Book Title: Satyamrut Achar Kand
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 175
________________ १८१] सत्यामृत जो किसी देश में विदेशी सरकार रह सकती है न को जन्म देता है एक देश को दूसरे देशका जीवादियों की सरकार रह सकती है जिससे सरकार गुलाम बनाता है, एक तरफ़ शैतानियत और के स्वार्थ और जनता के स्वार्थ जुदे जुदे हों। जब दूसरी तरफ वानियत पैदा करता है, जिन सरकारें सच्ची सरकारें हो जायगी तब सार्वजनिक मनुष्यों से व्यक्तिगत कोई वैर नहीं होता, जिन में सेवा के लिए धन की कमी न रहेगी, शिक्षण- कोई बुराई नहीं होती उनसे भी वैर कराता है, संस्थाएँ बनवाना, यात्रियों के ठहरने का प्रबन्ध बड़े बड़े युद्धों को जन्म देता है। गुलाम देश तो करना, बीमारों का इलाज करना सरकार का पिसते. ही है पर उनको गुलाम बनाने वाले काम हो जायगा। ।। अतिग्रही देश भी परस्पर लड़कर अपना नाश तीसरी बात यह है कि जन-सेवा के बहुत करते हैं । इस तरह कई तरफ़ से मनुष्य जातिका से कार्य तो इसलिए खड़े हो गये हैं कि अतिग्रह और मनुष्यता का संहार होता है । अतिग्र: के के कारण धन का बटवारा ठीक ठीक ठीक नहीं त्याग से जो संसार स्वर्ग बन सकता है अतिग्रह हो पाता। नहीं तो सभी लोग अपनी चिकित्सा से वह नरक बन जाता है । हर एक आदमी, शिक्षण आदि का प्रबन्ध कर सकेंगे । भिखारी हर एक कीम और हर एक मुल्क अगर अतिग्रह न रहेंगे कि किसी अमीर को मुट्टी मुट्ठी अन्न का त्याग करके कुछ सन्तोषी बने, खुद खाये और बाटने की तकलीफ उठाना पड़े । दानियों का दूसरों को भी खाने दे तो सभी .मनुष्य मजे में रह मिलना समाज की शोभा नहीं है, भखि लेने- सकते हैं और निराकुलता तथा प्रेम के कारण वालों का न मिलना समाज की शोभा है। कई गुणा आनन्द उठासकते हैं, इस हालत में दान तो. एक आद्धर्म है जो अतिग्रह के पाप अगर थोड़ा भी हिस्सा मिले तो भी मनुष्य बहुत के प्रायश्चित के रूपमें करना ज़रूरी बन गया सुखी हो सकेगा । और सच पूछा जाय तो अतिहै। दान की रकमों की अधिकांश सामग्री तो बीच ग्रह से कुछ अधिक हिस्सा मिलता है पर उसके के दलालों के हाथ ही पड़ती है। जो भिखारियों पीछे जो संघर्ष आदि हो जाता है उस संघर्ष को मिलती है उससे ज्यादा दाना का अहंकार में वह अधिक हिस्सा ब्याज दरब्याज सहित बढ़ता है और भिखारियों में दीनता बढ़ती है। नष्ट होजाता है। निरतिग्रह के पुण्य के आगे दान का पुण्य पहाड़ हर एक बुराई के मूल में मोह और अभिमान होता के आगे राई बराबर ही है। निरतिग्रह से एक है। अतिसंग्रह के मूल में भी येही हैं। पर कैसे तो दान रुकेगा नहीं, अगर रुक भी जाय तो निरर्थक हैं ये ! इसका मनुष्य विचार नहीं करता उस से समाज का विकास न रुकेगा। है। अपने कुटुम्बियों आदि का पालन पोषण ____ अतिग्रह व्यक्तिगत भी होता है और करना एक बात है पर उन्हें अयोग्य और आलसी सामाजिक भी होता है । सामाजिक के भी नाना बनाने के लिये उनका नैतिक पतन करने के रूप हैं, जातीय, अजातीय, वर्गीय, प्रान्तीय लिये अतिसंग्रह करना अनुचित है। ... राष्ट्रीय आदि । इस अतिग्रह से मानव समाज दूसरा कारण है अभिमान । पर अमिमान से क्या नरक बन जाता है । राष्ट्रीय अतिग्रह साम्राज्यवाद हम बड़प्पन पाते हैं ! घृणा और वैर के सिवाय हमें

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