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________________ भगवती अहिंसा ३- आलसी जीवन बिताने के लिये निवृत्ति न लेना चाहिये । संन्यासी होने से कमानः खाना न पड़ेगा कुछ काम का बोझ अपने ऊपर न रहेगा इसलिये निवृत्त होना पाप है । ४ - पूजा सन्मान आदि के लिये निवृत्ति न लेना चाहिये । प्रत्येक मनुष्य को अपनी योग्यता और उस के द्वारा की जानेवाली सेवा, सेवा के लिये किया गया त्याग इन के अनुसार ही पूजा सन्मान की आशा करना चाहिये । निवृत्ति आदि का दंभ दिखाकर पूजा सन्मान की लूट करना एक प्रकार की डकैती है। ५- अपने जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये कुछ न कुछ प्रवृत्ति अवश्य करना चाहिये । कपड़ा पहनना परन्तु ची कातना या और किसी तरह से सूत निकालने को पाप समझना, रोटी खाना पर रोटी पकाने को पाप समझना अनुचित है। हाँ, यह हो सकता है कि मनुष्य सुविधा की दृष्टि से कोई एक उपयोगी काम चुनले और उस के बदले में कोई दूसरा काम कराले पर कुछ न कुछ प्रवृत्ति आवश्यक है । रोग वृद्धावस्था आदि के कारण न कर सके यह दूसरी बात है । ६- प्रवृति ऐसी करना चाहिये जिससे या तो अपनी किसी ज़रूरत की पूर्ति हो अथवा दूसरे की ज़रूरत की पूर्ति हो । दूसरों का ऐसा काम करना, जिससे उन्हें कुछ लाभ नहीं है, और इस प्रकार प्रवृत्ति का खाना भरना ठीक नहीं । निरर्थक प्रवृत्तियों से बचना चाहिये। यह बात दूसरी है कि किसी भले कार्य में असफल होकर भी बार बार प्रयत्न किया जाय । [ २१६ अधिक अच्छे वि-कल्याण के कार्य में लगाना चाहिये । ७- मन वचन काय की जितनी प्रवृत्ति प्रयत्न या अप्रयत्न से होती हो उसे अधिक से ८-- दूसरों का उपकार हो या अपने जीवन का बोझ उनपर न पड़े इस के लिये अधिक से अधिक प्रवृत्ति करके भी जहाँ तक बन सके प्रति कम करना चाहिये । इन सूचनाओं से पता कर के दो पहलू हैं प्रवृत्ति और निवृत्ति, जो दोनों पहलुओं का अधिक से अधिक उचित समन् कर सकते हैं वे ही आदर्श सदाचारी है । इस दृष्टि से जीवों की चार श्रेणियाँ बनतीं हैं । १- अशुभ- निवृत्त-शुभ-प्रवृत्त, २ उप-निवृत्त, ३ उभय- प्रवृत्त, ४ शुभ- निवृत्त अशुभ प्रभु । इनमें पहिली श्रेणी आदर्श है दुसरी उत्तम है, तीसरी मध्यम है चौथी जघन्य है। तीसरी श्रेणी से दूसरी श्रेणी उराम है इससे निवृत्ति की प्रधानता उचित प्रवृत्ति की आवश्यकता भी मालूम होती मालूम होती है पर वह आदर्श नहीं है इसलिये | इसलिये आचार प्रतिनिवृत्ति का समन्वय होना चाहिये। हां, मनुष्य को प्रवृत्ति की अपेक्षा निवृत्तिका कार्य अधिक करना है। और पहिले करना है इसलिये निवृत्ति पर जोर दिया गया और अहिंसा सरीखा निषेध परक शब्द आचार के लिये रक्खा गया। प्रवृत्ति की ज़रूरत प्रश्न- प्रवृत्ति कितनी भी शुभ हो उस के साथ अशुभ का अंश मिला ही रहेगा। दान देना शुभ है परन्तु उस का दूसरा प वृद्धि अशुभ है, देनेवाले में वाले में दीनता पैदा होना है इस प्रकार हर एक प्रवृत्ति की काली बाजू रहती ही है। अभिमान और लेने
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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