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सत्वामृत
दूसरी है कि सात्विक रूप प्राप्त होने पर परन्तु विनय और चापलूसी में अन्तर है। आभिमान को आत्मगौरव कहते हैं । इस शब्द- विनय तप है । चापलूसी पाप । जहां व्यवहार के भेद का कारण उसका फलाफल भी है । अभिमान अनुसार हृदय भी होता है वहाँ विनय है । विनय के द्वारा दमरे के उचित मूल्य का अपलाप में प्रेम होता है-भक्ति होती है, वात्सल्य होता किया जाता है. आत्मगौरव के द्वारा है, छलकपट और ठगने की वृचि नहीं होती। अपने उचित मूल्य का दावा किया जाता है। चापलूसी में मायाचार है, ठगने की वृति है, मात्म-गौरव जब और भी उच्च श्रेणी का होता उसमें व्यवहार और विचार एक दूसरे से मेल है तब उसमें अपने व्यक्तित्व के मूल्य का प्रश्न नहीं खाते। गौण हो जाता है, मुख्य बात यह हो जाती है दूसरों से अगर तुम कुछ लेना चाहते हो कि अमुक गुण का अपमान न होने पावे। तो तुम्हें विनय तप करना ही चाहिये । विनय के जैसे एक तरफ जन-सेवाके नाम पर सर्वस्व अर्पण बिन कदाचित् तुम दुनिया से कुछ छीन तो करने वाला एक व्यक्ति है दूसरी तरफ योग्यता ।
: सकते हो पर पा नहीं सकते। उसमें जो कुछ बादि में कम, किन्तु अमुक वेष के कारण पुजने .
" तुम्हें मिलेगा वह कम से कम होगा और छीना
झपटी के कारण टूटा होगा। अगर तुम में वाला व्यक्ति है ऐसी अवस्था में जन-सेवक के
विनय न हो तो तुम अपने अग्रज से कुछ पा द्वारा वेषधारी की जो उपेक्षा होती है उसमें जन
नहीं सकोगे। अग्रज अपने उत्तराधिकारी को जो सेवक का अभिमान नहीं, आत्मगौरव कारण है। सर्वस्व दे जाता है उसका प्रेरक उत्तराधिकारी का हां, मानव हृदय की वासनाओं के विषय में कुछ विनय है । विनयसे एक प्रकार का तादात्म्य पैदा नहीं कहा जा सकता। हो सकता है कि जहां होता है उससे अग्रज यह समझता है कि उत्तराआत्मगौरव की परिस्थिति हो वहाँ मनुष्य अहंकार धिकारी को जो कुछ मैंने दिया है वह अपने को को पैदा कर ले ऐसी जगह तो वह अभिमानी ही ही दिया है। अगर विनय न हो तो यह भाव कहा जायण । परन्तु इससे अभिमान और आत्म- पैदा नहीं हो सकता। गौरव का भेद लुप्त नहीं होता।
पिता या गुरु अपने पुत्र या शिष्य को हरअभिमान चाहे अहंकार अर्थात् मद के रूप
तरह समुन्नत बनाते हैं क्योंकि वे समझते हैं कि में हो अथवा आत्मगौरव के रूप में, दोनों के
पुत्र या शिष्य की जितनी उन्नति होगी
हमारा स्थान उतना ही ऊंचा होगा। पुत्र या लिये विनय-तप की आवश्यकता है। अहंकार शिष्य के द्वारा विनय के रूप में जब यह विचार जाग्रत न हो जाय और आत्मगौरव को धक्का न पष्ट होता है तब सर्वस्वार्पण के लिये गुरु या लगे इसकी कुंजी विनय के हाथ में है। कौनसा पिता का हृदय लालायित होता है। अगर उन्हें आदमी कैसा है उसके साथ हमारी किस प्रकार यह मालूम हो कि हमारी शक्ति लेकर यह निमेगी इसकी कसौटी विनय है। विनय से हम हमारा प्रतिद्वन्दी होगा या नाम डुबाने वाला होगा जगत को मित्र बना सकते हैं और अविनय से तब वे कदापि उत्तराधिकारी न देंगे। मनुष्य का शत्रु बना सकते हैं।
विकास रुक जायगा।