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सत्यामृत है उनमें एसी भी हो सकती हैं जो भुक्तपुण्य करें तो चोर को दंड दिये बिना छोड़ देना पड़ेगा नष्टपुण्य या अजातपुण्य हों। प्रवृत्तियों के इन क्योंकि न्यायाधीश यही सोचेगा कि अगर मैं दम भेदों में उनकी परीक्षा करने में सुभीता होग। चोर होता तो यही चाहता कि न्यायाधीश निर्णय निकष
मुझे दंड न दे, इसलिये मैं
है चोर को दंड न दूं । इस प्रकार स्वोपमता की प्रश्न- प्रवृत्ति के इन दस भेदों से प्रवृत्तियों
दृष्टि से कर्तव्यनिर्णय करने में न्याय का काम को परखने का काफी मसाला मिला परन्तु इसमें । सन्देह नहीं कि सब में श्रेष्ठ शुद्धपुण्य प्रवृत्ति
ही रुक जायगा और जगत में अंधेर फैल जायगा। है उसी के प्रभाव से या अविरोध से अन्य प्रव- उत्तर-न्यायाधीश के सामने सिर्फ चार ही त्तियाँ भी कर्तव्य में शामिल हो जाती हैं तो यह नहीं है किन्तु जिसकी चोरी हुई है वह भी है । बतलाइये कि उस शुद्धपुण्य प्रवृत्ति को या अन्य उसका विचार करते ममय उसे यह सोचना कतव्य प्रवृत्तियों को परखने की क्या कसौटी है ? चाहिये कि अगर मेरी चोरी होती तो मुझे कैसा अर्थात् कर्तव्याकर्तव्य निर्णय कैसे किया जाय ! लगता इस प्रकार जिसकी चोरी हुई उसे भी
उत्तर--ध्येयष्टि अध्याय में विश्वकल्याण लगता होगा। इतना ही नहीं किन्तु चोरी करने का जो रूप बताया गया है उसमें कर्तव्याकर्तव्य वाले चोरसे पूछा जाय कि कोई दूसरा तेरी चोरी निर्णय की कसौटी भी आ जाती है। उस ध्येय
करले जाय तो तुझे केसा लगे तो चोर भी नहीं की पत्तिं जिससे हो वही कर्तव्य है।
चाहेगा कि कोई उसकी चोरी करले जाय, चोर
भी अपने चोर को दंड दिलाना चाहेगा इस प्रश्न- वह कसौटी जरा कठिन है। सब
प्रकार आत्मौपम्य पर विशेष विचार करने से जगह और सत्र समय के प्राणियों के सुखदुःख कर्तव्य का निर्णय हो जायगा। का माप नील करना और उससे अधिक सुख का निर्णय करना जरा बड़े से पंडित का काम
प्रश्न-एक गरीब आदमी के पास सिर्फ है और उसमें बुद्धि को मिहनत भी बहुत होती
एक रुपया है वह किसीने चुरा लिया वह चोर
तो ऐसे न्यायाधीश के सामने उपस्थित किया गया है । कर्तव्याकर्तव्य निर्णय के लिये क्या कोई साल।
जो लखपति है । जब आत्मौपम्य भाव से न्यायातरीका नहीं है जिससे हम समझ सकें कि उस धीश विचार करता है तो एक रुपये की चोरी ध्येय की पूर्ति हो रही है या नहीं !
उसे बहुत मामूल. चोरी मालूम होती है इसलिये उतर- इसका सरल तरीका है स्वोपमता या वह या तो चोर पर उपेक्षा कर जाता है या आत्मीपम्य । जो व्यवहार हम दूसरों के साथ इतना थोड़ा दंड देता है जो उस गरीब आदमी करते हैं वही व्यवहार अगर हम अपने साथ करें के दुःख को देखते हुए पर्याप्त नहीं कहा जा तो हमें कैसा लगे ! अगर हमें भी अच्छा लगे तो सकता, ऐसी हालत में आत्मौपम्य भाव से ठीक ममझो यह कार्य कर्तव्य है अन्यथा अकर्तव्य है। निर्णय कैसे हो सकता है ?
प्रश्न-न्यायाधीश बनकर अगर हम चोर को उत्तर-लखपति न्यायाधीश को एक रुपण सजा देने में, और स्वोपमना मे कर्तव्यनिर्णय सम्पत्ति का लाग्यवाँ हिस्सा है जब कि उस गरीब