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प्रवचनसार
ever leave consciousness (cetanā). The soul (jīva), therefore, has consciousness (cetanā) in all its dispositions. Lord Jina has said that consciousness (cetanā) has three kinds of transformation: 1) knowledge-transformation (jñānapariņati), 2) karmatransformation (karmapariņati), and 3) fruit-of-karmatransformation (karmaphalapariņati).
णाणं अत्थवियप्पो कम्मं जीवेण जं समारद्धं । तमणेगविधं भणिदं फलं त्ति सोक्खं व दुक्खं वा 2-32॥
ज्ञानमर्थविकल्पः कर्म जीवेन यत्समारब्धम् । तदनेकविधं भणितं फलमिति सौख्यं वा दुःखं वा ॥2-32॥
सामान्यार्थ - [अर्थविकल्पः ] स्व-पर का भेद लिये जीवादिक पदार्थों को भेद सहित तदाकार जानना वह [ ज्ञानं ] ज्ञानभाव है, अर्थात् आत्मा का ज्ञानभावरूप परिणमना, उसे ज्ञानचेतना कहते हैं और [ जीवेन] आत्मा ने [ यत् समारब्धं] अपने कर्तव्य से समय-समय में जो भाव किये हैं [तत्कर्म] वह भावरूप कर्म है [अनेकविधं] वह शुभादिक के भेद से अनेक प्रकार है, उसी को कर्मचेतना कहते हैं [ वा ] और [ सौख्यं] सुखरूप [ वा] अथवा [ दुःखं] दुःखरूप [ फलं] उस कर्म का फल है [ इति भणितं] ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
Lord Jina has said that the transformation of the soul (jiva) into dispositions (bhāva) of knowledge that makes distinction (vikalpa) between objects (artha), the self (jīva) and the non-self (ajīva), is knowledge-consciousness (jñānacetanā). The activity (karma) of the soul (jīva) in form of dispositions (bhāva) of various kinds is the karma-consciousness (karmacetanā or bhāvakarma). And, the fruit of karmas in form of either
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