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प्रवचनसार
सामान्यार्थ - [ यदि] जब कि [ ते ] वे [विषयकषायाः ] स्पर्शादिक पाँच विषय, क्रोधादि चार कषाय [शास्त्रेषु ] सिद्धान्त में [ पापं ] पापरूप हैं [इति प्ररूपिताः] ऐसे कहे गये हैं [वा] तो [ तत्प्रतिबद्धाः] उन विषय कषायों से युक्त [ते पुरुषाः ] वे पापी पुरुष अपने भक्तों के [ कथं ] किस तरह [ निस्तारकाः ] तारने वाले [ भवन्ति ] हो सकते हैं? नहीं हो सकते।
The Doctrine of Lord Jina expounds that imperfections like giving in to sense-pleasures (visaya) and passions (kasāya) causes demerit (pāpa); how can those who themselves are sullied by such imperfections help others cross the ocean of worldly existence?
Explanatory Note: Giving in to sense-pleasures (visaya) and passions (kaşāya) are accepted as causes of demerit (pāpa). How can the preceptors, who themselves are sullied by demerit (pāpa), help disciples, whom they call 'auspicious-souls', cross the ocean of worldly existence? How can the fruit be commendable from a noncommendable cause? Those who give in to sense-pleasures (vişaya) and passions (kaşāya) can never be helpful guides for their disciples.
उवरदपावो पुरिसो समभावो धम्मिगेसु सव्वेसु । गुणसमिदिदोवसेवी हवदि स भागी सुमग्गस्स ॥3-59॥
उपरतपापः पुरुषः समभावो धार्मिकेषु सर्वेषु ।
गुणसमितितोपसेवी भवति स भागी सुमार्गस्य 3-59॥ सामान्यार्थ - [ सः] वह [ पुरुषः ] परममुनि [ सुमार्गस्य ] रत्नत्रय की एकता से एकाग्रतारूप मोक्षमार्ग का [भागी] सेवने वाला पात्र [भवति ] होता है जो
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