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भगवती के उपांग
की आमदनी छोड़ना पड़ेगी। दीवानगिरी छाड़ना तर के लिये घातक है ।
. दीवान कह कहना बिलकुल ठीक है मैंने बाल भिक्षा मांगी थी इसलिये कल की आमदनी छोड़ देता हूं।
लेग कहते ब्रह्मणों और शुद्रों को जो भिक्षा आदि दी जाती है यह किसी एक दिन की सेवा का बदला नहीं होता वह प्रायः साल भर की सेवा का बदला होता है, अब आप जैसा उचित समझें करें।
दीवान कहता- ठीक है, मैं अपनी साल भर की आमदनी भेंट करता हूं, अन्यथा मुझ दुर्जन काष लगेगा |
घटना अगर इस तरह हो तो दर्जन के अहरण हो सकता है, साथ ही जातिप्रेम और नम्रता आदि का परिचय मिल सकता है।
दोष
रह गई दूसरी आजीविका छूटने पर पहिली वाक करने की बात, सो इसमें पहिली बात तो यह है कि यदि मनुष्य पहिली निका छोड़कर सुधार दूसरी आजीविका कर रहा है तो इसका मतलब यह ह कि वर्ण व्यवस्था का बन्धन इट गया है, ऐसी हालत में फिर भिक्षाश्रित जीविका करने की ज़रूरत नहीं है, अगर हमें और समाज को, दोनों को उस कार्य की आता मालूम होती है तो जिसदिन से हम वह कार्य करेंगे उसीदिन मे हम भिक्षा के अधिकारी हो जायेंगे । फिर न हमें भिक्षा लेने में संकोच होगा न समाज को भिक्षा देने में ।
असल में भिक्षा न मिल सकने की अड़चन वहीं उपस्थित होती हैं जहां समाज की कोई सेवा तो की नहीं जाती किन्तु जाति की दुहाई देकर
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मुफ्त में भिक्षा मांगी जाती है। ऐसी जगह था के अनुसार मिक्षा मिलती रहती है और एक दो चार भिक्षा न जहाँ प्रथा बन्द हुई कि फिर उसे भिक्षा नीति इस प्रकार मुफ्त की मिक्षा चन्द्र है। जाय में बुरा
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मानने की ज़रूरत नहीं है यह अच्छा ही मानना चाहिये | सेवा करने पर तो कभी भी भिक्षा का प्रारम्भ हो सकता है। भिक्षा मांगने से ही पुश्तैनी धंधा नहीं हो जाता, होता है तब यह सेवा मी दी जाय जिसके बदले में भिक्षा मांगी गई है । वह सेवा न करना पुश्तैनी धंध छोड़ देना न की भिक्षा छोड़ देना । एक करने लगे पुश्तैनी धंधा शुरू होगया और मिक्षा का भी अधिकार हो गया ।
इस
, मुख्य बात यह है कि मनुष्य को मुफ्तखोर कभी न बनना चाहिये, भिक्षा माँगना हो तो विनिमय के आधार पर माँगना चाहिये अन्यथा दुरंजन होगा |
६-ट्ठा दुरर्जन अधिक ब्याज है, ब्याजकी दुर्जनता का कारण पर्याप्त है, इस पूरी तरह रोकना कठिन है साथ ही अमुक अंश में इसे आवश्यक या क्षन्तव्य मानना पड़ता है। निरतिवाद की नीति से काम लिया जाय तभी ब्याज के ऊपर अंकुश रक्खा जा सकता है। ख़ैर, अंकुश रक्खा जाय या न रक्खा जाय पर इसमें जो मूल सिद्धान्त का भंग हुआ है उसपर विचार कर लेना चाहिये जिससे ब्याज की दुर्जनता मालूम हो ।
समाज रचना के मूल में यह बात पड़ी हुई है. कि एक दूसरे की सेवा करके परस्पर में अधिक से अधिक सुविधा दी जाय । एक आदमी हर बात में न तो होश्यार हो सकता है न वह सारे