Book Title: Prayaschitt Vidhan
Author(s): Aadisagar Aankalikar, Vishnukumar Chaudhari
Publisher: Aadisagar Aakanlinkar Vidyalaya

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Page 11
________________ प्रायः साधु लोक, जिस क्रिया में साधुओं का चित्त हो वह प्रायश्चित्त अथवा प्राय अपराध उसका शोधन जिससे हो वह प्रायश्चित्त। प्राय इत्युच्यते लोकश्चितं तस्य मनो भवेत् । तच्चित्तग्राहकं कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् । ९ - धवला १३/५, ४, २६/गा. ९/५९ प्रायः यह पद लोक वाची हैं और पिता से अभिप्राय उसके है। इसलिए उस चित्त को ग्रहण करने वाला कर्म प्रायश्चित्त है, ऐसा समझना चाहिए। और आगे भी कहा है कि प्रायः प्राचुर्येण निर्विकारं चित्तं प्रायश्चित्तम्-बोधो ज्ञानं चित्तमित्यनर्थान्तरम्। -नियमसार । तात्पर्य वृत्ति/११३, ११६ प्रायश्चित्त अर्थात् प्रायः चित्त प्रचुर रूप से निर्विकार चित्त । बोध ज्ञान और चित्त भिन्न पदार्थ नहीं है। आचार्य और भी आगे कहते हैं - प्रायोलोकस्तस्य चितं मनस्तच्छुद्धिकृत्क्रिया। प्राये तपसि वा चित्तं निश्चयस्तन्निरुच्यते । - अनगार धर्मामृत अ. ७/श्लोक ३७ प्रायः शब्द का अर्थ लोक और चित्त शब्द का अर्थ मन होता है। जिसके द्वारा साधर्मी और संघ में रहने वाले लोगों का मन अपनी तरफ से शुद्ध हो जाये उस क्रिया या अनुष्ठान को प्रायश्चित्त कहते हैं। प्रायस् + चित्त + क्त। - पाचन्द्र कोष /पृ. २५८ प्रायस् तपस्या, चित्त-निश्चय । अर्थात् निश्चय संयुक्त तपस्या को प्रायश्चित्त कहते हैं। और इसे सर्वश्रेष्ठ तप भी कहा है और इस प्रायश्चित्त तप के नाम अलग रूप से और भी गिनाये हैं। इसके बारे में कहा गया है कि पायच्छित ति तवो जेण विसुज्झदि हु पुब्बकयपावं। पायच्छित्वं पत्तोति तेण वुत्तं .............।। ३६१।। पोराणकम्मखमणं खिवणं णिज्जरण सोधणं धुमणं । . प्रायश्चित विधान' - १०

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