Book Title: Sandehdolavali Tika Vidhiratnakarandikakhya
Author(s): Jinduttasuri, Jaysagar Upadhyay
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

View full book text
Previous | Next

Page 28
________________ संदेह संसग्गमो यन्ने । घोरवीरं तवं चरे ॥ अवांते श्मे पंच । कझा सवं निरवयं ॥२॥ इति म. | हानिशीथे, एवमन्येष्वप्यागमग्रंथेषु दृष्टव्यमित्यर्थः ॥३१॥ श्दमेव चात्रावश्यकगाथया लेशतः प्राह ॥ मूलम् ॥-पासबाई वंदमाणस्स । नेव कित्ती न निऊरा होश ॥ कायकिोसं एमे य । कुण तह कम्मबंधं च ॥ ३ ॥ व्याख्या-पासबा३० पार्श्वस्थादीन वंदमानस्य नैव कीर्तिरहो पुएयवानयमित्येवंरूपा, नापि निर्जरा कर्मदायलदाणा नवति, किंतु कायक्लेशं शिरोनमनादिना, एव. मेव निरर्थकं करोति पार्श्वस्थादिवंदकः, तथा प्रत्युत कर्मबंधं च करोतीति. चशब्दादाझानंगो १ ऽनवस्था १ मिथ्यात्वं ३ संयमात्मविराधना ४ चेति, तस्मात् श्रावकैः पार्श्वस्थादयो न वंदनीयाः, यतः-केसिपि संजयाणं । केहिंवि गुणेहिं सावगा अहिगा ॥ जम्हा ते देसजई। श्यरे पुण | नभय नघा ॥ १॥ जीवनिकायदया-विवनि नेय दिकिन न गिही ॥ जश्वम्मा चुको | । चुक्को गिहिदाणधम्मान ॥२॥ इत्यर्थः ॥ ३ ॥ ननूत्सर्गतः श्रावकैः पार्श्वस्थादयो न वंद्यते चेन्मारम वदिषत, अपवादतस्तु सुविहितानामिव श्राघानामपि वंद्या नविष्यतीत्यत आह। ॥ मूलम् ॥ जो पुण कारणजाए। जाए वायाश्न नमुक्कारो ॥ कीर सो साहणं । सः |

Loading...

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126