________________
विसयकसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठगोट्ठिजुदो । उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो 12-661
विषयकषायावगाढो दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्ठियुतः । उग्र उन्मार्गपर उपयोगो यस्य सोऽशुभः 112 - 661
प्रवचनसार
सामान्यार्थ – [ यस्य ] जिस जीव का [ उपयोगः ] अशुद्ध चैतन्य विकार परिणाम [ विषयकषायावगाढः ] इन्द्रिय-विषय तथा क्रोधादि - कषाय इनसे अत्यंत गाढ़ हो, [ दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्ठियुतः ] मिथ्या शास्त्रों का सुनना, आर्त- रौद्र अशुभ ध्यानरूप मन, पराई निंदा आदि चर्चा इनमें उपयोग सहित हो, [ उग्रः ] हिंसादि आचरण के करने में महा उद्यमी हो और [ उन्मार्गपरः ] वीतराग सर्वज्ञ-कथित मार्ग से उलटा जो मिथ्यामार्ग है उसमें लगा हो [ सः ] वह परिणाम [ अशुभः ] अशुभोपयोग कहा है।
The soul (jiva) whose cognition (upayoga) is strongly inclined towards sense-gratification and passions ( kasāya) like anger, who listens to fallacious doctrines, contemplates on inauspicious dispositions, engages in destructive discussions, has cruel tendency, and holds false beliefs, engenders inauspiciouscognition (aśubhopayoga).
Explanatory Note: On fruition of severe perception-deluding (darśanamohanīya) and conduct - deluding (cāritramohanīya) karmas, the soul (jiva) engages in inauspicious and wicked attachment (asubharaga). It shows no interest in the Supreme Beings, holds false beliefs, engages in sense-gratification, listens to fallacious doctrines; on the whole, its conduct is lamentable. Such soul is ever engaged in wicked activities and engenders inauspicious-cognition (aśubhopayoga).
......
203