्थ ही अपने गाल पर तमाचा मारने लगना और सोचना कि हम बड़े तपस्वी हैं मूर्खता है । यह हो सकता है कि किसी कारण वश किसी का तप सफल न हो पावे या उसकी सफमार्ग में 'लता वह न देख सके पर सफलता तप अवश्य होना चाहिये । कुछ अन्य कारणों से सफलता न हो तो बात दूसरी है । जैसे म. ईसा के तप का फल उनके जीवन में दिखाई Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५] 2सत्यामृत ही दिया फिर भी वह तप था क्योंकि वह सीखता है । दूसरा से सीखने का मुख्य फलता के मार्ग में था। द्वार हे भाषा, और भाषा का उपयोग प्रायः सुनने बोलने से होता है । इसलिये सुनना पहिली ज्ञान१-ज्ञानचयाँ चया है। व्याख्यान सुनना, शास्त्र सनना आदि सत्य प्राप्ति के लिये यह परम उपयोगी है। भी तप हैं, इस से मनुष्य काफी ज्ञान बढ़। चर्या में मन को वश में रखने की, उसे एक सकता है। 5 लगाने की बहुत जरूरत होती है । मन प्रायः हर एक आदमी को यह तप करना परिश्रम भी काही करना पड़ता है । ज्ञान चाहिये । जा पढ़ लिख नहीं सकते उनके लिये से दूसरों को भी ज्ञान पहुँचाया जाता है तो यह उपयोगी है ही, साथ ही और सब क अपना विकास होता है, इस तरह ज्ञान लिये भी उपयोगी है। • स्वपर-कल्याण के लिये उपयोगी है। हां, समय बिताने के लिये किसी भी तरह ज्ञानचर्या जहां स्वपर कल्याणकारी है वहीं बह । की गपशप सुनना वप नहीं है। यह तो एक कही जासकती ह । अगर विश्वहितकी उपेक्षा तरह का काम है जो उचित है। तो अच्छा है र स्वार्थ के लिये है तो तप नहीं है अगर दूसरों अनुचित हो तो पाप है द्वेष अहंकार वश दूसरो अकल्याणा के लिये है तन्त्र तो कुनप है, की निन्दा सुनना आदि पाप ही है। २-पूछना-जानने की इच्छा से किसी से - जान से सुख भी है और दुख भी है । 'जब पछना भी ज्ञानचर्या नाम का तप है इससे भी बतष्य ने ज्ञानवृक्ष का फल खाया तब से वह झान बढ़ता है। इस तप के लिये निःपक्षता आर हो गया. ईश्वरीय राज्य से वह अलग हो जिज्ञासा जरूरी है। परीक्षा लने के लिये पूछना , इसप्रकार का वर्णन जो यहूदी ईसाई आदि पृच्छा (पूछना ) नामका तप नहीं है । वादविवाद अन्थों में मिलता है उसका मतलब यही है करने के लिये पछना भी पृच्छा नाम का तप जित ज्ञान को मनुष्य पचा नहीं सकता नहीं है। । उसके दुःख ही बढ़ते हैं । इसलिये ज्ञान प्रश्न - अध्यापक विद्यार्थी को प्रश्नपत्र देता पचाना चाहिये, उमे असमय का कारण न है जाँचता है इससे विद्यार्थी को लाभ होता है । ना चाहिये। अध्यापक को इसमें काफ़ी श्रम करना पड़ता है ज्ञान चर्या के आठ भेद हैं। १ सुनना [श्रवण क्या अध्यापक की इस मिहनत को तप न कहा छना, (पृच्छा) ३ पढ़ना (पठन) ४ विस्तारणा जाय ? विचारणा (चिन्तन ) ६ आत्मनिरीक्षण, उत्तर-अवश्य कहा जाय, पर यह पृच्छा निर्माण, ८ उपदेश । नाम का तप नहीं है किन्तु पूछना भी पढ़ाने का सुनना-साधारणतः ज्ञानप्राप्ति का एक अंग है इसलिये इसे विस्तारण नाम का तप लोहार यही है । मनुष्य समाज से बहुत कुछ कहा जायमा । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदेश माधना-तप आया सुनना बहुत साधारण है, पर पूछने का बहुत महत्व हैं । जिसे पूछना नहीं समझ लो अभी उस ज्ञान मिला नहीं है। से पता लगता है कि इसने किसी चीज को समझा है या समझने की अच्छी कोशिश कर रहा है। पूछने ३ -- पढ़ना - ज्ञान प्राप्ति के लिये पढ़ना अर्थात् अक्षर या वर्ण मूर्त्ति के द्वारा दूसरे के विचार जानना और उनसे लाभ उठाना पठन तप है । श्रवण तप के समान यह भी तप है पर सिर्फ दिल बहलाने के लिये कथा साहित्य लेकर बैठ जाना तप नहीं है यह काम है जोकि सुनन के समान पुण्य भी हो सकता है और पाप भी । 1 यो कथा साहित्य का पढ़ना कुछ बुरा नहीं। है उससे भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है, जीवन के अन्य कर्तव्यों का पूरा करने के बाद कथा-साहित्य पढ़ना भी समय का सदुपयोग है " और उससे कुछ सीखा जाय सीखने के उद्देश्य से पढ़ा जाय तो यह तप भी है । " ४ -- विस्तारण – ज्ञान का विस्तार करना विस्तारण तप है, कोई बात पढ़कर सुनाना, लिख कर फैल ना आदि विस्तारण तप है । महात्माओं के उपदेशों का संग्रह करना आदि भी विस्तारण • तप है । सिर्फ आजीविका के लिये काम किये जायँ तो तप नहीं हैं पर लोकहित की मुख्यता से किये जायँ तो तप हैं । Patri हां, विस्तारण निरर्थक हो, नाम के लिये पिष्टपेषण आदि करके कागज काला किया गया हो तो यह विस्तारण तप नहीं है । f ५-- विचारणा - चिन्तन करना, पाये हुए • ज्ञान का अनुभव और तर्क के द्वारा परीक्षण करना आदि भी तप है । इसके द्वारा ज्ञान अन्तर्मुख ८६ होता है । चिन्तन के द्वारा ज्ञान अपनी चीज़ बन जाता है । चिन्तन के बिना मनुष्य एक तरह की पुस्तक बन कर रह जाता है । 1 ६- आत्मनिरीक्षण पाय हुए ज्ञान के आधार पर अपने को देखना, निष्पक्षता से अपने गुण दोषों का विचार करना आत्मनिरीक्षण है भगवती अहिंसा की साधना के लिये आत्मनिरीक्षण न किया जाय तब तक आत्मकल्याण की दृष्टि से ज्ञान निरर्थक ही है, ७- निर्माण - आत्मनिरीक्षण के बाद जो जगहित के लिये ग्रंथरचना आदि की जाती है वह निर्माण तप हैं । यद्यपि ग्रंथनिर्माण आत्मनिरीक्षण के पहले भी होता है पर वास्तव में वह निर्माण नहीं है । वह तो इधर उधर का संग्रह है, वह उसकी चीज़ नहीं है जिससे वह निर्माण कहा जा सके। हां, वह निरर्थक नहीं है समाज के लिये उसका भी उपयोग हो सकता है पर उसे निर्माण न कहेंगे, विस्तारण करेंगे । ऐसे भी लेखक होते तो बड़े बड़े पोथे लिख जाते हैं, दूसरे के विचार या दूसरी पुस्तकों का सार संग्रह करते हैं वे अगर यह कार्य जनहित की मुख्यता से करें तो उनका यह काम विस्तारण तप होगा । जनहित की मुख्यता न हो तो सिर्फ विस्तारण होगा। तप न होगा । वास्तविक निर्माण' आत्मनिरीक्षण के बाद ही होता है । ८--उपदेश - अपने अनुभव और आत्मशुद्धि के आधार पर जगत को सन्मार्ग पर चलाने के लिये प्रेरणा करना उपदेश है । यह लिख कर या बोलकर दिया जाता है । मुख्यता बोलने की है । उपदेश और व्याख्यान में अन्तर है । व्याख्यान में तो इधर उधर की बातों को लेकर व्याख्या Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८७ ] सत्यामृत टीका आदि की जाती है । व्याख्यान एक तरह .. आलोचन-स्पष्ट शब्दों में अपनी भूल स्वीकार का विस्तारण ही है । पर उपदेश का मूल्य कर लेना । इस से अमनी लधुता तो प्रगट होती अधिक है। उपदेश आत्मनिरीक्षण के बाद की है पर अपने और दूसरों के मन का मैल निकल चीज़ है । उपदेश में वास्तविक दिशा दिखा कर जाता है । इससे दोनों को शान्ति मिलती है । जीवन की दिशा बदलने की कोशिश की जाती वह भल दूसरी बार नहीं होती । लधुता प्रगट है । यह कार्य उसी के लायक है जो उस दिशा होने से डरना न चाहिये लधु होने से डरना . में खुद चला हो । व्यवहार में व्याख्यान और चाहिये । लघु हो गये तब लघुता प्रगट होने में उपदेश में भेद नहीं माना जाता, पर ये दोनों संकोच क्या ! फिर हम आलोचना करें या न करें बातें जुदी जुदी हैं और इनके मूल्य में भी अन्तर दसर हमारी भलको जान ही लेते हैं । और है । लोकहित के लिये उपदेश देना महाम तप अवसर पड़ने पर कह ही देते हैं । अगर वे कह . है । नाम के लिये धंदे के लिये व्याख्यान देना न सकें फिर भी उस भलके कारण मन ही मन तप नहीं है । हां, वह एक धंधा हो सकता है घृणा करते हैं, हँसते हैं, निन्दा करते हैं । और यह धंधा तब तक निन्दनीय नहीं है जब आलोचना करने से घृणा निन्दा और हँसी को तक कोई मनुष्य सत्य की अवहेलना न करे। बहुत कम जगह रह जाती है। बहुत से लोग इस आठ प्रकार की ज्ञानचर्या से भगवान अपराध करते हैं और उसे समझ जाते हैं और सत्य और भगवती अहिंसा की उपासना और मन ही मन पछताते हैं पर आलोचना नहीं करते, साधना होती है। ज्ञानचर्या से कालमोह स्वत्व- तो इस से बड़े बड़े अनर्थ हो जाते हैं । जिसका मोह आदि मोह मर जाते हैं, आत्मनिरीक्षण से अपराध हुआ है वह तो मन ही मन पछताने की अपने असंयम का पता लगता है इसलिये बात को जानता नहीं है आलोचना के अभाव में अमंयम को दूर करने की चेष्टा होती है, विस्तारण वह तो उन्हें अपराधी समझता ही रहता है और निर्माण उपदेश आदि से दूसरों की उन्नति भी समझता है उन्हें घमंडी, लापर्वाह और हिंसक । की जाती है । इसलिये ज्ञानचर्या स्वपरकल्याणकारी इस प्रकार वैर बढ़ता ही जाता है। आलोचना में है। सब तपों का मूल होने से यह पहिला जितनी देर होती है वैर की अग्नि हृदय में उतनी तप है। अधिक बढ़ती जाती है तथा स्थायी होती जाती प्रायश्चित्त को दूसरे शब्द में हम भूल सुधार है । इसलिये आलोचना शीघ्र स्पष्ट और निष्ठल ह कह सकते हैं । अपनी भूल सुधार लंना और हृदय से करना चाहिये । .... उस भूल से जो बुराई पैदा हुई हो उसको यथा- .. क्षमायाचन--यह आलोचन से भी अधिक . शक्य दूर करना प्रायश्चित्त है । इस तपस्या से शक्तिशाली प्रायश्चित्त है । साधारण सी भूलोंके मनुष्य निर्वैर होता है शुद्ध होता है । इसके चार सुधार में आलोचन काम कर जाता है, पर जब भेद हैं--आलोचन, क्षमायाचन, प्रतिदान • भूल कुछ विशेष मात्रामें होती है तब तक इसके और परिज्ञापन। लिये क्षमायाचन करना -[ माफी मांगना]-आव Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष साधना-तप [३८८ श्यक है। भूल स्वीकार करलें माफ़ी मांग लें । हम देखेंगे कि ..... बहुत से लोग वर्ष में एक दिन साल भर के इससे हमारा गौरव बढ़ गया है, उसके हृदय का अपराधों की माफी मांग लेते है, कीटपतंगो के वैर निकल गया है, प्रेम बढ़ गया है और आगे . नाम ले लेकर उनसे भी माफी मांग लेते हैं और होनेवाले अनेक अनर्थ रुक गये हैं। . इसी में समझ लेते हैं कि जिसका अपराध किया किसी भी गृहस्थ को एक वर्ष से अधिक है उनसे भी माफी मांग ली गई । परन्तु यह वैर रखना ही न चाहिये और जो साधु है उसके आत्मवंचना है । जमीन के जिस भाग में सेल मन में तो इनेगिने दिन से अधिक वैर की वासना और कीट जमी हुई है उस जगह एकबार फूल- न रहना चाहिये । किसकी वैर वासना कितनी झाडू फेर देने से सफाई नहीं होती, उसी प्रकार लंबी है इसीसे उसके संयम की परीक्षा करने का जिस जगह द्वेष और अपराध जमा हुआ है उस भी बहुत अच्छा तरीका है। जगह सामूहिक प्रार्थना के साधारण शब्दोंसे जीवन मे जो बड़े बड़े अनर्थ होते हैं उनमें सफाई नहीं हो सकती । उसके लिये विशेष रूप से आधे अनथों का कारण अहंकार है । लोगों से क्षमायाचना करने की आवश्यकता है । हमारे को भ्रम हो जाता है कि अहंकार से गौरव हृदय में वर की वासना लंबे समय तक न रहे मिलता है पर वास्तव में अहंकार से निन्दा और इसलिये वर्ष में एक दिन मिलकर क्षमायाचना घृणा ही मिलती है । अहंकार अगर छूट जाय करना अच्छा है परन्तु अगर मनका मैल न गया तो हम व्यर्थ का वैर लेकर जीवन को दुःखी हो, हमने अपने अपराधों पर निःपक्ष विचार न न करें, न दूसरों के दुःख के कारण बनें क्षमाकिया हो, हम उस अपराध की आलोचना करने को , याचना उस समय बहुत सरल हो जाय । बैयार न हों तो क्षमायाचना महत्व-हनि हो जायगी, सम्भवतः निष्फल जायगी। ___ कभी कभी सामूहिक अपराध होते हैं और उनकी आलोचना और क्षमायाचना भी सामहिक सांवत्सरिक क्षमापना का सम्मेलन उन लोगों के लिये विशेष उपयोगी है जो यह सोचते हैं कि दृष्टि से होना चाहिये । एक ही देश में दो हम अमुक व्यक्ति से कसे मिलें, किस बहाने से जातियां बसती है, उनमें एक जाति के कुछ मनष्य उसके घर जायें और वहां जाकर किस दूसरी जाति के मनुष्यों का अपमान करते हैं या बहाने से उनसे बात करें । वे क्षमापणा-सम्मे- सताते हैं, ऐसे समय में जातीयता का मोह छोड लन, के निमित्त से यह कार्य कर सकते हैं। कर अगर कुछ जिम्मेदार व्यक्ति आलोचना और परन्तु आखिर सम्मेलन निमित्त मात्र है, असली क्षमायाचना करें तो दो जातियों के वैर की इति चीज़ तो अपनी निर्वैर वृत्ति और आत्मशुद्धि की सद्- श्री हो जाय । पर यहां भी जातीयता के नाम . भावना है। वह हो तो निमित्त सफल हो सकता है। पर अहंकार आड़े आ जाता हैं और बड़े से बड़े र अगर हममें झूठा अहंकार न हो तो क्षमापणा अनर्थ को पैदा करता है या जीवित रखता है । में चाल चलने की कोई आवश्यकता नहीं रहती। अगर जगह २ ऐसे दल या संघ बन जावें जो हम प्रसन्नचित से उसके घर चले. जायँ, अपनी और कुछ न करें प निःपक्षता से अपनी जाति Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '. ३८९ 1. :: . "सत्यामृत - - के लोगों के द्वारा किये गये अपराधों की आलो- इससे प्रायश्चित की सूचना बहुत फैलती है लोगों * चना और क्षमायाचना करते जाय तो सामूहिक का ध्यान जाता है और उनका आत्म-निरीक्षण वैर नामशेष हो जाय । यह कार्य भी एक बड़ी बढ़ता है। . भरी तपस्या है । और उसका फल भी मानव परन्तु यह सदा ध्यान में रखना चाहिये कि समाज में सामहिक मैत्री है । मैत्री से बढ़कर और इस प्रकार के उपवास वगैरह द्वेष से न किये बरदान क्या हो सकता है। जाय। 'तुम अमुक काम करो नहीं तो मैं उप. • प्रतिदान–प्रायश्चित्त का मुख्य उद्देश्य "वास करके मर जाऊंगा' इस प्रकार की जोर स्वेच्छा से समीकरण हैं। हम जो दूसरे को नुक- जबर्दस्ती भी उसमें न होना चाहिये । उपवास सान पहुंचा देते हैं उससे जो विषमता पैदा होती वगैरह सीमित होना चाहिये । उसका लोगों पर है उसको सम बनाने का प्रयत्न प्रायश्चित द्वारा यह प्रभाव पड़े कि 'अमुक आदमी जनता के किया जाता है । साधारण अवसरों पर आलो- ' अमुक दोषों से चिंतित है, वह जनता के कल्याण के .. चना से ही वह समता पैदा हो जाती है अर्थात् "लिये सर्वस्व लगाने को तैयार है।' इस प्रकार क्षतिपूर्ति हो जाती है, कुछ विशेष हुआ तो क्षमा- 'जनता आत्मनिरीक्षण करे । याचना करली पर इससे भी विशेष हो तो प्रति व्यक्तिगत अपराधों का प्रायश्चित्त भी कभी दान करना चाहिये । किसी आदमी का अगर कभी परिज्ञापन के रूप में होता है। जिससे जिस हमने अन्याय से धन-हरण कर लिया है तो केवल मनष्य का अपराध किया गया है उसे मालूम माफी मांगने से काम न चलेगा । माफ़ी मांगने हो कि इस मनुष्य को सचमुच में अपनी भूलका के साथ उसका धन वापिस करना चाहिये, प्रति बहुत खेद है इसलिये पूर्णरूप में क्षमा करना दान करना चाहिये । अगर हमने किसी की व्यर्थ . थ चाहिये और प्रेम बढ़ाना चाहिये । ... निन्दा की है तो क्षमा मांगने के साथ उस निंदा । का मिथ्यापन अधिक से अधिक स्थानों में घोषित . , लड़ाई झगड़ा होने पर क्रोध से भूखे रहना करना चाहिये । अगर हमने मन्दिर या मसजिद . आदि परिज्ञाप्न तो है परन्तु परिज्ञापन-तप नहीं का अपमान किया है, कुछ तोड़ फोड किया है है । यह अत्यन्त अनर्थकर है । इससे द्वेष बढ़ता तो क्षमायाचना के हाथ हमें तोड फोड का जोड- है । यह न होना चाहिये । पुननिर्माण करना चाहिये,भक्ति प्रगट करना चाहिये। . प्रायश्चित्त और दंड-जो कार्य प्रायश्चित्त प्रतिदान धनसे प्रशंसा से, सेवा से, और मैत्री से के लिये कहे गये हैं वे दंड के लिये भी कहे 'हो सकता है । जो उचित हो उसी से प्रतिदान जा सकते हैं । पर दंड और प्रायश्चित्त में अन्तर करनी चाहिये। है। दंड अनिच्छा से भोगा जाता है जब परिज्ञापन-अपराध जब बहुत मार्मिक होता कि प्रायश्चित्त वेच्छा से किया जाता है । है या सामूहिक होता है तब उसके प्रतीकार को हम प्रायश्चित्त दूसरे से माँगते हैं पर उसे शासक प्रभावक तथा संस्मरणीय बनाने की आवश्यकता । समझ कर नहीं, चिकित्सक समझ कर । दंड का होती है, उसके लिये उपवास आदि किये जाते हैं। मुख्य ध्येय बदला चुकाना है, प्रायश्चित्त का Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "विशेष साधना-तप जाता "मख्य ध्येय आत्मशद्धि है। " "युद्ध को भी हम दो भागों में विभक्त कर यदि दंड पानेवाल। अपने अपराध को समझे, सकते हैं, दंड और अत्याचार । उसके विषय में उसे खेद, हो, जिसका अपराध यदि विजित पक्ष अपराधी है तो दंड है किया है उसके दुःख में सहानुभति तथा प्रेम हो," अगर विजयी पक्ष अपराधी है तो अत्याचार है। न्यायाधीश-पर द्वेष न हो, दंड भोगने को अपने रामकी रावण पर विजय दंड है। रावण की स्वर्ग ऊपर अत्याचार न समझता हो तो दंड भी प्राय- पर बिजप अत्याचार है। श्चित बन जाता है । वास्तव में वह तपस्वी हो सत्याग्रही को जो दंड के नामपर सताया • जाता है वह दंड नहीं, अत्याचार है। हाँ, यहां ...: जिस प्रकार दंड. प्रायश्चित्त बन जाता है इतना ख़याल रखना चाहिये कि सत्याग्रही को उसी प्रचार प्रायश्चित भी दंड बन जाता है । - सताना अत्याचार है । दुराग्रही को नहीं। जिस यदि प्रायश्चित करने में विवशता का अनुभव का आग्रह न्याय की विजय के लिये है (न्याय होता हो, प्रायश्चित्त-दाता पर द्वेष हो या उसे का अर्थ कानुन नहीं है ) वह सत्याग्रही है । जिस ... पक्षपाती समझता हो, जो अपराध किया उससे का आग्रह अहंकार-वश या लोभ-वश है वह 'घृणा न हो, जिसका अपराध किया उसके विषय दुराग्रह है। .. में सहानुभूति न हो तो प्रायश्चित्त भी दंड है। सत्याग्रही न तो दंड भोगता है न प्रायश्चित्त । इस प्रकार दंड को प्रायश्चित्र और प्रायश्चित्त करता है वह तो अत्याचार को सहकर उस पर को दंड बना लेना मनुष्य के हाथ में है । प्राय- . जित कस्ता है । 'श्चित्त तप है, दंड पशुत्व है। प्रश्न-सत्याग्रह क्या तप नहीं है! प्रश्न-दंड दाता को पक्षपाती ममझनेवाले, .... उत्तर-वह तप है पर प्रायश्चित नाम का अपने अपराध को अपराध न माननेवाले, सत्याग्रही . तप नहीं है वह सहिष्णुता नाम का तप है और को आप क्या कहेंगे? ... त्याग नाम का तप भी है । इस प्रकार दुहरे तपों उत्तर--सत्याग्रही के सामने दंड और ग्राय- से सत्याग्रही महातपस्वी है। श्चित्त का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता । वह तो . प्रायश्चित्त आत्मोन्नति और निर्वैरता की कुंजी है। .'अत्याचार के सामने लड़नेवाला सैनिक है । उस अपनी निरभिमानता और दूसरे के का शस्त्र प्रेम है सहिष्णुता है यह बात दूसरी है, व्यक्तित्व का उचित मूल्य स्वीकार करने के पर है वह सैनिक | दंड और प्रायश्चित्त में दोनों लिये जो व्यवहार और विचार किया जाता पक्षा का दर्जा समान नहीं होता। प्रायश्चित्त में है वह विनय है । मनुष्य अभिमान-प्रधान प्राणी चिकित्स्य चिकित्सक भाव है, दंड में शास्य शासक है, गरीब से गरीब से लगाकर सम्राट तक और भाव है जब कि सत्याग्रह में दो सैनिकों सरीखा मनुष्यताकार जन्तु से लगाकर तीर्थकर पैगंबर प्रतिद्वन्दिता का भाव है । इसलिये वहां न दंड जिन बुद्ध अवतार आदि महात्माओं तक यह है न प्रायश्चित्त है, वहां युद्ध है ।' किसी न किसी रूप में पाया जाता है । यह बात Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९१ ] सत्वामृत दूसरी है कि सात्विक रूप प्राप्त होने पर परन्तु विनय और चापलूसी में अन्तर है। आभिमान को आत्मगौरव कहते हैं । इस शब्द- विनय तप है । चापलूसी पाप । जहां व्यवहार के भेद का कारण उसका फलाफल भी है । अभिमान अनुसार हृदय भी होता है वहाँ विनय है । विनय के द्वारा दमरे के उचित मूल्य का अपलाप में प्रेम होता है-भक्ति होती है, वात्सल्य होता किया जाता है. आत्मगौरव के द्वारा है, छलकपट और ठगने की वृचि नहीं होती। अपने उचित मूल्य का दावा किया जाता है। चापलूसी में मायाचार है, ठगने की वृति है, मात्म-गौरव जब और भी उच्च श्रेणी का होता उसमें व्यवहार और विचार एक दूसरे से मेल है तब उसमें अपने व्यक्तित्व के मूल्य का प्रश्न नहीं खाते। गौण हो जाता है, मुख्य बात यह हो जाती है दूसरों से अगर तुम कुछ लेना चाहते हो कि अमुक गुण का अपमान न होने पावे। तो तुम्हें विनय तप करना ही चाहिये । विनय के जैसे एक तरफ जन-सेवाके नाम पर सर्वस्व अर्पण बिन कदाचित् तुम दुनिया से कुछ छीन तो करने वाला एक व्यक्ति है दूसरी तरफ योग्यता । : सकते हो पर पा नहीं सकते। उसमें जो कुछ बादि में कम, किन्तु अमुक वेष के कारण पुजने . " तुम्हें मिलेगा वह कम से कम होगा और छीना झपटी के कारण टूटा होगा। अगर तुम में वाला व्यक्ति है ऐसी अवस्था में जन-सेवक के विनय न हो तो तुम अपने अग्रज से कुछ पा द्वारा वेषधारी की जो उपेक्षा होती है उसमें जन नहीं सकोगे। अग्रज अपने उत्तराधिकारी को जो सेवक का अभिमान नहीं, आत्मगौरव कारण है। सर्वस्व दे जाता है उसका प्रेरक उत्तराधिकारी का हां, मानव हृदय की वासनाओं के विषय में कुछ विनय है । विनयसे एक प्रकार का तादात्म्य पैदा नहीं कहा जा सकता। हो सकता है कि जहां होता है उससे अग्रज यह समझता है कि उत्तराआत्मगौरव की परिस्थिति हो वहाँ मनुष्य अहंकार धिकारी को जो कुछ मैंने दिया है वह अपने को को पैदा कर ले ऐसी जगह तो वह अभिमानी ही ही दिया है। अगर विनय न हो तो यह भाव कहा जायण । परन्तु इससे अभिमान और आत्म- पैदा नहीं हो सकता। गौरव का भेद लुप्त नहीं होता। पिता या गुरु अपने पुत्र या शिष्य को हरअभिमान चाहे अहंकार अर्थात् मद के रूप तरह समुन्नत बनाते हैं क्योंकि वे समझते हैं कि में हो अथवा आत्मगौरव के रूप में, दोनों के पुत्र या शिष्य की जितनी उन्नति होगी हमारा स्थान उतना ही ऊंचा होगा। पुत्र या लिये विनय-तप की आवश्यकता है। अहंकार शिष्य के द्वारा विनय के रूप में जब यह विचार जाग्रत न हो जाय और आत्मगौरव को धक्का न पष्ट होता है तब सर्वस्वार्पण के लिये गुरु या लगे इसकी कुंजी विनय के हाथ में है। कौनसा पिता का हृदय लालायित होता है। अगर उन्हें आदमी कैसा है उसके साथ हमारी किस प्रकार यह मालूम हो कि हमारी शक्ति लेकर यह निमेगी इसकी कसौटी विनय है। विनय से हम हमारा प्रतिद्वन्दी होगा या नाम डुबाने वाला होगा जगत को मित्र बना सकते हैं और अविनय से तब वे कदापि उत्तराधिकारी न देंगे। मनुष्य का शत्रु बना सकते हैं। विकास रुक जायगा। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष साधना-तष [३९२ मनुष्य मनुष्य की तरफ आकर्षित हो, वह से, अधिकारियों से, श्रीमानों से प्रायः इसी तरह तादात्म्य अनुभव करे—प्रेम पैदा करे--इपके का भय होता है । इसे विनय-तप नहीं कह सकते। लिये विनय तप आवश्यक है। प्रश्न--समाज सेवकों को अपने स्वार्थ के प्रश्न-शिष्टाचार के नाते हमें विनय करना लिये नहीं किन्तु समाज के स्वार्थ के लिये अधिही पड़ता है । राजाओं के सामने या अफसरों के कारियों से या श्रीमानों से डरना पड़ता है इस सामने सिर झुकाना ही पड़ता है—सभी ऐसा करते भय को आप सात्त्विक भय तो कह नहीं सकत हैं फिर विनय पर इतना ज़ोर क्यों दिया जाता क्योंकि इसमें गुणानुराग या पाप-विरक्ति नहीं है है ? उसे तप तक क्यों कहा जाता है ? इसलिये यह राजस-भय ही कहलाया । परन्तु उत्तर--जहां विवश होकर सिर झुकाना समाज सेवक के लिये तो यह भय और इस भय पडता है वहां विनय नहीं है। विनय में प्रेम से पैदा होने वाला शिष्टाचार एक तपस्या ही है। होता है और भय नहीं होता या प्रेमजन्य सात्त्विक पर आपकी दृष्टि में तो राजस-भय होने से इसे भय होता है, राजाओं या शासकों के सामने तपस्या नहीं कह सकेंगे। झुकने में प्रेम नहीं होता भय होता है और वह उत्तर--समाज-सेवकों का यह महान तप भय राजस या तामस होता है प्रेमजन्य नहीं होता। है पर उसका नाम विनय तप नहीं है। वह तप है भय के भेद-गुणानुराग प्रेम, भक्ति आदि त्याग, वह तप है सहिष्णुता ।वे समाज के कल्याण से जो भय होता है वह मात्विक भय है, पाप । के लिये स्वेच्छा से अविनय सहन करते है यह और पापियों के संसर्ग से और घृणित वस्तुओं से उनका सहिष्णुता तप है और अपने सन्मान का दूर रहने में जो भय है वह भी सात्विक भय त्याग करते हैं यह उनका त्याग तप है । इस है। पण्य से प्रेम और पाप से घृणा व एक हा प्रकार उस अवसर पर विनय तप न होने पर भी त्याग और सहिष्णुता के द्वारा महान तपस्वी है। मनोवृत्ति के रूप हैं और दोनों ही कल्याणकारी हैं इसलिये दोनों को साविक भय कहना चाहिये। अज्ञानता अन्ध-विश्वास आदि से जो भय ईश्वर का भय, गुरु का भय, साधु का भय, उपकारी पैदा होता है वह तामस-भय है। भत पिशाचों का भय ये सब सात्विक भय हैं । परन्त इसमें का भय इसी तरह का भय है । और भी प्रमाणजिन वस्तुओं से भय है उनके प्रति अनराग है हीन कल्पनाओं के द्वारा जो हम भय के साधन इसलिये इन्हें श्लेषमय-सात्विक-भय कहना बना ल बना लेते है वे सब तामस भय हैं । आत्मशक्ति चाहिये । व्यभिचार का भय, चोरी का भय. का ज्ञान न होने से अपने से निर्बलों का भी दुर्जन का भय आदि भय सात्त्विक हैं पर इसमें भय तामस भय है । इस भय से प्रेरित हो कर जिन से भय है उनसे अनुराग नहीं होता इस जो विनय प्रगट किया जाता है वह भी विनय लिये इन्हें विश्लेषमय-साविक-भय कहना तप नहीं है। चाहिये । कभी कभी एक ही व्यक्ति के विषय में दो . जो भय निर्बलता या स्वार्थ-भ्रंश की संभा- या तीन। भय एकत्रित हो जाते हैं । उसके गुणा. वना से होता है वह राजस भय है। राजाओं नुराग उपकार आदि के कारण सात्विक भय Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९३ ] सत्यामृत होता है, उसके हाथ में हमारा स्वार्थ रहता है क्या इन लोगो के कारण मनुष्य में बौद्धिक दासता इसलिये राजस-भय होता है, अन्ध श्रद्धा के कारण नहीं आती ? उसके विषय में अप्रामाणिक चमत्कारों की कल्पना उत्तर-प्राणी अपूर्ण है । वह पारस्परिक कर लेते हैं उससे तामस भय पैदा होता है । इस सहयोग से ही पूर्णता के मार्ग में आगे बढ़ा हुआ प्रकार के पात्र पुराणों में बहुत मिलते हैं । दिखाई देता है । जिसकी हममें कमी है उसके इन्द्रादि के विषय में किसी किसी को तीनों भय लिये हमें दूसरों का सहारा लेना पड़ता है । होते थे। उसके व्यक्ति के विषय में जितने अंश बीमारी में हम अपने मत को गौण करके वैद्य के में सात्विक भय है उतने ही अंश में विनय तप मत को मुख्यता देते हैं । यह अनिवार्य है । है। शिष्टाचार के नाते जहां झुकना पड़ता है, जहाँ छोटा वैद्य बड़े वैद्य के मत को मुख्यता देता है गुणानुराग कृतज्ञता विश्व-बन्धुत्व नहीं है, वहां विनय यह उचित है । न्याय के लिये हमें एक न्यायातप नहीं है। विनय कहां पर तप है कहां पर धीश का मुँह ताकना पड़ता है । इस प्रकार नहीं है, इसकी ठीक ठीक परीक्षा तो उसके भावों हरएक व्यक्ति किसी न किसी कार्य में परमुखासे हो सकती है पर व्यवहार से भी भावों का पेक्षी है। जीवन के पथ-निर्वाचन में या कर्तव्यपता लगता है। निर्णय में प्रत्येक व्यकि पर्याप्त मात्रा में चतुर नहीं विन्य नब तरह के व्यक्तियों का किया जाता होता। ऐसे व्यक्ति किसी योग्य व्यक्ति को निस्तारक चुन लेते हैं यह बुरी बात नहीं है । है । १ निस्तारक २ विद्या-गुरु ३ गुरुजन ४ इससे उस व्यक्ति का भला तो होता ही है साथ उपकारी ५ जन सेवक, ६ अतिथि ७ बन्धुजन ही किसी कार्य को करने के लिये एक संगठित आश्रित ९ बहुनम 1 शक्ति भी मिल जाती है। उसके प्रकार साल हैं-१ आसन २ अंजलि हां, यह परमुखापेक्षिता इतनी मात्रा में न ३ अनुमोदन ४ पुरःकरण ५ प्रशंसा ६ वैयावृत्य ७ सम्पर्क भक्ति । पहिले इन शब्दों का अर्थ कर बढ़ जाय कि हम एक के बाद एक अनर्थों का पोषण करते चले जायँ, जो बात अनेक तरह देना ठीक होगा। कल्याणकारी सिद्ध हो चुकी हो, निस्तारक की निस्तारक-जो आपने जीवन का पथ निर्देश अन्ध-आज्ञा में फँसे रहकर उसका विरोध करते करता हो उद्धारक हा, जिसक ऊपर अपना चले जायँ । इसन्येि निस्तारक के चुनाव में सावअसाधारण विश्वास हो, जिसकी बात मानने में धानी रखना चाहिये । अमुक वेष के कारण हम अपना कल्याण समझते हों वह निस्तारक है। किसी को निस्तारक न मान लेना चाहिये । महावीर, बुद्ध, इसा, मुहम्मद आदि महात्मागण उसका त्याग, उसकी निःस्वार्थता, उसका अनुभव, नोविशाल जनसमुदाय के निस्तारक रहे हैं । बुद्धिमत्ता, विचारकता आदि की कसौटी होना आज भी सैकड़ों निस्तारक मौजूद हैं। चाहिये जिसपर कसकर हम उसे निस्तारक मानें। प्रश्न-निस्तारक क्या कोई आवश्यक व्यक्ति जहां तक हम में बुद्धि है विच रकता है वहां तक है? क्या ऐसे लोग गुरुडमके आधार नहीं हैं ? हम उससे काम लें, जब हमारी बौद्धिक शक्ति Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष साधना-तप काम न दे तब हम उसका सहारा ले । इसमें गुरुडम नहीं है । गुरुडम है वहाँ, जहाँ मनुष्य वेष, पद आदि की दुहाई देकर भक्तों पर अपनी धौंस जमाना हे । २ विद्या गुरु- जिसने अपने को विद्या कला आदि सिखाई हो । - ३ गुरु-जन - माता पिता आदि । 8 उपकारी - जिसने अपना उपकार किया हो । ५ जन सेवक-समाज की सेवा करने वाला । इसमें जन-समाज के नेता आदि सभी आ जाते हैं । ७ ६ अतिथि - पाहुना, जो अपने घर आया हो । बंधुजन - मित्र और रिश्तेदार आदि । ८ आश्रित - पुत्र, नौकर आदि । ९ बहुजन - कोई भी मनुष्य जिससे अपना कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है । १ आसन - ( क ) उत्थान - आने पर या दृष्टिगत होने पर आसन छोड़कर खड़े हो जाना । निस्तारक या गुरु आदि के अपने पास आने पर अपना आसन छोड़कर खड़ा हो जाना चाहिये, अगर वहां दोनों को कुछ देर ठहर कर काम करना हो तो अच्छा आसन गुरु आदि को छोड़कर शेष आसन पर बैठना चाहिये । ( ख ) आसनरिक्तता - पूज्य के आसन पर न बैठना । जैसे न्यायालय में न्यायाधीश ही बैठता है दूसरा नहीं, न्यायाधीश न हो तो उसका आसन खाली रहता है, इसी प्रकार कक्षा में अध्यापक या पाठक का आसन खाली रहता है उसी प्रकार पूज्य व्यक्ति का नियत आसन खाली रखना, उसकी अनुपस्थिति में भी उसके आसन का [ ३९४ उपयोग न करना आसन विनय है । [ग] श्रेष्ठासन - पूज्य व्यक्ति अगर दृष्टि- पथ में हो या दृष्टिपथ में आने की सम्भावना हो तो उपर्युक्त आसनों में से श्रेष्ठ आसन उसके लिए छोड़कर किसी अन्य आसन पर बैठना । (घ ) केन्द्रीकरण - जहां कहीं बैठने का अवसर आवे वहां इस प्रकार बैठना कि पूज्य व्यक्ति केन्द्र में मालूम पड़े। लोग देखते ही समझ जायँ कि इन में यह व्यक्ति श्रेष्ठ है । (ङ) अवैमुख्य-बैठते समय पूज्य व्यक्ति की तरफ़ पीठ न करना आदि । (च) योग्यासन - जिसके योग्य जो आसन हो उसको वही आपन देना । इस प्रकार आसन विनय के अनेक रूप हैं । २ अञ्जलि - हाथ जोड़ना, पैर छूना, साष्टांग नमस्कार करना, सिर झुकाना, सलाम करना, मुसकराना, टेप उठाना, प्रणाम, नमस्कार जयसत्य जयराम जयकृष्ण जयजिनेन्द्र आदि शब्द बोलना, इनके उत्तर में उपयुक्त शब्द बोलना, हाथ उठाकर आशीर्वाद देना, सिर झुकाना आदि सब अञ्जलि विनय है । ३ अनुमोदन - जहां सत्यासत्य के निर्णय का गम्भीर प्रसङ्ग नहीं है वहां किसी को कोई बात सुनकर 'हां, ठीक है' आदि कहकर उसकी बात का अनुमोदन करना अनुमोदन - विनय है । जिज्ञासा से पूछना बहुत अच्छा है पर अनावश्यक विरोध न होना चाहिये । अभिमानवश किसी की अच्छी बात का भी विरोध कर बैठना अविनय । पर सुधार की दृष्टि से अपना दोष दिखाने पर भी दोष का अदोष सिद्ध करने की चेष्टा करना भी अविनय है । किसी किसी की आदत बात बात में विरोध करने की होती है यह भी अविनय है । जब सत्य की रक्षा के लिये, लोक Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९५ ] सत्यामृत कल्याण के लिये विरोध करना अनिवार्य हो जाय हमारी है या ये हम हैं इस दृष्टि स्ने जो पुरःकरण वहां विरोध अवश्य करना चाहिये पर जहां तक होगा उसमें अविनय होगा। बन सके विरोध से बचना चाहिये। . इस प्रकार के पक्षपाती पुरःकरण से विशेष • ४ पुरःकरण--चलने में, बैठने में भोजन के लाभ नहीं होता पर हानि अधिक होती है । अनुसमय नाम लेने में या किसी ऐसे कार्य में जो सन्माना- चित या पक्षपातपूर्ण पुरःकरण से अपने को आदर स्पद है किसी व्यक्ति को आगे करना उसका पुरः- के बदले घृणा, हँसी और ईर्ष्या ही अधिक मिलती है। करण विनय है । जहां जिस व्यक्ति की जैसी ५ प्रशंसा-किसी स्वार्थवश नहीं किन्तु गुणामुख्यता है वहां उसको वैसा ही पुरःकरण करना नुरागसे प्रशंसा करना भी एक प्रकारका विनय है। उचित है । साथ ही अन्य दृष्टियों से भी उसके ६ वैयावत्य-अनेक तरह से परिचर्या करके व्यक्तित्व का विचार रखना ज़रूरी है। इस पुरः- भी विनय प्रगट होता है। पगचंपी करना, आसन करण का भी मानव हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ता बिछादेना, आवश्यक वस्तु प्रस्तुत करना, और भी है। यों तो हर एक प्रकार के विनय का मानव- अनेक तरह से आराम पहुँचाने के कार्य करना हृदय पर प्रभाव पड़ता है पर पुरःकरण का खास विनय है । ? स्थान है । बहुत स लाग घूप बनाकर फाटा प्रश्न-परिचर्या को तो आपने स्वतंत्र तप उतरवाते हैं । इस अवसर पर त्यागी महात्माआ कहा है फिर उसको विनय तप में शामिल क्यों के मन भी डोल जाते हैं । अयोग्य व्यक्ति चञ्चलता किया जाता है। और अविनय के कारण जब उन्हें हटाकर उत्तर- परिचर्या के द्वारा हम दूसरों को अपना पुरःकरण कर लेता है तब उन महात्माओं आराम पहुँचाते हैं और विनय के द्वारा नम्रता का मुख हँसता रह कर भी मन खिन्न हो जाता प्रगट करते हैं । जहां आराम पहुँचाने की मुख्यता है। इसलिये ऐसे प्रपों में वे शामिल नहीं होते, है वहां परिचर्या स्वतन्त्र तप है जहां नम्रता प्रगट इसे उनका अभिमान भी नहीं कह सकते यह करने की मुख्यता है वहां विनय में शामिल है । आत्मगौरव का भान है । पुरःकरण में अनुचित है। जहां दोनों ही समान है वहाँ दोनों ही तप हैं। लाभ उठाकर हम योग्य व्यक्तियों की कृपा से ऐसे बहुत से अवसर आते हैं कि जहां वञ्चित रहने का मार्ग सरल बनाते हैं । इसका सेवा गौण और विनय मुख्य हो जाता है। एक कुछ न कुछ फल हमें भोगना ही पड़ता है । हमारा पुत्र अपने माता पिता की प्रतिदिन रात्रि को नाम पहिले छपे अच्छी जगह छपे, हमारी चीज़ पगचंपी करता है, एक मिनिट को ही क्यों न अच्छी जगह रक्खी जाय इन सब मनोवृत्तियों में । किया जाय पर प्रतिदिन करता है, पैरों के लिये पुरःकरण मामक विनय का भंग होता है | इस उसकी आवश्कयता का अनुभव हो या न हो तो विषय में अपने औचित्यानौचित्ल का विचार करना यह विनय तप कहलायगा । बहुत से स्थानों पर ही आवश्यक है । इस विवेक के साथ जितना विनय मुरूप नहीं होता वैयावृत्त्य मुख्य होता है । पुरःकरण आवश्यक हो करना चाहिये । पर यह कोई बाप बेटे की बीमारी में उसकी पगचंपी Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष साधना-तप [ ३९६ करता है. तो यहां वैयावृत्त्य ही मुख्य है । इस जहां विनय तप है वहां शिष्टाचार आ ही प्रकार वैयावृत्त्य स्वतंत्र तप भी है और विनयका जाता है । शिष्टाचार विनय तप से भिन्न नहीं है अंग भी। आदर और भक्ति के प्रदर्शन के लिये बल्कि वह विनय का शरीर है। जो सेवा की जाती है वह विनय है। बहुत से लोग अपने अविनय या अहंकार . संपर्क-भक्ति-मनुष्य जब अधिक विनय को छिपाने के लिये कहने लगते हैं कि करना चाहता है तब उसके सम्पर्क में आये हुये हम किसी तरह का मायाचार नहीं करते, जैसा पदार्थों का भी वह विनय करने लगता है। उसका मन में होता है वैसा व्यवहार करते हैं, चापलूमी जूता उसका कपड़ा उसका कोई शस्त्रादि उपकरण । पसन्द नहीं करते, आदि। या उसका चित्र आदि का सन्मान करने लगता चापलूसी बुरी है,मायाचार बुरा है, जैसा मनमें है । सम्पर्क में आये हुये पदार्थे में या चित्रादि हो वैसा व्यवहार करना चाहिये पर साथ ही यह भी में उस व्याक्त की स्थापना का भाव होना विनय उचित है कि मन में शिष्टाचार के अनरूप भाव का अधिक मात्रा में प्रगट होना है। आना चाहिये। मनको वश में करना चाहिये । इस प्रकार सात प्रकार का विनय नव यही तो विनय तप है। प्रकार के व्यक्तियों का किये जाने पर विनय तप अगर थोड़ी देर को यह भी मान लियां के त्रेसठ ७४९=६३ भेद हो जाते हैं। जाय कि मन वश में नहीं है तो भी उसे इतने प्रश्न-क्या नौकर चाकर आदि का भी वश में अवश्य रक्खो कि उसकी उच्छखल वत्तियों विनय करना चाहिये। क्या उसके भी हाथ जोडे व्यवहार पर असर न डाल सकें या कम से कम जायँ ! नौकर की, सन्तान की और शिष्य की 'असर डाल सकें। धोखा देने के लिये नहीं. भी क्या सम्पर्क-भक्ति करना चाहिये लेकिन दूसरे के व्याक्तित्व का सन्मान करने के लिये उचा-अवश्य, परन्तु उसके रूपमें अन्तर होगा। शिष्टाचार का पालन अवश्य करना चाहिये । यह निस्तारक के विषय में आसन-विनय का जो रूप विनय तप का एक अंग या साधन है। है वही आश्रित के विषय में नहीं हो सकता। प्रेम, सहयोग, संगठन, विश्वःस, अनसूयत्व, उसके विषय में तो किसी आसन की तरफ गुणादि प्राप्ति, व्यक्तित्व-निर्माण और उससे होने इशारा कर देना ही काफी होगा । हम स्वयं पहिले वाले अनेक लाभ इन सब की दृष्टि से विन्य तप हाथ न जोड़ें परन्तु जब वह हाथ जोडे तब हाथ एक आवश्यक, महान और फलद तप है। जोड़ कर या सिर हिलाकर.. हमें उसका विनय .. ४ परिचयों . .. करना चाहिये । इसी प्रकार. योग्यतानुसार उसके . दूसरों को आराम पहुँचाने के लिये जो सव! चित्रादि का भी विनय किया जा सकता है । की जाती है उसे परिचर्या कहते हैं । बाल्यावस्था व्यक्तित्र आदि की दृष्टि से हर तरह के व्यक्ति का · की असमर्थता, रोग, थकावट, कार्य का अधिक हर तरह विनय किया जा सकता है । इस प्रकार भार, बुढ़ापा आदि कारणों से मनुष्य को परिचर्या विनय के सठ भेद ठीक हैं । कराने की ज़रूरत होती है । एक दूसरे की परि Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९७ ] चर्या से मनुष्य का सामाजिक जीवन टिका हुआ है और इससे मनुष्य का विकास भी हुआ है । मनुष्य की बाल्यावस्था मातापिता आदि से परिचर्या पाकर ही कटती है और वह जवान होता है इसलिये समर्थ होने पर मातापिता की परिचर्या करना उसका कर्तव्य है । इसी प्रकार रोगी आदि की परिचर्या करना भी ज़रूरी है। गुरुजनों की परिचर्या उसकी ज़रूरत की नज़र से तो करना ही चाहिये पर विनय की दृष्टि से भी करना चाहिये। मनुष्य को अपनाने के लिये, उस पर प्रेम विजय पाने के लिये, परिचय एक बड़ा से बঙ্গ 7 साधन है । : सत्यामृत परिचर्या पैसे आदि स्वार्थ के लिये भी की जाती है पर वह तप नहीं है, वह एक तरह का 1: ' लेन देन है धंधा है । वह भी कुछ बुरा नहीं है, 1 समाज के लिये जरूरी भी है पर तब नहीं है । तप तो अपनी इच्छा से और लेन देन का विचार किये बिना सिर्फ कर्तव्य समझ कर किया जाता है । * परिचर्या में गहरा स्वार्थ भी हो सकता है। मोह भी हो सकता है, ऐसी हालत में भी वह तप न कहलायेगी | दुनिया भी उसे तप नहीं सम झती । कदाचित् वह इस बातको कह न सके, पर मन में समझती है, इसी प्रकार व्यवहार भी करती है। स्वार्थवश परिचर्या तप नहीं हैं किन्तु कृत-: ज्ञतावश परिचर्या करना तप है, कृतज्ञता विवशता का परिणाम नहीं किन्तु संयम का परिणाम है । निस्वार्थ परिचर्या से मनुष्य के बड़े बड़े स्वार्थ पूरे हो सकते हैं, परिचर्या से ही हम किसी " के प्रेमपात्र और उत्तराधिकारी तक बन सकते हैं। मां बाप को सन्तान की आवश्यकता, गुरु को 1. * शिष्य की आवश्यकता मनुष्य को मित्र की आवश्यकता जिन कारणों से होती है उनमें परिचर्या मुख्य है । परिचर्या के काम में अनुत्तीर्ण होने पर दूसरों की कृपा से वञ्चित रह जाना पड़ता है। और परिचर्या के कार्य में उत्तीर्ण होने पर बड़ी से बड़ी कृपाएँ सुलभ हो जाती हैं । हां, परिचयां एक बात है और परिचर्या का शिष्टाचार दूसरी बात है । शिष्टाचार तप नहीं है । हां, इसका भी मूल्य है, पर मूल्य है, अमूल्य नहीं है । परिचर्या तप अमुल्य है । परिचर्या के शिष्टाचार का फल हिसाब से मिलेगा पर परिचर्या तप का फल बेहिसाब होगा इसी प्रकार भय से, संकोच से, स्वार्थ से, जो परिचर्या की जाय उसका मूल्य भी बहुत थोड़ा हैं । इससे कौटुम्बिकता पैदा नहीं होती दिसाब से थोड़ा सा मूल्य मिल जाता है । परिचर्या का इतना गहरा और व्यापक स्थान है कि सेवा शब्द से साधारणतः परिचर्या ही समझी जाती है। सेवा के यो अनेक रूप है पर परिचर्या को मुख्यता होने से इसे ही लोग सेवा कहने लगे हैं । परिचर्या का भलाई या सुख के साथ सब से निकट का सम्बन्ध I ५ प रषह स्वपस्कल्याण के लिये अर्थात विश्व-कल्याण के लिये भूखण्यास आदि प्राकृतिक और ताड़न आदि प्राणिकृत कष्टों का सहन करना परिग्रह तप हैं। भूख ( अनशन या अल्पाहार ), प्यास रसत्याग, अल्पवस्त्र, इंद्रियों के सुन्दर विषयों का त्याग, इष्टवियोग, अनिष्टसहवास, अपमान, परिताड़न ( मारपीट ), अतिश्रम, बन्धन ( कैद ) आदि सैकड़ों परिषह तप हैं। कुछ तो अपनी इच्छा से किये जाते हैं उन्हें त्याग कहते हैं, कुछ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष साधना-तप [ ३९० दूसरों के द्वारा लाये जाते हैं उन्हें उपसर्ग या उपद्रव तो वह तप भी तप न कहलायगा। कहते हैं । दोनों के कष्ट शान्ति के साथ सहन बहुत से लोग अमुक रसका त्याग करदेते हैं करना परिषह तप है। और उस के बदले में दूसरी कीमती चीजें __ अपने जीवन को अधिक स्वाबलम्बी और स्वतंत्र चाहते हैं उनका वह काम तप नहीं है, जो धी बनाने के लिये, दूसरों को कम से कम कष्ट आर छोड़कर बादाम का तेल चाहते हैं वे घीके त्यागी अधिक से अधिक सुख देने के लिये, संयम के नहीं कहे जा सकते । तप के लिये अगर कोई पथ पर दृढ़ रहने के लिये परिषह तप करना ज़रूरी चीज़ छोड़ता है तो उसके बदले में कोई कीमती है । अगर कोई ज़रा सी भूख नहीं सहसकता या चीज़ न मांगे । उसके बदले में या तो कुछ न रूखा सूखा जैसा मिले उस में सतुष्ट नहीं रह लेना चाहिये या कुछ और सस्ती चीज़ लेना जाहिये । सकता, निन्दा अपमान से घबरा जाता है या तप का फल पारलौकिक ही नहीं है क्षुब्ध हो जाता है, वह ठीक तरह से जगत की उसका फल प्रायः यहीं दिखाई देता है । तप के सेवा नहीं कर सकता, कदचित् वह महान कहला द्वारा प्रतिकूल जगत अनुकूल हो जाता है, विपदाएँ सकता है पर महान नहीं बन सकता। टकराकर चर चर हो जाती हैं, संसार में और ___ यह बात पहिले कही जाचुकी है कि इन अपने जीवन में सुख बढ़जाते हैं और दुःखों की तपस्याओं की उपयोगिता का खयाल अवश्य रखना असह्यता जाती रहती है। चाहिये । एक आदमी इसलिये तप करता है कि तप के द्वारा देवता प्रसन्न होकर धन वैभव आदि वह तपस्वी कहलाव, इसलिये उपवास करता है कि दे देते हैं-ये सब कोरी कल्पनाएँ है या आलङ्कालोग उसके दर्शन के लिये आवे ता ये सब तप रिक कथन है । हां, यह कह सकते हैं कि तप न होंगे। उपवास व्यर्थलंघन होंगे। के द्वारा सत्येश्वर प्रसन्न होते हैं, अहिंसा भगवती • तपस्या की जाय लेकिन उसके द्वारा दूसरों की प्रसन्न होती हैं, सरस्वती देवी, शक्ति देवी या स्वतपरेशानी बढ़ायी जाय और कोई . विशेष लाभ भी न्त्रता देवी प्रसन्न होती है । अतः हर एक मनुष्यको न हो, जिसका मूल्य उस परेशानी से अधिक हो, आवश्यकतानुसार तप करना चाहिये । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९९ ] सल्यामृत - * आचार कांड [छा अध्याय .. कल्याण पथ ...... ....... भगवान सत्य और भगवती अहिंसा के पाने पर देखते नहीं हैं । काल-मोह स्वत्व-मोह आदि के लिये जिस विचार-शुद्धि आचार-शुद्धि और के कारण ये सचाई से दूर भागते हैं। विद्या कर्तव्य-कर्म की जरूरत है उसका काफी विवेचन बुद्धि है पर उसका उपयोग कल्याण-पथ की • किया जा चुका है। उससे कल्याण के मार्ग का खोज में नहीं करना चाहते, अपने तुच्छ स्वार्थ पता लग सकता है पर एक मनुष्य जो धीरे धीरे और अहंकार में फँमकर पंडित और विद्वान अपने जीवन का विकास करना चाहता है अपने कहलाकर भी सन्मार्ग नहीं पा सकते। ये लोग । जीवन को स्त्रपरकल्याणकारी बनाना चाहता है . गड्ढे में तो नहीं हैं किन्तु जमीनपर खड़े हुए हैं। वह किस क्रमे से कल्याण पथ में आगे बढ़े और मार्ग देखने की योग्यता है पर देखते नहीं है उस पिछले अध्यायों में बत.ये हुए आचार और पर विश्वास नहीं करते हैं। इन्हें हम भौम या विचार के तत्त्वों को जीवन में उतारे इसके लिये भूमिस्थ कहेंगे, क्योंकि ये ज़मीनपर हैं। यहाँ कुछ श्रेणियों का निर्देश करना है। एक ये दो तरह के प्राणी कल्याण-पथ की किसी • तरह से इन्हें हम साधक श्रेणियाँ कह सकते हैं। . भी श्रेणी में नहीं हैं इसके आगे बढने पर मनुष्य संसार के अधिकांश प्राणी कल्याण-पथ पर, कल्याण-पथ का पथिक बनता है। ज्यों ज्यों नहीं चल रहे हैं। उनमें कुछ प्राणी तो ऐसे हैं वह ऊपर चढ़ता जाता है त्यों त्यों उसका विकास जो कुछ समझते ही नहीं, वे ऐसे गड्ढे में पड़े हुए होता जाता है उसका जीवन स्वपर कल्याणकारी हैं कि कल्याण का पथ देखना चाहें तो भी देख विश्वसुखवर्धक बनता जाता है। कल्याण पथ नहीं सकते । इन्हें हम गर्तस्थ कहेंगे, की बारह श्रेणियाँ हैं । क्योंकि वे गर्त अर्थात् गड्ढे में पड़े हुए हैं । विद्या बारह श्रेणियाँ " बुद्धि विवेक इन में नहीं हैं। १ सदृष्टि २ सामाजिक ३ अभ्यासी . __ दूसरे प्राणी हैं जिनमें विद्या बुद्धि तो है ४ व्रती, ५ सुशील, ६ सद्भोगी, ७ सदाजीवक, पर विवेक नहीं हैं। ये लोग ऐसी जगह खड़े ८ निर्भर ९ दिव्याहारी १० साधु ११ सपस्वी हैं जहां से रास्ता देखना चाहे तो देख सकते हैं १२ योगी । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष साधना-तप १ सद्दष्टि भावना व्यक्त करना, जितने अंश में नहीं चल जिस मनुष्य ने स्वपर कल्याण रूप धर्म के पा रहे हैं उतने अंश में खेद प्रगट करना भक्ति है । मार्ग को, समझ लिया है, भगवान सत्य और भग- भक्ति एकान्त में भी हो सकती है और वती अहिंसा में जिसे श्रद्धा है जो सब धर्मों में विवेक- जिस किसी समय में भी हो सकती है। फिर भी पूर्ण समभाव और सब मनुष्यों की एक जाति के इस अनियमितता से प्रमाद आजाता है इसलिये सिद्धान्त को मानता है, जो देशकाल की परि- नियमित समय पर मिलजुलकर भक्ति की जाय स्थिति के अनुसार परिवर्तन या सुधार का समर्थक यही उचित है । हां, कहीं कोई साथी न मिले तो है पर जातिसमभाव और सुधार को क्रियात्मक न सही तब नियत समय पर अकेले भी की जाय रूप देने में असमर्थता अनुभव करता है, उसकी तो कोई हानि नहीं है । साधारणतः सुबह शाम दो इच्छा यही है कि मैं समर्थ बनें, इसलिये मौका बार भक्ति करना उचित है । इसके सिवाय जब आने पर इन बातों को क्रियात्मक रूप भी देता इच्छा हो जब दिल उखड़ पड़े, किसी कारण से है, जो लोग इसे क्रियात्मक रूप देते हैं उनकी चित्त में क्षोम हो और उसे शान्त करना हो प्रशंसा करता है उन्हें भाग्यशाली समझता है, तभी भक्ति करना चाहिये । भाक्ति में नल्लनि होने वह मनुष्य सदृष्टि है, कल्याणपथ की प्रथम पर मनुष्य संसार से ऊपर उठ जाता है, दुनिया के श्रेणी का है। दुःख भूल जाता है, उसका वैरभाव शान्त हो जाता है, तीन आवश्यक दुनिया के दुखी जीवों पर प्रेम उमड़ने लगता है गुणियों में आदर भाव आजाता है, एक तरह से । यद्यपि वह संयमी और व्रती नहीं हो पाया वह भगवान के दौर में पहुँच जाता है, इसलिये है धर्मजातिममभाव और समाजसुधार को भी भाक्त धर्म का मूल और आवश्यक कर्तव्य है। पूरी तरह नहीं अपना पाया है सिर्फ इन बातों में तीन वन्दन ।' विश्वास कर पाया है पर उसका यह विश्वास जब मन में सच्ची भक्ति आजाती है तब वह दिखावटी नहीं है सच्चा है, इसके लिये ये तीन . ठीक रास्ते से प्रगट होती ही है, फिर भी भाक्ति जरूरी काम अवश्य करता है । वे तीन जरूरी कोमची और परी बनाने के लिये तीन प्रकार काम अर्थात् आवश्यक है १ भाक्त २ स्वाध्याय के क्दन करना चाहिये -१ सत्यवन्दन २ ३ अर्पण। किसी भी भलाई के मार्ग में अगर सत्यसेवकन्दन ३ सत्यसमाज वन्दन । वास्तव में कोई मनष्य शामिल होता है और उसके लिये वह जी का भवतीति भी हो विशेष कुछ नहीं कर पाता तो भी कम से कम व्यवहार में लाने के लिये इन भेदों की जरूरत है। हो उसके लिये ये तीन कार्य तो आवश्यक ही हैं। सत्यवन्दन-भगवान सत्य भगवती अहिंसा १ भक्ति-मन से वचन और शारीरिक के रूप में ईश्वर का वन्दम अथवा भगवान सत्य क्रिया से कल्याण के पथ में, पथ--प्रदर्शकों में भगवती अहिंसा का ईश्वर के रूप में वन्दन । इस अटूट विश्वास प्रगट करना, उनके गुण गाना, वन्दन में ईश्वर गाड खुदा अल्लाह अहुरमग्द उस पप पर चलने की और आगे बढ़ने की शिवशक्ति विष्णु ब्रह्म आदि शब्दों का प्रयोग Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१] सत्यामृत किया जा सकता है और वन्दना की जा सकती करना, उनके दुःख में विशेष दुख प्रगट करना है; सरस्वती, शक्ति, प्रेम, स्वतन्त्रता, मानवता, आदि आदि सत्यसमाज बन्दन है। . . अनेक नामों से भी गुण दवों का वन्दन किया. इस प्रकार तीन प्रकार का वन्दन सदृष्टि जा सकता है; विवेक, समभाव, ईमान, शील, तप का पहिला आवश्यक कर्तव्य है। त्यांग, सेवाश्रम आदि धर्मों को पाने की भावना : २ स्वाध्याय कर्तव्य अकर्तव्य का विचार व्यक्त करके या उन्हें प्रणाम करके भी भक्ति की करने के लिये, जीवन शुद्धि की व्यवहारिक कठि. जा सकती है । यह सब सत्यवन्दन है। नाइयों को समझने और उन पर विजय पाने का सत्यसेवकवन्दन-रामकृष्ण महावीर बुद्ध उपाय जानने के लिये आत्मनिरीक्षण के लिये ईसा मुहम्मद आदि जिन जिन महात्माओं ने स्वाध्याय करना चाहिये । पढ़ना पछना चर्चा मनुष्य मात्र को एक सूत्र में बाँधने की, अन्याय करना लिखना आदि स्वाध्याय के बहुत तरीके अत्याचारों को दूर करने की और मनुष्य को सुखी हैं, ज्ञानचर्या तप के प्रकरण में इनका उल्लेख हुआ सदाचारी बनाने की कोशिश की और इस कार्य में है। किसी भी तरीके से स्वाध्याय किया जा अपना जीवन लगाया; जो महात्मा ऐसी कोशिश सकता है । यहां जो मुख्य बात कहना है वह कर रहे हैं और इस कार्य में जीवन लगा रहे यह कि स्वाध्याय में तीन तरह की कथाओं का हैं, जो महात्मा भविष्य में ऐसी कोशिश करेंगे शि करग उपयोग करना चाहिये १ सत्यकथा २ सत्यसेवक , और जीवन लगायँगे उनको प्रणाम करना उनका कथा ३ सत्यसमाज कथा । वास्तव में ये तीनों गुणगान करना, उनके मार्ग पर चलने की इच्छा । सत्यकथा है, व्यवहार के लिये ये भेद किये गये हैं । प्रगट करना, सत्यसेवक वन्दनं है। भले ही समभाव के साथ किसी एक का ही नाम लिया .. सत्यकथा-सत्य. अहिंसा सेवा तप त्याग जाय या बहुतों का नाम लिया जाय या किसी का शील · आदि विश्वकल्याण की नीति जानने के नाम न लेकर सभी सत्यसेवकों को प्रणाम किया जाय लिये सत्यामृत गीता कुरान बाइबिल पिटक सूत्र उनका गुणकीर्तन आदि किया जाय, यह अथवा आदि के चुने हुए अंश तथा नीति का उपदेश सब सत्यसंवकवन्दन है। देने वाले अन्य ग्रन्थों का स्वाध्याय करना सत्य कथा है। ___ सत्यसमाज वन्दन--जो लोग जगत्कल्याण . के मार्ग पर चलते हैं, न्यायी, समभावी, सदाचारी .. सत्यसेवक कथा-सत्य सेवक वन्दन के प्रकरण सेवक और त्यागी बनते हैं वे किसी भी देश में बताये गये महात्माओं के जीवन चरित्र या के हों, किसी भी काम के हों, किसी भी धर्म संस्था संस्मरण पढ़ना उनके पद चिन्हों पर चलने की के सदस्य हों उन सबको प्रमाण करना, उनके रीति समज्ञना उनके सद्गुणों को अपने जीवन में कार्यों की तारीफ़ करना; उनका अनुकरण करने उतारने के लिये विचार करना आदि सत्यसेवक की उनको अपनाने की, अपने को उनमें कथा है । वे महात्मा तीर्थकर पैगम्बर अवतार मिलाने की, उनके साथ सामाजिक सम्बन्ध या आदि किसी पद से विभूषित हो या न हों वे विशेष मैत्री सम्बन्ध स्थापित करने की भावना प्रगट पहिले हो चुके हों आज जीवित हों भविष्य में Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष साधना तप ४०२ होनेवाले हों, उनके जीवन चरित्र का अध्ययन कैसा संगठन करना चाहिये, कैसी सेवा करना करना चाहिये। चाहिये कैसा प्रचार करना चाहिये, उनको विशेष प्रश्न--भूत और वर्तमाम के सत्यसेवकों की सहायता कैसे मिले, कौन कौन लोग इस मार्ग पर जीवन-कथा की जा सकती है पर जो अभी हुए चल रहे हैं, सुव्यवस्था और मनुष्य के विकास के ही नहीं उनकी जीवन-कथा कैसे की जा सकती है। साथ अधिक से अधिक स्वतन्त्रता कैसे मिले, या ... उत्तर--सत्यसेवक कथा किसी सेवक की कथा इस प्रकार के लोगों का विशाल संगठन कैसे हो नहीं है किन्तु सत्य के एक अंश के व्यावहारिक और कैसा हो, इत्यादि कथा सत्यसमाज कथा है । रूप की कथा है । समाज की अवस्था और गति , ३ अर्पण-सदृष्टि को प्रतिदिन कुछ अर्पण के अनुसार सत्य के कैस व्यावहारिक रूप की ( दान ) अवश्यकरना चाहिये । यों तो अर्पण का आवश्यकता है यह हम समझ सकते हैं । जैसी क्षेत्र विशाल है पर यहाँ अर्पण के उस विशाल आवश्यकता होती है उसी के अनुसार महात्मा रूप से मतलब नहीं है । उसका उल्लेख आगे प्रगट होते हैं । हम उनके सामान्य रूप को अभ्यास-धर्मों में दान के नाम से किया जायगा । पहिले से ही समझ सकते हैं और उसी रूपमें उनकी यहां तो सदृष्टि के लिये आवश्यक दान (अर्पण) कथा कह सकते हैं। उनकी जन्मतिथि उत्पत्ति का ही उल्लेख है.। वन्दन और स्वाध्याय की तरह स्थानं कुल कुटुंम्ब आदि को जानना जरूरी नहीं है। अर्पण भी तीन तरह का है-१-सापण भविष्य के तीर्थकर पैगम्बर अवतार आदि २-सत्यसेवकार्पण, ३-सत्यसमाजार्पण । वन्दन सत्यसेवकों की वन्दना करने का मतलब यह है कि और और स्वाध्याय की तरह ये तीनों प्रकार के मनुष्य में प्राचीनता का मोह न रहे, वह सुधारक अर्पण भी सत्यार्पण हैं, व्यवहार के सुभीते के लिये बना रहे उसकी मनावृत्ति आनेवाले महात्माओं के तीन भेदों में उल्लेख किया गया है। आदर करने की हो। हां, जिनके जीवन में संयम सत्यार्पण--सच्चा सत्यापण तो त्याग है पर नहीं है त्याग नहीं है विश्वसेवा की पर्याप्त भावना वह तो बहुत ऊँची चीज़ है वह सदृष्टि के लिये नहीं है स्वार्थ लिप्सा है, वे यदि अवतार तीर्थंकर आवश्यक कर्तव्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि पैगम्बर आदि कहलाने का दंभ करें तो स्वागत वह साधक श्रेणियों में पहिली श्रेणी में हैं ।.. न करना चाहिये बल्कि आवश्यकतानुसार विरोध उसका सत्यार्पण तो ऐसी ही साधारण श्रेणी भी करना चाहिये । पर प्राचीनता का मोह, स्वत्व- का है कि वह धर्मसमभाव आदि के प्रचार के मोह आदि के कारण सच्चे सेवकों और जगसेवा लिये धर्माल्य अदि बनवादे, सत्य प्रचार के लिये के लिये परिवर्तन करनेवालों का विरोध न होने वहां भेंट चढ़ादे या ज्ञानप्राप्ति आदि के लिये कुछ लगे- इसके लिये भविष्य के सत्यसेवकों की सामान्य व्यवस्था करदे । कथा करना उपयोगी है। सत्यसेवकार्पण--समभाव सदाचार विवेक सत्यसमाज कथाः-मनुष्य मात्र में एक आदि के प्रसारक जन सेवकों की सेवा में जनजातीयता की भावना कैसे पैदा हो, इसके लिये सेवा के लिये नम्रता से भेंट रखना सत्यसेवकार्पण Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ ] है । इसकाम के लिये प्रत्येक मनुष्य को प्रतिदिन या समय समय पर कुछ न कुछ दान निकालते रहना चाहिये और कम से कम वर्ष में एक बार या . जितने बार बन सके इतने बार वह रकम उन सच्चे जनसेवकों की सेवा में अर्पण कर अपने को धन्य समझना चाहिये । नम्रता के बिना सत्यकर्पण नहीं हो सकता । सत्य समाजार्पण - -सत्यसमाज वन्दन के प्रकरण में कल्याण पथ के पथिकों का उल्लेख हुआ है उनकी भलाई के लिये सुख शान्ति के लिये आदर सत्कार के लिये अपना धन खर्च करना सत्यसमाजार्पण है । आवश्यकतानुसार उन्हें भोजन कराना ठहरने के लिये जगह देना पूँजी आदि की मदद करना इस प्रकार बहुत से कान सत्य समाजार्पण में किये जा सकते हैं। I इस प्रकार वन्दन स्वाध्याय और दान करने से स्वदृष्टि की सद्वृष्टिता सच्ची साबित होती है, उससे दूसरों को बल मिलता है दूसरों से उसे बल मिलता है इस प्रकार पहिली श्रेणी में होने पर भी वह कल्याण मार्ग के पथिको में गिन लिया जाता है 1 सामाजिक सष्टि हो जाने पर जो मनुष्य सर्व-धर्मसमभाव सर्वजातिसमभाव और समाज सुधारक बन जाता है अपने जीवन में निर्भयता से ऐसी सामाजिकता भर लेता है, वह सामाजिक है । सर्वधर्मसमभाव का विवेचन लक्षणदृष्टि अध्याय में विस्तार से दिया गया हैं यहां तो सिर्फ ऐसी सूचनाएँ कर दी जाती है जिससे सर्वधर्मसमभाव का व्यावहारिक रूप समझ में आ जाय और उसका पालन किया जा सके । सत्यामृत १ - साधारणतः धर्मों को अपने समय और अपने देश की ऐसी क्रान्ति समझना जिसने लोगों की नैतिक उन्नति की और मानवहित की दृष्टि से सामाजिक क्रान्ति की । हिन्दू धर्म इसलाम, जैनधर्म बौद्धधर्म ईसाई धर्म आदि ऐसे ही धर्म है । २ - जो सम्प्रदाय किसी मुख्य धर्म के भीतर या कबीर पंथ आदि की तरह बिलकुल स्वतंत्र हो, किन्तु जो सिर्फ़ किसी दार्शनिक प्रश्न की मुख्यता को लेकर खड़े हुए हो अपने समय की सामाजिक समस्याओं को सुलझाने का कार्यक्षेत्र जिनका मुख्य रूपमें न रहा हो, उनपर सर्वधर्मसमभाव की शर्त लागू न करना उन पर सिर्फ दार्शनिक या वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करना । मतलब यह कि अन्य सम्प्रदाय आदि के नाम से भूलने की जरूरत नहीं है, विवेक से काम लेना चाहिये । ३- ' हमारे धर्म से भिन्न जितने धर्म हैं वे मिथ्या है' इस प्रकार विचार दिल में भी न लाना । ४ - किसी धर्म पर विचार करते समय उसके बारे में पहिले से सहानुभूति रखना और पक्षपात न आने देना । ५ - किसी सम्प्रदाय के सिद्धान्त ठीक न मालूम हो तो भी जहां तक बने शिष्टाचार का पालन करना । ६ - प्रार्थना पूजा नमाज़ आदि ऐसी धर्म क्रियाओं में जिनमें पशुवध आदि कार्य नहीं होता शामिल होने की कोशिश करना । ७ – किसी भी धर्म के अनुसार प्रार्थना कर लेने पर समझ लेना कि मेरे धर्म के अनुसार प्रार्थना हो गई। संगठन आदि का कोई विशेष उपयोग हो तो उसके बाद अपनी प्रार्थना भी की जा सकती है। spiran Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ [४०४ ८- मंदिर मसजिद गिरजाघर आदि सभी ६ - किसी को जाति के कारण अछ्न धर्मस्थानों को आदर की दृष्टि से देखना। नएमझन।। ९-धर्म के मूल ग्रन्थों का आदर रखना ७- जाति के कारण किसी को किसी धार्मिक और विवेक के साथ जितनी अच्छाई उनमें से ली क्रिया से न रोकना। जासके लेना। ८- कुलमें व्यभिचार आदि का दूषण होने १०- सब धर्मों के पैसे महात्माओं का, से किसी को नीच न समझना, न उसके धार्मिक जिनने मानव-हित के लिये जीवन अर्पण किया या सामाजिक अधिकार छीनना । है आदर रखना, उनका विचार करते समय - स्त्री या पुरुष के विशेषाधिकारों को पक्षपात से काम न लेना । दूर करने की कोशिश करना । (हां, सुविधाके सर्व जाति समभाव का भी विवेचन लक्षण अनुसार कार्यक्षेत्र में विभाग करने या शिष्टाचार दृष्टि अध्याय में किया गया है, यहां कुछ के कुछ नियम रखने में कोई हानि नहीं है । व्यवहारोपयोगी आवश्यक सूचनाएँ दीजाती हैं। गुणका सन्मान करना उचित है)। १- मनुष्यमात्रको फिर वह किसी भी रंग का १०- अपनी भाषा और बंप का अहंकार हो किसी देश का हो किसी भी नस्ल का हो- या मोह न रखना। एक जाति समझना। प्रश्न-सान्द्र यिक और जातीय हर तरह २-- पितृ परम्परा से या संगति आदि के के वर्ग अगर मिटा दिये जायेंगे तो जीवन में संघर्ष कारण किसी क्षेत्र के या किसी वर्ग के मनुष्यों नष्ट हो जायगा । संघर्ष-हीन जीवन निरुत्साह हो में कोई अच्छी या बुरी विशेषता पाई जाती हो जायगा जिसे जड़ भी कह सकेंगे। तो भी यह विश्वास रखना कि उनकी अच्छी उत्तर--आनन्द के लिये भी संघर्ष आवविशेषता दूसरी जगह भी लाई जा सकती है और श्यक है पर उसके लिये सम्प्रदायिक और जातीय वरी विशेपता शिक्षण संगतिसे बदली जा वर्ग बनाने की आवश्यकता नहीं है । पति पत्नी सकती है। तो एक सप्रदाय एक जाति एक कुटुम्ब के होते ३-- व्यक्ति के दोषों को जातीय दोष का हैं यहाँ तक कि उनका व्यक्तित्व भी एक हो जाता रूप न देना और विश्वास रखना कि सब जातियों है फिर भी वे चौपड़ और ताश खेलकर संघर्ष में अपेक्षाकृत अच्छे या बुरे लोग रहते हैं। करते हैं एक दूसरे को जीतने की भी कोशिश करते ४- विवाह सम्बन्धमें दाम्पत्यके योग्य गुण हैं। जो संघर्ष, प्रेम विनोद उल्लास आदि के लिए मिल जायँ तो फिर जातिपाँतिका विचार न करना। उपयोगी है वह तो हर हालत में किया जा सकता ५- स्वच्छ और शुद्ध तथा अनुकूल भोजन है। स्कूल के बच्चे जब खेल के लिये दो दल की व्यवस्था होनेपर किसीभी जाति के मनुष्य के बनाते हैं तो क्या वहाँ दो जातियाँ या दो सम्प्रसाथ खाने में जातिभेद की दृष्टि से एतराज़ न दाय बनते हैं ? जाति आर सम्प्रदाय का छाप करना। लगाकर ऐसे आनन्दी संघर्षों को विपैला कदापि Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५ ] सत्यामृत न बनाना चाहिय । जो दल बनाओ वे संघर्ष के बातों का विचार करते हुये मित्रवर्ग को बढ़ाने की समय तक के लिये ही हो अथवा ऐसे हैं। जिनमें कोशिश करना चाहिये । जातिभेद मिट जाने पर इच्छा करने से कोई भी इस दल से उस दलने मित्रवर्ग बढ़ जायगा परिचय का क्षेत्र भी बढ़ सरलत से जासके। जायगा, विजातीय होने से मित्रता या परिचय नप्र-अब हमें परदेश में कोई अपनी जातिका फीका न होगा। इसलिये परंदश में भी हमें मित्र अपने प्रान्त का आदनी मिल जाता है तब हमें और परिचित अधिक मात्रा में मिलगे । बेहद खुशी होती है अयाचित सेवा भी मिल जाती समाज सुधारक-बनने के लिए निम्नहै जातिमममात्र होने पर हमारी यह प्रसन्नता लिग्वित सचनाएं उपयोगी हैं। नष्ट हो जायगी। १-सुव्यवस्था और नैतिकता में अगर बाधा न उत्तर -अपने प्रेम और विश्व प्रेम के बीच पड़ती हो तो व्यक्ति के अधिकारों में बाधा न डालना। में मनुष्य कम ज्यादा प्रेम के कई घरे बनालता है। २.---लैगिक अहंकार (पुरुषत्व का घमंड) दूर कुटुम्बियों का, परिचितों का, मुहल्ले वालों का करना और ज़रूरी समभाव का सिद्धान्त स्वीकार . गांववालों का प्रान्त वालों का देश का आदि । इस करना । प्रकार के घरे बनाने में कोई आपत्ति नहीं है ३ - कोई रिवाज पुगने ममय मे चला आरहा या वे क्षन्तव्य है पर जब वह जाति के नाम का है इसलिये वह अच्छा है, यह भ्रन निकाल देना। घेग बनाता है और उसके आगे मित्रवर्ग, परिचित देश काल को देखते हुए उसके कल्याणकर वर्ग आदि दूर का बनजाता है तब वह मित्रता अकल्याणकर होने का विचार करना । संयम उपकार आदि की अवहेलना करता है। -जे, नया है वह अच्छा है यह भ्रम जाति की एक ऐसी कल्पना है जिसका सम्बन्ध भी निकाल देना उसका विचार भी कल्याणकर जन्म से मान लिया गया है और जिसका भलाई अकल्याणकर होने की दृष्टि से करना । बुराई गुण दोष से कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसे बनियाद और दूसरों के साथ परायापन बनाने ५-रिवाजों का इतिहास ढूँढना और वे बाल धेरे को कदापि स्वीकार न करना चाहिये । जिस परिस्थिति में बने थे वह परिस्थिति आज है जो उपकारी है सद्गुणी है मित्र है परिचित है या नहीं इस बात का विचार करना । उसे प्रेम के घेरे की एक रेखा बनाओ, कल्पित ६-रीति रिवाजों के नामपर जो जितना जाति को नहीं। अधिक खर्च करना चाहे करे, पुर जितना खर्च साधारण से साधारण परिस्थिति का आदमी न । देश और प्रान्त के नाम के घेरे भी मर्यादित जुटा सके उसे अनिवार्य न बनाना । रहना चाहिये । वे इतने जोरदार न हों कि हम दूसरे प्रान्त या दशमें जाकर भी वहां के निवासियों ७-रीतिरिवाजों के पालन में गरीबी के मे मिल न सके ण दसरे प्रान्त के लोगों के कारण कम खर्च करने वाले की व्यक्त या अव्यक्त अपने देश में भाने पर उन्हें अपना न सके । इन रूप में निन्दा न करना । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ [ ४०६ ८-परिस्थिति के कारण कोई हानिकर तो यह दान न कहलायगा, विनिमय कहलायगा। रिवाज ज़रूरी हो उठा हो तो परिस्थिति को बद- दान और त्याग-दान और त्याग कभी लने की चेष्टा करना । जैसे कहीं गुंडापन की कभी एक ही अर्थ में कहे जाते हैं पर दोनों में अधिकता के कारण स्त्रियों को परदा करना अन्ता है । त्याग में पाप से निवृत्ति है दान में जरूरी हा उठा हो तो वहाँ गुंडापन दूर करने का पाप के असर को कम करने का भाव है । त्यागी जोरदार अन्दोलन करना आर पर्दे को दृर दरर्जन न करेगा दानी दुर्जन करता रह सकेगा हटाना। पर दुरर्जन आदि से दूसरे लोग जो कंगाल हुए हैं ९-रीति रिवाजों पर या वेष भूषा पर धर्म उनके आँस पॉछेगा। दान में आत्मशुद्धि की मुख्यता की छाप न लमाना। नहीं है त्याग में है, इसलिये दान से त्याग ऊँचे १०-अपना रहन सहन खान पान स्वच्छता दर्जे का है । पर जो लोग त्यागी नहीं बन सकते आदि के नियम ऐसे बनाना जिससे दूसरों को साथ उन्हें दानी अवश्य बनना चाहिये । सब से अच्छी करने में कठिनाई न हो और सत्य अहिंसा का अवस्था यह है कि त्याग दानमूलक हो । उत्तराभंग न हो। धिकारी को सम्पत्ति सौंपकर त्याग करने की ३--अभ्यासी उतनी उपयोगिता नहीं जितनी विश्वहित में सम्पत्ति भगवती अहिंसा की साधना करने के लिय लगाकर त्याग करने की है । दान करने • अपने जीवन में संयमवृत्ति जगाने के लिये दस के चार प्रयोजन हैं। धर्मों का अभ्यास करना ज़रूरी है। पहिली १-दुरर्जन आदि के पाप का थोडा सा और दूसरी श्रेणी में भी साधारण अभ्यास किया प्रायश्चित्त हो जाता है। जाता है पर इस श्रेणी में इनका विशेष अभ्यास २ भोग से बची हुई सम्पत्ति जो न जाने करना चाहिये । यों तो विशेष अभ्यास का किस तरह बर्बाद हो जायगी उसका सदपयोग प्रारम्भ ही यहां कहा जासकता है अभ्यास बढ़ाने होता है। का काम तो आगे आगे योगी बनने तक बना ३-जनसेवा के जो कार्य विनिमय के आधार ही रहता है। पर नहीं किये जा सकते वे कार्य होने लगते हैं । अभ्यासधर्म जैसे हर एक रोगी मूल्य देकर या पूरा मूल्य देकर अभ्यास धर्म दस हैं । १-दान २-सेवा चिकित्सा नहीं करा सकता तो दान के द्वारा ३--विनय, ४--सरलता, ५- कोमलता, ६-क्षमा, उसको चिकित्सा सुलम हो जाती है, इसी प्रकार ७--श्रम, ८-दम, ९ -शम, १०--न्याय । शिक्षण, उपदेश के साधन समाचार पत्र आदि देना १ दान-जगत्कल्याण की दृष्टि से अपनी व्याख्यानादि के लिए आयोजन करना, पीड़ितों सम्पत्ति किसी को देना दान है। को अन्न वस्त्र आदि देना, यात्रियों को टहरने आदि सम्पत्ति अगर जगत्कल्याण की दृष्टि से न के स्थान देना, आदि बहुत से काम दान की दी जाय सिर्फ स्वार्थ का ही विचार किया जाय सहायता से किये जा सकते हैं । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ ] सत्यामृत । ४ - साधुता को अवलम्बन दिया जाता है साधु दुनिया को अधिक से अधिक सेवा देता है और कम से कम अथवा पेट भरने लायक ही लेता है । पर देता तो वह दुनिया भर को है पर ले किससे ? जिससे उसने भिक्षा ली उसको उसने सेवा दी हो ऐसा नियम भी नहीं चल सकता तब किसीको दान देकर ही उपकी साधुता को अवलम्बन देना पड़ेगा | साधुता को अवलम्बन देना साधु के ऊपर उपकार नहीं किन्तु समाज के ऊपर उपकार है अथवा समाज के एक सदस्य की हैसियत से समाज के कर्तव्य का पालन है । प्रश्न-दान से यश भी मिलता है फिर मश दान का प्रयोजन क्यों नहीं । I उत्तर - यश दान से मिलता तो है पर वह प्रयोजन नहीं है क्यों कि यश के लिये दान नहीं करना चाहिये । जो यश के लिये दान करता है वह विनिमय व्यापार-धंधा करता है, धन से यश ख़रीदता है । सच्चा यश इस तरह मोल नहीं मिलता । पैंसा देकर हम वेश्या से हाव भाव पा सकते हैं प्रेम नहीं, इसी प्रकार पैसे से कोरी वाहवाही पा सकते हैं यश नहीं । यश मिलता है जगकल्याण के लिये पैसा खर्च करने से । यश के लिये दान करने वाले को जगकल्याण की पर्वाह नहीं होती, कल्याण हो या अकल्याण उसे वाहवाही से मतलब है । जो उसके गीत गायेगा जहाँ देने से उसके गीत गाये जायेंगे वहीं वह दान देगा। इस प्रकार बुरे कार्यों को भी उत्तेजन मिळेगा और अच्छे कार्य में भी स्वार्थी चापलूस कार्यकर्ता घुम जाँय गे । इस प्रकार उसकी यशलालसा जनसेवा या जगत्कल्याण के कार्यक्षेत्र को भी बर्बाद कर देगी । इसलिये यश की मुख्यता से कभी दान न करना चाहिये । जनकल्याण के लिये करना चाहिये । जब जनकल्याण रूपी अनाज पकता है तब उसके साथ यश रूपी भूसा भी मिल ही जाता है । "अनाज की खेती की तरह दान में भी बहुत होश्यारी से काम करना पड़ता है । कहीं भी धन फेंक देना खेती नहीं हैं इसी प्रकार किसी को भी पैसा दे देना दान नहीं है | क्या चीज़ बोई जाय कच बोई जाय कैसी जमीन में बोई जाय इस प्रकार अनेक विचार खेती के काम में करना पड़ते हैं उसी प्रकार दान में करना चाहिये । दान में इन आठ बातों का विचार ज़रूरी है-क-पात्र, ख- उपयोग, गविधि, घ--अवसर, ङ--वस्तु, च--दाता, छ-- ध्येय, ज--प्रेरणा | इनकी विशेषता से दान में विशेषता पैदा होती है । क- पात्र - दान किसी भी प्रकार का दिया जाय पर यह देखना जरूरी है कि जैसा दान दिया जा रहा है पात्र वैसा ही है या नहीं । अपात्र या कुपात्र को देने से दान व्यर्थ जाता है या बुराइयाँ पैदा करता है, समाज में आलसी दुराचारी और दंभियों की संख्या बढ़ती है और सच्चे सेवकों साधुओं की संख्या घटती है । जब दभियों को सफलता मिलती है, साधु लोग तिरस्कृत अपमानित उपेक्षित होने लगते हैं तब साधुता की तरफ़ लोगों का ध्यान बहुत कम जा पाता है बहुत कम आदमी साधुता को अपनाते हैं या साधुता पर कायम रह पाते हैं ! इसलिये पात्र को ही दान देना चाहिये कुपात्र या अपात्र को नहीं । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ पात्र वह है जिसको दान देने से धन का पास आय तो वह प्रतिनिधि पात्र कहलायगा । पात्र सदुपयोग हो अर्थात न तो पात्र का पतन हो, संस्था है वह सिर्फ प्रतिनिधि है, वह खुद पात्र न दाता का पतन हो, न दुनिया का पतन हो इसलिये नहीं है क्योंकि उसका संस्था के साथ नैतिकता कायम रहे या बढे और किसी न किसी सम्बन्ध आज.विकाप्रधान है सेवाप्रधान नहीं । को सुख हो । पात्र पांच तरह के होते प्रतिनिधिपात्र को अलग बताने की ज़रूरत इसहै--१ श्रद्धापात्र २ प्रतिनिधिपात्र, ३ करुणापात्र लिये है कि प्रतिनिधिपात्र अपने की श्रद्धापात्र न ४ प्रेमपात्र ५ व्यवहार पात्र। समझ ले । प्रतिनिधिपात्र को दान देते समय १- श्रद्धापात्र वे हैं जो निस्वार्थ भाव से हमें उसकी विश्वसनीयता देखना चाहिये। जगत की सेवा करते हैं जगत को सन्मार्ग पर ले ३ करुणापात्र उस कहते हैं जो दीन होने जाते हैं साधु हैं, या त्यागी है, उनको जो दान के कारण शब्दों से या मौन रूपसे याचना करता चाहिये वह श्रद्धा से देना चाहिये. चाहे उन्हें है। किसी भी दुखी को देखकर हमारे दिल में भोजन कराना या पानी पिलाना हो चाहे बड़ी दया उपल्न होना चाहिये और उसके दुःख को रकम देना हो । उन्हें तिरसकृत या उपेक्षित न दूर करने की कोशिश करना चाहिये । करना चाहिये । न करुणाभाव से देना चाहिये । करुणा पात्र में यही देखता चाहिये कि जिनने पूजा कराने के लिये श्रद्धापात्र का सचमुच वह करुणा करने के लायक है या नहीं? वेष बनाया है, जो दुनिया को सन्मार्ग पर नहीं बहुत से लोग भीख मांगने को अपनी विवशता ले जाते हैं लेकिन उसके भीतर अहंकार द्वेष आदि नहीं समझते किन्तु धंधा समझते हैं इसके लिये पैदा करते हैं धर्भ जाति आदि के नाम पर अहं- वे भीख मांगने की कला का अभ्यास करते हैं, कार की पूजा कराते हैं दंभी हैं वे कुपात्र हैं इन्हें लोगों का दिल पिघलाने की कला सीखते हैं, भीख श्रद्धाभाव से दान न देना चाहिये। मांगने के लिये व्यवस्थित टोलियां बनाते हैं इस __ जो इस प्रकार के अनर्थ तो नहीं करते काम के लिये नौकर रखते हैं। ये सब दान देने के पर दुनिया के किसी काम भी नहीं आते, न पात्र नहीं है । ये लोग सिर्फ अपात्र ही नहीं हैं पहिले भी इतनी सेवा की है जिसके बदले में किन्तु समाज के शत्रु हैं । न केवल ये दुराचार उन्हें दान दिया जाय, वे अपात्र है । अपात्र को फैलाते हैं किन्तु करुणापात्रों के जीवन को भर भी श्रद्धा भाव से दान न देना चाहिये। हां, वह बनाते हैं ।। करुणा आदि की दृष्टि से पात्र भी हो सकता है बहुत से ऐसे आदमी अनुदार नहीं होत और उस दृष्टि से दान दिया जा सकता है। फिर भी करुणदान में हाथ सिकोड़ते है, कारण २-प्रतिनिधिपात्र वह है जो खुद तो पात्र सिर्फ यही कि सौ में असी आदमी करुणास्पद नहीं है पर किसी व्यक्तिपात्र या समाजपात्र का होने का ढोंग करते हैं और धोखा देते हैं । प्रतिनिधि है । जैसे कोई शिक्षण संस्था है उसके लिये टोगियों के फैलने से असली करुणास्पद छिप चन्दा लेने के लिये उसका एक कर्मचारी हमारे जाते हैं उनकी करुणास्पदता गियों के आंग Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत फीकी मालूम होती हैं। इसप्रकार ये ढोंगी भिखारी मुफ्तखोर और दुराचारी बनंत हैं साथही सच्चे भिखारियों के पेटपर मुक्का मारते हैं। करुणादान करते समय हमें इन कुपात्रों से बचना चाहिये । प्रश्न - अगर सच और झूठे भिखारियों का पता लगाना कठिन हो तो सभी को दान क्यों न दिया जाय, झूठों को व्यर्थ जायगा पर एकाध सच्चे को ता मिल ही जायगा । झूठे भिकारियों के बहाने अपनी कृपणता छिपाने का मौका तो न मिलेगा । उत्तर - यह नीतिकी किसी अंश में ठीक है । अपनी दानशीलता को नष्ट न करना चाहिये, उदार रहना चाहिये । हां, इतनी बात अवश्य है कि कुपात्र को देने से पैसा सिर्फ ये ही नहीं जाता बल्कि पाप भी बढ़ाता है। इसलिये पहिली बात तो यह है कि जहाँ तक हो यह परीक्षा करले कि कुपात्र तो नहीं है, हो तो दान न दे । अगर परीक्षा न हो सके किन्तु बुद्धि का झुकाव पात्र होने की तरफ हो तो दान दे दे । भावुकता के कारण ही दान न देना चाहिये । प्रश्न- कई भिखारी बड़े चालाक होते हैं । वे ऐसे मौके पर माँगते हैं जब हम कुछ सम्भ्रान्त आदमियों में बैठे होते हैं जिससे न देने पर हमें शरमिंदा होना पड़े, कई भिखारी इतना परेशान करते हैं कि पिंड छुड़ाने के लिये कुछ देदेना पड़ता है भले ही वे कुपात्र हो । ऐसे अवसर पर अगर कुपात्र - दान है। जाय तो क्या किया जाय ? उत्तर- कभी कभी ऐसी परिस्थितियाँ आजाती हैं और हमें पिंड छुड़ाने के लिये ऐसा करना पड़ता है। ऐसा कर लेना क्षन्तव्य है कर्तव्य नहीं । इस प्रकार भिवारियों को छल करने या एक तरह से आततायी बनने के लिये उत्तेजित करना ठीक नहीं । कुपात्र दान न हो पाये इसका विचार रखना ही चाहिये, इसके लिये अगर थोड़ी बहुत लज्जा आदि का कष्ट उठाना पड़े तो उठाना चाहिये । पर दान देने में जिस प्रकार पात्र अपात्र का विचार करना जरूरी है उसी प्रकार उदार होना भी ज़रूरी | कुपात्र दान से बचने की ओट में अगर मनुष्य ने कंजूसी की तो उसकी कंजूसी दुहरा पाप हो जायगी, एक कंजूसी का पाप दूसरा दम्भ का पाप । ४ - प्रेमपात्र - प्रेमपात्र उसे कहते हैं जिसे हम न तो उसकी दयनीयता के कारण न श्रद्धेयता के कारण दान देते हैं । जैसे-यात्रा में कोई भाई हमारे पास बैठे है । हम भोजन करने बैठे और उससे आग्रह किया आइये भोजन करें । उसको अपने पास का भोजन कराया तो वह प्रेमपात्र । यह प्रेम विश्वप्रेम है, मनुष्यता का प्रेम है । इस प्रकार प्रेम पात्र जगत् के सब प्राणी है इसमें ऊँच नीच छोटे बड़े अपने पराये का कोई भेद नहीं है । ५--व्यवहार--जिनके साथ हमारा सामाजिक सम्बन्ध है और उस सामजिक सम्बन्ध को निभाने के लिये हम कोई दान करते हैं या ख़र्च करते हैं । सामाजिक सम्बन्ध कई कारणों से होता है, पड़ोसी होना, एक राष्ट्र या प्रान्त के होना, एक मज़हब या वंश के होना. एक ही धंधे के होना या किसी कारण से जीवन में सहयोग होना आदि अनेक कारण सामाजिक सम्बन्ध के हैं। इस निमित्त से जो हम भोजन कराते हैं दान देते हैं वह एक तरह का विनिमय है । यह समाज - Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ [११० व्यवस्था के अनुसार करना उचित है । यह देखना यह च हिये कि अमत्य का प्रचार विनिमय दुकानदार या ग्राहक सरीवा नहीं है तो नहीं हो रहा है, घमंडकी पूज! तो नहीं हो इसलिये इसे लेन-देन या व्यापार नहीं कह सकते। रही है, प्रचार की ओट में स्वार्थियाने अपनी एक प्रकार का यह दान ही है इसलिये निन स्वार्थपूर्ति के अढे तो नहीं बना लिये हैं आदि : लोगों को यह दिया जाता है उनकी पात्रता का -धर्मस्थान बनवाना। भी एक विभाग चाहिये । इसलिय उन्हें व्यवहार- यह देखना कि धर्मस्थान में कोई अमाधारपात्र कहा है। णता है कि नहीं, कोरे नामके लिये या अपने दान करते समय पात्र को ही दान दनेकी पक्ष-पोषण के लिये तो यह धर्मस्थान नहीं कोशिश करना चाहिये और अनेक पात्रों में विस बनाया जाता है ? उस जगह उसकी जरूरत समय किस पात्र को दान देना है इसका भी विवेक है कि नहीं आदि । रखना चाहिये। ५-धर्मशालाएँ बनवाना ख-उपयोग-हम जो धन देते हैं वह किस यह देखना कि धर्मशालार गुंडों के अड्डे काम के लिये देते हैं और उस काम में वह तो नहीं बन रही हैं यात्रियों के लिये सुविधा है आसकेगा कि नहीं, इसका विचार भी करना कि नहीं ! आदि । चाहिये । कैसे कामों में दान देना चाहिये और ६-छात्रवृत्ति देना। उस में कैसी खबरदारी रखना चाहिये इम के कुछ देखना यह कि इस विद्यार्थी ऐयाश नमने यहां दिये जाते हैं जिससे लोगों को दान या अपव्ययी तो नहीं हो रहा है, उस वास्तव के उपयोग करने के विचार में सुभीता हो। में इसकी जरूरत है कि नहीं। छात्रवृत्ति के द्वारा १-भूखों को भोजन देना । जो वह अपने ऊपर नैतिक ऋण ले रहा है उसे ____ इस में यह देखना चाहिये कि भिखारीने चुकाने की भावना है कि नहीं ? आदि। भीख मांगना धंधा ही तो नहीं बना लिया है, वह ७ लोक सेवकों की पूजा करना। उनके आलसी हरामखोर तो नहीं हो गया है, भीख का जीवन निर्वाह का उनकी यात्राओं का उनके वह दुरुपयोग तो नहीं कर रहा है, आदि। द्वारा होने वाले प्रचार का प्रबन्ध करना । २-शिक्षा संस्थार खुलवाना । देवना यह चाहिये कि जनसेवक निःस्वार्थी देखना यह चाहिये कि संस्थाएँ जातीयता और ईमानदार है कि नहीं, उसकी सेवा आवया साम्प्रदायिकता का विष तो नहीं फैला रही हैं, श्यक है कि नहीं ? आदि । शिक्षण निरुपयोगी तो नहीं हो रहा है, चरित्र ८ औषधालय का प्रबन्ध करना । पर बुरा प्रभाव तो नहीं डाल रहा है, बेकारी तो देखना यह चाहिये चिकित्मक योग्य है कि नहीं बढ़ा रही है आदि । नहीं रोगियों से सद्व्यवहार किया जाता है, ३-प्रचार के लिये पुस्तक और पत्रादि चिकित्सक धर्म की आट में स्वार्थ के लिये रोगियों का प्रकाशन । का शिकार तो नहीं कर रहा है, आदि । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत ९ बिना ब्याज के गरीबों को पूँजी देन।। से दान देना चाहिये । देखना चाहिये कि इससे वे आलसी और किसी किसी समाज में दान की विधियाँ अपव्ययी तो नहीं बनते, वे ईमानदार रहते हैं कि भी प्रचलित हो जाती हैं । साधुमुनि आदि को नहीं आदि । इस तरह प्रणाम करके हाथ जोड़कर प्रदक्षिणा देकर १० अन्याय दूर करने के लिये व्यक्तियों दान देना चाहिये यों पैर छूना चाहिये यों बोलना या संस्थाओं को सहायता करना । चाहिये आदि । पात्रदान की ये विधियाँ सिर्फ देखना यह चाहिये कि अन्याय हटाने का इसलिये थीं कि दानी में अहंकार न आ जाय मार्ग ठीक है या नहीं ? इस काम में लगनेवाले और लेनेवाला जनसेवक दीनता का अनुभव न व्यक्ति ईमानदार हैं या नहीं ? वास्तव में अन्याय करने लगे । इस भाव की रक्षा होना चाहिये पर हटाया जा रहा है या अन्याय हटाने के बहाने मनुष्य को ईश्वर की तरह पूजना ठीक नहीं और दूसरों पर अन्याय किया जा रहा है। सम्प्रदाय या वेष के विचार से ऐसी विधियाँ ११ देश के उद्योग धन्धे बढ़ाना । चलाना भी ठीक नहीं है। नम्रता प्रगट करने के देखना यह चाहिये कि यह उन्नति देश की बेकारी साधारण शिष्टाचार रहना चाहिये । विधि की को तो नहीं बढ़ाती,सिर्फ राष्ट्रीय हित ही नहीं मानव- विडम्बना ठीक नहीं। समाज का हित भी इसका लक्ष्य है कि नहीं । घ-अवसर-दान में अवसर का बड़ा मूल्य दसरे देश के अपने देश पर होने वाले आर्थिक है मौके पर दिया हुआ पैसा रुपये से भी कई आक्रमण को रोकना ठीक है पर दूसरे देश पर गुणा बन जाता है । आर्थिक आक्रमण न करना चाहिये । हां, जो बे मौके दिये हुए रुपये की कीमत पैसे से भी अन्तर्राष्ट्रीय आवश्यक विनिमय है वह किया कम हो जाती है। एक छोटे से पोवे को मौके पर जा सकता है । नि:स्वार्थभाव से देश के उद्योग लोटा भर जल दिया जाय तो बड़े काम का होगा, धन्धा को बढाने या उन्हें निर्दोष बनाने के लिये सख जाने पर घड़ों पानी डाला जाय तो किस दान देना भी बहुत उपयोगी है। काम का ? अथवा वह पौधा जब बड़ा झाड़ बन इस प्रकार हर एक दान में उसका उपयोग जाय तो उसके लिये तुम लोटे पर पानी डालो या देखना चाहिये। न डालो उसके लिये बराबर है। मेरे पास खाने ग-विधि-दान जिस तरह दिया जाय उस को है तब तुमने खिलाया तो उसका बहुत कम पर दान का महत्त्व निर्भर है। झिडक कर दान मूल्य है मेरे पास खाने को नहीं है तब तुमने देना और प्रेम से दान देना इनमें बहत अन्तर है। खिलाया तो उसका बड़ा मूल्य है। विधि के बिगड़ जाने से देना न देने से भी बुग महावीर बुद्ध आदि महात्माओं के कार्य में हो सकता है इसलिये यथायोग्य प्रेम के साथ दान जिनने प्रारम्भ में सहयोग दिया, दान दिया उनका देना चाहिये । भक्ति बन्धुत्व वात्सल्य आदि जिस जो स्थान है वह उनके पीछे सैकड़ें। गुणा देने भाव का मौका हो उसी भाव से और उसी ढंग वालों का नहीं है । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ दान के लिये अवसर का सदा खयाल रखना चाहिये इस के लिये विवेक और सतर्कता की ज़रूरत है । जैसे बीज बोने में हमें अक्सर का ख़याल रखना पड़ता है उसी प्रकार दान में भी रखना चाहिये | ङ - वस्तु दान में वस्तु का विचार भी विचारणीय हैं। कब कहां किस वस्तु का महत्व है इसका विवेक रखकर दान देना चाहिये एक साधु घर आया उसे आदर प्रेम से भोजन करा दिया । सम्भव है इस में चार आने का ही खर्च हो पर उसकी कीमत वह जायगी इस के बदले एक रुपया देकर उसे भूख विदा करने से दान की कीमत कम होगी । इसमें भी पूरे विवेक की ज़रूरत है | कही भोजन की कीमत ज्यादा है कहीं रुपयों की, कहीं और चीन की । देशकाल पात्र देखकर वस्तु की उपयोगिता का विचार करे फिर दान दे 1 वस्तु के विचार के कारण कहीं कहीं रुपयों पैसों की जगह कुछ कपड़ा आदि देने का रिवाज बन जाता है। कुछ समय तक तो ठीक, बाद में वह रिवाज विवेकशून्य होने से निरर्थक होजाता है । ऐसी चीज़ देना जिसका उसके यहां उपयोग न हो; तुन आठ आने में लाकर दान दो वह पांच छः आने में बाज़ार में बेचता फिरे, इसकी अपेक्षा आठ आने पैसे देना ही अच्छा । नियम कुछ नहीं बनाया जा सकता, विवेक इसका नियम है । कहाँ किम चीज़ का क्या उपयोगिता है इसका विचार करके दान देना चाहिये | [ ४१२ पांच रुपया दे और एक धनी आदमी पांच रुपया दे इसमें बहुत अन्तर हैं, गरीब आदमी के पांच रुपये के साथ जितना दिल है अमीर आदमी के पांच रुपये के साथ उतना दिल नहीं है, गरीब आदमी अपनी जायदाद का जितना हिस्सा दे रहा है अमीर उतना नहीं दे रहा है इसलिये अमीर के पांच रुपयों की अपेक्षा गरीब के पांच रुपयों का महत्त्व अधिक है । इसीप्रकार और भी दाता की विशेषताएँ हो सकती है । दाता की परिस्थिति दान देने योग्य जितनी कम होगी दान का मूल्य उतना ही अधिक बढ़ेगा। इसके सिवाय और भी कारण हो सकत हैं जिनसे दाता के कारण दान का महत्त्व बढ़ जाय । दाता ऐसा प्रसिद्ध व्यक्ति हो जिसके देने से और दूसरे आदमी दान देने लगें तो इस दृष्टि से भी दाता की विशेषता से दान की विशेषता सिद्ध होगी । च - दाता - दाता के अनुसार भी दान का महत्व घटता बढ़ता है। एक गरीब आदमी छः ध्येय-दान की विशेषता बताने वाला यह बहुत महत्वपूर्ण कारण है । ध्येय की खराबी से दान अदान या कुदान हो जाता है। कोई विश्व कल्याण के लिये देता है कोई यश के लिये देता है कोई किसी तरह का स्वार्थ सिद्ध करने के लिये देता है, कोई इसलिये देता है कि डर के मारे उसे देना पड़ रहा है, ध्येय के भेद से इन सब दानों में अन्तर है । विश्वकल्याण के ध्येय से जो दान दिया जाता है वही सच्चा दान है । दान देने में जितने अंश में यश की आकांक्षा है उतने ही अंश में दान की कमी है । वह रोज़गार है । यह ठीक है कि दानी को यश मिलना चाहिये पर दानी को भी यश से इतना निरपेक्ष अवश्य रहना चाहिये कि दान का जहां अधिक उपयोग हो जहां अधिक जरूरत हो लेनेवाला | Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत - - सुपात्र हो वहाँ यश न मिले या कम मिले तो भी . १ बंचकदान--किसी को ठगने के लिये वहाँ दान दे सके और दान निरुपयोगी आदि धोखा देने के लिये अनैतिक स्वार्थ सिद्ध करने के हो पर यश अधिक मिलता हो तो भी वह वहाँ लिये दान देना वंचकदान हैं | यह पाप है। न.दे. यश की पर्वाह न करे। २--भक्तदान--इस शर्त पर दान देना कि यश की लालमा तीब्र होजाने पर दान दान हमारा नाम जोड़ो, हमारी मूर्ति या चित्र स्थापित नहीं रहता लेन देन अर्थात् व्यापार हो जाता है। · करो, हमारे नाम का शिलालेख आदि लगाकर विश्वकल्याण के लिये दान किया जाय तो विश्व रखो, मुक्तदान है । यह दान तो है पर कल्याण रूपी अन्न के साथ यश-रूपी भूसा मिल इसका फल पहिले ही भोग लिया गया है, इसही जाता है इसलिये यश को ध्येय न बनाना लिये इसका आध्यात्मिक मूल्य नष्ट हो गया है। चाहिये। ३-मत्तदान----घमंड में आकर दूसरे को __ यश आदि के लिये दान करनेवाला मनुष्य नीचा दिखने के लिये दान करना मतदान है । ईमानदारी से धन पैदा करने की पर्वाह नहीं इसका भी आध्यात्मिक मूल्य कुछ नहीं हैं। करता वह किसी भी तरह सम्पत्ति पैदा करता है । इन दोनों दानों में पात्र आदि का विवेक और यश का आनन्द लूटना चाहता है पर जिसे , भी बहुत कम हो जाता है। इन दानों का यश के आनन्द की पर्वाह नहीं है वह प्रायः पाप उपयोग भी है पर अगर दान इन श्रेणियों न से सम्पत्ति पैदा करने की कोशिश न करेगा वह __ आकर अच्छी श्रेणियों में आवे तो बहुत अच्छा। देखेगा कि दान तो विश्वकल्याण के लिये करना है सो यदि धन पैदा करने में ही विश्व का महान ४-व्याकुलदान-कोई भिखारी माँग-माँग अकल्याण हो जाय तो दान के द्वारा कल्याण कर परेशान कर रहा है, या शर्मिन्दा कर रहा. करने की इच्छा से वह अकल्याण क्यों करना है उससे पिंड छुड़ाने के लिये दान देना व्याकुलचाहिये । पैर धोने के लिये कीचड़ में पैर डालने दान है । यह क्षन्तव्य है कर्तव्य नहीं । का क्या अर्थ है ! ५ रूढिदान-विवेक या इच्छा से नहीं किंतु ___गुप्तदान इसीलिये महान है कि उसमें यश जहाँ रूढ़ि का पालन करने के लिये ही दान लेकर न तो दान का बदला लिया जाता है न किया जाय वह रूढिदान है। इसका भी आध्यापाप की उत्तेजना को साधन मिलता है। मिक मूल्य नहीं है । पर देनेवाले में श्रद्धा हो धेय को पहिचानने के लिये दान के नव या मनमें कुछ संक्लेश न हो तो यह रूढिदान भेद कहे जा सकते हैं । इन भेदों में से कौन निरपक्षदान या अनामदान बन जायगा । दान की सा दान किस श्रेणी में हैं इसका पता लगाया जो रूढ़ियाँ उपयोगी हैं उन्हीं के पालन में दान जा सकता है। . उत्तम होता है अन्यथा सूदिदान व्यर्थ हो जाता है ? १ वंचक दान, २ भुक्तदान, ३ मत्तदान, ६-प्रत्युपकार दान-किसी आदमीने हमारा '४ व्याकुलदान, ५ दिदान, ६ प्रत्युपकारदान, उपकार किया हो किसी संस्था से हमने किसी ७ निरपेक्षदान ८ अनामदान, ९ गुप्तदान। प्रकार का लाभ उठाया हो तो उसके बदले में Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ कृतज्ञतापूर्वक दान देना प्रत्युपकार दान है । यद्यपि यह एक प्रकार का विनियम है पर साधारण विनिमय से इसलिये ऊँचा है कि इस में उपकार से प्रत्युपकार की मात्रा अधिक रहती है । यह आवश्यक दान है । ७- निरपेक्ष दान - जहाँ नाम वगैरह की मुख्यता न रक्खी जाय, न नाम वगैरह की ऐसी कोई शर्त रक्खी जाय, जनहित का ही विचार हो, वहां दान निरपेक्ष दान कहा जाता है । कोई संस्था नियमानुसार प्राप्तिस्वीकार में नाम छापे हिसाब में नाम दिखावे, या दान के बहुत वर्षों बाद अपनी प्रेरणा के बिना अपने दान के स्मारक के रूप में अपना नाम दे तो यह बात दूमरी है। इससे निरपेक्ष दान को कोई धक्का नहीं लगता अर्थात् वह भुक्तदान नहीं बन जाता | ८ अनामदान - जिस में दान तो हो पर दान का नाम न हो अर्थात् व्यवहार में उसे दान न कहते हों तो वह अनाम दान है। जैसे गुरवि या बेकार लोगों को रोटी मिले इसलिये उनके हाथ की बनाई हुई चीज खरीदना, जब कि बाज़ार में उससे अच्छी या सस्ती चीज़ भले ही मिलती हों । दो आने ग़ज मिल का कपड़ा बाज़ार मे मिलता हो और उससे कुछ ख़राब खादी चार आना गज़ मिलती हो तो एक गज़ खादी पहिनने से हम करीब दो आने का दाह करेंगे पर न तो लेने वाला इसे दान समझेगा क्योंकि उसने मजदूरी काफी की थी और न दुनिया इसे दान समझेगी, इसप्रकार दान का नाम तो न होगा पर दान हो जायगा । यह अनाम दान है । यह एक व्यापक और अच्छा दान है । [ ४१४ पता न लगे, अथवा बिलकुल पता न लगे अथवा लेने वाले को भी पता न लगे, यह गुप्तदान है । इस दान में निर्मोहता ऊँचे दर्जे की होती है इसलिये यह प्रदान हैं । ९ - गुप्तदान - इस प्रकार से दान देना कि दुनिया को जितना पता लगना चाहिये उतना ज-प्रेरणा - जो दान अपनी समझदारी मे बिना किसी की प्रेरणा के दिया जाता है वही उत्तम दान है। जो साधारण सूचना पाकर दिया जाता है या संकेत से समझकर दिया जाता है वह भी अच्छा है । जो अनेक बार माँगने और विशेष अनुरोध करने पर दिया जाता है वह मध्यम दान है जिसमें अनुरोध यहाँ तक बढ़ जाता है कि अनुरोध को न मानने में लज्जा मालूम होने का डर आजाता है वह जघन्य दान है। दान जहाँ तक बन सके अपनी इच्छा से और बिना माँगे देना चाहिये। हां, 'यहाँ ज़रूरत हैं कि नहीं ' इसकी सूचना की बाट देखना ' कोई बुरी बात नहीं है । दान देने में हम जितना दूसरों को परिश्रम कराते हैं दान का मूल्य उतना ही कम हो जाता । इस बात का हिसाब लगाकर भी हम समझ सकते हैं । मानलो एक संस्था को हमने सौ रुपये दिये उसके लिये कई बार उस संस्था को पत्र डालना पड़ा एक दो बार आदमी भेजना पड़ा आपके किसी मित्र से अनुरोध कराना पड़ा ! संस्थाको सौ रुपये मिले पर आपके मित्र का अहसान दो चार पत्रों का डाक खर्च, उनकी लिखाई की महनत आने जाने का ख़र्च या कष्ट बार बार माँगने का संकोच सब मिलकर जो खर्च हुआ उसमें आधे से अधिक दान का मूल्य चला गया । इसलिये हमारे दान का मूल्य भी आधे से कम रह गया । इसलिये जहां तक बने Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१५ । सत्यामृत - अपनी ही प्रेरणा म दान देना चाहिये । और जल्दी दे देना चाहिये उसे रोककर दान का .. दान को पहँचाने में विलम्ब न करना चाहिये न मूल्य कम न करना चाहिये । दृमरों से परिश्र- बागना चाहिये, जितना परिश्रम दान के इन सब निमित्तों का विचार कर कराया जायगा उतना ही मूल्य कम हो जायगा । के उत्तम दान देना चाहिये । प्रश्न- हम किमी को दान देना चाहते थे इस में सन्देह नहीं कि दान हमारे मुख्य पर इतने में उसने या किमी ने अनुरोध कर दिया कर्तव्यों में से है, हमारे भीतर दान की भावना तो अपने दान का मूल्य कम न हो जाय इसलिये रहना चाहिये पर दानी बनने के लिये अन्याय हमारा विचार होगा कि उस समय हम दान न दें से धन पैदा करना ठीक नहीं। बाद में अपनी कला से दान दें, अथवा उम समाज के लिये दानी होना इतने गौरव की जगह दान न दें मरी जगह अपनी इच्छा से दें। बात नहीं हैं जितने गौरव की बात अन्यायी और पीडितों का न होना है। धन के विनिमय के उत्तर--डम तरह की वंचना से हम दुनिया नियम कितने ही अच्छे बनाये जायें अगर की आंग्वों में धूल झोंक सकते हैं वह भी सौ में सुव्यवस्था और समुन्नति होगी तो विनिमय एकाध जगह सो भी बड़ी मुश्किल से, पर सत्ये के नियमों के पालन करने पर भी कहीं जरूरत इवर की आँखों में धूल नहीं झोंक सकते । अगर से और कहीं ज़रूरत से ज्यादा सम्पत्ति हो ही हमार मनमें स्वेच्छा से दान देने के भाव थे तो जायगी । वह विषमत. दान में दूर करना चाहिये। दसरे के अनुरोध से भी उसका मूल्य कम न होगा और भाई चारा स्थापित करने के लिये भी दान इसलिये हमें उस जगह दान रोकने की कोई करना चाहिये। जरूरत नहीं है । मन में दान का भाव नहीं एक तरह से दान को हम अतिग्रह का था पर दूसरे की प्रेरणा से पैदा हुआ तो तुम्हां प्रायश्चित्त कह सकते हैं फिर भी प्रायश्रित और दान का मूल्य उतने अंश में कम होकर दूसरे को साधारण दान में अन्तर है । जिस पाप का प्रायमिल ही गया, अब भले ही तुम चित्त किया जाता है प्रायश्चित्त के बाद उसका त्याग उस ममय दान न देकर दूसरे समय दो या उस जगह करना जरूरी है । इसलिये दान के बाद दुरर्जन का दान न देकर दूसरी जगह दो । बल्कि दूसरे की त्याग किया जाय तो प्रायश्चित्त होगा। बार बार मफल और उचित प्रेरणा को स्वीकार न कर के पाप कर के बार बार प्रायश्चित्त करने में प्रायश्चित्त कृतघ्नता का पाप और सिरपर लाद लिया गया। नष्ट हो जाता है, और यह विचार कि दान से इस प्रकार वञ्चना करने से दान का मूल्य ते प्रायश्चित्त हो ही जायगा मन चाहा अतिग्रह कम हुआ ही साथ ही कृतघ्नता हुई और दुमरे करते चलो, दान को व्यर्थसा बना देता है । के उचित अनुरोध को स्वीकार न करके तुमने इसलिये दानी दुरर्जन बन्द करके जब दान करता कुछ जुदाई पैदा की । इसलिये यही ठीक है कि है तब प्रायश्रित्त होता है। किसी की प्रेरणा से अगर दान देने का भ व फिर प्रायश्चित्त की भी मर्यादा है । लाख आया तो जितनी जल्दी दिया जा सके उतनी रुपये का अतिग्रह और हजार पाँचसौ रुपये का Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ दान, इसमें प्रायश्चित्त न हुआ । अतिग्रह के अनुसार ही दान होना चाहिये तब प्रायश्चित्त होगा | बहुत से लोग दान इसलिये करते हैं कि प्रतिष्ठा आदि बढ़ जाने से अतिग्रह का अधिक अवसर मिले। उनका दान दान नहीं है किन्तु व्यापारिक विज्ञापन है, व्यापार धंधे की एक चाल है । असली और पवित्र दान उनका है जिनने पूरी ईमानदारी से वन पैदा किया है, समाज के नियमों का दुरुपयोग नहीं किया है अपनी मिह - नत और सेवा से धन कमाया है फिर विवेकपूर्वक बिना किसी की प्रार्थना के समाजहित के काम में यश की मुख्यता के बिना धन खर्च किया है । पवित्रदान के इन विशेषणों में से जो विशेषण कम होगा दान का मूल्य भी उसके अनुसार कम हो जायगा | फिर भी सामर्थ्य होने पर हर हालत में दान करना ही चाहिये क्यों कि इससे कुछ न कुछ लाभ अवश्य होगा | थोड़ी बहुत अपनी या दूसरों की भलाई हो ही सकेगी । [ ४ १६ २ सेवा - दूसरा अभ्यास धर्म सेवा है । इसका विवेचन परिचर्या नाम के तप में किया गया है। सेवा भी बहुत जरूरी धर्म है इसका अभ्यास तन और मन दोनों से करना चाहिये । दान का मुख्य उद्देश्य धन के बटवारे की विषमता को यथाशक्य कम करना और समाज हित के ज़रूरी कामों में सहायता पहुँचाना है । पाप से पैसा पैदा किया जाय तो दान से सारा पाप न धुलजायगा फिर भी कुछ न कुछ अवश्य धुलेगा | इसलिये दान में इतना विचार करके कि दान के दुरुपयोग से समाज में पाप दुःख अनाचार तो नहीं फैलता है, हर हालत में जितना दान दिया जा सके अच्छा है। हां, पवित्र दान के लिये जो विशेषण बताये गये हैं उनको पूरा करने की जितनी अधिक कोशिश की जाय उतना ही अधिक स्वपर - कल्याण बढ़ेगा | शरीर में ताक़त रहने पर भी जिस कामका अभ्स नहीं रहता उसे करने में कठिनाई जाती है इसलिये परिचर्या का थोड़ा बहुत अभ्यास बना रहे तो अच्छा । पर तन की अपेक्षा मन के अभ्यास की ज्यादह ज़रूरत है | सेवा करने से इज्जत कम हो जायगी, आदि अनेक भ्रम मन में बैठजाते हैं। ये भ्रम निकाल देना सेवा का मुख्य अभ्यास है । इसके अतिरिक्त भी सेवा का अभ्यास करना चाहिये जिस से हमारा शरीर उस के अनुकूल नसके, उसमें सहिष्णुता आजाय । ३ विनय - विनय भी एक अभ्यास धर्म है । तपके प्रकरण में त्रेसठ प्रकार का विनय बताया गया है उसीका यथाशक्ति अभ्यास करना चाहिये । विनय शिष्टाचार का प्राण है। विनय मन की वह वृत्ति है जे। प्रेम और गुणग्राहकता से तथा अहंकार को हटाने से पैदा होती है । उसके होने पर शिष्टाचार का पालन प्रायः आप से होने लगता है । विनय न हो तो शिष्टाचार का बड़ा ख़याल रखना पड़ता है इसलिये शिष्टाचार बोझ होजाता है । हां, यह बात अवश्य है कि शिष्टाचार भी भाषा की तरह सीखना पड़ता है । कहीं पर कोई कार्य शिष्टाचार के खिलाफ समझा जाता है, इसलिये बालकों को या बड़ों को नई जगह में जाने पर शिष्टाचार के नियम सीखना चाहिये या उन्हें सिखाना चाहिये । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ 1 सत्यामृत बड़ी अवस्था में शिष्टाचार सीखने का होती है कि लोग उससे चौकले हैं। यह अच्छा तरीका यह है कि दूसरे के उठने बैठने अपने व्यवहार से निर्दोष आदमियों के मन में आदि का निरीक्षण किया जाय । क्यों कि भय पैदा नहीं होने देता, उन्हें उससे धोका खा शिष्टाचार कहकर करांन में उस की कीमत घट जाने की शंका नहीं होती । ऐसे मनुष्य का लोग जाती है। शिष्य को गुरु के सामने कैसे बैठना आदर कम ज्यादह कैसा भी करें पर उसमे चाहिये यह बात गुर को सिखाना पड़े तो इस में प्रेम करते हैं । गुरु के गौरव को धक्का लगता है मातापिता सरलजीवन बिताने से मनुष्य के मन पर को भी इस बात के सिखाने में संकोच होगा कि और स्नायुओंपर जोर नहीं पड़ता जब कि कुटिल सुबह उठकर माँ बाप को प्रणाम करना चाहिये। जीवन बिताने में काफी जोर पड़ता है जिसके विषय में शिष्टाचार दिखाना है उसी से उसे हर समय चाकना रहना पड़ता है हर समय उसकी शिक्षा मिलना कठिन है इसलिये यह डरता सा रहता है। बात अपनी बुद्धि से विचार कर या इधर उधर हमसे पापी डरते रहें अथवा हमारी किसी देखकर सीखना चाहिये । आवश्यक दिनचर्या के कारण किसी को अटपटासब से अच्छी बात यह है कि जैसा पन सा मालूम हो तो बात दूसरी है पर साधारणतः शिष्टाचार हो वैसा ही मन का भाव हो । पर अपना जीवन ऐमा बनाना चाहिये जिस से लोग अगर किसी कारण से मन का भाव बदल जाय निर्भय रहें, और नि:संकोच होकर अपना दुःख तो जहाँ तक सम्भव हो और जहाँ तक उचित हो वहाँ तक पहिले से चले आये हुये शिष्टाचार सुख कहसकें। को निभाते रहना चाहिये। ५-कोमलता-मन में वाणी में और ४-सरलता- विचार और सभ्य व्यवहार व्यवहार में प्रेम छलकता सा मालूम हो इसका की एकता का नाम सरलता है। मुँह में राम नाम कोमलता है । दूसरे का दुःख देखकर दुःखी बगल में छुरी की कहावत से उल्टा जीवन होजाना, बहुत जरूरी होने के सिवाय अपने बिताने की कोशिश करना सरलता का अभ्यास शब्दों में और स्वर में कठोरता न आने देना है। कहने को विचार और दुर्व्यवहार की एकता कोमलता है । बहुत से लोगों के बोलने का या भी सरलता है, मन में भी वेर रक्खा और मुँह कोई काम कराने का ढंग ऐसा होता है कि से भी गालियाँ बकीं यह भी एक तरह की उनके शब्द सिरपर डंडे से बैठते हैं जब कि सरलता है पर इस सरलता को सरलता नहीं बहुत से लोग आज्ञा भी देते हैं तो उस में शब्द कहते क्योकि यह दर्गण हे पाप है, यहाँ सरलता- का विन्यास और स्वर ऐसा रहता है कि न तो रूप गुण से मतलब है। उस में दीनता होती है न कठोरता, यह कोमलता सरल मनुष्य के जीवन में न तो ऐसा की निशानी है । अटपटापन हे.ता है कि सम्पर्क में आनवाले भठे दिलसे दिल मिलाने के लिये, दूसरों का आदमी भी घबराते रहे, न उसमें ऐसी वंचकता दुःख घटाने के लिये, अनावश्यक भय अपमान Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ और दुःख न बढ़ने देने के लिये सरलता एक इन सब अपवादों का ख़याल रखते हुए हमें "ज़रूरी गुण है। क्षमा का अधिक से अधिक उपयोग करना चाहिये। सरलता के लिये अपने मुँह को भी वश में क्षमा न करने से वैर की परम्परा चलती है इससे करने की ज़रूरत है और मन को भी । मुँह को अपने और मानव समाज के कष्ट बढ़ते हैं। हर कोमल बनाने की ज़रूरत तो है ही, पर मन को एक मनुष्य न तो पूर्ण संयमी होता है न पूर्ण कोमल बनाने की ज़रूरत उमसे भी ज्यादह है। ज्ञानी, इसलिये कभी स्वार्थवश, आभिमान वश बहुत से लोगों के मुंह में कोमलता आजाती है या कभी नासमझी से भलें हो जाती हैं। अगर हम पर मन में कोमलता नहीं आने पाती । फल यह एक दूसरे की भलें दर गुज़र न करें तो समाज रचना होता है कि मुँह की कोमलता का फल रुपये में ही असंभव हो जाय । इसलिये न्याय या मानव-जीवन एक पाई से अधिक नहीं होने पाता और उसक की चिकित्सा के लिये कभी कोई कठोर काम लिये उन के मनपर बड़ा जोर पड़ता है । कोम करना पड़े तो उस अपवाद को छोड़कर हमें लता जब मन में होती है तभी वह सप्राण बनती है। अधिक से अधिक क्षमाशील बनना चाहिये । ६-क्षमा--वैर की वासना दिल में न रखना, और इस बात का भी खयाल रखना चाहिये कि दूसरों की भूल सुधारने के लिये सम्भव और सजगता सतर्कता आदि रहने पर भी वैर की उचित अवसर देना, पाप से घृणा रखते हुए भी वासना दिल में न रहे। पापी से घृणा न रखना या उतनी ही रखना जितनी कि पाप से धृणा रखने के लिये ज़रूरी ७ श्रम--शरीर और मन की शक्ति का हो गई हो. क्षमा है । क्षमा जीवन में जितनी उपयोग करना श्रम है। प्रकृति ने हमें जो कुछ दिया है उस हम बिना श्रम के नहीं पा सकते जरूरी है उससे भा ज्यादह उसके पालन में सत और पा भी जाये तो उससे हमारी गुजर नहीं र्कता की जरूरत है । कौन आदमी कितनी क्षमा का पात्र है इसका भी खयाल रखना जरूरी है। हो सकती । पशु-पक्षियों को प्राकृतिक जीवन कभी कभी ऐसा होता है कि हम किसी के दोष बिताने के लिये श्रम करना पड़ता हे फिर मनुष्य दर्गण अत्याचार सहन करते जाते हैं और इस ने तो अपना जीवन काफी साधन-सम्पन्न बनाया ढील से उसके दोष दुर्गुण अत्याचार बढ़ते जाते है उसके लिये तो कई गुणा बौद्धिक और शारीहैं इस प्रकार एक दिन वह इतना उद्दाम हो जाता रिक श्रम चाहिये। है कि अपना और दूसरों का नाश कर बैठता विकास में शारीरिक श्रम की अपेक्षा मानहै । इसलिये कोई अपात्र क्षमा का दुरुपयोग न कर सिक श्रम की कीमत अधिक है पर वह हर बैठे इसका खयाल रखना चाहिये । एक के वश का नहीं है । यों तो हर एक काम . दूसरी बात यह है कि जहां कमजोरी है में मन और शरीर दोनों को श्रम करना पड़ता है वहां क्षमा का असर नहीं होता। वह तो आत्म- पर जिस काम में चिन्तन की स्मरण की मुख्यता रक्षा की एक नीति बन जाती है। इसलिये वहां होती है वह काम मानसिक श्रम कहलाता हमें क्षमा के फल की आशा न रखना चाहिये। है। यह हर एक के लिये नहीं है और यदि है Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१९ । सत्यामृत भी तो उस पर यहां जोर देने की जरूरत नहीं उसकी उपयोगिता की दृष्टि से उसका विचार निःहै । यहां पर श्रम से हमारा मतलय मुख्यरूप से संकोच होकर करना चाहिये । अनावश्यक श्रम शीरिक श्रम है। के प्रदर्शन से श्रम का काम तो होता नहीं है मानव समाज के अधिकांश व्यक्ति शारीरिक साथ ही श्रमी होने का झूठा अहंकार आजाता है। दृष्टि से आलस्य के पुजारी हैं, और बहुत से इसलिये श्रम का ऐसा अभ्यास करना चाहिये कि आदमी शरीर-श्रम को नीची निगाह से देखते हैं। जिससे हमारा शररि दूसरों की सुविधा बढ़ावे, मानव समाज का यह बडा भारी दुर्भाग्य है। दूसरों के काम का और ख़र्च का बोझ कम करे, इससे मनुष्य में झूठा अहंकार पैदा होता है, एक और हमारे जीवन में एक तरह का स्वावलम्बन का जीवन दुसरे पर बोझ बनता है, जिन पर आ जाय । बाझ पड़ता है उनका अतिश्रम से और जिनका ८ दम-इंद्रियाका दमन करना, उन्हें अपने बोझ पड़ता है, उनका अश्रम से स्वास्थ्य खराब वश में रखना दम है । इद्रियाँ यों तो पांच बताई हो जाता है, आलस्य के कारण बहत से काम जाती है स्पर्शन, जीभ नाक, आँख और कान, अव्यवस्थित अधरे रह जाते हैं या बिलकल नहीं पर दम से दो बातों की मुख्यता है । एक शील हो पाते, या द्वेष असन्तोष और घृणा बढती दुसरा रसविजय | स्पर्शन-इंद्रिय का एक मुख्य है, इस प्रकार मानव-जीवन की अनेक तरह से भाग है लेङ्गिक इन्द्रिय । इस को वश में रखना बर्बादी होती है । शील है । जीभ को वश मे रखना रस-विजय है। लैङ्गिक इन्द्रिय और जीभ सभी प्राणियों में बहुत कौटुम्बिक अशान्ति का एक बड़ा भारी तीव्र रहती हैं । लैङ्गिक इन्द्रिय इतनी वश में तो कारण श्रम का न होना है । मैं तो इतना काम रहना ही चाहिये जिससे मनुष्य व्यभिचार से बचा करता हूं वह तो करता ही नहीं, इत्यादि बातों रहे पर अभ्यासी को इसका भी अभ्यास करना को लेकर झगड़े होते हैं, कुटुम्ब नष्ट हो जाता है । चाहिये कि अतिभोग न होने पावे। जिससे स्वास्थ्य अपनी अपनी योग्यता के अनुसार सभी को श्रा और कर्तव्य में बाधा पडे उसे अतिभोग समझना करना आवश्यक है। चाहिय। ___ श्रम स्वास्थ्य के लिये भी ज़रूरी है। जो लोग दम में दूसरी बात जीभ को वश में रखने श्रम नहीं करते वे बीमार होकर जितना कष्ट की है । भोजन का ध्येय शरीर को स्वस्थ और भोगते हैं उसकी दशमांश भी सुख आलस्य में सबल रखना है, जीभ इसलिये है कि इस से नहीं पाते। भक्ष्य अभक्ष्य की पहिचान की जा सके । जीभ श्रम जीवन में हर तरह उपयोगी है इसलिये का और भोजन का मुख्य उपयोग यही है । हा, श्रम की प्रतिष्ठा करना चाहिये । श्रम की प्रतिष्ठा अगर अपने और दूसरे के हित में बाधा न आवे का यह मतलब नहीं है कि किसी स्वास तरह के तो स्वाद का सुख भी लिया जासकता है पर श्रमपर प्रतिष्ठा की आप मारकर प्रदर्शन के लिये स्वाद के वश में न हो जाना चाहिये । स्वाद के वह किया जाय । श्रम प्रतिष्ठित हो या अप्रतिष्ठित, लिये अनीति करना पडे पक्षपात दिखाना पडे Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ [ ४२० ण लेना पड़े चित्त में व्याकुलता हो, यह बात पर नहीं पड़ने दिया जात।' होना चाहिये । १० न्याय----आचार विचार की बात का • लैंङ्गिक इन्द्रिय और जीभ को वश में कर निष्पक्षतापूर्वक मनायोग लगाकर निर्णय करना ने पर दम का अभ्यास आधे से बहुत ज्यादह न्याय है । न्याय को दबाने से लोगों में घृणा, [ जाता है | रह जाती है अन्य इदियों को अविश्वास, और किसी भी दूसरे उपाय से अधिक श में रखने की बात, सो उन्हें भी वश में पवन से अधिक बदला लेने की भावना पैंदा होती है। की कोशिश करना चाहिये। सभ्यता और असभ्यता की अच्छी पहिचान यही संगीत से या सौन्दर्य से लुभाकर लोग सर्वस्व है कि जो शक्ति के आगे झुकना नापसन्द करते हैं मा बैठते हैं, अनुचित कृत्य कर बैठते हैं, सत्य का वे सभ्य है, जो शक्ति के आगे झुकना पसन्द पमान और असत्यका आदर कर बैठते हैं । इन करते हों वे असभ्य है । बहुत से लोग या जनब अनर्थो से बचने के लिये सभी इन्द्रियों को समुह ऐसे होते हैं जो कहते हैं कि हम बहादरों श में रखने का अभ्यास करना चाहिये । की इज्जत करते हैं और बहादुर वे उसे कहते हैं ९शम-शान्ति गम्भीरता अनुद्वेग आदि जो अपना शक्ति स दनिया को उत्पीडित करते तो शम कहते हैं । बहुत लोग बहुत जल्दी हो । सभ्य भी वे उन्हें ही कहते हैं जो दुसरे भावेश में आजाते हैं क्रोध और अभिमान के लोगों को, दूसरे मुल्का को नष्ट कर सकते हो। गरण उनका पारा और ऊँचा चढ जाता है इस इस प्रकार उत्पीड़न में ही बहादुरी और सभ्यता । वे बहुत अनुचित बातें बक जाते हैं या वहत मानने लगते है। ऐसे ही लोग हैं जो इस दनिया अनुचित कार्य कर जाते हैं यह उइंडता शम से को नरक का नमुना बना डालते हैं । शक्ति की र करना चाहिये । शम एक तरह की ठंडी सदा आवश्यकता है पर उसका उपयोग न्याय क्ति है जो मनुष्य को बड़ी बड़ी चोटों का भी की रक्षा के लिये, मानवजाति के संकटों को दूर सामना करने योग्य बनादेती है। शम न होने करने के लिये, सुखसाधनों को बढ़ाने के लिये र मनुष्य बहुत दुःखी होता है और दूसरों को होना चाहिये । शाक्त थोड़ी ही क्यों न हो पर :खी कर जाता है । पीछे पश्चाताप भी हो तो अगर उसका उपयोग न्याय के ही मार्ग में हो तो । लोग उससे डरते रहते हैं कि न जाने किस उस थोड़ी शक्ति से भी सभ्यता और बहादुरी का के पर यह क्या कर बैठे या क्या कह बैठे। पूरा परिचय मिल सकता है, और काफ़ी जनसलिये अपने आवेगों को वश में रखने की शक्ति कल्याण हो सकता है । न्याय की उपेक्षा करके दा करना चाहिये नहीं तो हमाग जीवन जो शक्ति होगी वह जितनी ही अधिक होगी भ्य समाज में रहने लायक न रहेगा। उतना ही बड़ा नरक दुनिया में बनायेगी । ____शम का अर्थ छल नहीं है । धोका देने के सुखशान्ति के लिये, मानवता के विकास के लिये, ध्ये शान्ति बताना शम नहीं कहा जा सकता । सुखशान्ति बढ़ाने के लिये, पाप के विषैले अंकुरों इ ते मायाचार है । शम' में तो उद्धेगों को को या विषवृक्षों को उखाड़ने के लिये न्याय-धर्म न्ति रखा जाता है और उनका दुष्प्रभाव मन बहुत जरूरी है । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्यामृत [४२१ हम अपने कुटुम्य में न्याय का परिचय दें इसी तरह अर्थघात के भी तेरह भेद हैं तो हमारा कुटुम्ब संगठित सन्तुष्ट और सुखी हो,। इनमें भी व्रती मनुष्य बाधक तक्षक भक्षक का मुहल्ले और नगर में न्याय का परिचय दं ना त्याग करता है अविवेकज प्रभादज से बचने की मुहल्ले और नगर का हर एक आदमी बडी निर्भ- यथाशक्य के शिश करता है। यता से रह सके और मनुष्य की रक्षण सम्बन्धी चोगे के चौबीस भेद बताये गये हैं उनमें चिन्ता आधी से भी कम रहजाय, साम्प्रदायिक से वह धनका नजर चोर, टग चार, उद्घाटक और जातीय कलहका अन्त हो जाय। चौर, बलात् चोर, घातक चोर कभी न बनेगा। जिस क्षेत्र में भी हम न्याय का परिचय छन्न चोरियों में कभी कभी कुछ दोष लग सकता है दंगे उसी क्षेत्र में सहयोग प्रेम निर्भपता विश्वास पर वह इनसे बचने की कोशिश करेगा। नामआदि पैदा होगा । जनता का सच्चा नेता वही हो चोरी उपकार-चोरी उपयोग-चोरी में भी वह नजर सकता है जो न्याय की मूर्ति हो । हर तरह के चोर, ठगचोर, उद्घाटक चोर, बलात् चोर, और सामाजिक जीवन के लिये न्याय धर्म आवश्यक घातक चोर कभी न बनेगा । इनकी छन्न चोरियों में यथाशक्य परहेज रखेगा। जो इन दस धी का अधिक से अधिक दुमी प्रकार वह विश्वासघात या झूठ बोलने अभ्यास करता है अर्थात उन्हें जीवन में उतारने का भी त्यागी होगा । वह बाधक अतथ्य, तक्षक की कोशिश करता है वह ता री श्रेणी वाला इन अतथ्य और भक्षक अतथ्य न बोलेगा । अविवेकज धों में पूर्णता तो नहीं पासकता पर कुछ और प्रमादज से बचने की यथाशक्य कोशिश विशेषता अवश्य पासकता है। इन धर्मों के करेगा । वह शुद्ध और शोधक तथ्य बोलेगा पर अभ्यास से उस में संयम को पालन करने की प्रमादज राहस्थिक निन्दक और पापोत्तेजक से योग्यता आज त है। बचने की कोशिश करेगा। ४ व्रती ___ इस प्रकार जो प्राणरक्षकवती, - जो प्राणघात अर्थघात और विश्वासघात अचौर्यव्रती (ईमानदार) और सत्यवादी बनता है इन तीन पापों का त्यागी है वह बनी है। इन वह चौथी श्रेणीवाला अर्थात व्रती है। पापों का विवेचन विस्तार से किया गया है। ५ मील प्राणघात तेरह प्रकार का बतलाया था। सभी जो व्यभिचार से दूर रहता है वह मशील तरह का प्राणघात पाप रूप नहीं है। साधक है । व्यभिचार के कई रूप तो ऐसे हैं जिन्हें वर्धक न्यायरक्षक सहज भागयज भ्रमज आरम्भज सुशील होने के पहिले ही छोड़ देना चाहिये। स्वरक्षक इनका त्याग जरूरी नहीं है। प्रमोदज वलात्कार घोर हिंसा है प्राणघात है, परस्त्रीगमन अपबाद रूप में कभी हो सकता है पर उससे भी चोरी है इसका त्याग तो व्रती होने पर या बचने की पूरी कोशिश करना चाहिये । बाकी अभ्यासी होने पर ही कर देना चाहिये बल्कि अविवेकज बाधक तक्षक और भक्षक घात का बलात्कार पाप तो ऐसा है जो साधारण नागरिक त्याग करना जरूरी है। भी नहीं कर सकता इसलिये जो सदृष्टि है वह Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याण पथ तो ऐसा पाप कर ही नहीं सकता । सशील होने के है वहां मांस का त्याग करना ही चाहिये । लिये असहचरगमन, वेश्यागमन. अप्रमाणित प्रश्न-रामकृष्ण इमा बुद्ध मुहम्मद अ सहचरगमन भी छोड़ना जरूरी है । महामाओं ने मांस--सेवन किया था पर इन ६ सदभागी जीवन- विकास काफी ऊचे दर्जे का था जब मांस और मय का त्याग करनेवाला सद्भोग इस श्रेणी विभाग के अनुसार वे ट्रां श्रेणी कहलाता है । भगवती के उपांग के प्रकरण में भी नहीं थे । वास्तव में उन्हें किस श्रेणी इसका विवंचन किया गया है उसके अनुसार इन माना जाय ? दुर्भागों का त्याग करना चाहिये । उत्तर-यहां जो बारह श्रेणियाँ बनाई गई प्रश्न-बहुत से लोग कुल परम्परा से ही उनमें जो बाह्याचार का विभाग बनाया गया मांस और शराब के त्यागी रहते हैं वे बिना वह आज की दृष्टि से है। मानव समाज क्रम प्रयत्न के ही इस श्रेणी में आजायगे और बहत विकसित होता जा रहा है अथवा उसे क्रम से लोगों की परिस्थिति ऐसी रहती है कि व मांस विकसित होना चाहिये । इसलिये ऐसी बहुत मद्य का त्याग नहीं कर सकते उनके यहां का बातें हो सकती है जो पहिले के महात्माओं हवापानी आदि उन्हें जिन्दा न रहने देगा तब वे भी नहीं थीं और आज के साधारण व्यक्ति में जीवन का ऊंचा से ऊंचा विकास करके इस छट्टी पाई जा सकती हैं । किसी व्यक्ति की मह श्रेणी में न आपायेगे । तब इन श्रेणियों का जीवन जानने के लिये उसके देशकाल का विचार जरू के विकास से क्या सम्बन्ध रहेगा ? है । जब समाज के अधिकांश लोग मांस खाते उत्तर-केवल मद्यमांस न खाने से कोई उट्टी तब के रिवाज के रूपमें ऐसे व्यक्ति भी खाते में श्रेणी नहीं पा सकता। इसके लिये पहिली पांच रहते हैं जो अन्य दृष्टियों से काफी ऊंचे दर्जे श्रेणी में उत्तीर्ण होना आवश्यक है। हां, जीवन- संयमी हैं । ऐतिहासिक व्यक्तियों का विचार क विकास के अनेक रूप हैं जो जिसको पाटे वही समय हमें ऐतिहासिक परिस्थिति का विचार कर अच्छा । पांच श्रेणियों में उत्तीर्ण न होनवाला चाहिये। अगर सद्भोगी है तो किसी अंश में वह अच्छा ही फिर एक बात और है । जैसे अनेक विद है। हां वह छट्ठी श्रेणविाला नहीं है। पीठों का पाठ्यक्रम जुदा जुदा रहता है उन जो लोग मांस मद्य के लिये विवश हैं इसके हो सकता है कि कहीं कोई पुस्तक नीची क बिना उनका जीवन ही नहीं टिक सकता वे अप- में पढ़ा दी गई हो और दूसरे विद्यापीठ में ऊं वाद रूपमें कुछ सेवन कर सकते हैं । वे इसे कक्षा में भी न पढ़ाई हो पर वहां कोई दस व्यसन न बनायेंगे इन्द्रिय लोलुपता के कारण योग्यता कराई गई हो। तब वहां किसी एक कित इसका सेवन न करेंगे । पर ऐसी आवश्यकता को कसौटी बनाकर ही विद्वान अविद्वान शीतकटिबंध तथा मरुस्थल आदि के खास खास परीक्षा नहीं की जा सकती। इसी प्रकार सि स्थानों पर ही हो सकती है वहीं इसके अपवाद मांस-भक्षण आदि को लेकर ही योगी अर्य का विचार किया जा सकता है । जहां अन्न सलभ संयमी असंयमी की परीक्षा नहीं की जा सकती Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२३ सत्यामृत - - मांसभक्षण करते हुए भी किपी में अकषायता उपांगो में किया गया है उसके अनुसार अ विवेक लोककल्याण आदि के दूसरे रूप इतने हों करना चाहिये। कि उसका जीवन विकास मांसभक्षण न करनेवाले ८र्भािर बहुत से मनुष्यों से भी महान हो । अतिसंग्रह न करनेवाला नितिग्रही . यही कारण है कि राम कृष्ण महावीर बुद्ध कहलाता है । निरतिग्रह और अतिग्रह का ईसा मुहम्मद आदि महात्माओं की तुलना सिर्फ चन पहिले किया गया है । मनुष्य को । खानपान सम्बन्धी नियमों से ही नहीं की जा निर्वाह के लिये कुछ न कुछ इन्तजाम करन सकती । उनके देशकाल पर विचार करते हुए पड़ता है उसके लिये छः सूचनाएँ निरतिर उनके स्वार्थत्य ग लोककल्याण आदि का प्रकरण में बतलाई गई हैं उनके अनुसार । विचार करना पड़ेगा तब उनकी महत्ता ठीक रखने के सिवाय और तरह से सम्पत्ति संग्र टीक समझी जा सकेगी। .. करना चाहिये। ____ आज जो यहां बारह श्रेणियां बनाई जाती ९दिव्याहारी हैं वह एक विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम की तरह अतिभोग न करनेवाला दिव्याहारी क एक विश्वचारित्रालय का आचार-क्रम है। आज है। अतिभोग का स्वरूप निरतिभोग के : के और खासकर यहां के मनुष्यों को इस विश्व में किया गया है। चारित्रालय से इस आचारक्रम के अनुसार पदवी १० साधु लेना चाहिये । पर इसी माप से ऐतिहासिक महा- जो व्यक्ति अपनी जीवन और अपनी र पुरुषों को न मापना चाहिये । लोककल्याण के लिय अर्पित कर देता है, असली संयम स्त्रपरकल्याण की दृष्टि से लिये या अपनी संतान के लिये धनसंग्रह अपने जीवन को अधिक से अधिक पवित्र और लिये अपनी सेवाओ का मूल्य नहीं लेत उपयोगी बनाना है इसके लिये अनेक तरह के साधु है । बाह्याचारों का पालन होता है । व्यवहार में हमें पहले की नौ श्रेणियों का पालन कर उनका खयाल रखना पड़ता है पर व्यापक दृष्टि उसका जीवन सदाचारमय पवित्र तो होन से विचार करते समय हमें बाह्याचारों के आवरण है साथ ही विशे - रूपमें स्वापर कल्याणकारी के भीतर घुसकर असली संयम देखना है। पड़ेगा । बाह्याचारों से हमें सिर्फ व्यवहारोपयोगी प्रश्न-क्या साधु की परिभाषा इतनं प्रमाणपत्र मिल सकता है । सद्भोग आदि के विषय काफी है। क्या यह बताना जरूरी नहीं है कि में इसी दृष्टि से विचार करना चाहिये। कैसे कपड़े पहिने, गृहस्थ रहे या संन्यासी ७ सदाजीवक चले या सवारी पर, भोजन बगैरह पकाये य जो छः प्रकार का दुर्जन नहीं करता, पकाये, रुपया पैसा रक्खे या न रक्खे, सा ईमानदारी से आजीविका करता है वह सदाजी- लिये इन सब मर्यादाओं का होना क्या । वक है । सदर्जन दुरर्जन का विवेचन भगवती के नहीं है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ [४२४ - - - उत्तर-साधुता के लिये इनमें से कोई हैं उनका जो विशेष रूपमें पालन करता है यह मर्यादा निश्चित नहीं की जा सकती, हां साधु- तपस्वी है । संस्था के लिये कोई न कोई मर्यादा बनाई जाती साधु जीवन में किसी न किसी रूपमें तपकी है पर इन मर्यादाओं में देशकाल पात्र के थोड़े आवश्यकता होती है पर साधुता को बढ़ाने के थोडे परिवर्तनों से परिवर्तन होता है इसलिये लिये और योगी बनने के लिये तपकी विशेष साधु संस्था के लिये भी सामान्य रूप में कोई जरूरत है जिससे वह विशेष ज्ञानी विशेष जनमर्यादा नहीं बन सकती । हो, जब जिस प्रकार सेवक और विशेष पवित्र और विशेष रूप से सन्तुष्ट की साधु संस्था की जरूरत होगी वैसी मर्यादाएँ और सूखी बन सके। उस के लिये निश्चित की जायेंगी। तप का वर्णन भगवती की विशेष साधना साधुता की बात आचार कांड से सम्बन्ध नामक अध्याय में किया गया है। रखती है पर साधु संस्था की बात व्यवहार कांड १२ योगी से सम्बन्ध रावनी है इमलिये साधु संस्था के ग्यारह श्रेणियों में जो कमी रह जाती है विषय में यहां विशेष कुछ नहीं कहा जा सकता। वह योगी के जीवन में पूरी हो जाती है। योगी सधुमस्या, जन-सेवा के कार्य के लिये या में विशेषता यह है कि वह अवस्था-तमभात्री भी किसी ग्वास कार्य के लिये एक संगठित उद्योग है होता है। उसके विषय में यह कहा जा सकता इसलिये माधुमस्था के मदस्यों को उस साधुसंस्था के नियमों का पालन करना ही चाहिये । पर जो विपन बिरोध उपेक्षा मिलकर कर न सके साहसका नाश । साधु मंगठन में नहीं है अपने तरीके से या किसी कर न सकें असफलताएँ भी, कार्यक्षेत्र में उसे निराश ।। दृसरे तरीके से जन- सेवा करता हुआ पवित्र १ जीवन बिता रहा है वह उस संगठन के नियमों का दृष्टिकांड के योगदृष्टि अध्याय में चारयोरें पालन न करता हुआ भी साधु हो सकता है। का विवेचन किया . गया है और यदि वह सदाचारी है और कम से कम लेकर अधिक लक्षण दृष्टि अध्याय में योगी के पांचचिन्द्रों से अधिक देता है तो वह साधु है। का विस्तार से विवेचन किया गया है साथ ही यह भी हो सकता है कि कोई किसी साधु- उसा अध्याय के अन्त में योगी की तीन लब्धियों संस्था के नियमों का पालन तो कर रहा हो पर का विवेचन किया गया है उस सब विवेचन से साधु न हो क्यों कि उस के जीवन में उतनी समझ लेना चाहिये कि योगी का जीवन कैसा पवित्रता और निस्वार्थता न आ पाई हो । इसप्रकार होता है और कितने तरह का होता है। साधुसंस्था के संगठन में नियमों की अनिवार्यता उस प्रकार का योगी जीवन ही आदर्श रहने पर भी साधता के प्रकरण में उनपर जोर जीवन हैं और जनसमाज में उस प्रकार के योगियों का हो जाना ही मानव समाज का चरम नहीं दिया जा सकता। ११ तपस्वी विकास है। पहिले जो पांच प्रकार के तप बताये गये इस प्रकार कल्याण-पथकी हीष्टे से प्राणियों Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत के चौदह भेद होते हैं । पहिले दो तरह के प्राणी चौदहवें वर्ग में पहुँचा हुआ प्राणी जीवअर्थात् गर्तस्थ और भूमिस्थ तो कल्याण पथ में मुक्त है । मरने के बाद जो कुछ ऊंचा से उँचा ही नहीं हैं। सद्दृष्टि से कल्याण पथ स्थान कहा जा सकता है । या कहा जाता है वह शुरू होता है और योगी जीवन कल्याण पथ में स्थान योगी को ही मिल सकता है। वैकुण्ठ मोक्ष, सबसे आगे है। योगीको भगवान सत्य और भगवती ईश्वर-मिलन ब्रह्ममाप्ति आदि सत्र- योगीके ही हाथ अहिंसा का पूरा उपासक, भक्त, सेवक, पुत्र आदि में आसकते हैं । जब तक वह जीता है तबतक कह सकते हैं। उससे जगत् का कल्याण होता है और उसका ___ मानव जीवन को पाकर जो गर्तस्थ है वह भी कल्याण होता है । वह कर्म करते हुये भी बड़ा-से-बड़ा अभागी है और जो भूनिस्थ है, मनुष्य कर्म से लिप्त नहीं होता, हर तरह की गरीबी में होकर भी कल्याण पथ पर नहीं चलता वह आंखें रहते भी वह परमसुखी रहता है । इए भी अंधा है। इसलिए हरएक आदमी को आच रस्थान के इन चादह स्थानों में जो कम से कम सदृष्टि तो बनना ही चाहिये । बारह श्रेणियाँ हैं उन में से अनेक श्रेणियों के पर किसी भी श्रेणी में संतुष्ट होजाना अनेक नियम ऐसे हैं जो साधारण नागरिक के ठीक नहीं। सदा आगे की श्रेणी में बढ़ने की भी आवश्यक हैं । जैसे झूठ बोलना आदि का-त्याग उमंग होना चाहिये, न बढ़ पाने का खेद होनी चौथी श्रेणीमें कराया गया है व्यभिचार का त्य ग चाहिये । पूर्ण धर्म का कोई पालन कर सके या पाचवीं अंगी में कराया गया है प्रायश्रित विनय न कर सके पर उसकी अच्छाई का विश्वास उसे आदि तप ग्यारहवी श्रेणी में बतलाये गये हैं, होना चाहिये। और अच्छाई के विश्वास का चिन्ह इसका यह मतलय नहीं है कि उन श्रेणियों में यह है कि उसके पाने की लालसा हो, प्रयत्न हो, पहुँचने पर ही उन नियमों का पाटन करना न पाने का खेट हो। चाहिये । बहुतसी श्रेणियों के बहुत से काम इन बारह श्रेणियों में अभ्यासी तक की तीन नागरिकता की साधारण योग्यता में शामिल हैं। श्रेणियाँ जघन्य हैं । व्रती से दिव्याहारी तक छः जैसे बाजार के उतार चढ़ाव की बातें और श्रीणयाँ मध्यम हैं और साधु तपस्वी योगी की अर्थ-शास्त्र के बहुत से सिद्धान्त मेट्रिक के बाद तीन श्रेणियाँ उत्तम हैं। हरएक मनुष्य को कोशिश अर्थ-शास्त्रके विद्यार्थी को पढाये जाते हैं पर करना चाहिये कि जीवन में कभी-न-कभी वह इसका यह मतलब नहीं है कि जो अर्थ शास्त्र उत्तम श्रेणी तक अवश्य पहुँच जाय और जीवन का विद्यार्थी नहीं बनपाया है वह बाजार की के अन्त तक उसी श्रेणी में रहे। मामूली बातों से परिचित न हो । कोई यह बहाना बारह श्रोणयाँ और गतेस्थ भूमिस्थ ये दो बताये कि मैं ते। अर्थ-शास्त्र का विद्यार्थी नहीं हूं भेद इस प्रकार इन चौदह भेदोंको आचारस्थान, इसलिये बाज़ार में से सौदा नहीं लासकता तो संयमस्थान, गुणस्थान, आचारवर्ग आदि उसे पागल ही कहेगे, इसी प्रकार कोई यह कहे कहते हैं। कि मैं तो अमुक श्रेणी में नहीं हूं इसलिये. मुझ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याण पथ - से ईमानदारी का व्यवहार नहीं हो सकता तो दूसरी अर्थात् सामाजिक श्रेणी की प्रतिज्ञा उसे भी पागल कहा जायगा। ___ या दीक्षा जनता के समक्ष ही लेना चाहिये क्योंकि शी, प्रामाणिकता, विनय, शिष्टाचार स्वा- उसका सम्बन्ध बहुत सी सामाजिक बातेंसे ध्यय आदि ऐसे कर्तव्य हैं जिनका पालन हर है। जनता के सामने दीक्षा लेने से जनता पर एक को करना चाहिये । भले ही उस ने निय- अच्छा प्रभाव पड़ेगा, सामाजिकता बढ़ेगी और मानुमार किसी श्रेणी को ग्रहण किया हो या न अपने में शिथिलता न आने पायगी। किया हा या सिर्फ नीची श्रेणी को ग्रहण अभ्यासी श्रेणी की दीक्षा नहीं होती, वह किया हो। अपने ही आप आचरण करने की चीज़ है। यहां जो श्रेणी-विभाग बनाया गया है व्रती की दीक्षा लेना चाहिये । उसके दो कारण हैं- पहिला यह कि व्यवस्थित सुशील बनने की प्रतिज्ञा गुरु के सामने रूप में वह क्रम विकास कर सके। इसी बात लेली जाय तो काफ़ी है। यह कि व. सदाचार का पालन कर्तव्य समझकर सद्भोगी सदा जीवक की दीक्षा जनता के करने लगे। कोई देख वाला हो या न हो, सामने विशेष उपयोगी है। राज्य से और समाज से दंड मिलने का भय हो निर्भार की दीक्षा गुरु के समक्ष या अपने या न हो, १! वह अपने सदाचार का पालन आप लेलेना चाहिये। अवश्य करेंगा हो सकता है कि किसी दिन सारी दिव्याहरी की दीक्षा भी अपने आप या राज्यसत्ता उसके हाथ में आजाय, उसको दुराचार गुरु के समक्ष लेलेना चाहिये। का दंड न दिया जा सके, या ऐसा अवसर हो साधु-दीक्षा कुछ विशेषरूप में जनता के कि जहाँ पर किये गए दुराचार आदि को कोई समक्ष होना चाहिये । प्रमाणित न कर सके, तब भी वह दुराचार का तपस्वा का दाक्षा तपस्वी की दीक्षा अपने आप या गुरु के सवन न करेगा; मतलब यह कि सदाचार उसका समक्ष लेलेना चाहिये। स्वभाव, या आदत बन जाना चाहिये । अंगी में योगी की कोई दीक्षा नहीं होती। अने का यही मतलब है। विशेष गक्तियों को कोई भी दक्षिा लेभे ___हां, यह हो सकता है कि श्रेणी में आने की ज़रूरत नहीं है। जिस की इच्छा हो वह का भान रहने के लिये अगर कभी शिथिलता किसी भी श्रेणी की दीक्षा जनता के समक्ष ले आवे तो जनता की गाड़ी का खयाल उस में सकता है । ऊपर जो सूचनाएँ दी गई हैं वे उपशिथि त न आने दे । इसलिये खास खास योगिता की दृष्टि से साधारण सूचनाएँ हैं, निश्चित श्रेणियों की प्रतिज्ञा वह जनता के सामने ले। विधान नहीं । जनता को भी उसके श्रेणी-ग्रहण से व्यवहार जनता चाहे तो पिछली दस श्रेणियों का करने में सुभीता हो सकता है। उपाधि के रूप में उपयोग हो सकता है। सद्दृष्टि की तो साधारण सूचना काफ़ी है। अपनी दृढ़ इच्छ', विवेक, स्वपर-कल्याण Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत [ ४२७ की भावना, और सामाजिक सहयोग से प्रत्येक कि ज्ञान की दृष्टिसे भी जो विकास होता है मनुष्य को कल्याणपथ में आगे बढ़ना चाहिये । उसका सम्बन्ध इन चौदह आचार-स्थानों से कैसा वही स्वर्ग युग होगा जब संसार कल्याण- है। ज्ञानको दृष्टि से हम प्राणियों के दस भेद करसकते पथ के पथिकों से भरजायगा। हैं। १ अबोध्य, २ अज्ञानी, ३ बहिर्जानी, ४ बहिप्रश्न-बारह श्रेणियों या चौदह स्थानों दृष्टा, ५ छायाज्ञानी, ६ सुतोधिज्ञ, ७ अंशदृष्टा, के वर्णन से क्रम विकास को समझने में सुभीता ८ बोधित बुद्ध, ९ स्वयंबुद्ध, १० तारक बुद्ध । हो गया पर साधारण साधु और ऐसे विशेषज्ञानी १-अबोध्य उसे कहते हैं जिसमें कल्याणपथ साधु जो अपने ज्ञानबल से दुनिया का बहुत को समझने की योग्यता नहीं है । अधिकांश बड़ा कल्याण कर जाते हैं, तीर्थंकर पैगम्बर पशुपक्षी आदि इस श्रेणीमें आते हैं । मसीहा बनकर मानव समाज में आध्यात्मिक और २- अज्ञानी उसे कहत हैं. जिसे कल्याणपथ सामाजिक क्रान्ति कर जाते हैं, उनका श्रेणियों में को जानने का अवपर ही नहीं मिला. नगि खास स्थान होना चाहिये । झान की दृष्टिसे भी मिला, न सत्संगति मिली। तो जीवन का विकास होता है, उसका उल्लेख ३-बहिनी वे हैं जो कल्प ण पथ को यहाँ क्यों नहीं ? नहीं जानसके पर स्वार्थ और विषयों से सम्बन्ध उत्तर-संयम के लिये जो आवश्यक ज्ञान है रखनेवाली बहुत सी बातें जानते हैं । ये बातें उनका साधारण उल्लेख सदृष्टि श्रेगी में है ही उनने अनेक लोगों के ग्रन्थ पढ़कर या बातें और योगी के चिन्होंमें भी इसका उल्लेख है। सुनकर सांखी हैं । यहि न बुरी चीज नहीं है तपस्त्री की श्रेणी में भी स्वाध्याय नामका तप पर कल्याणपथ के ज्ञान के बिना वह ऐसा है पहिला तप बताया गया है। संयम का विकास जैसा प्राण के बिना शरीर। होगा कल न कुछ ज्ञान का विकास होता ही ४-बहि दृष्ट। वह है जिसने अपने अनुभव है. इसलिये संयमस्थानों में ज्ञान का विकास भलग से बहिर्ज्ञान की खोज की है और बहिनि के बनाने की जरुरत नहीं है । दूसरी बात यह है कि रहस्य को अपने अनुभव में लाया है । भौतिक कोरी जानकारी बढ़ने से मनुष्य का वास्तविक विकास विषयों के अविष्कारकों का ज्ञान इसी श्रेणी का है। नहीं है। जब संयम आजाता है तब उसके ५-छायाज्ञानी वह है जिसने कल्याणपथ का अनकल ज्ञान अवश्य होता है पर ज्ञानके होने से ज्ञान शास्त्रों को पढ़कर या ज्ञानियों के उपदेश संयम के होने का नियम नहीं है । वैज्ञानिकता सुनकर पालिया है पर उसका मर्म नहीं समझा है, से भरा हुआ असंयमी जगत नरक होगा जब कि इसलिये उसके जीवन पर उसका विशेष असर थोडे ज्ञानवाला संयमी जगत स्वर्ग से बढ़कर होगा भी नहीं हुआ है । इसलिये कहना चाहिये कि वह इसलिये जीवन-विकास में संयम को ही महत्व दिया कल्याण पथका ज्ञान नहीं पासका, उस की छाया गया है। पासका। फिर भी यहाँ इतनी बात बतलादी जाती है ६-सुबोधित वह है जिसने कल्याण का Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ [५२८ - - ज्ञान शाख आदि से पाया है और उसका असर देता है उस मार्ग पर चलकर दुनिया को आगे की भी उसके जीवन पर हुआ है वह किसी न किसी तरफ खीचता है । वह दुनिया का तारण करता भंश में कल्याणवथ पर चला है या चलने को है दुःख समुद्र से पार करता है इसलिये वह उत्सुक हुभा है । पर जिसे पूर्ण ज्ञानी नहीं कह तारक बुद्ध कहलाता है। सकते। स्वयंबुद्ध की अपेक्षा इसके ज्ञान में यह ७-अंशदृष्टा वह है जिसने कल्याणपथ के विशेषता पैदा होजाती है कि यह कल्याणपथ ज्ञान का अंश अपने अनुभव से पाया है पर युग की अनेक व्यावहारिक कठिनाइयों और उनके हल के अनुरूप जितना ज्ञान चाहिये उतना ज्ञान करनेके उपायोंसे सुरिचित होजाता है । तीर्थकर नहीं पा सका, दृष्टा होने से उसके जीवन पर पैगम्बर आदि महात्मा तारक बुद्धकी श्रेणी में ही उसका अपर हुआ है। भाते हैं। - ८ बोधिन बुद्ध वह है जिसने शास्त्र पढ़- बहुतसे स्वयंबुद्ध भी ममुक अंशमें तारक होत कर या उपदेश सुनकर कल्याणपथ के रहस्य को के रहस्य को है पर उनकी तारकता गौण और अल्पमात्रा में हैं पर उनकी तारकता गौण आर पूरी तरह जान लिया है और उसके जीवन पर होती है। बोधित बुद् भी तारक होते हैं पर ये उसका पर्याप्त अमर है। मुख्यतासे तारक बुद्धके बताये मार्गपर ही खुद ९-स्वयंबुद्ध यह है जिसने मुख्यता से चलते हैं और लोगोंका चलाते हैं। अपने अनुभव के आधार पर कल्याण पथ खोज स्वयंबुद्ध और बोधितबुद् ध्यानयोगी भी निकाला है उसका अनुभव किया है । इसप्रकार होमकते हैं पर तारक बुद्ध कर्मयोगी ही होता है। अपनी विचार कता और निरीक्षण शक्ति की भले ही उसका कर्मयोगी रूप सन्यासियों सरीखा मुख्यता से पर्याप्त ज्ञानी बनगया है। हो । महावीर बुद्ध ईसा सन्यासी सरीखे रहकर भी प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी अंश में दूमरों से कर्मोगी थे तारक बुद्ध थे। मुहम्मद आदि गृहस्थ बोधित होता है और स्वयं भी कुछ अनुभव और होकर कर्मयोगी और तारक बुद्ध थे। विचार करता है पर यहां मुख्यता से मतलब है। ज्ञान की मुख्यता से जो ये दस स्थान बताये जिसने मख्यता से कल्याणपथ का ज्ञान किसा चौट आचारस्थानों में इस प्रकार आते है । व्यक्ति या शास्त्र से पाया, बढ़ाकर उसे शुद्ध और १ अबोध्य गर्तस्थ पूरा किया है वह बेधित है और जिसने मुझ्यता २ अज्ञानी से अपने अनुभव और विचार से उसे समझा है खोजा है निश्चित किया है वह बहिर्दृष्टा भूमिस्थ - १० -तारक बुद्ध वह है जो स्वयबुद्ध होकर ५ छायाज्ञानी दुनिया के उद्धार के लिये आना जीवन लगादेता सदृष्टि से ६ सुबोधित है और दुनिया सत्यअहिंसामय कल्याण पा तपस्वी तक । अंशदृष्टा सके इसके लिये एक साफ सच्च। मार्ग तैयार कर ग्यारह स्थानों में Mms ३ हिानी , Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२९) सत्यामृत ८ बोधित बुद्ध । __ अवस्थासमभावका यह मतलब है कि उसमें शृङ्गार ९. स्वयंबुद्ध योगी वीर करुणा आदि नाना रस न हों। वह ऊंचे से १० तारकबुद्ध उंचा न्य यविनयी है और हर हालत में अपने • प्रश्न- क्या यह सम्भव नहीं कि बुद्ध कर्तव्य को पूरा करने का ध्यान रखता है, दुःखकी होजाने पर भी मनुष्य योगी नहीं हो। यहां तक कि वासना स्थायी नहीं बनती इन बातों ने उसके व्यक्ति कोई तारक बुद्ध भी ऐसा हो सकता है जो सनमात्र अवस्थासमभाव का पता लग सकता है. दिव्याहारी साधु तपस्वी या योगी न हो। उसने प्रश्न--सुबोधित या अंशहटा योगी क्य मार्ग को पूरी तरह समझा हैं उसके उपर समझने नहीं हो सकता । हो सकता है कि वह ज्ञान में का असर भी हुआ है पर परिस्थितियों ने उसे दिव्या- कम हो पर संयम में इतना बढ़गया हो कि उसमें हारी आदि नहीं बनने दिया है, पूरी तरह अवस्था- योग के भी चिन्: प्रगट हो गये हों तो वः योग समभावी नहीं बन पाया है। जीवन संग्राममें क्यों नहीं ? रहने के कारण व्यक्तिसमभावी भी नही हो पाया उत्तर-ज्ञाननें कम होनेपर भी अगर कोई योगी बनगया है तो समझ लेना चाहिये कि उसने उतर- जो बुद्ध है, जिसने कल्याण पथका असली सत्यके दर्शन पालिये इसलिये वह बोधितबुद्ध श्रेष्ठ और पर्याप्त ज्ञान पालिया है उसका जीवन या प्रत्येक बुद्ध होगया है । बुद्ध होने के लिये यह योगी बने बिना नहीं रह सकता। अन्यथा मानना जरूरी नहीं कि व: पांडित्य में भी संचार का चाहिये कि उसने कल्याणपथ का पूरा या पर्यात बड़ा ज्ञानी है । पांडित्य में कम होने पर भी सत्यज्ञान नहीं पाया। देशकाल की परिस्थिति के कारण दर्शन हो जानेपर वह बुद्ध हो जायगा । इसलिये दिव्याहार वगैरह में कुछ शिथिलता हो सकती है सुबोधित या अंशदृष्टा को योगी होनेपर बुद्ध है पर दियाहार आदि का स्वरूप भी देशकालके कहना चाहिये । अनुसार बनता है। एक तारक बुद्ध को राज्यका भी हर एक आदमी तारक नहीं बनसकता, न संचालन करना पड़ता हो तो उसके दिन्याहार इस बात की जरूरत है, दुनिया में हजारों तारक तपस्वपिन आदि के बाहरी रूममें भी फर्क होगा, बुद्रों की जगह भी नहीं है । स्वयबुद्ध जितन चाहे वह अपनी परिस्थिति के अनुसर दिव्याहारी माधु हो जाय कुछ अड़चन नहीं है पर वे भी अधिक तपस्त्री योगी अवश्य बन जायगा। व्यक्तिसमभाव नहीं हो सकते । बोविन बुद्ध अधिक हो सकते और अवस्थासमभाव के भी असंख्य रूप हैं हैं वे अधिक से अधिक हो इस की जरूरत है। इमलिये सभी बुद्ध एकसे समभावी न हों तो कोई संसार बोधितबुद्धा से भरजाय यही हमारी आश्चर्य नहीं, पर वे पर्याप्त मात्रामें व्यक्तिसमभावी आदर्श स्थिति है। जिमदिन संसार के अधि. और अवस्थासमनाची होते हैं । व्यक्ति सननावका कांश नागरिक ( स्त्री पुरुष ) योगी या बुद्ध होंगे यह मतलब नहीं है कि मनुष्य सज्जन दुर्जन, गुणी उसी दिन समझना चाहिये कि भगवान सत्य और निर्गुण, उपयोगी अनुपयोगी का विवेक न रखे, न भगवती अहिंसा का साम्राज्य स्थापित हो गया। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याण पथ उपसंहार सत्य और अहिंसा में से हम किसी एकको छोड़ नहीं सकते । जहाँ सत्य है वहीं अहिंसा है अ.चार कांड में वैयक्तिक आर सामाजिक जहां अहिंसा है वहीं सत्य है, अगर एक नहीं है जीवन सुधार के बारे में काफी विचार किया गया तो दूसरा भी नहीं है। ये एक ही ईश्वरके दो है। ऊँचे से ऊँवा आध्यात्मिक विकास तथा अंग हैं, एक ही धर्म के दो पहलू हैं। मनुष्य ऊँची से ऊँची सामाजिक सुव्यवस्था का निर्देश का जीवन इन्हीं भगवान भगवनी के चरणोमें लीन यहाँ हुआ है । एक बार अगर हम सामाजिक हो जाय उनकी ओर प्रतिदिन बढ़ता जाय इसी अवस्था में सुधार न कर सकें पर अपना सुधार उसकी सार्थकता है। कर सके तो हम अपनी ऐहिक और पारलौकिक ली और शक्ति इन्हीं की दासिय हैं जहाँ उन्नति कर सकते है। यह भ्रा ने कल देना ये इनकी दासियों नहीं बनी हैं वहीं नरक है चाहिये कि सना ज क संप में आनेस हमारा आ जहाँ ये इनकी दासियाँ बनी हैं वहीं खर्ग है । धानिक पतन होता है। समाज के स में हर एक मनुष्य को इस प्रकार की नई दुनिया आनेपर तो हमारा आध्यातिक पतन प्रगट होत बनाने की कोशिश करना चाहिये कि जिसमें भगवान है, छिपे हुए दबे हुए पतन का पता लगता है, सत्य और भगवती अहिंसा की सच्ची भक्ति होती अपने संयम और सत्य की परीक्षा हाती है, इस हो। जहाँ शक्ति लक्ष्मी सरस्वती और कला ये चारें परीक्षा से डरना न चाहिये । अपने को सत्य का दिव्यमूर्तियां भगवान भगवती के आगे सिर झुकाये भक्त या पुजारी और अहिंसा के अनुयायी या नम्रभाव से खड़ी हों। सेवक बनाकर यथाशस्य परकल्याण में लगना हम अपने भीतरी और बाहरी आचार की शुद्धि चाहिये । इस प्रकार का जीवन ही स्त्र कल्याण से एसा जगत बनासकते है और जगत ऐसा बने पाता है, आत्मशुद्धि करता है मुक्ति वैकुण्ठ या इसके पहिले ही ऐसे जगत के नागरिक बनकर पूर्ण अल्लाह के दर्बार में पहुँचता है। सुग्वी बन मकते हैं। ॥ आचार कांड मंपूर्ण ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द अशदृष्टा अकषायता अक्रोध अगुरु अगौरवमय अचौर्य व्रत अजातपुण्यप्रवृत्ति अज्ञान भय भज्ञानी अञ्जलि अतिथि अतिश्रम अद्वैत भावना अधिक व्याज अधिकार अधिकार भक्त अनामदान अनिष्ट योग अनुज्ञा चोर अनुपपन्न समन्वय अनुमोदन अनृणत्व भावना अन्तःशद जीवन अन्ध भक्ति अरा मनोवृत्ति अ अपायभय अप्रमाणित सहचर-गमन अबाध्य सत्यामृत पारिभाषिक शब्दसूची अभिधा अभ्यास धर्म अभ्यासी पृ. ४२८ १४० २६६ ६९ १३९ ३०७ २२४ १४० ४२७ ३९४ ३९४ १३१ ३७६ ४५ १५१ ४१४ ४५ -३ ११-३ ०-३२३-३२५ ३४ अदार १७ ३९४ १३१ २०६ परीक्षा अमाप विनिमय ५१ ५९ १३५ ३५६ ४२७ जयशोभय अरुचि अर्थ अर्थकामसेवी अर्थमोह अर्थसेवी अर्धपापी 'अर्ध साध अम्पले पशुद्धि अल्पोदार अवसर (दान) अवस्थासमभाव आवकसि अवित्रकेज अघात अविषेक अतथ्य अविवेक अर्थघात अविवेकज घात अविषय दुःख अवैमुख्य अशक्तिक अघात अशुद्ध जीवन अशुद्ध पुण्यप्रवृत्ति अशुद्ध पुण्यी असह चरगमन [ ४३१ ३२८ ४०६ ४०६ ९ २५० १३९ २४० १४२ १४६ २३९ १४६ २४७ ६५ २१९ २०२ २१९ ४११ १२६. ७३-७४ ३०७ ३४० ३०८ २९८ ३४ ३९४ ३०४ २०२ २२६ २२१ ३५२ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दसूची [१३२ - - असाधन भय असाधारणता अहिंसा १३९ इष्टाप्राप्ति १६ इष्टायोग २१३ Mmm 300 Cho ३९४ ९२ १६० om ३३९ आग्रहिणी साधना आघात आतंक भक्त आत्मप्रशंसा आत्मरक्षिणी हिंसा आत्मवाद आदर्शदर्शिनी आनन्दी कर्मठ जीवन आनन्दा कर्मठ विचारक जीवन आनन्द। जीवन आनन्दी विचारक जीवन आरम्भज अतथ्य आरम्भज अर्थात आरम्भज घात आरम्भजा हिंसा आराधना आलङ्कारिक समन्वय आलोचन आशा आशापूरक नासना आचर्य आश्रित आसनरिक्तता आहार ईमान • ३०७ २७९ ईश्वरवाद ३३ ईप्रदुपयुक्त व्यक्तिदेव १५० २५९ उत्थान (विनय) २९१ उस्थित १६५ उत्साह २३९ २७८ उदार २१९ उद्धारक चोर ३ ७-३२३.३२४-३२७ उपकार चोर ३०९ उपकार भक्त ९५४ १५८ उपकारी उपजाति कल्पना ३०७ उपदेश (तप) ३८६ २९७ उपपन्न समन्वय २९१ उपभोग २३८ २३० उपमानक सत्य ३३१ १७ उपमान सत्य उपयुक्त प्राय व्यक्तिदेव २३९ उपयुक्त व्यक्तिदेव ५० उपयुक्त शुद्धि उपयोग चोर ३९४ उपांग ३५० ३९४ उपेक्षिणी साधना २८१ उपेक्षामय धर्मसमभाव उपेक्षा विजय २८८ उभय असत्य उभयलिंगी जीवन www. r m or इन्द्रिय HMMM. इष्टवियोग ३१ उभयलिगा जाम Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यामृत [४३३ उभय शुद्ध जीवन . २०७ उभय सत्य ३३१ उरणचार (उऋणचोर) ३१४-३२१-३२४-३२६ उरण प्रवृत्ति २२२ कोमलता काध क्षणिकलभावना क्षमा २४३ १२९ ११८ ३८८ क्षमायाचना ऋद्धिभक्त २.२२ एकलिंगी जीवन २८३ गच्छत्पुण्यप्रवृत्ति गर्तस्थ गर्भजीवन गुणादेव गुणभक्त गुप्तदान गुरुजन m Wdom गुरूपरोक्षता G ४६. गुरुमूढ़ता कणग्राही चोर ३१३-३२०.३२४-३२६ कर्तत्र परीक्षा करुणा पात्र कर्मठ जीवन १५७ कर्मठ विचारक जीवन १५९ कर्मण्य भावना कर्मयोग ४८-५६ कल्य कलाभक्त १५३ कापटिक अघात ३०६ काम १४२-२३७ कामसेवी कायिक आत्मप्रशंसा २६० कालमोह कालिमा २४६ कि २४६ कुगुरु कुटिल आत्मप्रशंसा ६० कुयाचना ३१७-३२३-३२५-३२७ घातक चोर घृणा घुणामय श्चमसमभाब चिकित्सा चिकित्स्यता चिन्ता १२४ मनचोर ३०९ छलजीविका कुल मोह केन्द्रीकरण २४५ ३६६ २३६-२४५ ४२७ २३९ छाया छायाज्ञानी Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दसूची [ ४३४ जड़जीवन जनसेवक १५६ दंड ३९४ दंड प्रेरित जाग्रत २३९ दाता १०१ दान २८८ दिव्यजीवित २७२ दिव्याहारी ४२-३८९ १७२ ४१९ ४१२ ४६-४०६ २०९ ४२३ २०-३३ जातिमोह जातिसमभाव जीवन घात जीवनसाधना जीवनानन्द जीवार्थ जीवार्थशून्य जीवित जूवा ज्ञानचर्या ज्ञानभक्ति १४१ दुरुपासना १४६ देवभ्रम २०९ ३६७ ३८५ ४९ देवमूढ़ता दैवप्रधान दैववादी द्वैताद्वैतवाद ठगचोर ३१५.३२२-३२४-३२७ धनचोर धर्म तक्षक अतध्य तक्षक अर्थघात ३४१ ३०८ २९९ ३०९ १४२ १४७ १४७ २३४ २८९ १४७ ४२४ तक्षक घात तक्षण तनघात तप तपस्वी तामस भय तामस समभाव तारक बुद्ध तीन वन्दन तेज याग धर्मकामसेवी धर्मकाममोक्षसेवी धर्ममोक्षसेवी धर्मसमभाव धर्मसेवी धर्मार्थकामसेवी धर्मार्थमोक्षसेवी धर्मार्थ सेवा धारा ध्यानयोग ध्येय (दान) सरोधकवासना १२७ ४२८ २४६ १८ ४१२ २३६-२४५ १६-४०६ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ ] नज़रचार नपुंसकजीवन वृ नाट्यभावना नामचार नाममाह नित्यानित्यवाद निन्दक तथ्य निरतिग्रह निरतिभोग निरपेक्ष अघात निरपेक्षदान निरभिमानता निर्भयता निर्मार निर्माण (तपप्रभेद ) निर्लेपशुद्धि निश्छलता निस्तारक न्याय न्यायरक्षक अतध्य न्यायरक्षक घात न्यायविनय पढ़ना ( तप ) परनिन्दा परपुरुषगमन परमजीवित परमस्वार्थी परमोदार न सत्यामृत ३१५-३२१-३२४-३२७ प १७९ २२३ १२७ ३०९ परार्थप्रचा २३९ परिचर्या ९५ परिज्ञापन ३४४ ३७८ ३८२ ३०६ पात्र पररक्षिणी हिंसा परलोकवाद परस्त्रीगमन ४२३ ३८६ २०२ २७० परात्मद्वार परामनोवृत्ति ४१४ पापजीवित २५९ पापजीविका १३५ परिश्रमभय परिषह परिस्थितिपरिवर्तन प्रापप्रधान चरित पापप्रवृति पापसत्य पापी पापीपापभेद पापोत्तेजक तथ्य पारिस्थितिक महत्ता ३९३ ४२० ३३८ २९५ पुण्यार्थपापप्रवृत्ति ६० प्रधान पारिस्थितिक समन्वय पुण्यात्मा पुरः करण पुरुष ३८५ ८० ३५२ २०९ २१९ प्रकृतिद्वार २१९ प्रकृतिप्रधान चरित्र पूछना ( तप) पूर्णजीवार्थसेवी २९१ ९२ ३५२. ३८ ५९ १७० ३९६ ३८९ १४० ३९७ ७३-७४ ४०७ २०९ ३६५ ३४६-३४८ २२६ ३३२ २४७ ६० ३४४ ८५ १८ २२५ ३४६-३४८ २४७ ३९५ १४१ ३८५ १४८ ३८ ३४८ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिदान , प्रतिनिधिपात्र प्रतिविषय (दुःख ) प्रत्युपकार दान प्रबोधिनी साधना • प्रमादज अतथ्य प्रमादज अर्थात प्रमादज घात प्रमाद चोर प्रमादज तथ्य प्रलोभन विजय 981063 प्रशंसा प्रसुप्त प्राण प्राणघात प्राणरक्षण व्रत प्रायश्चित्त प्रेम प्रेम अघात प्रेमदर्शिनी साधना प्रेमपात्र प्रेमानन्द प्रेरणा (दान) फलसत्य म बन्धुजन बन्धुपूज्य समादर बल बलात चार बहिनी बहिर्दष्ट शब्दसूची ३८९ ४०८ बहुजन बदुसत्य ३३ बहुसाधक ४१३. बाधक अध्य २७८ बाधक अर्थघात ३४० बाधक घात ३०८ बाल जीवन २९७ बाल युवा जीवन बाल युवा वृद्ध जीवन बाल वृद्ध जीवन ३१३-३२१-३२४-३२६ ३४२ १३४ ३६५ १६२ २८८ २८७ ३०४ ३८७ ४१-२३६-४४९ ३०४ २८० ४०९ ३६. ४१४ २ ३९४ CA २८८ ३१७-३२३-३२५-३२७ बाह्य शुद्ध जीवन बुद्धि मोतिबुद्ध भक्त जीवन भक्ति भक्ति भय • भक्तिमय धर्मसमभाव भक्तियोग भक्षक अतथ्य भक्षक अर्यघात भक्षक घात भक्षण भगवान सत्य भगवती अहिंसा भय भयभक्त भाग्यज अतध्य भाग्यज अर्थघात भाग्यज घात ४२७ भाषा द्वार ४२७ भाषा मोह भ [ ४३६ ३९४ ३३१ ६५ ३४० ३०८ २९८ १५६ १५६ १५६ १५६ २०४ ४६ ४२८ १४९ २३६-४०० १३५ ८२ ૪૮ ३४१ ३०८ ३०० २३१ १ २१२ २४१ १४९ ३३८ २०८ २९६ ३३३ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३७ ] भिक्षा "मिक्षाचार 'मुक्तदान भुक्तपुण्य प्रवृत्ति “भूमिस्थ भोग "भोगभय भ्रमज अतथ्य " अर्थात 'भ्रमजघात "भ्रमजन्य तरतमभाष * मग्नपरीक्षा मतदान मद्यपान मैन 'ममघात मनसाधना मरणभय महस्वभावना महस्वानन्द महापापी मांसभक्षण मान "मानसिक दुःख मापाचीनमय "मुक्त मुक्तिवाद मूलप्रवृत्ति मृत मैत्री -मोक्ष सत्यामृत म ३.७३ ३१३-३२०-३२२-३२६ ४१३ २२३ ३९९ २३८ ४१३ ३६२ २८८ २८९ १३७ यत्प्रधान ३३८ यश ३०८ युवा जीवन २९७ ८४ २३५ १३८ मोक्षानन्द मोह मोहज अघात - ३६ २४७ "मौनचोर मौनभाषा २०९ २३६ १४२ युवा वृद्ध जीवन योगी रूढिदान * १३० रूपभ्रम रोग रोगभय रक्षण *राजस भय संजस समभाव राष्ट्रभेद सहायक तथ्य रुचि ३५९ सेव २४४ ३३ २५० १४६ ९३ २२२ रौद्रानन्द लक्षणा लघुत्व भावना लब्धि लवसाधक योगी लहरी लाघव (दुःख ) लोकं मूढ़ता ३६ २३९-२४९ *३०७ ३१४-३२१-३२,४-३२ B. ६९. १९६ ४५ १५६ १५६ १६६-४२४ २३१ ३९२ १२७ १०७ ३४३ २३७ ४१३ ७८ ३४ १३८ २४-४१ ३६ ३२९ १३० १३२ ६५ - २४६ २५ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक साधना बेचक दान [ बयो जीवन वर्ण भेद • वर्धक अतथ्य वर्धक अर्थघात वर्धक घात न वस्तु असत्य बस्तु परीक्षा वस्तु सत्य वात्सल्य विश्व विजय विचारक जीवन विचारणा ( तप ) विद्या विधागुरु विधि (दान) विनय विनिमय विनिमय चोर चित् विजय • विभव विभागचोर बियोगभय व शब्दसूची २७७ विरक्ति विरक्तिभय विरोध विजय विवेक विवेक प्रेरित विश्लेषमय सात्विकभय ४१३ १५६. १०३ ३३६ ३०७ २९२ २३१ ३३२ ३०९-३१८-३२३-३२५ विश्वगुरु विश्वहितार्थी विषयानन्द विस्तारण ( तप ) विस्मृत व व्यवहार विस्मृतिचोर वेषभक्त ९ वेषमोइ ३३१ वैकासिक तरतसभाव २३६ वैफल्यदर्शिनी (साधना) १३२ वैमावृत्त्य ( विनय ) १५७ व्यप्रता ३८६ व्यञ्जना ४६ ३९४ ४११ ३९०-४१६ २३१ १३२ ४५ ३११-३१९-३२३-३२५ वृत्तिभेद वृद्धजीवन वेश्यागमन व्यक्तिगुणप्रधान पापचरित व्यक्तिदेव व्यक्तिदोषप्रधान पुण्यचरिव व्यक्तिसमभाव व्यभिचार व्यर्थक्रिया व्यर्य प्रेरित व्यर्थविद्या स्वार्थान्ध व्यवहार पात्र व्याकुलदान नती १३७ २४० १३५ १३२ ६६ शक्ति १७८ शब्दपरिवर्तन ३९२ शब्द भाषा [ ४३८ ३१४-३२१-३२४-३२६ ६९ १७० ३६ ३८६ ६० ११४ १५६ ३५४ १५३ ७४ ८४ २८० ३९५ ३५ ३२९ ३४६ ७६ ३४६ १२३ ३५२ ७०-७१ १७१ ७०-७२ १६७ ४०९ ४१३ ४२१ ४६ ७३-७४ ६९ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३९ } सत्यामृत - - -- - शाख . . . . . . A comc0000ccc . . W . शोक ३५० ४२२ ३४७ शब्दश्लेष चोर ३१४-३२१-३२४-३२६ सत्यसमाज कथा शम ४२० सत्यसमाज वन्दन शारीरिक दुःख ३३ सत्यसेवक कथा ७३ सत्यसेवक वन्दन शिक्षणी.साधना २८१ सत्यसेवकार्पण शुद्ध तथ्य ३११ सत्यसमाजापण शुद्धपुण्य प्रवृत्ति २२६ सत्यार्पण शुद्ध पुण्यात्मा २४७ सदर्जन शुद्ध पुण्यो २२१ सदाजीवक शुद्धि भक्त १५४ सद्दष्टि २४१ सद्भोग शोधक तथ्य ३४१ सद्भोगी श्रद्धापात्र ४०८ सभ्यता श्रम समस्त्रार्थी श्रेष्ठासन (विनय) समाजदापप्रधान न्याक्तिपापचीरत श्लषमय सात्विकभय ३९२ समाजदोषप्रधान व्यक्तिपुण्यचरित स . समाज सुधारक संकल्पजा हिंसा २९१ सम्पर्क भक्ति संकुचित सरलता संघ सर्वजातिसमभाव संघगुरु . ६७ सर्वज्ञ वाद संन्यास योग ५१ सर्वधर्मसमभाव संयोग भय १३८ सहज अतथ्य १६५ सहज अर्थधार संस्कार प्रेरित सहज घात संस्कृति ०९ सहभोम संहारिणी साधना २७८-२८१ सहवेदन सट्टा ३६८ सहिष्णुता सत्य १-३२८ सालिकमय सत्य कथा १०१ सात्तिकसमभाव सत्यमत साधक अतथ्य सत्यवन्दन १०० साधक अर्यघात ४०५ १०१-४०४ ८२.४०३ संग्न २९६ २३८ ४१ ३९२ १२६ .३३५ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दसची - साधक घात .साधना 308 1297 सामाजिक सामूहिक कृतज्ञता 'सारस्वत योग मुख सुनना [तप] सुप्त सुबोधित सुशील 307 169 291 स्वरक्षक अतथ्य 230 स्वरक्षक अर्यघात 423 स्वरक्षक घात 403 स्वात्म द्वार स्वाध्याय 5. स्वाभाविकी हिंसा 20.36 स्वार्थज अघात 385 स्वार्थ प्रधान 162 स्वार्थप्रेरित 427 स्वार्थभक्त 121 स्वार्थभकि 17-416 स्वार्थान्ध 16 स्वार्थी 6. स्वोपमता 2074 239 हठयोग 128 हास्प 173 150 सेवा सौन्दर्य स्वगुरु स्वात्व मोह स्वभोग स्वयं बुद्ध