Book Title: Pravachansara
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp Printers

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Page 324
________________ प्रवचनसार पयदम्हि समारद्धे छेदो समणस्स कायचे?म्मि । जायदि जदि तस्स पुणो आलोयणपुव्विया किरिया ॥3-11॥ छेदुवजुत्तो समणो समणं ववहारिणं जिणमदम्मि । आसेज्जालोचित्ता उवदिटुं तेण कायव्वं ॥-12॥ (जुगलं) प्रयतायां समारब्धायां छेदः श्रमणस्य कायचेष्टायाम् । जायते यदि तस्य पुनरालोचनापूर्विका क्रिया ॥3-11॥ छेदप्रयुक्तः श्रमणः श्रमणं व्यवहारिणं जिनमते । आसाद्यालोच्योपदिष्टं तेन कर्तव्यम् ॥3-12॥ (युगलम् ) सामान्यार्थ - [प्रयतायां] यत्नपूर्वक [ समारब्धायां] आरम्भ हुई [कायचेष्टायां] शरीर की क्रिया के होने पर [ यदि] जो [श्रमणस्य ] मुनि के [छेदः] संयम का भंग [जायते] उत्पन्न हो तो [पुनः] फिर [तस्य] उस मुनि को [आलोचनापूर्विका क्रिया ] जैसी कुछ यत्याचार ग्रंथो में आलोचना-क्रिया कही गई है वैसी ही करनी यह उपाय है। [ छेदप्रयुक्तः श्रमणः ] अंतरंग उपयोगरूप यतिपद जिसके भंग हुआ हो ऐसा मुनि [जिनमते व्यवहारिणं] वीतराग-मार्ग में व्यवहार क्रिया में चतुर [श्रमणं] महामुनि को [आसाद्य] प्राप्त होकर [आलोच्य] और अपने दोष प्रकाशित करके (कह करके) [ तेन] उस महामुनि से [ उपदिष्टं] उपदेश किया गया जो मुनिपद-भंग का दंड वह [ कर्तव्यं ] करना चाहिये। If the breach of proper restraint has occurred due to the activities of the body, though performed carefully, the ascetic must, after confession of the fault, follow the course of expiation as prescribed in the Scripture. If the breach has occurred due to perversion of the cognition (upayoga), the ascetic must approach a worthy head (ācārya), make confession, and take on the chastisement as prescribed by the guru. 263

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