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अभिमान न कहके उसे आत्मगौरव कहेंगे। आत्मगौरव विरक्तिरूप है इसलिये उत्तम श्रेणी का
1 (ग) में विरक्ति है इसलिये विनय है ही । (घ) जीवन के आवश्यक कामों में भी शरमाना विनय है। दूसरा भोजन न करता हो और खुद भोजन करे तो इसमें थोड़ा अभिनय तो है ही ।
कोचची में जो शरमाते हैं वे इसलिये कि अपने गुरुजनों की बराबरी के पास पहुंचने में उन्हें संकोच होता है । विवाहित हो जाने पर वे साधारण बालक बालिका नहीं रह जाने किन्तु माता पिता के समान गृहस्थ हो जाते हैं, जिनके सामने शिशु बनकर रहे उनके सामने कुछ बराबरी के आसन पर पहुंचने में विनयी के कुछ लज्जा आती है। पर लज्जा के साथ विवेक होना चाहिये । लज्जा शिटाचार तक ही सन्ति रहे वह जीवन की महत्त्वपूर्ण समस्याओं में आड़े न आये। जो लड़की माँ बाप के द्वारा
बुटेके साथ बाँधी जाने पर भी लज्जा के नाम पर कुछ न बोले और अपना जीवन बरबाद कर ले उसकी लज्जा मुड़ता है मोह है निर्बलता है ।
लज्जा एक महान गुण है, इसके द्वारा दूसरों की सुविधाओं का उनके सम्मान का, अपनी अनुचित कृतियों को दूर करने का खयाल रहता है । हां, इसमें निरतिवादी दृष्टि का पूरा 1 ग्वाल रखना चाहिये |
प्रश्न--लज्जा अगर गुण है तो घूँघट आदि की कृपया भी उचित समझी जा सकेगी ।
सत्यामृत
उत्तर- नहीं, १- घूँघट में अतिवाद है । २ अभिषेक है जहां करना चाहिये वहाँ नहीं किया जाता जहाँ नहीं करना चाहिये यहाँ किया जाता || समान आदरणीय व्यक्तियों में किसी के साथ किया जाना किसी के साथ नहीं किया जाता ।
३- लैंगिक विषमता है अर्थात नारीत्व का अपमान । ४ - व्यवहार में असुविधा होती है । ५--स्वास्थ्य नष्ट होता है । इन बातों का विचार व्यवहार कांड में किया जायगा ।
साधारणतः लज्जा रुचि अरुचि का अंग नहीं है प्रेम का रूप है इसलिये उसे मध्यम श्रेणी में नहीं रक्खा भक्ति में शामिल किया ।
इच्छानुसार कार्य न होने पर उसके ि क्रोध - द्वेष के तीन भेदों में यह पहिला
मन में आक्रमणकारी क्षोभ होना क्रोध है । क्रोध में पूर्ण या आंशिक संहार का भाव आता है । इसलिये क्रोध में मनुष्य मारने पीटने गाली देने स्वर को कठोर करके उसे अपमानित करने का कार्य करता है ।
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प्रश्न- क्रोध तो कभी कभी माता पिता पुत्र पुत्री गुरुजन आदि पर भी आ जाता है कभी कभी अपने पर भी क्रोध आता है तो क्या यह माना जाय कि इसमें किसी तरह का संहार करने का भाव है ?
उत्तर- माता पिता गुरु आदि जब अपनी रुचि के विरुद्ध कोई बात कहते हैं तब या तो हमें नम्रभाव से अपनी भूल समझकर कार्य करना चाहिये, भूलके लिये लज्जित होना चाहिये, अगर उनकी भूल हो तो उचित अवसर पर नम्रता से विरोध करना चाहिये, पर जब ऐसा नहीं किया जाता और क्रोध आ जाता है तब उसमें उन्हें अपमानित करने का भाव है अपमान भी एक तरह का आंशिक संहार है। हां, माता पिता गुरुजन आदि को कभी कभी सुधार के लिये क्रोध आजाता है और जो जितना प्रिय हो उस पर क्रोध भी उतना ही अधिक आता है, परन्तु यह वास्तव में क्रोध नहीं है किन्तु क्रोध की