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भगवती की साधना
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संस्कार रूप को तेज कहते हैं आवेग रूप को उत्तर-ईश्वर को हमारी अनुकूल प्रतिछाया । मध्यम श्रेणी के संस्कार रूप को धारा कूलता की पर्वाह भले ही न हो पर हमारे मनमें कहते हैं आवेग रूप को लहरी । जघन्य श्रेणी के वह भावना रहना चाहिये। अथवा ईश्वर के संस्कार रूप को किट्ट कहते हैं और आवेग बनाये हुए संसार के अनुकूल रहना उसके संदेश रूप को कालिना। अब इन सब का स्वरूप के अनुसार चलना ईश्वर के अनुकूल होना है। वर्णन कर दिया जाता है।
प्रश्न- किसी ऐसे देव की भक्ति भी गुणाप्रेम-अपने को दूसरों के अनुकूल बनाने विकता के कारण हो सकती है जो जगत बनाने की भावना प्रेम है। जब हमारे मनमें विश्वके वाला भी न हो और जो संदेश भी न देता हो, अनुकूठ बनने की भावना होती है तब विश्वप्रेम जैसे जैन लोग सिद्धभक्ति करते हैं। सिद्ध पैदा होता है। इस अवस्था में मनुष्य पूर्ण
ह । इस अवस्था म मनुष्य पृण अर्थात् मुक्तात्मा न तो जगत्कर्ता माने जाते हैं निष्पक्ष और निःस्वार्थ हो जाता है इसी का नाम न उपदेशक, फिर उनके विषय में भक्त की अनुवीतरागता वीतमोहता जिनत्व बुद्धत्व कैवल्य या कलता क्या? स्थितिप्रज्ञता है।
उचर-उनकी विशेषता को अनुकरणीय __पात्र के भेद से प्रेम के तीनरूप होते हैं
मानना यथाशक्ति उसका अनुकरण भी करना भक्ति, वात्सल्य और मैत्री ।
भक्ति-अपने से अधिक गुणियों में, उप- प्रश्न- आपके मतानुसार प्रेमकी पराकाष्ठ, कारियों में, वयोवृद्धों में जो आदर सहित प्रेम से मनुष्य वीतराग होता है परन्तु अबदार में इससे होता है वह भक्ति है। जैसे ईश्वरप्रेम आदि। उल्टा ही देखाजाता है। माता से अधिक से
वात्सल्य--अपने से छोटे व्यक्तियों के विषय अधिक प्रेम करती है फल यह होता है कि वह में जो प्रेम होता है उसे वा नल्य कहते हैं। बेटेके सौ खून माफ करने को तैयार रहती है पर दया करुणा आदि वात्सल्य के ही पर्याय नाम है। पुत्रविरोधी बड़े से बड़े न्यायी और वीतराग से
मैत्री-छोटे बड़े का विचार किये बिना भी द्वेष करती है इसलिये प्रेम तो अनर्थका ही या बराबरी के भाव से जो प्रेम होता है वह मूल है। मैत्री है।
उत्तर- जो अनर्थका मूल है वह प्रेम नहीं इन तीनों में अनुकूल बनने की भावना है है मोह है। मोह और प्रेम में बड़ा अन्तर है। सुख वृद्धि की भावना है इसलिये ये तीनों कषाय- प्रेम में विवेक और विश्वकल्याण है मोह में अविवेक रूप नहीं है।
और स्वार्थ है। उपर्युक्त माता के उदाहरण में प्रेम
नहीं माह है। प्रश्न--भक्ति अगर प्रेम है तो उसमें अनुकूल वृत्तिता होना ही चाहिये पर ईश्वर भक्ति में वह प्रश्न- भक्तिपत्र के माथ मैत्री का और कैसे होगी? क्योंकि ईश्वर तो कृत्यकत्य है उसे मैत्री योग्यके साथ वात्सल्य का व्यवहार करने से अनुकूल क्या और प्रतिकूल क्या?
दुःख भी बनता है इमरियमी और वास्मल्यको