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सत्यामृत [मा नव-धर्म-शास्त्र]
आचार कांड पहिला अध्याय ( भगवती अहिंमा )
सत्य अचार्य ब्रह्म अपरिग्रह सब नेरी मुसकान । जिसने पाया तुझे न उममें रहा मोह अभिमान ॥ दया प्रेम शम शौच त्याग सब है तेरे ही अंग । तब तक क्रिया न धर्म न जब तक चढ़ता तेरा रंग ।।
इश्वर के दो पहल कल्पना लड़ाया करता है, सो यह बुरा नहीं है दृष्टिकांड में भगवान सत्य के रूपमें जिस इस विषय में जिससे हृदय को तृप्ति मिले वही चिद्रह्म का उल्लेख हुआ है उसके दो अंश अच्छा । फिर भी यह अच्छा होगा कि हम ऊँची एक को हम विचार कह सकते हैं स उची समान रचना का सहारा लेकर ईश्वर के दूसरे को आचार । यहाँ विचार का अर्थ सब रूप की कल्पना करें जिससे हमारा सामाजिक अनुभव तर्क आदि हैं और आचार का अर्थ समस्त आदर्श ऊँचा हो। यम नियम और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली अन्तः
ईश्वर का लिंग शुद्धि बहिःशुद्धि है जो जगकल्याण के लिये अधिकांश लोग ईश्वर को पुरुषरूप मानते हैं उपयोगी है । उस व्यापक विचार का नाम भगवान क्योंकि वे समाज में पुरुष को ही अधिकारी या सत्य है और व्यापक आचार का नाम भगवती मनिकाप में देखते हैं शक्तिशादी भी वही माना अहिंसा है । इस प्रकार एक ही ईश्वर दो भागे जाता है । ईश्वर की पुरुषरूप में कल्पना उस . में विभक्त होकर दो रूपों में देखा गया है । इस- जमाने की याद दिलाती है जब मनुष्य पशुबल लिये सत्य अहिंसा के रूपमें परमेश्वर की उपासना में ही श्रेष्ठता समझता था उसी के भग्नावशेष आज करना दो ईश्वर मानना नहीं है किन्तु एक ही भी दिख रहे हैं। ईश्वर के दो पहलुओं के दर्शन करना है।
रमिकों ने ईश्वर को पुरुषरूप में मानकर __ आज भी ईश्वर अज्ञेय है अपनी बुद्धि संस्कृति भी उसके दाम्पत्य का चित्रण किया है पर उसमें समाजरचना के अनुसार मनुष्य उसके विषय में पतिरूप ही असली ईश्वर है नी--ए तो