Book Title: Sandehdolavali Tika Vidhiratnakarandikakhya
Author(s): Jinduttasuri, Jaysagar Upadhyay
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 13
________________ संदेह नावतो वस्तुवृत्त्या दितीयो नावधर्मो भवतीत्यर्थः, तेन भावधर्मेण युता युक्तास्ते जीवा नवंति स बीजाः, श्ह वीजशब्देन बोधिवीजस्य गृहणाद् बोधिवीजसहिता इत्यर्थः, अतो हेतोः स शुहो निर्मल इत्यर्थः ॥ ११ ॥ धर्मदयस्यापि स्वरूपसंभवावुत्तो, अथ द्रव्यधर्मभावधर्मयोर्मध्ये पूर्व ऽव्यधर्मस्य फलमाह ॥ मूलम् ॥–पढमंमि आबंधो । उक्करकिरिया हो। देवेसु ॥ तत्तो बहुजुकपरंपरान । नरतिरियजाईसु ॥ १२ ॥ व्याख्या-पढमंमि० प्रथमे ऽव्यधर्मे सेव्यमाने आयुर्वधो द्रव्यधर्मप्रसक्तस्येति शेषः, पुरनुष्टेयसामाचारीसमाचरणतो नवति देवेषु, ततो देवभवानंतरं नगवदाझाविराधकत्वेन बहुःखपरंपरा भवंति, क्वेत्याह-नरतिरित्ति नरतिर्यग्जातिषु, जातिशब्दोऽत्र जन्मवचनः, जपलदाणत्वान्नारकजातावपि, पापानुवंधिपुण्यनिबंधनत्वाद् ऽव्यधर्मस्येत्यर्थः ॥ १५ ॥ अथ भावधर्मस्य फलमाह ॥ मूलम् ।।—बीए विमाणवको। पानयबंधो न विङाए पायं ॥ सुखित्तकुले नरजम्म । | सिवगमो होश् अचिरेण ॥ १३ ॥ व्याख्या-बीए द्वितीये भावधर्मे धर्म इत्यर्थः, बासेव्यमान )

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