Book Title: Pravachansara
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp Printers

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Page 353
________________ Pravacanasāra psychic-karmas (bhāvakarma), and the quasi-karmas (nokarma). He does not appreciate that association of these karmas with the soul causes damage to the soul and that these karmas do not constitute the nature of the soul. How can the destruction of the karmas take place in his soul? The ignorant soul cannot affect the destruction of the karmas bound with it. It is, therefore, essential to engage oneself in the study of the Scripture. आगमचक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्वभूदाणि । देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू ॥3-34॥ आगमचक्षुः साधुरिन्द्रियचढूंषि सर्वभूतानि । देवाश्चावधिचक्षुषः सिद्धाः पुनः सर्वतश्चक्षुषः ॥3-34॥ सामान्यार्थ - [साधुः ] मुनि [आगमचक्षुः] सिद्धान्त-रूपी नेत्रों वाला होता है अर्थात् मुनि के मोक्षमार्ग की सिद्धि के निमित्त आगम-नेत्र होते हैं [ सर्वभूतानि] समस्त संसारी जीव [इन्द्रियचक्षूषि] मन-सहित स्पर्शनादि छह इन्द्रियों-रूप चक्षुवाले हैं, अर्थात् संसारी जीवों के इष्ट-अनिष्ट विषयों के जानने के लिए इन्द्रिय ही नेत्र हैं [च ] और [ देवाः ] चार तरह के देव [अवधिचक्षुषः] अवधिज्ञान-रूप नेत्रों वाले हैं, अर्थात् देवताओं के सूक्ष्म मूर्तीक द्रव्य देखने को अवधिज्ञान-रूपी नेत्र हैं लेकिन वह अवधिज्ञान इन्द्रियज्ञान से विशेष नहीं है क्योंकि अवधिज्ञान मूर्त-द्रव्य को ग्रहण करता है और इन्द्रिय-नेत्र भी मूर्तीक को ही ग्रहण करता है, इससे इन दोनों में समानता है [ पुनः] तथा [ सिद्धाः] अष्टकर्म-रहित सिद्धभगवान् [ सर्वतः चक्षुषः ] सब ओर से नेत्रों वाले हैं। The ascetics (muni, śramaņa) have the Scripture, the Doctrine of Lord Jina, as their eyes, the worldly souls have the senses (indriya) as their eyes, the celestial beings (deva) have 292

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