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भगवती के अंग
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बल्कि वह विश्वसुख-वर्धन न्यायरक्षण आदि के मन-मुखदुःग्व अनुभव, प्रेम, द्वेष, भय, चिन्ता लिये होने के कारण संहारिणी-नोकसाधन है। उत्साह आदि वृत्तिवाला मन है ।
घात करने से ही किसी को पापी न इन्द्रिय- पदार्थ के गुण को प्रत्यक्ष करने कहना चाहिये । यह देखना चाहिये कि उसकी वाले ज्ञान-द्वार को इन्द्रिय कहते हैं। इंद्रियां जिम्मेदारी घास्य ( जिसका घात हुआ ) पर है पांच हैं. पन...र गर्म आदि का ज्ञान करनेवाली या घातक (जिसने घात किया ) पर है । अगर इन्द्रिय, जीम-- मीठा आदि स्वाद का ज्ञान सारी जिम्मेदारी घ.त्यपर हो तो घातक निर्दोष करनेवाली इंद्रिय, प्राण-सुगंध दुर्गध का ज्ञान हो सकता है। हो सकता है इसलिये कि घातक करने की इन्द्रिय, आंख. -रंग और आकार को का मनोभाव अगर विश्वमुग्ध-वन के अनुकूल ग्रहण करनेवाली इन्द्रिय, ५'-.. .: को ग्रहण है उसमें चिकित्सक वृत्ति है तो घातक निर्दोष का इंद्रिय । इन्द्रियों की शक्ति कम होना है अन्यथा जितने अंश में उसमें कपाय है उतने भी जीवन का कम होना है। अंश में वह दोषी है ही। हां, व्यवहार में उसे ही दोषी कहेंगे जिसके उपर घात की जिम्मेदारी बल- किसी भी साधन का उपयोग करने है । रावण मरकर भी दोपी रहा, म. राम मारकर में जो अंतिम सहायक है वह बल है । इसके भी निर्दोष रहे । क्योंकि इसमें जिम्मेदारी रावण द्वारा परिवर्तन कर सकते हैं और परिवर्तन को की थी । म. रामन रावण से द्वेष नहीं किया राक सकते है। था सिर्फ उसके पाप से दूर किया था इसलिये आहार- शरीर के लिये खुराक लेना वे पूण निर्दोष रहे । प्राण-घात के भेद-प्रभेदों आकार है । प्रतिसमय प्राणी कुछ न कुछ खुराक का समझ लेने से प्राणघात का अमान लेता ही रहता है। हवा पानी तथा और भी समझ में आ जायगा ।
अनेक तरह का भांजन प्रतिसमय प्राणी को लेना प्राणघात के भेद-भावन तीन तरह का पड़ता है। सबसे अधिक जरूरी आहार हवा होता है १ जीवनय न, २ तनघात, ३ मनधात का है इसलिये आहार प्राण में मोम की
जीवनघात- जीवनघात उसे कहते है मुख्यता है । आहार का अर्थ मुंह से ग्रहण करना जिस में सब प्राणों का घात कर दिया जाता है. नहीं है मुँह से ग्रहण करना तो अमुक समय के जीवन नष्ट हो जाता है, अर्थात् मौत जीवन- लिये रुक भी जाता है मुंह ता सिर्फ वह द्वार है घात है । किसी प्राणी को मार डालना जीवन- जहाँ से वस्तु ग्रहण करने के स्थान ना पहुँचती घात करना है।
है । पेट में पहुंचने पर पच पच कर जो हिस्सा
शरीर में मिलता जाता है वही आहार है । इस प्राण- जिनके सहारे जीवन धारण किया
प्रकार कोई न कोई वस्तु पतिसमय शरीर में जाय उन्हें प्राण कहते हैं।
मिलती रहती है वही आहार है। जब यह क्रिया प्राणभेद--प्राण चार हैं १ मन २ इन्द्रिय बन्द हो जाती है तब मौत हो जाती है। या ३ बल, ४ आहार ।
जितने अंश में कम होती जाती है उतने अंश