Book Title: Pravachansara
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp Printers

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Page 340
________________ प्रवचनसार उवयरणं जिणमग्गे लिंगं जहजादरूवमिदि भणिदं । गुरुवयणं पि य विणओ सुत्तज्झयणं च पण्णत्तं ॥3-25॥ उपकरणं जिनमार्गे लिङ्गं यथाजातरूपमिति भणितम् । गुरुवचनमपि च विनयः सूत्राध्ययनं च प्रज्ञप्तम् ॥3-25॥ सामान्यार्थ - [जिनमार्गे ] सर्वज्ञ वीतरागदेव कथित निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग में [उपकरणं] उपकरण – मुनि के उपकारी-परिग्रह [इति ] इस प्रकार [ भणितं] कहे हैं कि [ यथाजातरूपं लिङ्गं] जैसा मुनि का स्वरूप चाहिये वैसा ही शरीर के द्रव्यलिंग का होना, एक तो यह उपकरण है। [गुरुवचनं अपि] तत्त्व के उपदेशक गुरु के वचनरूप पुद्गलों का ग्रहण, एक यह भी उपकरण है [च] और [विनयः] शुद्धात्मा के अनुभवी महामुनियों की विनय [च] और [ सूत्राध्ययनं] वचनात्मक सिद्धान्तों का पढ़ना, ये भी उपकरण हैं ऐसा [ प्रज्ञप्तं ] कहा है। Lord Jina has expounded that the prescribed form – the body (Sarira)- of the ascetic (muni, Sramana) that is natural-by-birth (nāgnya, yathājāta) is a possession (instrument) for treading the path to liberation. Accepting the verbal discourse of the preceptor too is a possession (instrument). In addition, reverence (vinaya, with help of the physical mind) and study of the Doctrine are possessions (instruments). Explanatory Note: All possessions (instruments) that have not been prohibited in the exception-path (apavāda mārga) help in treading the path to liberation and are, therefore, beneficial to the ascetic (muni, śramaņa). The first such possession (instrument) is the physical body of the ascetic (muni, śramaņa) that is naturalby-birth (nāgnya, yathājāta). The discourse, in form of physical sound (sabda), of the preceptor, and reading (and listening to) the Doctrine, which too is physical in form, are other possessions ........................ 279

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