Book Title: Satyamrut Achar Kand
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

View full book text
Previous | Next

Page 212
________________ कल्याणपथ और दुःख न बढ़ने देने के लिये सरलता एक इन सब अपवादों का ख़याल रखते हुए हमें "ज़रूरी गुण है। क्षमा का अधिक से अधिक उपयोग करना चाहिये। सरलता के लिये अपने मुँह को भी वश में क्षमा न करने से वैर की परम्परा चलती है इससे करने की ज़रूरत है और मन को भी । मुँह को अपने और मानव समाज के कष्ट बढ़ते हैं। हर कोमल बनाने की ज़रूरत तो है ही, पर मन को एक मनुष्य न तो पूर्ण संयमी होता है न पूर्ण कोमल बनाने की ज़रूरत उमसे भी ज्यादह है। ज्ञानी, इसलिये कभी स्वार्थवश, आभिमान वश बहुत से लोगों के मुंह में कोमलता आजाती है या कभी नासमझी से भलें हो जाती हैं। अगर हम पर मन में कोमलता नहीं आने पाती । फल यह एक दूसरे की भलें दर गुज़र न करें तो समाज रचना होता है कि मुँह की कोमलता का फल रुपये में ही असंभव हो जाय । इसलिये न्याय या मानव-जीवन एक पाई से अधिक नहीं होने पाता और उसक की चिकित्सा के लिये कभी कोई कठोर काम लिये उन के मनपर बड़ा जोर पड़ता है । कोम करना पड़े तो उस अपवाद को छोड़कर हमें लता जब मन में होती है तभी वह सप्राण बनती है। अधिक से अधिक क्षमाशील बनना चाहिये । ६-क्षमा--वैर की वासना दिल में न रखना, और इस बात का भी खयाल रखना चाहिये कि दूसरों की भूल सुधारने के लिये सम्भव और सजगता सतर्कता आदि रहने पर भी वैर की उचित अवसर देना, पाप से घृणा रखते हुए भी वासना दिल में न रहे। पापी से घृणा न रखना या उतनी ही रखना जितनी कि पाप से धृणा रखने के लिये ज़रूरी ७ श्रम--शरीर और मन की शक्ति का हो गई हो. क्षमा है । क्षमा जीवन में जितनी उपयोग करना श्रम है। प्रकृति ने हमें जो कुछ दिया है उस हम बिना श्रम के नहीं पा सकते जरूरी है उससे भा ज्यादह उसके पालन में सत और पा भी जाये तो उससे हमारी गुजर नहीं र्कता की जरूरत है । कौन आदमी कितनी क्षमा का पात्र है इसका भी खयाल रखना जरूरी है। हो सकती । पशु-पक्षियों को प्राकृतिक जीवन कभी कभी ऐसा होता है कि हम किसी के दोष बिताने के लिये श्रम करना पड़ता हे फिर मनुष्य दर्गण अत्याचार सहन करते जाते हैं और इस ने तो अपना जीवन काफी साधन-सम्पन्न बनाया ढील से उसके दोष दुर्गुण अत्याचार बढ़ते जाते है उसके लिये तो कई गुणा बौद्धिक और शारीहैं इस प्रकार एक दिन वह इतना उद्दाम हो जाता रिक श्रम चाहिये। है कि अपना और दूसरों का नाश कर बैठता विकास में शारीरिक श्रम की अपेक्षा मानहै । इसलिये कोई अपात्र क्षमा का दुरुपयोग न कर सिक श्रम की कीमत अधिक है पर वह हर बैठे इसका खयाल रखना चाहिये । एक के वश का नहीं है । यों तो हर एक काम . दूसरी बात यह है कि जहां कमजोरी है में मन और शरीर दोनों को श्रम करना पड़ता है वहां क्षमा का असर नहीं होता। वह तो आत्म- पर जिस काम में चिन्तन की स्मरण की मुख्यता रक्षा की एक नीति बन जाती है। इसलिये वहां होती है वह काम मानसिक श्रम कहलाता हमें क्षमा के फल की आशा न रखना चाहिये। है। यह हर एक के लिये नहीं है और यदि है

Loading...

Page Navigation
1 ... 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234