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प्रवचनसार
अववददि सासणत्थं समणं दिट्ठा पदोसदो जो हि। किरियासु णाणुमण्णदि हवदि हि सो णट्ठचारित्तो ॥3-65॥
अपवदति शासनस्थं श्रमणं दृष्टवा प्रद्वेषतो यो हि । क्रियासु नानुमन्यते भवति हि स नष्टचारित्रः ॥3-65॥
सामान्यार्थ - [यः] जो मुनि [शासनस्थं] भगवंत की आज्ञा में प्रवृत्त [ श्रमणं] उत्तम मुनि को [ दृष्टवा ] देखकर [ प्रद्वेषतः ] द्वेष-भाव से [ हि ] निश्चयकर [अपवदति ] अनादर कर बुराई करता है [क्रियासु] और पूर्वोक्त विनयादि क्रियाओं में [ न अनुमन्यते ] नहीं प्रसन्न होता [ सः ] वह द्वेषी अविनयी मुनि [ हि ] निश्चय से [ नष्टचारित्रः] चारित्र रहित [भवति ] है।
The ascetic who, on seeing a genuine ascetic following the tenets of the Scripture, derides him out of malice, finds faults in him and does not take delight in performance of his reverential duties certainly ruins own conduct (cāritra).
Explanatory Note: If on seeing a genuine ascetic who abides by the tenets of the Scripture, another ascetic derides him with malice and displays a lack of respect for him, such an ascetic, on account of his degrading passions (kasāya), ruins own conduct (cāritra).
गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि होमि समणो त्ति । होज्नं गुणाधरो जदि सो होदि अणंतसंसारी ॥-66॥
गुणतोऽधिकस्य विनयं प्रत्येषको योऽपि भवामि श्रमण इति । भवन् गुणाधरो यदि स भवत्यनन्तसंसारी ॥3-66॥
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