Book Title: Pravachansara
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp Printers

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Page 387
________________ Pravacanasāra सामान्यार्थ - [यः ] जो मुनि [ अहं श्रमणः भवामि ] मैं भी श्रमण हूँ[ इति ] ऐसे अभिमान से [गुणतः अधिकस्य] ज्ञान-संयमादि गुणोंकर उत्कृष्ट महामुनियों से [विनयं ] आदर को [ प्रत्येषकः ] चाहता है, [ यदि] जो [ गुणाधरः ] गुणों को नहीं धारण करने वाला [ भवन्] हुआ [ सः] झूठे गर्व का करने वाला वह [अनन्तसंसारी] अनन्त संसार का भोगने वाला [ भवति ] होता है। The ascetic who lacks merit but due to his vain of being an ascetic expects reverence from another ascetic who is more merited than him, wanders in worldly existence for infinity. Explanatory Note: The ascetic who expects reverence from another ascetic more merited than him, thinking arrogantly that he too is an ascetic, wanders in the world. It is essential to have reverence for ascetics endowed with greater merit. अधिगगुणा सामण्णे वट्टति गुणाधरेहिं किरियासु। जदि ते मिच्छवजुत्ता हवंति पब्भट्ठचारित्ता ॥3-67॥ अधिकगुणाः श्रामण्ये वर्तन्ते गुणाधरैः क्रियासु । यदि ते मिथ्योपयुक्ता भवन्ति प्रभ्रष्टचारित्राः ॥3-67॥ सामान्यार्थ - [ यदि ] जो [ श्रामण्ये ] यतिपने में [अधिकगुणाः ] उत्कृष्ट गुण वाले महामुनि हैं वे [ गुणाधरैः ] गुणोंकर रहित हीन मुनियों के साथ [क्रियासु] विनयादि क्रिया में [ वर्तन्ते ] प्रवर्तते हैं तो [ ते ] वे उत्कृष्ट मुनि [ मिथ्योपयुक्ताः] मिथ्याभावोंकर सहित हुए [ प्रभ्रष्टचारित्राः ] चारित्र-भ्रष्ट [ भवन्ति ] हो जाते हैं। If worthy ascetic, endowed with great merit, gets involved in activities of veneration etc. in company of ascetics who lack merit then even such worthy ascetic adopts false beliefs and ruins his conduct (cāritra). 326

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