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सत्यामृत
लिया जाता था पर शिवनारायण को सिर्फ मन्दिर से बड़ा विद्वान् भी मूर्ख से मूर्ख साबित होता है। कहने में संतोष नहीं होता था, वह बातबात में ४ परनिंदा-साधारण मनुष्यों को सब से शिवनार या-मंदिर कहा करता था । इसप्रकार रोचक समाचार है परनिन्दा । जहां पर अच्छे से अवलम्बन न रहने से हरिहर शब्द छूट गया अच्छे विद्वत्तापूर्ण और कलापूर्ण भाषण के लिये और लोगों ने यह समझकर कि भगवान के बहाने श्रोता न मिलते हों वहां भी निन्दापूर्ण भाषण के यह पुजारी अपनी पूजा कराना चाहता है, लिये श्रोताओं की कमी नहीं रहती । मनुष्य को शिवनारायण शब्द भी छूट गया और इस तरह निन्दा करने की और सुनने की जो आदत है मंदिर भी छूट गया।
उसका कारण उसका एक भ्रम है । वह समझता लोगों के इस असहयोग से पुजारी का क्रोध है कि दूसरों की निन्दा से मैं बड़ा या भला कहबढ़ने लगा । अन्त में फल यह हुआ कि महिनों लाने लगूंगा जब कि बात इससे उल्टी है। दूसरों तक लोग न उस मंदिर में आते न पुजारी से की निन्दा मे अगर हम बड़े बनने लगें तो हमारी मिलते । मंदिर की मरम्मत भी न होती, कुछ निन्दा से दुसरे भी बड़े बनने लगेंगे । टोटल
ददिर की दीवारें गिरने लगी, पुजारी बराबर ही रहेगा । हाँ, सामूहिक रूपमें सब का • चार भागों में यह अफवाह फैली कि पतन अवश्य होगा ।
शरीरकर मंदिर में भूत हुआ है, इससे जैसे आत्मप्रशंसा से दुनिया हमें बड़ा नहीं लोगों ने उस रास्ते से निकलना भी बन्द समझने लगती उसी प्रकार परनिंदा से हमारी
निर्बलता ही साबित होती है। इस प्रकार पुजारी की कुटिल आत्मप्रशंसा
आत्मप्रशंसा के विषय में जिन बातों का से महर्षि नागार्य का लगाया हुआ पाना असमय
उल्लेम्ब ऊपर किया गया है उन्हें परनिन्दा के में ही सूख गया इस प्रकार कई शताब्दियों के विषय में भी समझ लेना चाहिये । परनिन्दा भी निद्रय सांस्कृतिक एकता या कार्य रुक गया। कायिक तथा कुटिल हुआ करती है । किसी की
इस प्रकार तथ्यातथ्यरूप सत्यकथाएं और उचित तारीफ़ न सहकर दुसरा की तारीफ़ करने भी लिखी जा सकती है पर इतने से भी बात लगना कुटिल परनिन्दा है। निन्दा किसी प्रकार भी पुरी समझ में आ जाती है। सार यह है कि घुमाफिरा कर की जाय जब हमारे मन में अहंकार
मके काम में हम कितनी ही कटिटर हैनो उसका दुष्परिणाम होगा ही। या चतुर्राई से काम लें हमारे मन का पाप छिपा अपवाद-मान कपाय का स्वरूप कहते नहीगह सकता। दुनिया हमारे मुंह रतः सायं 4 बतला दिया गया है कि अभिमान पाप इसका यह अर्थ नहीं है कि वह नहीं समझती । है-आमगारव रा नहीं है। अभिमान के द्वारा ऐसी बातें तो साधारण आदमी भी समझ जाते हम दसर का महत्व नष्ट करना चाहते हैं और हैं रचना की तो बात ही दूसरी है । यहाँ अपना महत्व किसी भी तक से बढ़ाकर दूसरों हमन ट, उगाने है दुनियां की आंखें पर लादना चाहते हैं, जब कि आत्मगौरव में उत र ने हैं। श्रमप्रशंमा में बड़ा अपने उचित महत्व को रक्षा कम होता है,