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सत्यामृत
में जीवन की कमी समझना चाहिये । जायगा । यह तो प्राणघात के बाद का विचार
जब इन्द्रिय मन बल और आहार चारों ही है पर जहां तक प्राणघात और अर्थघात की प्राण नष्ट हो जाते हैं तब जीवनधात अर्थात्
क्रिया से सम्बन्ध है वहाँ तक उनका सीधा मौत हो जाती है। माधारणतः आहार और उस
सम्बन्ध प्राण से और अर्थ से है । में भी बालोया के बन्द हो जाने पर मौत मनघात–मार्ग दृष्टि अध्याय में मानसिक मान ली जाती है पर बाहर से काम बन्द दुःख पांच ताह के कहे गये हैं उन में से सहहोने पर भी आहार होता रह सकता है। जब वेदन का सम्बन्ध तो मनघात से है नहीं, बाकी तक एक भी प्राण बाकी रहे तब तक जीवनधात चार भेदोंका सम्बन्ध हो सकता है। पर अधिकतर नहीं माना जाता।
वे चारों दुःख दूसरे प्राणी के द्वारा किये गये तनपात-किसी प्राणीको किसी तरह का घातके बिना भी होते हैं जैसे प्रिय वस्तु का न शारीरिक कष्ट देना तनघत है।
मिलना या बिछुड़ना आदि भाग्यदोष या प्रकृति. दृष्टिकाण्ड के तीसरे ( मार्गदृष्टि) अध्याय
दोष से होते है । दूसरे के द्वारा किये भी जात में शारीरिक दुःखः तरह के बताये गये है पर उन में से अधिकांश अर्थवत में शामिल आघात, अनि , अविषय, रोग, रोध, और
होते हैं। अतिश्रम । इनमें से एक या अनेक तरह का अपमान वगैरह से जो लाघव होता है वह पष्ट देना तनघात है।
अवश्य मनघात है फिर भी अधिकांश लावय ___ यधपि अविषय रूप तनघात अर्थवान से प्राकृतिक कहा जा सकता है। भी हो सकता है पर उसका सम्बन्ध परम्परा का
इस प्रकार मानसिक दुःखें। के भेद से मनहै। अवचन में शरीर को कष्ट पहुंचाने की
घात का रूप ठीक नहीं समझा जा सकता मुख्यता नहीं होती। अर्थातक कुछ लेना
इसलिये यहां सिर्फ मानसिक दुःख के वे ही रूप चाहता है शरीर को चोट पहुंचे या न पहुंचे इसकी पर्वाह नहीं करता। प्राणघातक को लेने
बताये जाते हैं जिन का मनघात से सीधा और की मुख्यता नहीं है चोट पहुंचाने की मुख्यता
साफ सम्बन्ध है। मनघात से बचने के लिये है। जितने अंश में चोट पहुंचाने की मरूपता जिन से बचना जरूरी है। है उतने अंश में प्राणवात ह जितने अंश में मनघात के मुरूपरूप दो है जो प्राणघात में कुछ लेने की मुख्यता है उतने अंश अर्थात शामिल किये जाते हैं-१ भय २ तिरस्कार । है। हा, प्राणघात का भी कुछ दूसरा लभ होता यद्यपि इन दोनों का उपयोग प्राणी की भलाई के है पर उसकी अपेक्षा तो प्रागघान का अ.! लिये भी किया जाता है पर यह विचार पीछे का रापन निश्चित किया गया। प्रागवात अगर है। प्राणी की भलाई के लिये किया जायगा तो पायाक्षण के लिये होता . वह भगवती की मायना हैअपने उचित स्वार्थ आयगा । भक्षण के लिये हो नो बग कहा रक्षण के लिये किया जायगा तो हिंसा होगी। इस
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