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भगवती की साधना
और माह का अन्तर तो कल्याणीदेवी ने अपने जीवन से बतला दिया पर उस अन्तर को परखनेवाले जगत में कहां हैं ! आप उन्हीं पारखियों में से हैं। आपको गुरु बनाकर आज मैं कृतार्थ हो रहा हूँ ।
महर्षि - बेटा, गुरु बनाकर कोई शिष्य कृतार्थ नहीं होता वह कृतार्थ होता है गुरुदक्षिणा देकर |
शारदाचरण - गुरुदेव ! आज मेरे पास क्या है जो आपको गुरु दलिया में हूँ ! फिर भी जो कुछ मेरे पास सर्वस्त्र कहलाने लायक है। वह आप मांग लीजिये ।
महर्षि - एक दिन बादी बनकर मैंने तुम्हारा वह घर उजाड़ा था आज यह घर उजाड़ता हूँ | गुरु-दक्षिणा में तुम्हारी यह झोपड़ी ले लेता हूं |
कल्याणी - गुरुदेव
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महर्षि - नहीं नहीं, अब मैं कुछ न सुनूंगा। तुम लोग इसी समय मेरी झोपड़ी में से निकल जाओ और अपने पुराने घर में चले जाओ। वहां तुम्हारा सारा वैभव तुम्हारी बाट देख रहा है। कुछ मुट्ठी-दो मुट्टी मेरा भी उसमें शामिल हो गया है।
कल्याणी- पर ये बीमार जो हैं, गुरुदेव ! महर्षि रहने दो, तुम दोनों के लिये दो कियां तैयार हैं । जाने में कोई कष्ट न होगा |
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कल्याणी की आंखों में आंसू भर आये, शारदाचरण ने भी आंखें पोछीं, महर्षि बड़ी कटिनता से आँसू रोक पाये । भरे गले को साफ़ करते हुए उनने कहा- बेटी, प्रेम और मोह में आकाश पाताल का अन्तर है। पर रंगरूप में उनमें कैसी असाधारण समानना ?
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कल्याणी गला भर जाने से कुछ बोल न सकी | उसने गुरुदेव के पैर छुए और बिदा की । महर्षि ने उसी सुख-दुःख के साथ कल्याणी को विदा किया जैसे बाप बेटी को बिदा
करता है ।
प्रेम कभी कभी कठोर मालूम होता है पर भीतर कोमल से कोमल होता है। प्रेम की वह बाहिरी कठोरता जगत् की के लिये भी उपयोगी होती है और प्रेम-पात्र की भी उन्नति करती है। यह बात एक प्रेमको कहानी से भी स्पष्ट हा जायगी ।
प्रेमी -पिता
पुराने ज़माने में भारतवर्ष में एक विद्वान रहते थे जिनने अपने पुत्रको खूब पढ़ाया था यहाँ तक कि आसपास के सब विद्वानों को वह बादविवाद में हरा देता था। पिता चाहते थे कि वह अभिमान में आकर अपनी उन्नति का द्वार बन्द न करदे इसलिये मनयममय पर उसकी त्रुटियाँ बताया करते थे। जब बेटा कभी नादानी कर जाता तब उसे झिड़क भी देते थे । वे चाहते थे कि यह कोरा पंडित ही न बन किन्तु विचारक भी बने, कुशल भी बने, विवेक और संयमी भी बने इसलिये भी उसके दोष दिखाते रहते थे। बेटे को यह मालूम होता था कि मैं छोटी उम्र में ही बड़ा विद्वान हो गया हूं इसलिये पिता ईर्ष्या करते हैं। मेरा ५श उन्हें सहन नहीं होता ! इसलिये वह अपने विद्वान दिन पर क्रुद्ध रहता था। एक दिन उसने सोचा कि रात में पिता से कहूंगा कि या तो तुम मेरी निन्द्रा बन्द करदो नहीं तो मैं तुम्हें मार
इस विचार से जब वह अपने पिता के नागार पर पहुँचाना हुआ कि माता-पिता