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अंग है किसी के ऊपर अन्याय अत्याचार हो या और कोई विपत्ति आजाय तो उसका शोक, यह प्रेम का अंग है । मानवसमाज की मूढ़ता दूर करने की चिन्ता, यह प्रेम का अंग है, पाप से भय, और अप्रत्याशित पाप देखकर होने वाला आश्चर्य ये भी विरक्ति के अंग हैं। इस प्रकार की अरुचि आवश्यक है। कोई जननेत्रक विपत्ति में पड़जाय और तुम्हें उसकी चिन्ता शोक न हो और इस निश्चिन्तता और अशोकता को तुम वीतरागना समझो तो यह दंभ या मूढ़ता है। जनसेवा सदाचार आदि में जो जितना महान् है और कार्यक्षेत्र की दृष्टि से अपने निकट है उसके दुःख में हमें उतना ही अधिक शोक चिन्ता होना चाहिये । अन्यथा उससे प्रेम का भंग होगा, द्वेष होगा ।
भगवती की साधना
धारा और लहरी - रुचि या अरुचि जब स्थायी हो जाती है तब उसे धारा कहते हैं और जब अस्थायी होती है तब लहरी । लहरी जीवन्मुक्त योगी अर्हत् आदि में भी पाई जाती है बल्कि लहरी का होना आवश्यक भी है। जीवार्थ जीवन के प्रकरण में बतलाया है। कि आदर्श जीवन वही है जिस में धर्म अर्थ मोक्ष के साथ काम भी हो । काम भी एक जीवार्थ है। यह काम जीवन्मुक्त में भी लहरी के रूप में मर्यादित होता है। हाँ, काम अगर धाररूप में हो तो मोह बन जाने का डर है इसलिये कामधारा से यथाशक्य वचने की कोशिश करना चाहिये | हास्य आगा उत्साह और आश्चर्य ये तो अपने सुख और दूसरों के सुख के लिये आवश्यक ही हैं। इनकी धाराएँ भी बुरी नहीं होतीं। हाँ, जब बहुत लम्बी हो जायँ तो इन में भी खराबी आ जाती है। एक बात को लेकर आप दिन भर हँसते ही रहें तो इसमें कुछ बेहूदापन आ जाता है। हाँ, रुचि जब उसम श्रेणी उसकी धारामें भी की बन जाती है तब बुराई नहीं रहती। जैसे विश्वहित की आशा में मनुष्य जीवन भर कार्य करता रहे, सफलता मिले या न मिले पर आशा न छोड़े, उत्साह-भंग न करे तो यह धारा भी उचित है।
अरुचि की लहरी योगियों में भी होती है पर धारा नहीं होती। जीवन में रुचि को जितना स्थान मिलना चाहिये उतना अरुचि को नहीं । रुचि सुखरूप होती है और अरुचि दुःखरूप | जब कोई दुःख सिर पर आजाता है तब उसे भोगना तो पड़ता ही है पर उस में अरुचि जितनी कम हो और जितने कम समय रहे उतना ही अच्छा । हाँ कोई कोई अरुचि, प्रेम या विरक्ति का अंग होती हैं वह योगी संयमी आदि को भी आवश्यक है। जैसे मांस से घृणा, यह विरक्ति का
किट्ट और काल
इस प्रकार रुचि अरुचि का जीवन में आवश्यक स्थान है। खयाल इतना ही रखना चाहिये कि ये सीमासे बाहिर न होजॉय, प्रेम और विरक्ति की तरफ झुकती रहें, कषायकिट्ट न बनन पाये, न कषाय की कालिमा इन्हें लगने पाये । जब स्थायी हो जाती है तब बाहर से वह दिखाई दे या न दे उसे कि कहते हैं और कषाय का जो क्षणिक आवेग है उसे कालिमा कहते हैं। कभी कभी कषाय किट्ट के ऊपर प्राणी प्रेम की छाया डाल देता है परन्तु इससे कृपाय की बुराई में विशेष अन्तर नहीं पड़ता । भीतरी या स्थायी द्वेषादि जब तक निर्मूल नहीं हो जाते तब तक मनुष्य कितनी ही सतर्कता से काम ले, कि अपना प्रभाव दिखला ही देती है । हम मेनने हैं कि हमने तो ऐसा सद्व्यवहार किया फिर भी इसका बदला हमें क्यों नहीं मिलता ! पर बात यह है कि जहाँ का है वहाँ प्रेम की