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है । हां, मनसाधना हो अर्थात् अकषायवृत्ति हो तो लोकसाधना हो सकती है । खयाल रक्खो कि हो सकती है, होना जरूरी नहीं है क्योंकि लोकसाधना के लिये परिस्थिति के अनुसार फलाफलविवेक होना जरूरी है । लोकसाधना कहलाने के लिये निष्फलता के मार्ग में बिना विचारे दौड़ते जाना लोकसाधना नहीं है ।
सत्यामृत
प्रश्न- निष्फलता के मार्ग से डरना क्यों चाहिये, फल की पर्वाह न करना तो कर्मयोग का चिन्ह है।
डरना
उत्तर- निष्फलता से कदापि न चाहिये किन्तु निष्फलता से न डरने का मतलब फलाफल का अधिवेक नहीं है । सफलता के मार्ग में जाते हुए भी अगर हम सफल नहीं हो सके और हमारा जीवन परा हो गया तो इसे असफलता का मार्ग नहीं कहते, मार्ग वह सफलता का ही कहलायेगा | कामास अपना साम्यवाद जीवन में सफल नहीं देख सके पर वह मार्ग असफलता का नहीं था । म. ईसा तथा अन्य महात्मा आदि भी जीवन सफल नहीं हो पाये थे तो भी उनका मार्ग सफलता का ही था। वे असफलता से निर्भय रहे और सफलता के मार्ग पर चले इसी से बे मनसापका जीवनसाधक के साथ लोकसाधक भी थे।
प्रश्न- तब तो संहारिणी के स्थानपर प्रबो धिनी लोकसाधना का प्रयोग करनेवाला भी सुपथपर चाय क्योंकि कभी न कभी तो थोड़े बहुत अंशों में सफलता होगी ही ।
उत्तर- सफलता असफलता के मार्ग का निर्णय ध्येय के अनुसार होता है। एक आदमी का श्रेय है मानव समाज को अधिक से अधिक ईमानदार बनाना है, इसलिये यह आदर्शदर्शनी
लोकसाधना करता है
यह उचित है अगर
जीवन भर वह सिर्फ एक आदमी को ही ईमानदार बनापाया अथवा अगर वह सिर्फ अपने को ही ईमानदार बनापाया तो भी हम कहेंगे कि वह सफलता के मार्ग पर था और अमुक अंशों में सफल हुआ । परन्तु मानलो उस आदमी से किसी ने कहा कि यहाँ गुंडे बदमाश बहुत आते हैं इसलिये तुम इस सती साध्वी नारी के सतीत्व की रक्षा करना, उसने उसके सतीत्व के रक्षण का भार अपने ऊपर लेलिया और जब गुंडे आये तब संहारिणी का उपयोग न करके वैफल्यदर्शनी और प्रेमदर्शनी आदि प्रबोधिनी लोकसाधनाओं का उपयोग करने लगा, गुंडों को यह सिखाने के लिये कि सतीत्व भंग करने में सच्चा सुख नहीं है उसने सतीत्व भंग करने दिया और जब गुंडे अत्यचार करके कुछ सीखे बिना ही चले गये तब सोचने लगा- 'अच्छा, आज तो इन्हें मैं कुछ नहीं सिखापाया कल फिर इन्हें इसी तरह सिखाऊंगा, कभी न कभी ये सीख ही जॉयगे, अगर मैं न सिखा पाऊंगा तो मेरी सन्तान सिखायेगी' यहाँ लोकसाधना असफल नहीं है असफलता के मार्ग में भी है । यह मूढ़ता है अविवेक है । ऐसे अवसर पर अशक्ति हो तो प्रबोधिनी लोकसाधना का ढोंग करने की अपेक्षा गाली देना चिल्लाना आदि संहारिणी साधना न होगी पर कुछ तो होगी, अच्छा । इससे इतना ही होगा कि काफी दंभ तो न होगा । इसीलिये चिल्लाने रोने धोने की अपेक्षा प्रबोधिनी लोकसाधना को मैंने साधारणतः अच्छा कहा है क्योंकि कभी कभी पाप के विरोध में चिल्लाना आदि अच्छा ही होता है ।