Book Title: Satyamrut Achar Kand
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 176
________________ भगवता के उपाग क्या मिलता है ? इस प्रकार मोह और अभिमान में वह चीज़ अनुचित नहीं होती सिर्फ उसकी निःसार हैं। मात्रा विधार न रहने से वह अनुचित हो र रह गया यह कि हम अतिसंग्रह करके आराम करें जाती है । उदाहरण के लिये दाम्पत्य जीवन में सो पहिली बात तो यह है कि आराम करने के खराबी नहीं है. पर अगर इसमें रतिकर्म का इतना लिये हमें खर्च ही करना पडंगा, संग्रह करने से उपयोग किया जाय कि स्वास्थ्य खराब हो जाय काम न चलेगा, पर दूसरी बात यह है कि तो यह अतिभोग है। इसी तरह खान पान की मिहनत करने पर भी जरूरी आराम तो मिल ही बात है । ऐसी विलासिता जिमसे मनुष्य अपने सकता है दिनभर मजदरी करनेवाला मजदर रात आवश्यक कर्तव्य पर न कर सके, स्वाद-लोलपता भर जो आराम कर सकता है वैसा आराम से ऋणग्रस्त हो जाय आदि अतिभोग हैं। नाचआरामतलबों को कहाँ मिलता है, उनकी तो बीमारी गान में ज्यादा समय लगाना, नाटक, सिनेमा सारा आराम खा जाती है। प्रकृति की रचना अधिक देखना भी अतिभोग है। ही ऐसी है कि इस शरीर को व्यवस्थित और किसको अतिभोग कहा जाय किसको न नीरोग रखने के लिये कुछ न कुछ श्रम लेना कहा जाय इसका विचार विना अपेक्षा के नहीं ज़रूरी है। इसीलिये अतिसंग्रहियों को नाना हो सकता । एक के लिये जो अतिभोग है दूसरे तरह के व्यायाम करना पड़ते हैं इसके लिये भी के लिये वही निरतिभोग भी हो सकता है। इसपैसा खर्च करना पड़ता है। इसकी अपेक्षा यह कहीं लिये इस विषय में कुछ सूचनाएँ ही दी जा सकती हैं जिनके अनुसार अपनी अपनी योग्यता और अच्छा है कि ऐसी मजदूरी की जाय जिससे कुछ कमाई हो। और जब कमाई कराने परिस्थिति के अनुसार अतिभोग और निरतिभोग का विचार किया जा सके। - ...' वाली मजदरी हमें और हमारी सन्तान को जरूरी है तब अतिसंग्रह किसलिये। इस प्रकार विचार १-जो भोग शरीर-स्थिति के लिये अनिवार्य करने से पता लगेगा कि झूठे अभिमान के सिवाय । 4 न हो फिर भी विषय-लोलुपता के कारण ऋण अतिसंग्रह का और कोई कारण नहीं है । पर यह लेकर भी उसका उपयोग किया जाय तो यह ' अतिभोग है । । अभिमान भी निःसार है। ... ऋण लेकर विवाह आदिमें अधिक खर्च करना __ अतिसंग्रह यद्यपि उपपाप है पर यह अनेक आदि भी इस सूचना के अनुसार अतिभोग हैं। पापों का बीज है इसलिये अतिसंग्रह का त्याग . २-इतनी अधिक चीज़ों का उपभोग - करना चाहिये और अतिसंग्रह को गौरव की दृष्टि करना कि उसी में बहुतसा समय शक्ति और धन से न देखना चाहिये । लग जाय, किसी के यहां अतिथि बन कर जायें निरतिभोग तो अतिथि-सत्कार के साधन जुटाते जुटाते वह अतिभोग का त्याग करना निरतिभोग है । परेशान हो जाय, इत्यादि अतिभोग हैं। दर्भोग में तो हम जिस चीज़ का उपयोग करते प्रश्न-क्या अतिभोग के त्याग के लिये हर हैं वह चीज़ ही अनुचित होती है पर अतिभोग एक मनुष्य यह प्रतिज्ञा लेले कि मैं सिर्फ अमुक

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