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भवनीशीमाधना
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कालिगा है जो मोह या वात्सल्य पर लग गई है। दारीर से बन्टबान है इसलिये वह अपने को महान यह क्रोध क्षणस्थायी होता है और इसके मूल में नमशन है और अभी से अच्छे समाजमर्व अविवेकी में मोह और विवेकी में वात्सल्य रहता दोपकारी बिद्रन के कुछ नहीं समझत', ऐसी है। फिर भी क्रोध की कालिमार अच्छी चीज हालत में वह आदमी मान या घडा है पर यह नहीं है इससे जीवन में दाग तो लगता ही है समाजसेवी विद्वान सोचता है कि उस धनवान इसलिये इसका कम से कम होना या न होना क या अधिकारी का वह अभिनान अनुचित है ही उचित है।
मुझे धन, अधिकार, या पशुबल के आगे झुकना यो तो हाएक कषाय बरी है पर उन सब उचित नहीं है इसलिये वह अपने व्यक्तित्व के में कैध बहुत प्रबल है, यह मनुष्य को पापी तो उचित मान का रक्षण करता है तो यह आत्मगौरव बना ही देता है किन्तु अविनयी और असभ्य है मान कपाय नहीं है । अभिगोरख एक तरह भी बना देता है । कंध को अग्नि की उपमा की विरक्ति है वह कभी चिकित्सा रूप भी होता दी जाती है यह बहुत ही ठीक उपमा है. अनि है कभी उपेक्षा रूप भी। उस समय वह जघन्य के समान यह खुद को जलाता है और दूसरों श्रेणी की मनोवृत्ति न होकर उत्तम श्रेणी की को भी जलाता है। क्रोध शराब से भी बढकर बन जाती है। नशा है। जैसे शराबी से विनय विवेक संयम
कोई कोई सन्त पुरुष गरीबों के यहां बिना की आशा रखना व्यर्थ हे अच्छे मनुष्य भी शराबी बुलाये या बिना आदर सत्कार के चले जाते है की हालत में घोर दुर्जन और असम्य भी बन जाते पर अमीरों के यहाँ या समाज में साधारणतः हैं उसी प्रकार केधी भी संयम विवेक विनय आदि जो अधिकार आदि के कारण बड़े आदमी गिने भूल जाता है । मनुष्य क्रोध में क्या कह डालेगा जाते हैं उनके यहँ, बिन बुलाये नहीं जाते कुछ और क्या कर डालेगा इसका कोई भरोसा नहीं। सन्मान की अपेक्षा रखते हैं तो इस आभगौरव इसलिये कधविजय पर सबसे अधिक ध्यान कहंगे। किसी के यहाँ बिना बलाये न जाने का रखना चाहिये।
विचार इसलिये होना कि जाने से उसे कष्ट होगा मान--मान शब्द का सीधा अर्थ तो है उसका समय जायगा उसे संकोच होगा नाम मापना, पकषाय के रूपमें जब इस शब्द का जगह प्रेम कहलाय।। अगर इमरिये नहीं जाता प्रयोग किया जाता है तब उसका अर्थ होता है है कि इससे उसके धनमद बलमद अधिकाग्मद व्यक्तित्र के माप में गड़बड़ी करना अर्थात् दूसरे का को खुराक मिलेगी जोकि न देना चाहिये तो जितना व्यक्तित्व है उसको उससे कम समझना यह आनगौरव होगा इसे विक्ति
और अपना जितना व्यक्तित्व है उसको अधिक (चिकिानारूप) मनझना चाहिये । अगर इसका समझना, इस प्रकार व्यक्तित्व के विषय में पक्षपाती कारण सिर्फ एकान्त साधना है व्यर्थ ही लोगों के विचार रखना मान है। जहां माप में गडबडी न सम्पक में नपने की भावना है तो भी यह दिक्क होगी विवेक होगा वहाँ नान व पाय न होगी। जैसे (उपेक्षारूप) है । अगर उसके व्यक्तित्व को मानलो कोई आदमी धनवान है अधिकारी है या तुच्छ समझकर न जाने का भाव है तो मान कवाय