Book Title: Satyamrut Achar Kand
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 183
________________ '. ३८९ 1. :: . "सत्यामृत - - के लोगों के द्वारा किये गये अपराधों की आलो- इससे प्रायश्चित की सूचना बहुत फैलती है लोगों * चना और क्षमायाचना करते जाय तो सामूहिक का ध्यान जाता है और उनका आत्म-निरीक्षण वैर नामशेष हो जाय । यह कार्य भी एक बड़ी बढ़ता है। . भरी तपस्या है । और उसका फल भी मानव परन्तु यह सदा ध्यान में रखना चाहिये कि समाज में सामहिक मैत्री है । मैत्री से बढ़कर और इस प्रकार के उपवास वगैरह द्वेष से न किये बरदान क्या हो सकता है। जाय। 'तुम अमुक काम करो नहीं तो मैं उप. • प्रतिदान–प्रायश्चित्त का मुख्य उद्देश्य "वास करके मर जाऊंगा' इस प्रकार की जोर स्वेच्छा से समीकरण हैं। हम जो दूसरे को नुक- जबर्दस्ती भी उसमें न होना चाहिये । उपवास सान पहुंचा देते हैं उससे जो विषमता पैदा होती वगैरह सीमित होना चाहिये । उसका लोगों पर है उसको सम बनाने का प्रयत्न प्रायश्चित द्वारा यह प्रभाव पड़े कि 'अमुक आदमी जनता के किया जाता है । साधारण अवसरों पर आलो- ' अमुक दोषों से चिंतित है, वह जनता के कल्याण के .. चना से ही वह समता पैदा हो जाती है अर्थात् "लिये सर्वस्व लगाने को तैयार है।' इस प्रकार क्षतिपूर्ति हो जाती है, कुछ विशेष हुआ तो क्षमा- 'जनता आत्मनिरीक्षण करे । याचना करली पर इससे भी विशेष हो तो प्रति व्यक्तिगत अपराधों का प्रायश्चित्त भी कभी दान करना चाहिये । किसी आदमी का अगर कभी परिज्ञापन के रूप में होता है। जिससे जिस हमने अन्याय से धन-हरण कर लिया है तो केवल मनष्य का अपराध किया गया है उसे मालूम माफी मांगने से काम न चलेगा । माफ़ी मांगने हो कि इस मनुष्य को सचमुच में अपनी भूलका के साथ उसका धन वापिस करना चाहिये, प्रति बहुत खेद है इसलिये पूर्णरूप में क्षमा करना दान करना चाहिये । अगर हमने किसी की व्यर्थ . थ चाहिये और प्रेम बढ़ाना चाहिये । ... निन्दा की है तो क्षमा मांगने के साथ उस निंदा । का मिथ्यापन अधिक से अधिक स्थानों में घोषित . , लड़ाई झगड़ा होने पर क्रोध से भूखे रहना करना चाहिये । अगर हमने मन्दिर या मसजिद . आदि परिज्ञाप्न तो है परन्तु परिज्ञापन-तप नहीं का अपमान किया है, कुछ तोड़ फोड किया है है । यह अत्यन्त अनर्थकर है । इससे द्वेष बढ़ता तो क्षमायाचना के हाथ हमें तोड फोड का जोड- है । यह न होना चाहिये । पुननिर्माण करना चाहिये,भक्ति प्रगट करना चाहिये। . प्रायश्चित्त और दंड-जो कार्य प्रायश्चित्त प्रतिदान धनसे प्रशंसा से, सेवा से, और मैत्री से के लिये कहे गये हैं वे दंड के लिये भी कहे 'हो सकता है । जो उचित हो उसी से प्रतिदान जा सकते हैं । पर दंड और प्रायश्चित्त में अन्तर करनी चाहिये। है। दंड अनिच्छा से भोगा जाता है जब परिज्ञापन-अपराध जब बहुत मार्मिक होता कि प्रायश्चित्त वेच्छा से किया जाता है । है या सामूहिक होता है तब उसके प्रतीकार को हम प्रायश्चित्त दूसरे से माँगते हैं पर उसे शासक प्रभावक तथा संस्मरणीय बनाने की आवश्यकता । समझ कर नहीं, चिकित्सक समझ कर । दंड का होती है, उसके लिये उपवास आदि किये जाते हैं। मुख्य ध्येय बदला चुकाना है, प्रायश्चित्त का

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