Book Title: Pravachansara
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp Printers

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Page 382
________________ प्रवचनसार दोनों प्रकार के मुनि [लोकं] उत्तम भव्य जीवों को [ निस्तारयन्ति ] तारते हैं। [ तेषु ] उन दोनों तरह के मुनियों का [ भक्तः ] सेवक महापुरुष [ प्रशस्तं ] उत्तम स्थान को [ लभते ] पाता है। The ascetics (muni, śramaņa) who are rid of the dispositions due to inauspicious-cognition (aśubhopayoga) and are engaged in pure-cognition (śuddhopayoga) or auspicious-cognition (śubhopayoga) help the worthy souls cross the ocean of worldly existence. The one who is devoted to these two kinds of ascetics attains excellent status. Explanatory Note: Such worthy ascetics themselves attain liberation (moksa) and rescue others from mundane existence. Devotion to such ascetics brings about auspicious dispositions in the devotee; even approval of their devotion and service by others is the cause of merit (punya). They are the most worthy recipients (pātra) for devotion and service. दिट्ठा पगदं वत्थु अब्भुट्ठाणप्पधाणकिरियाहिं । वट्टदु तदो गुणादो विसेसिदव्वो त्ति उवदेसो ॥3-61॥ दृष्टवा प्रकृतं वस्त्वभ्युत्थानप्रधानक्रियाभिः । वर्ततां ततो गुणाद्विशेषितव्य इति उपदेशः ॥3-61॥ सामान्यार्थ - [ ततः ] इस कारण जो उत्तम पुरुष हैं वे [ प्रकृतं ] उत्तम [ वस्तु] पात्र को [ दृष्टवा] देखकर [ अभ्युत्थानप्रधानक्रियाभिः ] अभ्युथान – आता हुआ देखकर उठ खड़ा होना - इत्यादि उत्तम पात्र की क्रियाओंकर [ वर्ततां ] प्रवर्ते। [गुणात् ] उत्तम गुण होने से [ विशेषितव्यः] आदर-विनयादि विशेष करना योग्य है [ इति ] ऐसा [ उपदेशः] भगवंतदेव का उपदेश है। ........................ 321

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