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"विशेष साधना-तप
जाता
"मख्य ध्येय आत्मशद्धि है। "
"युद्ध को भी हम दो भागों में विभक्त कर यदि दंड पानेवाल। अपने अपराध को समझे, सकते हैं, दंड और अत्याचार । उसके विषय में उसे खेद, हो, जिसका अपराध यदि विजित पक्ष अपराधी है तो दंड है किया है उसके दुःख में सहानुभति तथा प्रेम हो," अगर विजयी पक्ष अपराधी है तो अत्याचार है। न्यायाधीश-पर द्वेष न हो, दंड भोगने को अपने रामकी रावण पर विजय दंड है। रावण की स्वर्ग ऊपर अत्याचार न समझता हो तो दंड भी प्राय- पर बिजप अत्याचार है। श्चित बन जाता है । वास्तव में वह तपस्वी हो सत्याग्रही को जो दंड के नामपर सताया
• जाता है वह दंड नहीं, अत्याचार है। हाँ, यहां ...: जिस प्रकार दंड. प्रायश्चित्त बन जाता है इतना ख़याल रखना चाहिये कि सत्याग्रही को उसी प्रचार प्रायश्चित भी दंड बन जाता है । - सताना अत्याचार है । दुराग्रही को नहीं। जिस यदि प्रायश्चित करने में विवशता का अनुभव का आग्रह न्याय की विजय के लिये है (न्याय
होता हो, प्रायश्चित्त-दाता पर द्वेष हो या उसे का अर्थ कानुन नहीं है ) वह सत्याग्रही है । जिस ... पक्षपाती समझता हो, जो अपराध किया उससे का आग्रह अहंकार-वश या लोभ-वश है वह 'घृणा न हो, जिसका अपराध किया उसके विषय दुराग्रह है। ..
में सहानुभूति न हो तो प्रायश्चित्त भी दंड है। सत्याग्रही न तो दंड भोगता है न प्रायश्चित्त । इस प्रकार दंड को प्रायश्चित्र और प्रायश्चित्त करता है वह तो अत्याचार को सहकर उस पर
को दंड बना लेना मनुष्य के हाथ में है । प्राय- . जित कस्ता है । 'श्चित्त तप है, दंड पशुत्व है।
प्रश्न-सत्याग्रह क्या तप नहीं है! प्रश्न-दंड दाता को पक्षपाती ममझनेवाले, .... उत्तर-वह तप है पर प्रायश्चित नाम का अपने अपराध को अपराध न माननेवाले, सत्याग्रही . तप नहीं है वह सहिष्णुता नाम का तप है और को आप क्या कहेंगे? ...
त्याग नाम का तप भी है । इस प्रकार दुहरे तपों उत्तर--सत्याग्रही के सामने दंड और ग्राय- से सत्याग्रही महातपस्वी है। श्चित्त का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता । वह तो . प्रायश्चित्त आत्मोन्नति और निर्वैरता की कुंजी है। .'अत्याचार के सामने लड़नेवाला सैनिक है । उस अपनी निरभिमानता और दूसरे के
का शस्त्र प्रेम है सहिष्णुता है यह बात दूसरी है, व्यक्तित्व का उचित मूल्य स्वीकार करने के पर है वह सैनिक | दंड और प्रायश्चित्त में दोनों लिये जो व्यवहार और विचार किया जाता पक्षा का दर्जा समान नहीं होता। प्रायश्चित्त में है वह विनय है । मनुष्य अभिमान-प्रधान प्राणी चिकित्स्य चिकित्सक भाव है, दंड में शास्य शासक है, गरीब से गरीब से लगाकर सम्राट तक और भाव है जब कि सत्याग्रह में दो सैनिकों सरीखा मनुष्यताकार जन्तु से लगाकर तीर्थकर पैगंबर प्रतिद्वन्दिता का भाव है । इसलिये वहां न दंड जिन बुद्ध अवतार आदि महात्माओं तक यह है न प्रायश्चित्त है, वहां युद्ध है ।' किसी न किसी रूप में पाया जाता है । यह बात