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सत्यामृत
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१ दुर्भोग २ दुरर्जन, ३ अतिग्रह ४ अतिभोग। उपसंयम संयम का पूरक है, उपपाप
कभी कभी इनका दुष्फल पाप से भी पाप का पूरक है, इसलिये इनका घनिष्ट संबंध बढ़जाता है फिर भी इन्हें अनुपाप या उपपाप भी है बल्कि उपसंयम संयम में, उपपाप पाप में कहते हैं क्योंकि इन में सामाजिक नियम के शामिल भी किया जा सकता है । जेसे दुर्भोग अनुसार मिले हुए व्यक्तिगत अधिकार का में प्राणघात की मुख्यता है, दुरर्जन में अर्थघात उल्लंघन नहीं होता। व्यवहार में भी ऐसे लोगों को की मुख्यता है, अतिग्रह, अतिभोग में भी अर्थधात पापी नहीं कहते।
की मुख्यता है । इसीप्रकार सद्भोग में प्राणरक्षण
की, सदर्जन आदि में ईमान की मुख्यता है । दुर्भोग का मतलब है अनुचित वस्तुओं का भोग करना जैसे शराब पीना आदि । दुर्जन का
प्राणघात मतलब अनुचित तरीके से धनोपार्जन करना,
___ प्राणघात का अर्थ है शरीर इन्द्रिय और जैसे सट्टे से जुआ से व्यभिचार से पैसे कमाना ।
मन को चोट पहुँचाना, बन्धन में डालना या अतिग्रह का मतलब है सम्पत्ति का अधिक संग्रह
अतिश्रम लेना । जैसे मारना पीटना (शरीर), वधिर करना । अतिभोग का अर्थ है मर्यादा से अधिक
कर देना अन्धा कर देना (इन्द्रिय), निंदा करना विषय सेवन करना, ऐयाश हो जाना, इन्द्रियों
__ अपमान करना तिरस्कार करना (मन) । इसी के गुलाम हो जाना।
प्रकार कैद करना, बाँधकर रखना, बोलने न साधारण वेश्यासेवन दुर्भोग है, विवाहित देना, पागट कर देना, बहुत बोझ लादना, बहुत आदमी अगर वेश्यासेवन करता है तो दुर्भोग के समय तक काम लेना यह सब भी प्राणघात है। साथ विश्वासघात और अर्थघात भी है, इसलिये मार डालना , ग्वा जाना आदि प्राणवात तो काफी बड़ा पाप है, अगर बलात्कार करता है तो प्रगट ही है। दोग अर्थधात विश्वासघात और प्रागन, इस तकनी कभी पानी को दण्ड देना, प्रकार अनेक पाप मिले होने से पैशाचिक महाप,
कैद करना, निंदा, अपमान, तिरस्कार करना , है। इन सब बातों का साफ़ साफ़ वर्णन आगे
बेजिम्मेदार आदमी को, मूढ़ आदमी को बोलने किया जाएगा।
न देना या अवसर ठीक न होने से बोलने न जैसे पापिनी-हिंसा के ये सात अंग बताये देना, आततायी को मार डालना, समाजरक्षण गये है, उसी तरह भगवती अहिंसा के भी सात या न्यायरक्षण अथीत् विश्व-सुख-वर्धन के लिये अंग हो । तीन संयम और चार असंयमा आवश्यक हो जाता है तो यह सब प्राणघात क्या
संयम-- तन यम ये :--- १. प्राण- पाप है ? अगर यह पाप है तो निष्पाप रहकर रक्षण अर्थात् अधानत्रन २. ईम.न अर्थात् विश्व-मुग्यवर्धन हो ही नहीं सकता। अचौर्यबत, ३. विश्व मरण य, सखवत । उत्तर-जो घात विश्वसुखवर्धन की दृष्टि
उपसंयम- चार उपसंगम-- १. सद्भोग, से किया जाता है उसमें घातक की जिम्मेदारी २. महर्जन, ३. निरनिग्रह और ४. निरतिभोग। इतनी नहीं रहती कि उसे पापी कह सकें।