________________
श्री नाथूराम जी प्रेमी
प० चेचरदास जी० दोशी प्रेमीजी बुन्देलखडी है, मै काठियावाडी, उनकी भाषा हिन्दी है, मेरी गुजराती, वे जन्म से दिगम्बर जैन है, में श्वेताम्बर । इतना भेद होते हुए भी हम दोनो में विचार-प्रवाह की अधिक समानता है। अत 'समानशील व्यसनेषु सत्यम् के अनुमार हमारे बीच अन्योन्य अजय मित्रता बनी हुई है। एक समय था जव मै कट्टर साम्प्रदायिक था, यहां तक कि श्वेताम्बर साहित्य के सिवाय इतर किमी भी साहित्य को पढना मेरे लिए पाप-सा था। बनारस म कई नाल रहा । तो भी जिम वृत्ति से श्वेताम्बर मन्दिर में जाता, उस वृत्ति से कभी भी दिगम्बर मन्दिर मे नही गया। कभी गया भी नो दिखावे की भावना से। हमारीपाठशालाकी स्थापना के बाद दिगम्बर पाठगाला, स्याद्वाद महाविद्यालय, कागी की स्थापना हुई। उस समय वम्बई के श्रीमान विद्याप्रेमी श्री माणिकचन्द सेठ काशी पधारे थे और नागों में कम्पनी वाग के सामने दिगम्बर मन्दिर मे दिगम्बर पाठशाला का स्थापन-समारम्भ था। वहां भी हमारी मारी मडली गई थी, परन्तु दिगम्वर श्वेताम्बर दोनो सहोदर भाई है, इस वृत्ति से नहीं। केवल बाह्य उपचार और दिवावे का व्यवहार ही हमारे जाने का कारण था। काशी में मै न्याय,प्रधानत जैन न्याय, व्याकरण और साहित्य पादि पट त्रुका था और प्राकृत अर्थात् मागधी, गौरसेनी भापायो का मेरा अध्ययन पूर्ण हो चुका था। बाद मे मैं यगोविजय-जैन-गन्थमाला के सम्पादन-कार्य में जुट गया। उस समय मै कोई वीस-इक्कीस वर्ष का था। मागधी भाषा का ज्ञान होने के कारण मै श्वेताम्बर मूल जैन-आगमो को स्वय पढने लगा, समझने लगा और कठस्थ भी करने लगा। जव मैने आनाराग आदि अग ठीक तरह से पढे तव मेरे चित्त में परम आह्लाद का अनुभव हुआ और मेरी मारी साम्प्रदायिक कट्टरता एकदम रफूचक्कर हो गई। यद्यपि मैं जैन साधुनो के सहवास में अधिक रहा हूँ, उनकी सेवा भी काफी को है, उनके बताये हुए अनेक-विध क्रियाकाडो मे रस भी लिया है, परन्तु स्वयमेव मूल जैन-आगम पटने पर और उनका मर्म समझने पर मेरी जड-क्रियाकाड में अरुचि एव साधुनो के प्रति अन्ध-भक्ति का लोप हो गया।
और स्वय शोध करने की तरफ लक्ष गया। साघुरो के प्रति व्यक्तिश नहीं, परन्तु समूह सस्था की तरफ मेरी अरुचि हो गई और मुझको स्पष्ट मालूम हुआ कि आगम वचन दूसरे प्रकार के है, पर अपने को आगमानुसारी मानने वाले मघ की प्रवृत्ति अन्य प्रकार की है। प्रचलित क्रियाकाडो का उद्देश्य ही विस्मृत-सा हो गया है। मेरे मन में ये भाव उठने नगे कि लोगों के सामने आगम वचनो को रक्खा जाय और उनका अच्छी तरह अनुवाद करके प्रकाशित किया जाय, जिससे व्यर्थ के आडम्बर के चक्कर में फंसी हुई जनता वस्तु-तत्त्व का विचार कर सके । अव तक मुझको यह मालूम नहीं था कि हम थावक लोग पागमो को स्वय नही पढ़ सकते अथवा आगमो का अनुवाद भाषा मे करना पापमा है, क्योंकि जब मै पाठशाला मे आगमो का अध्ययन करता था तव किमी ने मुझको मना नहीं किया था। अत मैने ठान लिया कि पाठशाला से बाहर निकल कर आगमो के अनुवाद का कार्य ही सर्व प्रथम करूंगा। इन दिनो पूज्य गाजी भारतवर्ष में आये हुए थे और सारे देश के वातावरण में क्रान्ति की लहरे हिलोरे लेने लगी थी। जब मैने ग्रागमा के अनुवाद की प्रवृत्ति का श्रीगणेश किया तो जैन साधुओ ने उसका बडे जोरो से विरोध किया। विरोध क्या रिया, उन प्रवृनि को बन्द करने के लिए भयानक आन्दोलन इन साधुओ ने किये और मुझ पर तो घोर आक्षेपो को वृष्टि होन लगी। मेरे कुटुम्ब वाले और मेरी माता जी भी स्वय कहने लगी कि अनुवाद के काम की अपेक्षा आत्मघात को मर जाना अच्छा है। व्यवहार के क्षेत्र में मेरा प्रथम ही प्रवेश था और मेरे सामने माधु-समाज और श्रावकममाज का निरोप भी भयकर था। तब भी मै अपने निश्चय से टस-से-मसानही हुआ। मैने आगमो के वचनो का जो ग्राम्याद लिया था उसका अनुभव आम जनता भी करे,यही मेरा एक निश्चय था। सेठ पुजाभाई हीराचन्द अहमदानाद बानो ने मेरे निश्चय मे या प्रदान किया। अत उनके महारे मै आगमो के अनुवाद की प्रवृत्ति के लिए बम्बई पाया । यहाँ उम ममय यो प्रमाजी मे मर्व-प्रथम परिचय उनकी हीरावाग वाली दुकान में हुआ। उन्होने मुझको