Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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प्रस्तावना •
तब दूसरी ओर मात्यन्तिक समन्वय बुद्धि ने चैतन्यमात्र पारमार्थिकवाद को जन्माया । समन्वय बुद्धि ने अन्त में चैतन्य तक पहुँच कर सोचा कि जब सर्व व्यापक चैतन्य तत्त्व है तब उससे भिन्न जड़ तत्व की वास्तविकता क्यों मानी जाय ? और जब कोई जड़तत्त्व अलग नहीं तब यह दृश्यमान परिणमन- धारा भी वास्तविक क्यों ? इस विचार ने सारे भेद और जड़ जगत् को मात्र काल्पनिक मनवाकर पारमार्थिक चैतन्यमात्रवाद की स्थापना कराई ।
उक्त विचार क्रम के सोपान इस तरह रखे जा सकते हैं
१ जड़ मात्र में परिणामिनित्यता ।
२ जड़ चेतन दोनों में परिणामिनित्यता ।
३ जड़ में परिणामिनित्यता और चेतन में कूटस्थनित्यता का विवेक ।
४ ( अ ) कूटस्थ और परिणामि दोनों नित्यता का लोप और मात्र परिणामप्रवाह की सत्यता ।
( ब ) केवल कूटस्थ चैतन्य की ही या चैतन्यमात्र की सत्यता और तद्भिन्न सबकी काल्पनिकता या असत्यता ।
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जैन परम्परा दृश्य विश्व के अलावा परस्पर अत्यन्त भिन्न ऐसे जड़ और चेतन अनन्त सूक्ष्म तत्वों को मानती है । वह स्थूल जगत को सूक्ष्म जड़ तत्वों का ही कार्य या रूपान्तर मानती है । जैन परंपरा के सूक्ष्म जड़ तत्त्व परमाणुरूप हैं । पर वे आरम्भवाद के परमाणु की • अपेक्षा अत्यन्त सूक्ष्म माने गये हैं । परमाणुवादी होकर भी जैन दर्शन परिणामवाद की तरह परमाणुओं को परिणामी मानकर स्थूल जगत को उन्हीं का रूपान्तर या परिणाम मानता है । वस्तुतः जैन दर्शन परिणामवादी है । पर सांख्य योग तथा प्राचीन वेदान्त आदि के परिणा
वाद से जैन परिणामवाद का खास अन्तर है । वह अन्तर यह है कि सांख्य-योग का परिणामवाद चेतन तत्त्व से अस्पृष्ट होने के कारण जड़ तक ही परिमित है और भर्तृप्रपञ्च आदि का परिणामवाद मात्र चेतनतत्त्वस्पर्शी है । जब कि जैन परिणामवाद जड़-चेतन, स्थूलसूक्ष्म समग्र वस्तुस्पर्शी है अतएव जैन परिणामवाद को सर्वव्यापक परिणामवाद समझना चाहिए । भर्तृप्रपञ्चका परिणामवाद भी सर्व व्यापक कहा जा सकता है फिर भी उसके और जैन के परिणामवाद में अन्तर यह है कि भर्तृप्रपञ्च का 'सर्व' चेतन ब्रह्ममात्र है तद्भिन्न और कुछ नहीं । जब कि जैन का 'सर्व' अनन्त जड़ और चेतन तत्त्वों का है । इस तरह आरम्भ और परिणाम दोनों वादों का जैन दर्शन में व्यापकरूप में पूरा स्थान तथा समन्वय है । पर उसमें प्रतीत्यसमुत्पाद तथा विवर्तवाद का कोई स्थान नहीं है । वस्तुमात्र को परिणामी नित्य और समानरूप से वास्तविक सत्य मानने के कारण जैनदर्शन प्रतीत्यसमुत्पाद तथा विवर्तवाद का सर्वथा विरोध ही करता है जैसा कि न्याय-वैशेषिक सांख्य- योग आदि भी करते हैं । न्याय-वैशेषिक सांख्य योग आदि की तरह जैन दर्शन चेतनबहुत्ववादी है सही, पर उसके चेतन तत्त्व अनेक दृष्टि से भिन्न स्वरूप वाले हैं । जैन दर्शन न्याय, सांख्य, आदि की तरह चेतन को न सर्वव्यापक द्रव्य मानता है और न विशिष्टाद्वैत आदि की तरह अणु
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