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भगवती की साधना
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उत्तर- इसमें मनोबल की आवश्यकता तो कहते हैं । मोह और छल, मान क्रोध, इन चार है पर मनोबल के सिवाय जो दूसरा कारण है कपायों को बिलकुल दूर कर देने से अकपायता वह संयम भी हो सकता है और असंयम भी। आती है। यद्यपि अकषायी में रुचि पाई जाती अगर उस कषाय की बुराई जानकर उसने है फिर भी अरुचि से जितना बचा जाय उतना कषायाको दबाया है तो संयम है पर इस के होनेसे ही अच्छा । अपायी मनुष्य किट्ट और कालिमा किट्ट अवश्य कम हो जायगा, तब वह पापी से दोनों से रहित होता है । फिर भी जब तक पुण्यात्मा की श्रेणी की तरफ झुक जायगा अथवा
__संसार में असंयमी प्राणी हैं तब तक योगी के छोटे दर्जेका पुण्यात्मा हो जायगा; पर जिसने
जीवन में भी कपाय-कालिन का होना भ्य भाविक कषाय को इसलिये दबाया है कि क्या करें कषाय
है पर वह तीव्र मात्रा में नहीं होती और न भक्षण प्रगट करने की ताकत नहीं है, प्रगट करने का
तक्षण के लिये होती है। कयायकालिमा वहीं फल अधिक बुरा होगा इसलिये मौके पर इस
क्षन्तव्य है जहां वह चिकित्सा के लिये हो। कयाय का उपयोग किया जायगा। इस प्रकार कषाय को चरितार्थ करने के लिये मौके की ताक
सब से अधिक हानिकर है कषाय-किट । में रहने वाला मनुष्य जो कपाय-किट्ट रखता है कषाय की वासना जितन
कषाय की वासना जितने अधिक समय तक उसमे वह मनोबली ही होगा पण्यात्मा नहीं, उसे ठहरती है उतना ही अधिक दुःख वह जगत को पापी ही समझना पड़ेगा।
और अपने को देती है। योगी मनुष्य में एक तो यहाँ जो मनोवृत्ति के भेद बताये गये हैं वे
कषाय पैदा होती ही नहीं है अगर कभी विराक्ति मंयम असंयम की दृष्टि से बताये गये हैं, ज्ञान अज्ञान
के कार्य में कपाय की कालिमा लगती भी है तो या मुग्व दृाव की दृष्टि से नहीं । संदाय स्मरण आदि तुरंत ही छूट जाती है। मन की अवस्था भगवती अहिंसा की साधना के कपाय-वासना की तरतमता से हमारे जीवन अंग नहीं है। हाँ, जहाँ ये ज्ञानरूप मनोवृत्तियाँ के असंख्य भेद हैं। दृष्टिकांड के पांचवें अध्याय संयम या असंयम का फल होती है, वहां भगवती में सिद्ध योगी, साधक योगी (मक अर्धकी साधना में विचारणीय हो जाती हैं हम किसी साधक बहसाधक) भेद किये हैं उन योगियों में कर्तव्य को इसलिये भल जाते हैं कि हमें उसकी अकषायता की दृष्टि से भेद होता है। सिद्धयोगी पर्वाह नहीं है या हमारे दुःस्वार्थ में बाधक है तो को कपायवि नहीं रहती जब तक घटना हो इस विस्मरण का कारण असंयम होगा पर अगर तभी तक कषायकालिमा मालम होती है। बाद में इसलिये भूलते हैं कि स्मरण-शक्ति कम है और बहादर हो जाती है या अधिक से अधिक एक जानने की बातों का बोझ ज्यादा है तो इसे असंयम
घंटे में दूर हो जाती है । बहुसाधक के कपायन कहेंगे। अहिंसा का प्रकरण होने से यहाँ मना
वासना एक. दिन से अधिक नहीं रहती वह वत्ति के ज्ञान--सम्बन्धी भेद नहीं बताये गये है।
प्रार्थना के समय या सोते समय या सुबह उठते अकषायता का रूप
समय दिन भर की -बसना हटा देता है भगवती की साधना के अंगों में अकषायता अर्धसाधक व्यक्ति सात दिन तक ही कषायमुख्य और मल्ट अंग है । और इसे ही मन-साधना वासना रखता है । सातदिन में या सप्ताह की
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