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सत्यामृत
फीकी मालूम होती हैं। इसप्रकार ये ढोंगी भिखारी मुफ्तखोर और दुराचारी बनंत हैं साथही सच्चे भिखारियों के पेटपर मुक्का मारते हैं। करुणादान करते समय हमें इन कुपात्रों से बचना चाहिये ।
प्रश्न - अगर सच और झूठे भिखारियों का पता लगाना कठिन हो तो सभी को दान क्यों न दिया जाय, झूठों को व्यर्थ जायगा पर एकाध सच्चे को ता मिल ही जायगा । झूठे भिकारियों के बहाने अपनी कृपणता छिपाने का मौका तो न मिलेगा ।
उत्तर - यह नीतिकी किसी अंश में ठीक है । अपनी दानशीलता को नष्ट न करना चाहिये, उदार रहना चाहिये । हां, इतनी बात अवश्य है कि कुपात्र को देने से पैसा सिर्फ ये ही नहीं जाता बल्कि पाप भी बढ़ाता है। इसलिये पहिली बात तो यह है कि जहाँ तक हो यह परीक्षा करले कि कुपात्र तो नहीं है, हो तो दान न दे । अगर परीक्षा न हो सके किन्तु बुद्धि का झुकाव पात्र होने की तरफ हो तो दान दे दे । भावुकता के कारण ही दान न देना चाहिये ।
प्रश्न- कई भिखारी बड़े चालाक होते हैं । वे ऐसे मौके पर माँगते हैं जब हम कुछ सम्भ्रान्त आदमियों में बैठे होते हैं जिससे न देने पर हमें शरमिंदा होना पड़े, कई भिखारी इतना परेशान करते हैं कि पिंड छुड़ाने के लिये कुछ देदेना पड़ता है भले ही वे कुपात्र हो । ऐसे अवसर पर अगर कुपात्र - दान है। जाय तो क्या किया जाय ?
उत्तर- कभी कभी ऐसी परिस्थितियाँ आजाती हैं और हमें पिंड छुड़ाने के लिये ऐसा करना पड़ता है। ऐसा कर लेना क्षन्तव्य है कर्तव्य नहीं । इस प्रकार भिवारियों को छल करने या
एक तरह से आततायी बनने के लिये उत्तेजित करना ठीक नहीं । कुपात्र दान न हो पाये इसका विचार रखना ही चाहिये, इसके लिये अगर थोड़ी बहुत लज्जा आदि का कष्ट उठाना पड़े तो उठाना चाहिये । पर दान देने में जिस प्रकार पात्र अपात्र का विचार करना जरूरी है उसी प्रकार
उदार होना भी ज़रूरी | कुपात्र दान से बचने की ओट में अगर मनुष्य ने कंजूसी की तो उसकी कंजूसी दुहरा पाप हो जायगी, एक कंजूसी का
पाप दूसरा दम्भ का पाप ।
४ - प्रेमपात्र - प्रेमपात्र उसे कहते हैं जिसे हम न तो उसकी दयनीयता के कारण न श्रद्धेयता के कारण दान देते हैं । जैसे-यात्रा में कोई भाई हमारे पास बैठे है । हम भोजन करने बैठे और उससे आग्रह किया आइये भोजन करें । उसको अपने पास का भोजन कराया तो वह प्रेमपात्र । यह प्रेम विश्वप्रेम है, मनुष्यता का प्रेम है । इस प्रकार प्रेम पात्र जगत् के सब प्राणी है इसमें ऊँच नीच छोटे बड़े अपने पराये का कोई भेद नहीं है ।
५--व्यवहार--जिनके साथ हमारा सामाजिक सम्बन्ध है और उस सामजिक सम्बन्ध को निभाने के लिये हम कोई दान करते हैं या ख़र्च करते हैं ।
सामाजिक सम्बन्ध कई कारणों से होता है, पड़ोसी होना, एक राष्ट्र या प्रान्त के होना, एक मज़हब या वंश के होना. एक ही धंधे के होना या किसी कारण से जीवन में सहयोग होना आदि अनेक कारण सामाजिक सम्बन्ध के हैं। इस निमित्त से जो हम भोजन कराते हैं दान देते हैं वह एक तरह का विनिमय है । यह समाज -