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विशेष साधना-तप
काम न दे तब हम उसका सहारा ले । इसमें गुरुडम नहीं है । गुरुडम है वहाँ, जहाँ मनुष्य वेष, पद आदि की दुहाई देकर भक्तों पर अपनी धौंस जमाना हे ।
२ विद्या गुरु- जिसने अपने को विद्या कला आदि सिखाई हो ।
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३ गुरु-जन - माता पिता आदि । 8 उपकारी - जिसने अपना उपकार किया हो ।
५ जन सेवक-समाज की सेवा करने वाला । इसमें जन-समाज के नेता आदि सभी आ जाते हैं ।
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६ अतिथि - पाहुना, जो अपने घर आया हो । बंधुजन - मित्र और रिश्तेदार आदि । ८ आश्रित - पुत्र, नौकर आदि । ९ बहुजन - कोई भी मनुष्य जिससे अपना कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है ।
१ आसन - ( क ) उत्थान - आने पर या दृष्टिगत होने पर आसन छोड़कर खड़े हो जाना । निस्तारक या गुरु आदि के अपने पास आने पर अपना आसन छोड़कर खड़ा हो जाना चाहिये, अगर वहां दोनों को कुछ देर ठहर कर काम करना हो तो अच्छा आसन गुरु आदि को छोड़कर शेष आसन पर बैठना चाहिये । ( ख ) आसनरिक्तता - पूज्य के आसन पर न बैठना । जैसे न्यायालय में न्यायाधीश ही बैठता है दूसरा नहीं, न्यायाधीश न हो तो उसका आसन खाली रहता है, इसी प्रकार कक्षा में अध्यापक या पाठक का आसन खाली रहता है उसी प्रकार पूज्य व्यक्ति का नियत आसन खाली रखना, उसकी अनुपस्थिति में भी उसके आसन का
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उपयोग न करना आसन विनय है । [ग] श्रेष्ठासन - पूज्य व्यक्ति अगर दृष्टि- पथ में हो या दृष्टिपथ में आने की सम्भावना हो तो उपर्युक्त आसनों में से श्रेष्ठ आसन उसके लिए छोड़कर किसी अन्य आसन पर बैठना । (घ ) केन्द्रीकरण - जहां कहीं बैठने का अवसर आवे वहां इस प्रकार बैठना कि पूज्य व्यक्ति केन्द्र में मालूम पड़े। लोग देखते ही समझ जायँ कि इन में यह व्यक्ति श्रेष्ठ है । (ङ) अवैमुख्य-बैठते समय पूज्य व्यक्ति की तरफ़ पीठ न करना आदि । (च) योग्यासन - जिसके योग्य जो आसन हो उसको वही आपन देना । इस प्रकार आसन विनय के अनेक रूप हैं ।
२ अञ्जलि - हाथ जोड़ना, पैर छूना, साष्टांग नमस्कार करना, सिर झुकाना, सलाम करना, मुसकराना, टेप उठाना, प्रणाम, नमस्कार जयसत्य जयराम जयकृष्ण जयजिनेन्द्र आदि शब्द बोलना, इनके उत्तर में उपयुक्त शब्द बोलना, हाथ उठाकर आशीर्वाद देना, सिर झुकाना आदि सब अञ्जलि विनय है ।
३ अनुमोदन - जहां सत्यासत्य के निर्णय का गम्भीर प्रसङ्ग नहीं है वहां किसी को कोई बात सुनकर 'हां, ठीक है' आदि कहकर उसकी बात का अनुमोदन करना अनुमोदन - विनय है । जिज्ञासा से पूछना बहुत अच्छा है पर अनावश्यक विरोध न होना चाहिये । अभिमानवश किसी की अच्छी बात का भी विरोध कर बैठना अविनय
। पर सुधार की दृष्टि से अपना दोष दिखाने पर भी दोष का अदोष सिद्ध करने की चेष्टा करना भी अविनय है । किसी किसी की आदत बात बात में विरोध करने की होती है यह भी अविनय है । जब सत्य की रक्षा के लिये, लोक