Book Title: Pravachansara
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp Printers

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Page 335
________________ Pravacanasara payoga) results in impure dispositions. As the rice with hull is not free from reddish dirt, similarly, the ascetic (muni, śramana) with even minute attachment to possessions (parigraha) is not free from impure dispositions. The ascetic (muni, śramana) with even minute attachment to possessions (parigraha) does not get established in pure-cognition (śuddhopayoga); without purecognition (suddhopayoga) how can omniscience be attained? The ascetic (muni, śramana) who wishes to get rid of non-restraint (asamyama) due to impure-cognition (aśuddhopayoga) must discard completely attachment to possessions (parigraha). किध तम्मि णत्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स । तध परदव्वम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि ॥3-21॥ कथं तस्मिन्नास्ति मूर्च्छा आरम्भो वा असंयमस्तस्य । तथा परद्रव्ये रतः कथमात्मानं प्रसाधयति ॥3-21॥ सामान्यार्थ – [ तस्मिन् ] उस परिग्रह के होने पर [ मूर्च्छा ] ममत्व परिणाम [ वा ] अथवा उस परिग्रह के लिये [ आरम्भः ] उद्यम से क्रिया का आरम्भ और [ तस्य ] उस ही मुनि के [ असंयमः ] शुद्धात्माचरण - रूप संयम का घात [ कथं ] किस प्रकार[ नास्ति ] न हो, अवश्य ही होगा । [ तथा ] उसी प्रकार जिसके परिग्रह है वह मुनि [ परद्रव्ये ] निज - रूप से भिन्न परद्रव्य - रूप परिग्रह में [ रतः ] रागी होकर [ कथं ] किस तरह [ आत्मानं ] अपने शुद्ध स्वरूप का [ प्रसाधयति ] एकाग्रता से अनुभव कर सकता है? नहीं कर सकता है। Since attachment to possessions (parigraha) must result in infatuation (mūrcchā) and initiation (ārambha) of activity, how will it not result in non-restraint (asamyama) in the ascetic 274

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