Book Title: Pravachansara
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp Printers

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Page 309
________________ Pravacanasāra एवं जिणा जिणिंदा सिद्धा मग्गं समुट्ठिदा समणा । जादा णमोत्थु तेसिं तस्स य णिव्वाणमग्गस्स 2-107॥ एवं जिना जिनेन्द्राः सिद्धा मार्ग समुत्थिताः श्रमणाः । जाता नमोऽस्तु तेभ्यस्तस्मै च निर्वाणमार्गाय ॥2-107॥ सामान्यार्थ - [ एवं ] इस पूर्वोक्त प्रकार से [ मार्ग ] सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयी शुद्धात्म-प्रवृत्तिरूप मोक्षमार्ग के प्रति [ समुत्थिताः] उद्यमी होकर प्राप्त हुए जो [जिनाः] उसी भव से मोक्ष जाने वाले सामान्य चरमशरीरी जीव [जिनेन्द्राः] अर्हन्त पद के धारक तीर्थंकर और [श्रमणाः] एक, दो पर्याय धारण कर मोक्ष जाने वाले ऐसे मोक्षाभिलाषी मुनि हैं वे [ सिद्धाः ] मोक्ष में सिद्ध अवस्था को [ जाताः] प्राप्त हुए हैं [ तेभ्यः] उन सबको [च] तथा [ तस्मै निर्वाणमार्गाय] शुद्धात्मा की प्रवृत्तिमयी अनुभव-रूप मोक्षमार्ग को [ नमः अस्तु] द्रव्य-भावरूप नमस्कार होवे। My salutation to the Omniscient Lords (the Kevali), the Fordmakers (the Tīrthańkara), and the Most Worthy Ascetics (śramaņa) treading the aforementioned path that leads to the status of the Liberated Soul (the Siddha), and also to the path to liberation (moksa, nirvana). Explanatory Note: All the Omniscient Lords (the Kevalī), the Ford-makers (the Tirthankara), and the Most Worthy Ascetics (śramaņa) who have attained the status of the Liberated Soul (the Siddha) have only followed the path that relies on meditation on the pure soul. There is no other path that leads to liberation. This is the essence. My salutation to the Liberated Souls (the Siddha), ever experiencing the supreme bliss appertaining to the pure soul; salutation also to the path to liberation that consists in experiencing the pure soul-substance. ........................ 248

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