Book Title: Pravachansara
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp Printers

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Page 377
________________ Pravacanasāra रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं । णाणाभूमिगदाणि हि वीयाणिव सस्सकालम्मि ॥3-55॥ रागः प्रशस्तभूतो वस्तुविशेषेण फलति विपरीतम् । नानाभूमिगतानि हि बीजानीव सस्यकाले 3-55॥ सामान्यार्थ - [प्रशस्तभूतः] शुभरूप [रागः] रागभाव अर्थात् शुभोपयोग [ वस्तुविशेषेण] पुरुष के भेदकर [विपरीतं] विपरीत कार्य को [ फलति ] फलता है जैसे [ सस्यकाले ] खेती के समय में [ नानाभूमिगतानि ] नाना प्रकार की खोटी भूमि में डाले हुए [ हि ] निश्चय से [ बीजानि इव ] बीज-धान्य विपरीत फल को करते हैं। The auspicious kind of attachment (rāga), depending on the objects of attachment, yields opposing results, just as the seeds sown in different kinds of soils yield opposing results. Explanatory Note: As the seed sown in unsuitable soil does not yield desirable effect, similarly, if the instrumental cause of the auspicious-cognition (śubhopayoga) is not right, the effect is not favourable. Depending on the merit or demerit of the person - the instrumental cause of the auspicious-cognition (śubhopayoga) – the fruit attains merit or demerit. छदुमत्थविहिदवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरदो। ण लहदि अपुणब्भावं भावं सादप्पगं लहदि ॥3-56॥ छद्मस्थविहितवस्तुषु व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरतः । न लभते अपुनर्भावं भावं सातात्मकं लभते ॥3-56॥ ........................ 316

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