Book Title: Pravachansara
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp Printers

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Page 266
________________ प्रवचनसार nature; I adopt pure-cognition (śuddhopayoga). This effort of mine, to establish myself in soul-nature through pure-cognition (śuddhopayoga), is my preparation for getting rid of all causes of union of foreign matter with my soul. It is the path to liberation. It is, in fact, myassurance for theattainment of liberation (moksa). It is the pure state of my soul (jīva), rid of the dispositions of the doer (kartā) and the enjoyer (bhoktā), and without influx (āsrava) or bondage (bandha) of karmas. It is the state of the liberated soul. णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं । कत्ता ण ण कारयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं 2-68॥ नाहं देहो न मनो न चैव वाणी न कारणं तेषाम् । कर्ता न न कारयिता अनुमन्ता नैव कर्तृणाम् 2-68॥ सामान्यार्थ - [अहं ] मैं जो शुद्ध-चिन्मात्र स्व-पर-विवेकी हूँ सो [ देहः न] शरीर-रूप नहीं हूँ [ मनः न ] मनयोग-रूप भी नहीं हूँ [ च ] और [ एव ] निश्चय से [वाणी न] वचनयोग-रूप भी नहीं हूँ। [ तेषां कारणं न] उन काय-वचन-मन का उपादान-कारण-रूप पुद्गल-पिण्डकर भी नहीं हूँ। [कर्ता न] उन तीन योगों का कर्ता नहीं हूँ, अर्थात् मुझ कर्ता के बिना ही वे योग्य पुद्गल-पिण्डकर किये जाते हैं [कारयिता न] उन तीन योगों का प्रेरक होकर कराने वाला नहीं हूँ - पुद्गल-द्रव्य ही उनका कर्ता है [कर्तृणां] और उन योगों के करने वाले पुद्गल-पिण्डों का [अनुमन्ता न एव] अनुमोदक भी नहीं हूँ - मेरी अनुमोदना के बिना ही पुद्गल-पिण्ड उन योगों का कर्ता है। इस कारण मैं परद्रव्य में अत्यंत मध्यस्थ हूँ। I- the pure soul (jiva)-am not of the nature of the body; I am not of the nature of the mind; and certainly, I am not of the nature of 205

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