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जधजादरूवजादं उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्धं । रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्मं हवदि लिंगं ॥3-5॥
मुच्छारंभविजुत्तं जुत्तं उवजोगजोगसुद्धीहिं । लिंगं ण परावेक्खं अपुणब्भवकारणं जोन्हं ॥36॥ (जुगलं )
यथाजातरूपजातमुत्पाटितकेशश्मश्रुकं शुद्धम् । रहितं हिंसादितोप्रतिकर्म भवति लिङ्गम् ॥13-5॥
प्रवचनसार
मूर्च्छारम्भवियुक्तं युक्तमुपयोगयोगशुद्धिभ्याम् । लिङ्गं न परापेक्षमपुनर्भवकारणं जैनम् 113 - 61 ( युगलम् )
सामान्यार्थ – [ यथाजातरूपजातं ] जैसा निर्ग्रथ अर्थात् परमाणुमात्र परिग्रह से भी रहित मुनि का स्वरूप होता है वैसे स्वरूप वाला [ उत्पाटितकेशश्मश्रुकं ] लोंच कर डाले हैं शिर-दाढ़ी के बाल जिसने ऐसा [ शुद्धं ] समस्त परिग्रह - रहित होने से निर्मल [ हिंसादितः रहितं ] हिंसा आदि पापयोगों से रहित और [ अप्रतिकर्म ] शरीर के सम्हालने की अथवा सजाने की क्रियाकर रहित ऐसा [ लिङ्गं] मुनीश्वर द्रव्यलिंग [ भवति ] होता है। तथा [ मूर्छारम्भवियुक्तं ] परद्रव्य में मोह से उत्पन्न ममतारूप परिणामों के आरम्भ से रहित [ उपयोगयोगशुद्धिभ्यां ] ज्ञान - दर्शनरूप चैतन्य परिणामस्वरूप उपयोग और मन-वचन-काय की क्रियारूप योग इनकी शुद्धि अर्थात् शुभाशुभ-रूपरंजकता से रहित भावरूप उपयोग शुद्धि और योगपरिणति की निश्चलतारूप योगशुद्धि - इस तरह दो प्रकार की शुद्धताकर [ युक्तं ] सहित [ न परापेक्षं ] पर की अपेक्षा नहीं रखने वाला [ अपुनर्भवकारणं ] और मोक्ष का कारण ऐसा [ जैनं लिङ्गं ] जिनेन्द्रकर कहा हुआ भावलिंग होता है।
The external-marks (dravyalinga) of the ascetic are that he adopts the nude form that is natural-by-birth (nāgnya, yathājāta), pulls out his hair of the head and the face by hand, being pure, he is free from activities that cause injury, and does
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