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प्रवचनसार
conventionally, with each change of mode (paryāya). As the mode (paryāya) changes, the substance (dravya) must change, albeit conventionally. From the the standpoint-of-modes (paryāyārthika naya), origination (utpāda) takes place in the substance (dravya) – asadbhāva-utpāda or asat-utpāda. As gold is referred to as the 'bracelet-gold' or the earring-gold', in the same way, the soul (jiva) is referred to as 'human-soul', 'deva-soul', and 'Siddha-soul'. Thus, in reference to asat-utpāda, it is proper to accord a new form to the substance (dravya) with a change of the mode (paryāya).
दव्वट्ठिएण सव्वं दव्वं तं पज्जयट्ठिएण पुणो । हवदि य अण्णमणण्णं तक्कालं तम्मयत्तादो 2-22॥
द्रव्यार्थिकेन सर्वं द्रव्यं तत्पर्यायार्थिकेन पुनः । भवति चान्यदनन्यत्तत्कालं तन्मयत्वात् ।2-22॥
सामान्यार्थ - [द्रव्यार्थिकेन] द्रव्यार्थिक नय की विवक्षा से [तत् सर्वं] वह समस्त वस्तु [अनन्यत् ] अन्य नहीं है, वही है, अर्थात् नर-नारकादि पर्यायों में वही एक द्रव्य रहता है, [पुनः] और [ पर्यायार्थिकेन] पर्यायार्थिक नय की विवक्षा से [अन्यत् ] अन्यरूप द्रव्य होता है, अर्थात् नर-नारकादि पर्यायों से जुदा-जुदा कहा जाता है क्योंकि [ तत्कालं] नर-नारकादि पर्यायों के होने के समय वह द्रव्य [तन्मयत्वात् ] उस पर्याय-स्वरूप ही हो जाता है।
From the standpoint-of-substance (dravyārthika naya), as the substance (dravya) remains the same, the object (vastu) is ‘notother' (ananya) in different modes (paryāya). From the standpoint-of-modes (paryāyārthika naya), as the object takes the form of the mode (paryāya), it is said to be 'other' (anya) with each change of the mode (paryāya).
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