Book Title: Satyamrut Achar Kand
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 190
________________ विशेष साधना-तप [ ३९६ करता है. तो यहां वैयावृत्त्य ही मुख्य है । इस जहां विनय तप है वहां शिष्टाचार आ ही प्रकार वैयावृत्त्य स्वतंत्र तप भी है और विनयका जाता है । शिष्टाचार विनय तप से भिन्न नहीं है अंग भी। आदर और भक्ति के प्रदर्शन के लिये बल्कि वह विनय का शरीर है। जो सेवा की जाती है वह विनय है। बहुत से लोग अपने अविनय या अहंकार . संपर्क-भक्ति-मनुष्य जब अधिक विनय को छिपाने के लिये कहने लगते हैं कि करना चाहता है तब उसके सम्पर्क में आये हुये हम किसी तरह का मायाचार नहीं करते, जैसा पदार्थों का भी वह विनय करने लगता है। उसका मन में होता है वैसा व्यवहार करते हैं, चापलूमी जूता उसका कपड़ा उसका कोई शस्त्रादि उपकरण । पसन्द नहीं करते, आदि। या उसका चित्र आदि का सन्मान करने लगता चापलूसी बुरी है,मायाचार बुरा है, जैसा मनमें है । सम्पर्क में आये हुये पदार्थे में या चित्रादि हो वैसा व्यवहार करना चाहिये पर साथ ही यह भी में उस व्याक्त की स्थापना का भाव होना विनय उचित है कि मन में शिष्टाचार के अनरूप भाव का अधिक मात्रा में प्रगट होना है। आना चाहिये। मनको वश में करना चाहिये । इस प्रकार सात प्रकार का विनय नव यही तो विनय तप है। प्रकार के व्यक्तियों का किये जाने पर विनय तप अगर थोड़ी देर को यह भी मान लियां के त्रेसठ ७४९=६३ भेद हो जाते हैं। जाय कि मन वश में नहीं है तो भी उसे इतने प्रश्न-क्या नौकर चाकर आदि का भी वश में अवश्य रक्खो कि उसकी उच्छखल वत्तियों विनय करना चाहिये। क्या उसके भी हाथ जोडे व्यवहार पर असर न डाल सकें या कम से कम जायँ ! नौकर की, सन्तान की और शिष्य की 'असर डाल सकें। धोखा देने के लिये नहीं. भी क्या सम्पर्क-भक्ति करना चाहिये लेकिन दूसरे के व्याक्तित्व का सन्मान करने के लिये उचा-अवश्य, परन्तु उसके रूपमें अन्तर होगा। शिष्टाचार का पालन अवश्य करना चाहिये । यह निस्तारक के विषय में आसन-विनय का जो रूप विनय तप का एक अंग या साधन है। है वही आश्रित के विषय में नहीं हो सकता। प्रेम, सहयोग, संगठन, विश्वःस, अनसूयत्व, उसके विषय में तो किसी आसन की तरफ गुणादि प्राप्ति, व्यक्तित्व-निर्माण और उससे होने इशारा कर देना ही काफी होगा । हम स्वयं पहिले वाले अनेक लाभ इन सब की दृष्टि से विन्य तप हाथ न जोड़ें परन्तु जब वह हाथ जोडे तब हाथ एक आवश्यक, महान और फलद तप है। जोड़ कर या सिर हिलाकर.. हमें उसका विनय .. ४ परिचयों . .. करना चाहिये । इसी प्रकार. योग्यतानुसार उसके . दूसरों को आराम पहुँचाने के लिये जो सव! चित्रादि का भी विनय किया जा सकता है । की जाती है उसे परिचर्या कहते हैं । बाल्यावस्था व्यक्तित्र आदि की दृष्टि से हर तरह के व्यक्ति का · की असमर्थता, रोग, थकावट, कार्य का अधिक हर तरह विनय किया जा सकता है । इस प्रकार भार, बुढ़ापा आदि कारणों से मनुष्य को परिचर्या विनय के सठ भेद ठीक हैं । कराने की ज़रूरत होती है । एक दूसरे की परि

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