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मत्यामृत
५ म्वार्थज-शान करने में स्वार्थ का नाश जा सकती हैं। इसके अनुसार अन्नपान घरद्वार होता है इसलिये घात नहीं करना स्वार्थज अघात जमीन रुपया पैसा आदि के साथ यश भी अर्थ है है। एक कसाई भी अपनी दुधारू गाय को क्योंकि यह भी काम जीवार्थ का अंग है । अर्थ नहीं मारता, यह स्वार्थज अघात है। इस का शब्द का मतलब यहाँ ऐसा ही व्यापक है । यह संयम असंयम से कोई सम्बन्ध नहीं। यह विनिमय अर्थात भी दुःख का कारण है इसलिये यह भी व्यवहार है।
हिंसा है और इस का त्याग अहिंसा है। ६ मोहज-मोह के कारण किसी का घात यहाँ भी इस बात का खयाल रखना चाहिये न करना मोहज अघात है । पशुपक्षी भी मोह के कि बाहरी अर्थघात से ही अर्थात का पाप न कारण अपनी सन्तान की रक्षा करते है। यह न होजायगा । उस में व्यवहाराञ्चक के अनुसार तो संयम है न असंयम ।
विचार करना होगा । अर्थात अगर वर्धन या ७ अविवेकज-अन्धश्रद्धा आदि के कारण।
रक्षण के लिये किया जाय तो वह पाप न होगा, घात अघात की मात्रा का विचार न करके ऐसा विनिमय के लिए किया जाय तो क्षम्य होगा अधात करना जो अधिक घात पैदा कर जाय यह तक्षण भक्षण के लिये किया जाय तो पाप होगा। अभिषेकज अव.न है। जैसे-प्राणियात के डर से इस व्यवहारपंचक के साथ प्राणघात की द्वारीर की या घर की आवश्यक सकाई भी न करना तरह तेरह भेदों में भी अर्थघात का विवेचन किया । गंदकी से भले ही कई गुणी प्राणिहिसा होती रहे। जा सकता है । यद्यपि अर्थघ,त के पाप को इन मान प्रकार के अघातों में प्रेमज अघात ।
अच्छी तरह समझने के लिये वह विशेष उपयोगी ही वास्तविक अघात है संयमरूप है । अशक्तिक
नहीं है फिर भी कुछ साधारण परिचय के लिये निरपेक्ष स्वार्थज मोहन का संयम से कोई सम्बन्ध
उन तेरह भेदो में अर्थघात का विवेचन कर दिया नहीं पर इन्हें निंदनीय भी नहीं कह सकते।
जाता है। अविवेक कुनिंदनीय है जब कि कापटिक १साधक-याग्रह आदि में सम्परि खर्च पुरी नाह मनाना है।
करना कराना साधक अर्थधात है। इस प्रकार प्राणरक्षण व्रत घात अघात का २ वर्धक--दान वगैरह में सम्पचि खर्च समन्वय है जो कि विवेक के द्वारा किया जा- करके विश्वसुख की वृद्धि करना कराना । सकता है।
३ न्याय रक्षक-उचित दंड या प्रायश्चित्त २ ईमान या अचौर्यव्रत के रूप में सम्पत्ति लेना। प्रत्येक नाणी को प्राणों के बाद अगर सब ४ सहज-सहज प्राणघात की तरह सहज से अधिक महत्त्व की कोई चीज मालूम होती है अर्थात नहीं होता क्योंकि जैसे अपने जीवन को नो यह अर्थ अर्थात् धनादि है। अर्थ का मतलब टिकाये रखने के लिये दूसरे के प्राणों का प्राकृसिर्फ रुपया पैसा ही नहीं है किन्तु वे सब तिक नियम के अनुसार नाश करना पड़ता है चीजें हैं जो हमारे काम की हैं और चुराई वैसा अर्थघात नहीं करना पड़ता अर्थ व्यवस्था